महर्षि दयानन्द ने सप्रमाण घोषणा की थी कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है एवं यही धर्म व सभी सत्य विद्याओं के आदि ग्रन्थ होने से सर्वप्राचीन एवं सर्वमान्य हैं। यदि ऐसा है तो फिर वेद में देश की राज्य व शासन व्यवस्था कैसी हो, इस पर भी विचार मिलने ही चाहियें। महर्षि दयानन्द की मान्यता सर्वथा सत्य है और वेद एवं इसके अनुपूरक वैदिक साहित्य में राजकीय शासन व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। महर्षि दयानन्द रचित वैदिक विचारधारा के सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के छठें समुल्लास से हम वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के शासन व्यवस्था सम्बन्धी विचार व मान्यतायें प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मान्यतायें ऐसी हैं कि इसमें वर्तमान व्यवस्था के सभी गुण विद्यमान हैं। इसके साथ ही बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनको अपनाने व उनका पालन करने से वर्तमान व्यवस्था की अनेक खामियां वा कमियां दूर की जा सकती हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि वेद एवं मनुस्मृति के आधार पर ही सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक आर्यावर्त्त वा भारत ही नहीं अपितु संसार के सभी देशों का राज्य संचालन हुआ है।
राजर्षि मनु जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चारों आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के व्यवहार का युक्तिसंगत कथन किया है। इसके पश्चात् उन्होंने राजधर्मों वा राजनियमों का विधान किया है। राजा को कैसा होना चाहिये, कैसा राजा होना सम्भव है तथा किस प्रकार से राजा को परमसिद्धि प्राप्त हो सकती है, उसका वर्णन भी किया है। महर्षि मनु लिखते हैं कि जैसा परम विद्वान् ब्राह्मण होता है वैसा ही सुशिक्षित विद्वान क्षत्रिय को होना योग्य है कि जिससे कि वह सब राज्य वा देश की रक्षा यथावत् करें। ऋग्वेद के मण्डल 3 सूक्त 38 मन्त्र 6 में कहा गया है कि ‘त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि।।’ ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में अग्नि नाम के ऋषि को इस मन्त्र द्वारा यह उपदेश करते हैं कि राजा और प्रजा के पुरुष (देश की समस्त जनता) मिल कर सुख प्राप्ति और विज्ञान वृद्धिकारक राजा–प्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार के लिए तीन सभा प्रथम विद्यार्यसभा, द्वितीय धर्मार्यसभा तथा तृतीय राजार्यसभा नियत वा गठित करें। राजा, प्रजा व तीनों सभायें समग्र प्रजा वा मनुष्यादि प्राणियों को बहुत प्रकार की विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें। अर्थववेद काण्ड 15 के मन्त्र ‘तं सभा च समितिश्च सेना च।’ और अथर्ववेद के ही काण्ड 16 के मन्त्र ‘सभ्य सभां मे पाहि ये च सभ्याः सभासदः।’ में कहा है कि इस प्रकार से राजा व तीन सभाओं द्वारा निर्धारित राजधर्म का पालन तीनों सभायें सेना के साथ मिलकर करें व संग्राम आदि की व्यवस्था करें। राजा तीनों सभाओं के सभासदों को आज्ञा करे कि हे सभा के योग्य मुख्य सभासदों ! तुम मेरी सभा व सभाओं की धर्मयुक्त व्यवस्था का पालन करो। यहां वेद कहते हैं कि तीनों सभाओं के सभासदों को सभेश राजा की धर्मयुक्त आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना चाहिये।
वेद मन्त्रों की इन शिक्षाओं पर टिप्पणी कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति वा राजा को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिए किन्तु राजा जो सभापति, तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राजसभा के आधीन रहें। यदि ऐसा न करोगे तो ‘राष्ट्रमेव विश्या हन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः।। विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति न पुष्टं पशुं मन्यत इति।।’ (शतपथ ब्राह्मण काण्ड 13/2/33) यदि प्रजा से स्वतन्त्र व स्वाधीन राजवर्ग रहे तो वह राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करे और अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके प्रजा का नाशक होता है अर्थात् वह राजा प्रजा को खाये जाता है। इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिये। जैसे मांसाहारी सिंह हृष्ट पुष्ट पशु को मार कर खा लेते हैं, वैसे स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता, श्रीमानों व धनिकों को लूट खूंट अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा।
