अहस्ता यदपदी वर्धत क्षा शचीभिर्वेद्यानाम् । शुष्ण परि प्रदक्षिणिद् विश्वायवे निशिश्नथः ॥
। – ऋ०१० । २२ । १४
क्षा – पृथिवी । पृथिवी के गौ, ग्मा, ज्मा आदि २१ नाम निघण्टु । १ में उक्त हैं। इनमें एक नाम क्षा है । शची-कर्म, क्रिया, गति । निघण्टु में अपः, अन: आदि २६ नाम कर्म के हैं, इनमें शची का भी पाठ है। शुष्ण यह नाम आदित्य अर्थात् सूर्य का भी है, यथा- “शुष्णस्यादित्यस्यशोषयितुः ” निरुक्त ५ । १६ पृथिवी पर के रस को सूर्य शोषण किया करता है, अतः सूर्य का नाम शुष्ण है। प्रदक्षिणित्- घूमती हुई । विश्वायवे – विश्वास के लिए । अथमन्त्रार्थ – (क्षा) यह पृथिवी (यद्) यद्यपि ( अहस्ता) हस्तरहिता और ( अपदी) पैर से ही शून्य है तथापि (वर्धत) बढ़ रही है अर्थात् हाथ-पैर न होने पर भी यह चल रही है । (वेद्यानाम्+ शचीभिः ) वेद्य-जानने योग्य, जो परमाणु उनकी क्रियाओं से प्रेरित होकर चल रही है अथवा स्वपृष्ठस्थ विविध पर्वत आदि पदार्थों और मेघादिकों की क्रियाओं के साथ-साथ घूम रही है । किसकी चारों तरफ प्रदक्षिणा कर रही है । इस पर कहते (शुष्णम्+ परि) सूर्य के परितः चारों तरफ (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणा करती हुई घूम रही है। आगे परमात्मा से प्रार्थना है कि ( विश्वायवे + निशिश्नथ: ) हे परमात्मन् ! हम मनुष्यों के विश्वास के लिए आपने ऐसा प्रबन्ध रचा है । भाष्यकार सायण के समय में पृथिवी का भ्रमण- विज्ञान सर्वथा विलुप्त हो गया था, अतः ऐसे-ऐसे मन्त्र के अर्थ करने में इनकी बुद्धि चकरा जाती है । सायण कहते हैं-
यद्वा शुष्णस्याच्छादनार्थं हस्तपादवर्जिता काचित्पृथिवी वेदितव्यानामसुराणां मायारूपैः कर्मभिः शुष्णमसुरं वेष्टित्वा प्रदक्षिणं यथा भवति तथाऽवस्थिताऽवर्धत तदानी तां मायोत्पा- दितां पृथिवीं विश्वायवे सर्वव्यापकस्य मरुद्गणस्य प्रवेशनार्थं
निशिश्नथः ॥
भाव इसका यह कि असुरों ने अपनी माया से एक पृथिवी बनाई और बनाकर कहा कि शुष्ण एवं इन्द्र का युद्ध हो रहा है, इस हेतु तू शुष्ण की चारों तरफ वेष्टित हो प्रदक्षिण करती रहो जिससे इन्द्र यहाँ न पहुँच सके । इन्द्र को यह खबर मालूम हुई । मरुद्गणों को पहले वहाँ भेजा। वे वहाँ नहीं पहुँच सके। तब इन्द्र ने आकर उस पृथ्वी को ताड़ना दी, वह भाग गई। मरुद्गण वहाँ बैठ शुष्ण को छिन्न-भिन्न करने लगे। अब आप समझ सकते हैं कि सीधा-साधा अर्थ छोड़ ये भाष्यकार कैसा अज्ञातार्थ लिखते हैं । अब द्वितीय ऋचा पर ध्यान दीजिये, जिससे विस्पष्ट हो जाता है कि केवल पृथिवी ही नहीं किन्तु पृथिवी जैसे सकल ग्रह नक्षत्र आदि भी स्थिर नहीं हैं ।
कतरा पूर्वा कतरा परायोः कथा जाते कवयः को विवेद | विश्वंमना विभ्रतोयद्धनाम विवर्त्तेते अहनी चक्रियेव ॥
ऋ० १।१८५ ११
इस ऋचा के द्वारा अगस्त्य ऋषि पूछते हैं कि ( अयो: ) इस पृथिवी और द्युलोक में से ( कतरा + पूर्वा) कौन सा आगे है और ( कतरा + परा) कौन सा पीछे है या कौन सा ऊपर और कौन सा नीचे है । (कथा + जाते) कैसे ये दोनों उत्पन्न हुए ( कवयः +क: वि + वेद) हे कविगण ? इसको कौन जानता है । इसका स्वयं उत्तर देते हैं । (यद्+ ह+ नाम) जो कुछ पदार्थ जात इन दोनों से सम्बन्ध रखता है । उस (विश्वम्) सबको ये दोनों (बिभ्रतः ) धारण कर रहे हैं अर्थात् सब पदार्थ को अपने साथ लेकर (वि + वर्त्तेते) घूम रहे हैं, ( अहनी + चक्रिया + इव) जैसे दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन आता ही रहता है तथा जैसे रथ का चक्र ऊपर-नीचे होता रहता है तद्वत् ये दोनों द्यावा – पृथिवी एक-दूसरे के ऊपर-नीचे हो रहे हैं । अतः आगे-पीछे का इसमें विचार नहीं हो सकता । जब पृथिवी और सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, दूर-दूर भ्रमण कर रहे हैं तब यह नहीं कहा जा सकता है कि इन दोनों में ऊपर-नीचे कौन हैं ? यह ऋचा चक्र के दृष्टान्त से विस्पष्ट कर देती है कि पृथिवी अवश्य घूम रही है । अब तृतीय ऋचा लिखता हूँ जो और भी विस्फुट उदाहरण पृथिवी के भ्रमण का है ।
