कुल्लियाते आर्य मुसाफिर का नया संस्करणः– सन् 1930 तक का आर्यसमाज का इतिहास इस बात की साक्षी देता है कि आर्य समाज के अधिकांश प्रचारक व उपदेशक तथा निष्ठावान् लेखक , शास्त्रार्थ महारथी पाँच ग्रन्थों का गहन अध्ययन करके सफल उपदेशक, लेखक गवेषक तथा शास्त्रार्थ महारथी बने। ये पाँच ग्रन्थ थेः-
- सत्यार्थप्रकाश, 2. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, 3. कुल्लियाते आर्य मुसाफिर, 4. पं. लेखराम लिखित ऋषि जीवन तथा 5. दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह। यहाँ प्रसंगवश यह भी बता दें कि आरभिक युग में मुनिवर पं. गुरुदत्त जी तथा मास्टर दुर्गाप्रसाद जी के साहित्य ने अंग्रेजी पठित वर्ग पर वैदिक धर्म का गूढ़ा रंग चढ़ाया।
वर्तमान में पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वालों ने पं. लेखराम जी के साहित्य तथा उद्देश्य के बारे में बहुत भ्रम प्रसारित कर दिया है। यह लिखा गया कि पण्डित जी ने मिर्जाई मत के खण्डन में अनेक पुस्तकें लिखीं। यह सर्वथा मिथ्या कथन है। पण्डित जी ने अधिकतर पुस्तकें वैदिक सिद्धान्तों के मण्डन में लिखी हैं। गिनती की कुछ पुस्तकें विधर्मियों के उत्तर में लिखी हैं। उन दिनों ब्राह्मसमाज ने वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने के खण्डन तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त के खण्डन का बहुत प्रचार किया। अंग्रेजी पठित वर्ग को इस जाल से निकालने वाले सबसे बड़े विचारक पं. लेखराम जी ही थे।
एक प्रश्न का उत्तर देकर हम आगे कुल्लियाते आर्य मुसाफिर के नये हिन्दी संस्करण पर अपनी प्रतिक्रिया या विचार रखेंगे। कुछ सज्जन यह कहेंगे कि संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान न होने पर भी पं. लेखराम वैदिक धर्म व दर्शन के इतने बड़े और अधिकारी विद्वान् कैसे बन गये? हमारा उत्तर है कि पूर्व जन्मों के गहरे संस्कारों का यह फल था। पूज्य पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक का भी यह मत था।
कुल्लियाते आर्य मुसाफिर के उर्दू में दो संस्करण छपे। कुछ पुस्तकें एक-एक दो बार पृथक् भी छपती रहीं। हिन्दी भाषा में पं. शान्तिप्रकाश जी की कृपा से पंजाब सभा ने दो भागों में कुछ पुस्तकें प्रकाशित कीं। इससे पहले भी कुछ सज्जनों ने पण्डित जी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद छपवाया। पंजाब सभा वाला हिन्दी अनुवाद अब पुनः छपेगा। इसमें प्रूफ आदि की कई भयंकर अशुद्धियाँ रह गई हैं। प्रूफ पढ़ते समय तथा सपादन करते हुए यथा साव ग्रन्थ को बढ़िया ढंग से पाठकों तक पहुँचाने का भरपूर श्रम किया जायेगा।
पण्डित जी के सूक्ष्म व मौलिक तर्क, युक्तियाँ व चिन्तन जिन पर स्वामी दर्शनानन्द जी, देहलवी जी, पं. चमूपति जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, उपाध्याय जी, पं. लक्ष्मण जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी प्रेम, ठाकुर अमरसिंह तथा पं. शािन्तप्रकाश जी मुग्ध थे उन युक्तियों को प्रमुखता से प्रचारित करने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा।
पण्डित लेखराम जी की ऊहा व युक्तियों की विधर्मियों ने भी समय-समय पर बहुत प्रशंसा की है। अनेक सुयोग्य व्यक्ति पं. लेखराम जी का साहित्य पढ़कर ही धर्मच्युत होने से बचे। हैदराबाद के प्रधान मन्त्री राजा सर किशनप्रसाद को पं. लेखराम जी के तर्क देकर मुसलमान बनने से बचाया गया। सपादन में ऐसी सब महत्त्वपूर्ण घटनाओं का यथा-प्रसंग उल्लेख किया जायेगा।
महात्मा मुंशीराम जी ने ठीक ही लिखा है कि पं. लेखराम जी के साहित्य से पहले मुंशी इन्द्रमणि जी के ग्रन्थों की भी धूम थी परन्तु इन दोनों की शैली में अन्तर क्या था? यह जानने व बता सकने वाले विद्वानों व गवेषकों का आर्य समाज में अब लोप सा हो गया है। ऐसे ही सर सैयद अहमद खँा, डॉ. इकबाल की कोटि के मुस्लिम नेता भी पं. लेखराम जी की लौह लेखनी से लाभान्वित होते रहे। इस विषय की भी इस संस्करण में आवश्यक जानकारी दी जायेगी। आर्य समाज के सभी बड़े-बड़े विद्वानों के सुझावों को स्वागत किया जावेगा। ऐसे ग्रन्थ कभी-कभी ही छपते हैं सो इसे अधिक-से-अधिक उपयोगी बनाया जायेगा। पण्डित जी की तार्किकता की दो घटनायें अत्यन्त संक्षेप से देना उपयोगी रहेगा।
नागपुर में जमाते इस्लामी के एक युवा मिशनरी से इस लेखक की धर्म चर्चा की व्यवस्था की गई। तब होशंगाबाद के स्व. श्री यज्ञेन्द्र जी तथा सागर विश्वविद्यालय के एक स्वर्गीय संस्कृतज्ञ विद्वान् भी वहाँ हमें सुन रहे थे। उसे कहा गया कि तुम मिट्टी से घड़ा, घड़े से मिट््टी, प्याला व गमले का और बर्फ से जल, जल से भाप, मेघ, वर्षा और फिर पुनः बर्फ का पुनर्जन्म तो मान रहे हो। जड़ ज्ञानशून्य जल का पुनर्जन्म मानते हो परन्तु चेतन ज्ञानवान् जीव का पुनर्जन्म नहीं मानते?