अथर्ववेद के मन्त्र 6/10/98/1 के अनुसार राजा को मनुष्य समुदाय में परम ऐश्वर्य का सृजनकर्त्ता व शत्रुओं को जीतने वाला होना चाहिये। वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होना चाहिये। इसके साथ ही राजा ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिये जो पड़ोसी व विश्व के राजाओं से अधिक योग्य वा सर्वोपरि विराजमान व प्रकाशमान होने के साथ सभापति होने के अत्यन्त योग्य हो तथा वह प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभावयुक्त, सत्करणीय, समीप जाने और शरण लेने योग्य सब का माननीय होवे। इससे यह आभास मिलता है कि राजा में एक सैनिक व सेनापति के भी उच्च गुण होने चाहिये। यजुर्वेद के मन्त्र 9/40 में विद्वान राज-प्रजाजनों को सम्मति कर ऐसे व्यक्ति को राजा बनाने को कहा गया है कि जो बड़े चक्रवर्ति राज्य को स्थापित करने में योग्य हो, बड़े-बड़े विद्वानों को राज्य पालन व संचालन में नियुक्त करने योग्य हो तथा राज्य को परम ऐश्वर्ययुक्त, सम्पन्न व समृद्ध कर सकता हो। वह सर्वत्र पक्षपातरहित, पूर्ण विद्या विनययुक्त तथा सब प्रजाजनों का मित्रवत् होकर सब भूगोल को शत्रु रहित करे। ऋग्वेद के मन्त्र 1/39/2 में ईश्वर ने उपदेश किया है कि हे राजपुरुषों ! तुम्हारे आग्नेयादि अस्त्र, तोप, बन्दूक, धनुष बाण, तलवार आदि वर्तमान के नामान्तर आणविक हथियार, मिसाइल व अन्य घातक सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं की पराजय करने और उन्हें युद्ध से रोकने के लिए प्रशंसित और दृढ़ हों और तुम्हारी सेना प्रशंसनीय होवे कि जिस से तुम सदा विजयी हों। ईश्वर ने यह भी शिक्षा भी की है कि जो निन्दित अन्यायरुप काम करते हैं उस के लिए पूर्व चीजें अर्थात् अस्त्र-शस्त्र न हों। इस पर महर्षि दयानन्द ने यह टिप्पणी की है कि जब तक मनुष्य धार्मिक (सत्य व न्यायपूर्ण आचरण करने वाले) रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। यहां धार्मिक होने का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि मत को माननेवाला न होकर सच्चे मानवीय गुण सत्यवादी, देशहितैषी, देशप्रेमी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त व ज्ञानी आदि अनेकानेक गुणों से युक्त मनुष्य हैं।
मनुस्मृति के सातवें अध्याय में तीनों सभाओं के अध्यक्ष राजा के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वह सभेश राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता, वायु के समान सब को प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारा, पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, सूर्य के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक, अन्धकार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक हो। वह अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, वरुण अर्थात् बांधनेवाले के सदृश दुष्टों को अनेक प्रकार के दण्ड देकर बांधनेवाला, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, धनाध्यक्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे। राजा में यह गुण भी होना चाहिये कि वह सूर्यवत् प्रतापी व सब के बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपाने वाला हो। वह राजा ऐसा हो कि जिसे पृथिवी में वक्र दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ न हो। राजा ऐसा हो कि जो अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बंधनकर्त्ता तथा बड़े ऐश्वर्यवाला होवे, वही सभाध्यक्ष, सभेष वा राजा होने के योग्य है।
