पञ्जाब के जिला हुशियारपुर में एक कस्बा है- हरयाणा। इस कस्बे ने आर्य समाज के दो उपदेशक लेखक उत्पन्न किए हैं। एक का नाम है- माई भगवती और दूसरे हैं- श्री हरिवंशलाल मेहता जी
श्री मेहता जी का जन्म 1917 ईस्वी में हुआ था। भारत सरकार के संचार मन्त्रालय में कार्य करने के पश्चात् जब वे सेवा-निवृत्त हुए तो वे उत्तरप्रदेश के लखनऊ में निवास करने लगे। श्री आचार्य हरिशरण सिद्धान्तालङ्कार से प्रेरणा पाकर आप वेदाध्ययन करते रहे हैं तथा कई वैदिक पत्रिकाओं में लेख भी छपाते रहे हैं। आपकी रचनाएं दिव्योपदेश, सुमधुर पुष्पाञ्जलि, भक्त की जीवनचर्या नाम से प्रकाशित हुई।
माई भगवती का जन्म सन् 1844 ईस्वी में एक उच्च क्षत्रियकुल में हुआ था। तब भारत भर में स्त्री-शिक्षा का नाम तक न था। तब पढ़ने लिखने में पुरुष भी बहुत पिछड़े हुए थे। आठवीं कक्षा तक पढ़ चुके पुरुष बहुत आदरणीय पद ग्रहण करते थे । कुछ पुरुष मन्दिरों में पुजारियों से थोड़ी-बह़ुत कथित धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। स्त्रियों का पढ़ना तो अत्यन्त हेय कार्य माना जाता था। माता भगवती जी का पूर्व नाम पार्वती था। उनके परिवार ने बड़े साहस से निर्णय लेकर उन्हें एक पण्डित जी के पास पढ़ने के लिए भेजना आरभ किया । माता ने थोड़े ही दिनों में कई ग्रन्थों का स्वाध्याय कर लिया। अन्धविश्वासियों व संकीर्ण दृष्टिकोण वाले समाज के कथित ठेकेदारों ने उनकी शिक्षा का विरोध किया व उन्हें अनेक प्रकार के दुःख भी पहुँचाए। कई-कई दिनों तक उन्हें भूखी-प्यासी भी रहना पड़ा परन्तु उन्होंने सभी कष्टों को वीरतापूर्वक सामना किया।
माता भगवती का नवीन वेदान्त की ओर झुकाव होता चला गया परन्तु इसी बीच कई शंकाएं भी उनके दिमाग में नवीन वेदान्त के सिद्धान्तों पर उत्पन्न हुई जो समुचित समाधान न पा सकीं। संयोग से उनको कालान्तर में ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ मिला तथा उन्होंने इसका गहन-गभीर अध्ययन किया। परिणाम यह निकला कि माता जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती को एक पत्र भेजकर उन शंकाओं के समाधान करने की प्रार्थना की। महर्षि दयानन्द के दर्शन करने की प्रबल इच्छा भी माता जी ने इस पत्र में प्रकट की। तब महर्षि मुबई में थे। पत्र पाकर महर्षि ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। माता भगवती जी अपनेभाई श्री चूनी लाल जी के साथ जब महर्षि के चरणों में उपस्थित हुई तो महर्षि अपने खैमे में ही रहे। बीच में माई भगवती ने अपनी शंकाएँ प्रस्तुत कीं, जिनका समाधान महर्षि जी ने कर दिया। माताजी का मन पूर्ण सन्तुष्ट हुआ तो उन्होंने महर्षि से अपने भविष्य के जीवन के लिए मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया। महर्षि ने उन्हें कहा-‘‘इस समय स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय है। यदि तुम करना चाहती हो तो अपने क्षेत्र में जाकर स्त्रियों की शिक्षा, उन्नति तथा उनके कर्तव्य व अधिकारों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो।’’
माता भगवती जी ने महर्षि दयानन्द जी के आदेशानुसार शेष जीवन इन्हीं कार्यों में लगाया। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वे महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या बनीं। आर्यसमाज के प्रथम भजनोपदेशक (पं. अमीं चन्द मेहता को जन्म देने का गौरव पंजाब को मिला तो प्रथम आर्य भजनोपदेशिका माता भगवती भी पंजाब की ही सुपुत्री थीं। दोनों ने महर्षि के दर्शन किए थे व दोनों को महर्षि की प्रेरणा व आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ था। माई जी की बुद्धि विशाल थी। थोड़े ही समय में बहुत से ग्रन्थ पढे तथा जीवन भर पढ़ने-लिखने में ही लगी रहीं। उन्हें तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज ने बहुत कष्टदिए परन्तु माता ने धैर्यपूर्वक सबका सामना किया । पंजाब ही नहीं, उत्तर भारत के नगर-नगर में जाकर व्यायान दिए तथा स्त्री-शिक्षा का प्रचार भी किया। उनके स्वरचित ललित व मनोहर भजन श्रोताओं पर भरपूर प्रभाव डालते थे। इनका एक संग्रह विरजानन्द यन्त्रालय, लाहौर से ‘‘अबला मति वेगरोधक संगीत’’ नाम से सन् 1893 ई. में प्रकाशित हुआ था।
माई भगवती जी ने अपने कस्बे में एक कन्या पाठशाला भी खोली जिसमें वे स्वयम् अवैतनिक अध्यापिका रहीं। पढ़ाई के अतिरिक्त प्रतिदिन सत्संग भी चलता था। इससे नारियों ने माई जी के उपदेशों द्वारा बहुत लाभ प्राप्त किया। माई जी का देहान्त सन् 1899 ईस्वी में 55 वर्षों की अवस्था में हुआ था। माता जी ने मरने से पूर्व अपनी सपूर्ण सपत्ति का सदुपयोग करने व नारी – शिक्षा के प्रचार-प्रसार में ही लगाने की वसीयत करके एक समिति को सौंप दी थी। जो लोग उनका-विरोध करते थे, माई जी के अन्तिम दिनों में उनके विचार बदले व भगवती जी के कार्यों व योग्यता के आगे नतमस्तक हो गए थे। जब माई भगवती जी की शवयात्रा आरा हुई तो सहस्रों पुरुष उनके शव पर पुष्प वर्षा करते तथा सामूहिक रूप में जय देवी, जयदेवी बोलते हुए मरघट तक गए थे। महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्य की पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन्
-चूना भट्टियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर