हमारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया गया है, क्योकि वेद में कहा गया है – ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर१ अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है। ‘दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते२ , ‘न स सखा यो न ददाति सख्ये३ , पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि४, शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः५ इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई दुरुपयोग न हो सके।
प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण है। न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है।
न विद्यया केवला तपसा वापि पात्रता।
यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम्।। ६
दान के सम्पूर्ण फल की प्रप्ति सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को चाहिए कि वह अपात्र को दान कदापि न दे, क्योंकि
गोभूतिहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।
नापात्रे विदुषा किंचिदात्मनः श्रेय इच्छता।।७
जिस समय जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस समय उसे वही वस्तु देनी चाहिए। यदि जो मनुष्य इस प्रकार दान देते है तो उनको वेद कहता है कि – ‘एतस्य वाऽक्षरस्य शासने ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति८ ऐसे दान देने वाले मनुष्य इस परमपिता परमेश्वर के शासन में सदैव प्रशंसा को प्राप्त होते है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज कहते है कि –
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणम्।।९
यज्ञ, दान तथा तप इन तीन सत्कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। यज्ञ, दान, तप मनुष्यों को पवित्र व पावन बनाने वाले हैं। श्रद्धा एवं सामथ्र्य से दान के सत्य स्वरूप को जानकर किया गया दान लोक-परलोक दोनों में ही कल्याण करने वाला होता है।
जब यदि मन में धन संग्रह की प्रवृत्ति जागृत हो गई तो समझो वो अपने मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यत्र किसी अन्य लक्ष्य की ओर आकृष्ट हो गया है।
इसीलिए कहा गया है कि-
वृत्तिसप्रोचमन्विच्छेन्नेहेत धनविस्तरम्।
धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते।।१॰
ब्राह्मण को भी अपनी आवश्यकता पूर्ति लायक धन ही दान स्वरूप लेना चाहिए। धन-संग्रह का लोभ नहीं करना चाहिए। अब यह जानने की आवश्यकता है कि दान में कौन-सी वस्तु देनी चाहिए। जब हम वैदिक वाङ्मय में निहारते है तो हमें ज्ञात होता है कि – जिस व्यक्ति को जिस समय, जिस वस्तु की आवश्कता हो, उसे उस समय उसी वस्तु का दान देना चाहिए। दान की यदि कोई सच्ची पात्रता है तो वो है जिसे यथोचित समय पर यथोचित पदार्थ मिले, जैसे कोई भूखा हो तो उसे भोजनादि से तृप्त करना चाहिए, प्यासे को पानी पिलाना चाहिए, वस्त्रहीन को वस्त्र देने चाहिए, रोगी को ओषधी देनी चाहिए, विद्याभ्यासी को विद्या का दान कराना चाहिए इत्यादि परन्तु लिप्सता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रसंग में एक दृष्टांट उद्धृत कर रहा हूं- एक दिन एक व्यक्ति महात्मा गाॅंधी के पास अपना दुखडा लेकर पहुंचा। उसने गांधी जी से कहा-बापू! यह दुनिया बड़ी बेईमान है। आप तो यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने पचास हजार रूपये दान देकर धर्मशाला बनवायी थी पर अब उन लोगों ने मुझे ही उसकी प्रबन्धसमिति से हटा दिया है। धर्मशाला नहीं थी तो कोई नहीं था, पर अब उस पर अधिकार जताने वाले पचासों लोग खड़े हो गये हैं। उस व्यक्ति की बात सुनकर बापू थोड़ा मुस्कराये और बोले-भाई, तुम्हें यह निराशा इसलिये हुई कि तुम दान का सही अर्थ नहीं समझ सके। वास्तव में किसी चीज को देकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा दान नहीं है। यह तो व्यापार है। तुमने धर्मशाला के लिये दान तो दिया, लेकिन फिर तुम व्यापारी की तरह उससे प्रतिदिन लाभ की उम्मीद करने लगे। वह व्यक्ति चुपचाप बिना कुछ बोले वहां से चलता बना। उसे दान और व्यापार का अन्तर समझ में आ गया।