सच्चे राजा के गुण बताते हुए वेदभक्त महर्षि मनु कहते हैं कि जो दण्ड है वही राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता और सब का शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन है। वही राजा व दण्ड प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसी लिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं। यदि राजा दण्ड को अच्छे प्रकार विचार से धारण करे तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है। विना दण्ड के सब वर्ण अर्थात् प्रजा दूषित और सब मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाती है। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का राजा व राज्य व्यवस्था के विरुद्ध प्रकोप हो सकता है। दण्ड के बारे में मनुस्मृति में बहुत बातें कही र्गइं हैं। यह भी कहा है कि दण्ड बड़ा तेजोमय है जिसे अविद्वान् व अधर्मात्मा धारण नहीं कर सकता। तब ऐसी स्थिति में वह दण्ड धर्म से रहित राजा व उसके कुटुम्ब का ही नाश कर देता है। यह भी कहा गया है कि जो राजा आप्त पुरुषों के सहाय, विद्या, सुशिक्षा से रहित, विषयों में आसक्त व मूढ़ है, वह न्याय से दण्ड को चलाने में समर्थ कभी नहीं हो सकता।
मनुस्मृति में विधान है कि सब सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार, दण्ड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का आधिपत्य और सब के ऊपर वर्तमान सर्वाधीश राज्यधिकार इन चारों अधिकारों में सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण पूर्ण विद्यावाले धर्मात्मा जितेन्द्रिय सुशीलजनों को स्थापित करना चाहिये अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान और राजा ये चार सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान होने चाहिये। न्यून से न्यून दश विद्वानों अथवा बहुत न्यून हो तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उस धर्म अर्थात् व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे। मनुस्मृति में आगे कहा गया है कि सभा में चारों वेद, हैतुक अर्थात कारण अकारण का ज्ञाता न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों। जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के जानने वाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें उस सभा की की हुई व्यवस्था का भी कोई उल्लंघन न करे। यदि एक अकेला, सब वेदों का जाननेहारा व द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों लाखों करोड़ों मिल के जो कुछ व्यवस्था करें उस को कभी न मानना चाहिये। जो ब्रह्मचर्य, सत्यभाषदणादि व्रत, वेदविद्या वा विचार से रहित जन्ममात्र से अज्ञानी वा शूद्रवत् वर्तमान हैं उन सहस्रों मनुष्यों के मिलने से भी सभा नहीं कहलाती। जो अविद्यायुक्त मूर्ख वेदों के न जाननेवाले मनुष्य जिस धर्म को कहे, उस को कभी न मानना चाहिये क्योंकि जो मूर्खों के कहे हुए धर्म के अनुसार चलते हैं, उनके पीछे सैकड़ों प्रकार के पाप लग जाते हैं। इसलिये तीनों विद्यासभा, धर्मसभा और राज्यसभाओं में मूर्खों को कभी भरती न करें। किन्तु सदा विद्वान और धार्मिक पुरुषों का ही स्थापन करें।
हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रस्तुत वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के आधार पर कुछ थोड़े से विचारों व मान्यताओं को प्रस्तुत किया है। हम पाठकों से निवेदन करते हैं कि वह इस पूरे अध्याय को पढ़ कर लाभान्वित हों। आज की व्यवस्था में कुछ बातें देश, काल व परिस्थिति के अनुसार अच्छी हैं व कई अच्छी नहीं भी हैं। देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेता व शासक संस्कृत से अनभिज्ञ हैं एवं वेद आदि शास्त्रों को शायद ही किसी बड़े नेता ने देखा व पढ़ा हो। उनका वेदादि सत्य शास्त्रों के प्रति श्रद्धा का अभाव भी दृष्टिगोचर होता है अन्यथा वह उनका नियमित अध्ययन करते। इसे भी देश का दुर्भाग्य कह सकते हैं कि करोड़ों वर्षों के ज्ञान व अनुभवों से लाभ नहीं लिया जा रहा है। वेद एवं शास्त्रों की अनेक उपादेय बातों का लाभ लिया जाना चाहिये। देश के सभी राजनीति से जुड़े लोगों को सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास का गम्भीरता से अध्ययन कर देशहित की बातों को वर्तमान व्यवस्था में सम्मिलित करना चाहिये जिससे देश व समाज को लाभ हो। यह याद रखना समीचीन होगा कि वेदों में राजधर्म का वर्णन ईश्वर से प्रेरित है जिसको राजर्षि मनु ने राजधर्म विषयक अपने ग्रन्थ मनुस्मृति का आधार बनाया। उन्हीं विचारों को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत कर न केवल भारत अपितु विश्व का उपकार किया है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में पूरा विश्व इससे लाभान्वित होगा।
–मनमोहन कुमार आर्य
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