इस पर विश्वविद्यालय के माननीय गुरुकुलीय स्नातक ने कहा, ‘‘मैं गुरुकुल में पढ़ा। बहुत शास्त्रीय साहित्य पढ़ा परन्तु यह तर्क पहली बार ही सुना है। यह अकाट्य है।’’
तब उस सज्जन को बताया गया कि यह पं. लेखराम जी की कृपा का प्रसाद है। ऐसे ही गुजरात के सतपंथियों के लिए कई विद्वानों से लेख मंगवाये गये। इस सेवक के लेख को विशेष उपयोगी मानकर प्रसारित किया तो प्रतिक्रियायें अच्छी मिलीं। श्री कल्याण भाई ने हमें यह जानकारी दी तो उन्हें कहा, ऐसा लेख पं. लेखराम जी की परपरा के विद्वान् मान्य शरर जी तथा जिज्ञासु जी ही लिख सकते थे। जो पं. लेखराम जी के साहित्य सागर में डुबकी लगायेगा, वही ऐसे रत्न प्राप्त कर सकेगा।
‘सिंध सभा’ पत्रिका के सपादक ने पं. लेखराम जी पर जी भर कर लिखा है परन्तु उनकी पुस्तकों तक आर्य समाज पहुँच ही न पाया। ऐसे ही ………….., श्री अनरवरशेख, मौलाना अदुल्ला मेमार, मौलवी सनाउल्ला जी, मौलाना रफीक दिलावरी के साहित्य के महत्त्वपूर्ण अंश पाद टिप्पणियों में आने चाहिये। ऐसा हमारा मत है। जिन्होंने सेवक से यह सेवा लेने का मन बनाया है, वे क्या निर्णय लेते हैं? यह जान कर इस कार्य को जीवन की इस सांझ में सहर्ष करुँगा। इस विनीत के सामने अर्थ के लोभ व लाभ का प्रश्न ही नहीं। यह अपने लिये जीवन मरण का प्रश्न है। यह सौभाग्य का विषय है कि आर्य समाज ने यह दायित्व सौंपा है। इस संस्करण के साथ पण्डित जी के जीवन का बलिदान पर कितने पृष्ठ लिखे जायें? यह भी आर्य विद्वान् व आर्य जनता सोच कर सूचित करे।
अपने घर को भली प्रकार से जानोः– पं. चमूपति जी एक युवक हवनलाल मेहता की रचनायें कुछ पत्रों में पढ़कर उससे मिलने को उत्सुक हुए। युवक का नाम ही बता रहा था कि यह आर्य समाजी होगा। पण्डित जी पेशावर गये तो उसके घर का पता करके उसे मिलने गये, वह घर पर नहीं था। मौलवी के पास अरबी पढ़ने गया था। उसे जब पता चल कि श्री पण्डित जी उसके घर उसे मिलने आये तो वह भागा-भागा उनके दर्शन करने समाज में पहुँचा। पण्डित जी ने छूटते ही कहा, ‘‘क्या दूसरों के घरों में ही घूमते हो? अपने घर को भी तो भली प्रकार से जानो।’’ यह प्रसंग हवनलाल जी ने स्वयं ही इस लेखक को सुनाया।
हमारे साथ प्रायः यही कुछ होता है । एक ने पूछा, ‘‘क्या आपने स्वामी दयानन्द और वेद, अदुल गफू र की पुस्तक देखी है। दूसरा कहता है, मुसलमानों ने हक प्रकाश व मुकदस रसूल पुस्तकें छपवा दी।’’ पता नहीं ये भाई हमारी परीक्षा लेते हैं या मुसलमानों के प्रचार तन्त्र के प्रचार में शक्ति लगाते हैं। अरे भाई! आप दिन-रात आर्य साहित्य के सृजन व उत्तर देने के कठिन कार्य में जुटे आर्य विद्वानों के साहित्य को स्वयं पचाओ व फैलाओ फिर जो कार्य नहीं हुआ, उसे करने को कहो। गभीर अध्ययन करके स्वामी आत्मानन्द जी के स्वप्न साकार करो।
– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116