सविता यन्त्रैः पृथिवीमरम्णादस्कम्भने सविता द्यामहत् । अश्वमिवाधुक्षद्ध निमन्तरिक्षमतूर्ते बद्ध सविता समुद्रम् ॥
– ऋ० १०।१४९ । १
( सविता ) सूर्य ( यन्त्रैः ) रज्जु के समान अपने आकर्षण से (पृथिवीम् ) पृथिवी को ( अरम्णात्) बाँधता है और (अस्कम्भने) अनारम्भ, निराधार आकाश में ( द्याम् + अहत्) अपने परितः स्थित द्युलोकस्थ अन्यान्य ग्रहों को भी दृढ़ किये हुए हैं। आगे एक लौकिक उदाहरण देकर समझाते हैं, (अतूर्ते) टूटने के योग्य नहीं जो आकर्षणरूप रज्जु है उसमें (बद्धम् ) बंधे हुये (धुनिम्) नाद करते हुए (समुद्रम्) बड़े जोर से भागने हारे, पृथिवी, शनि, शुक्र, मंगल, बुध आदि ग्रह रूप जो लोक है उसको (अन्तरिक्षम् ) निराधार आकाश में (अश्वम्+ इव + अधुक्षत्) घोड़े के समान घुमा रहा है अर्थात् जैसे नूतन घोड़े को शिक्षित करने के लिए लगाम पकड़ सवार खड़ा हो जाता और उस घोड़े को अपनी चारों तरफ घुमाया करता है । वैसा ही यह सूर्यरूप सवार अश्व सदृश पृथिव्यादि लोक को अपनी चारों तरफ घुमा रहा है । इससे बढ़कर विस्फुट उदाहरण क्या हो सकता है, अतः उपरिष्ठ मन्त्रों से दो बातें सिद्ध हैं कि-
१ – पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है और
२- सूर्य के आकर्षण से यह इधर-उधर नहीं हो सकती, अपने मार्ग को छोड़ अणुमात्र भी खिसक नहीं सकती । अन्तरिक्षम् सप्तमम्यर्थ में प्रथमा है, समुद्र – समुद्रवति – जो बहुत जोर से दौड़ता है ।
सूर्य की परिक्रमा कितने दिनों में कर लेता है इस पर कहते हैं । द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत । तस्मिन् त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलाश ॥
– ऋ०१ । १६४ । ४८
चक्रम्) यहाँ वर्ष ही चक्र है, क्योंकि यह रथ के पहिया के समान क्रमण अर्थात् पुनः पुनः घूमता रहता है। उस चक्र में (द्वादश+ प्रधयः ) जैसे चक्र में १२ छोटी-छोटी अरे प्रधि-कीलें हैं। वैसे सम्वत्सर में बारह मास अर्थात् मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन होते हैं । (त्रीणि+नभ्यानि ) इसके
नभ्य अर्थात् नाभि स्थान में रहने हारे दारु विशेष समान ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त तीन ऋतु हैं । (कः +उ+तत्+चिकेत) इस तत्त्व को कौन जानता है । ( तस्मिन् + साकम् + शंकवः) उस वर्ष में कीलों सी (त्रिशता + षष्ठिः ) ३०० और ६० दिन ( अर्पिता: ) स्थापित हैं । ( न + चलाचलाश:) वे २६० दिन रूप कीलें कभी विचलित होने वाली नहीं हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि एक वर्ष में (३६०) तीन सौ साठ दिन होते हैं । पृथिवी के भ्रमण से ही वे दिन बनते हैं, अतः ३६० दिन में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा कर लेती है । पुनः इसी विषय को दूसरे तरह से कहते हैं ।
द्वादशारं न हि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य । आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंसतिश्चातस्थुः ॥
– ऋ० १ । १६४ । ११
(ऋतस्य) सत्य स्वरूप काल का (चक्रम्) सम्वत्सर रूप चक्र ( द्याम्+ परि) आकाश में चारों तरफ (वर्वर्ति) घूम रहा है ( द्वादशारम्) जिसमें मास रूप १२ अर हैं । ( नहि + तत् + जराय) वह चक्र कभी जीर्ण नहीं होता । (अग्ने) हे परमात्मन् ! आपने कैसा अद्भुत प्रबन्ध रचा है । (अत्र) इस चक्र में (पुत्राः) पुत्र के समान ( सप्त + शतानि + विशंतिः+च आतस्थुः ) ७०० और २० स्थिर हैं। वर्ष में ३६० दिन और ३६० रात्रि मिलाकर ७२० अहोरात्र होते हैं । इतने अहोरात्र में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । यद्यपि ३६५ दिनों के लगभग में यह पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । तथापि यह चन्द्र मास के हिसाब से ३६० दिन कहे गये हैं । चन्द्रमास में एक अधिक मास मानकर हिसाब पूरा किया जाता है । इस अधिक मास का भी वर्णन वेद में पाया जाता है ।