अब हमें यह जानना चाहिए कि दान कैसे करना चाहिए इसके लिए तैत्तिरीयोपनिषद् में अवलोकन करते हैं कि ‘श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्।११ जो कुछ भी दान में दिया जाये श्रद्धापूर्वक दिया जाना चाहिए । क्योंकि बिना श्रद्धा के किये हुए दान असत् माना गया है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।१२
श्रद्धा पूर्वक देना चाहिये क्योंकि सारा धन तो उस परमपिता परमेश्वर का ही है। इसलिए उनकी सेवा में धन लगाना मेरा कर्तव्य है। जो कुछ मैं दान कर रहा हूं वह थोड़ा है, इस संकोच से दान देना चाहिये। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये। भय के कारण भी दान देना चाहिए परन्तु जो कुछ भी दिया जाय विवेकपूर्वक निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर देना चाहिए। ‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे’१३ इस प्रकार दिया गया दान परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने में अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बन जाता है।
कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि यज्ञ, दान आदि पुण्ययुक्त कर्मों को करने से हम दरिद्र हो जाते है, हमारा धन, वैभव समाप्त हो जाता है तो मैं उन लोगों से कहना चाहॅंुगा कि दान करने से धन एवं विद्या की निरन्तर वृिद्ध होती है, क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि-
मूर्खो हि न ददात्यर्थानिह दारिद्रî शंकया।
प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थानमुत्र तस्य ननु शंकया।।१४
अर्थात् दान देने से धन समाप्त हो जाऐगा या दरिद्रता आयेगी यह तो मूर्खों की सोच होती है। मूर्ख लोग दरिद्रता की आशंका में वशीभूत होकर दान न देकर पुण्य से वंचित रहते है और सदैव दुखों को भोगते रहते हैं।
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते।।
दरिद्रता को दूर करने का अमोघ शस्त्र है दान। दरिद्रता आदि दुःखों से दूर रहने का यहीं एकमात्र साधन है। दानशील पुरुष या स्त्री किसी भूखे, प्यासे, तिरस्कृतों का पालन-पोषण करके उन्हे तृप्त करते है तो वो सदा प्रसन्नता को प्राप्त करते है। वे सदा ही अपने जीवन में आनन्दित रहते है।
दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।१५
धन की तीन गतियां होती है – दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति धन का दान व भोग नहीं करता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होती है।
हमारे शास्त्रों में धन की सबसे अच्छी गति दान है। दान देने से हमारा धन पात्र के पास पहुंच गया और उसकी जरुरी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इसीलिए यह श्रेष्ठ गति है। अगर हम दान न देकर उसका भोग करेंगे तो आवश्यक-अनावश्यक कर्मों में व्यय होगा। यदि खर्च ही नहीं करेंगे तो तीसरी गति अर्थात् नाश को प्राप्त होगा। जैसे-जूए में हार जाना, चोरी हो जाना आदि। अतः सर्वोत्तम गति दान ही सिद्ध होती है। क्योंकि दान के माध्यम से अत्यन्त आवश्यकता वाले के उद्देश्य की पूर्ति होती है।
इसप्रकार दान देना हमारा कर्तव्य कर्म है-यह समझकर देना चाहिए। जहां जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब दिया जाय एवं देश, काल तथा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सुपात्र को ही दिया जाये।
सन्दर्भ सूची:-
१. ऋग्वेद-३.२४.५।
२. ऋग्वेद-१.१२५.६।
३. ऋग्वेद-१॰.११७.४।
४. ऋग्वेद-५.५१.१५।
५. ऋग्वेद-१॰.१८.२।
६. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰॰।
७. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰१।
८. वेद।
९. गीता-१८.५।
१॰. कूर्मपुराण।
११. तैत्तिरीयोपनिषद्-१.११।
१२. गीता-१७.२८।
१३. गीता-१७.२॰।
१४. स्कन्दपुराण-२.६३।
१५. पंचतन्त्र।