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धर्मान्तरण (इतिहास के परिप्रेक्ष्य में) – – सत्येन्द्र सिंह आर्य

ईसवी सन् 2014 में जब से मोदी सरकार ने केन्द्र में सत्ता सभाली है तब से धर्मान्तरण का मुद्दा समाचार पत्रों सहित संचार माध्यमों में बहस का विषय बना हुआ है। हिन्दी समाचार पत्रों के संजय गुप्त और ए. सूर्यप्रकाश जैसे वरिष्ठ और यथार्थवादी पत्रकारों को छोड़कर अधिकांश लोगों का लेखन और विमर्श सतही प्रकृति का और पक्षपातपूर्ण रहा है और सच्चाई से मुँह छिपाता दिखाई पड़ता है। उत्तरप्रदेश में उच्च न्यायालय जब कहता है कि एक निश्चित कालावधि में न्यायालय में पंजीकृत 400 अन्तरजातीय (वास्तव में विभिन्न धर्मों वाले) विवाहों में लड़के सभी इस्लाम मतानुयायी हैं और लड़कियाँ सब हिन्दू हैं तो इस मामले में यह देखा जाना चाहिए कि कहीं कुछ धोखाधड़ी, छल-कपट तो नहीं है। तब कांग्रेस, बसपा, सपा, कयुनिष्टों सहित सारे तथाकथित सैकुलरवादी मौन साध जाते हैं। विदेशी और सरकारी पैसे पर अपना एन.जी.ओ. चलाने वाले स्वयभू बुद्धिजीवी और संचार माध्यम भी चुप रहने में अपना भला समझते हैं। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त विदेशी ईसाई पादरी को भारत से निष्कासित करने का आदेश देता है तो सोची समझी नीति के तहत सब स्वार्थी और वोट बैंक के लालची राजनेता चुप्पी लगा जाते हैं। गैर मुस्लिमों का इस्लामीकरण, बलात् धर्म परिवर्तन और इस्लाम की आक्रामकता  का मुद्दा हैदराबाद सहित कश्मीर से केरल तक जग-जाहिर है परन्तु उस पर कहीं भी कोई किसी प्रकार की आलोचनात्मक टिप्पणी करने का साहस नहीं जुटा पाता। न्यायपालिका यदाकदा किसी जनहित याचिका के अन्तर्गत ऐसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का संज्ञान ले लेती है।

हिन्दू जाति अपनी जातिगत दुर्बलताओं के कारण शतादियों से छुआछूत, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच के रोग से ग्रसित रही है। स्वाध्याय-शून्य जन्मना पण्डित वर्ग अपने हठ और धर्म के क्षेत्र में व्यवस्था (फतवा) देने के अपने विशेषाधिकार के कारण किसी हिन्दू के मुसलमान या ईसाई बन जाने पर उसे पुनः हिन्दू धर्म में वापस लेने का घोर विरोधी रहा है। यह स्थिति स्वाधीनता प्राप्ति के बीसों वर्ष बाद तक यथावत् रही है। भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)से वे हिन्दू नर-नारी जिन्हें वहाँ उसी समय कलमा पढ़ाकर मुसलमान बनाया गया था, राष्ट्र के स्वाधीन होने पर अपना सब कुछ गवाँकर यहाँ आए। ऐसे कुछ लोगों ने दिल्ली आकर प्रसिद्ध हिन्दू नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी से सपर्क किया और कहा कि वे पुनः हिन्दू धर्म में लौटना चाहते हैं। उस समय हिन्दुओं के सर्वोच्च नेता (स्वामी हरिहरानन्द) करपात्री जी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कह दिया कि हमारे शास्त्र इस बात कहीं अनुमति नहीं देते । ऐसा लगता है कि संघ वालों को अब लगा होगा कि यह भूल थी, यदि उसी बात पर अड़े रहे तो हिन्दू जाति का नाम शेष होने में कुछ ही दशादियाँ लगेंगी।

इस पृष्ठभूमि में सभवतः आगरा आदि में कुछ लोगों ने हिन्दू धर्म में वापसी की इच्छा जताई हो और उसे ‘‘घरवापसी’’ का नाम देकर संधियों ने कुछ प्रोपैगेण्डा किया हो तो संचार माध्यमों में सारे सैकुलरिस्टों ? बुद्धिजीवियों? ने तूफान मचा दिया। दूसरी ओर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, छोटानागपुर, मध्यप्रदेश, केरल और पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दुओं के ईसाईकरण का महाभियान चल रहा है उस पर इनका ध्यान नहीं जाता और न कोई कुछ बोलता है। सत्य बात कहने का उनमें साहस नहीं होता। इस (धर्मान्तरण) विषय पर निष्पक्षता के साथ यथार्थ के धरातल पर और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विचार होना चाहिए। सतही तौर पर लीपापोती करने से कुछ हल नहीं निकल सकेगा।

वर्तमान समय में विभिन्न मत-मतान्तरों को भी धर्म का नाम देकर धर्म शद को बहुवचन के रूप में प्रयोग करने की परपरा चल पड़ी है। महात्मा जरदुश्त, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, ईसामसीह और मुहमद हजरत के जन्म से पूर्व इनके द्वारा  चलाये गये मत- पंथों का कहीं नामो-निशान नहीं था। परन्तु मानवीय मर्यादाओं के रूप में कुछ नियम और व्यवहार की मान्यताएँ तो उस समय भी थीं और वे तब से थीं जब से मानव जाति इस धरा पर है और वे मानव-मात्र के लिए हित-साधक, उपयोगी और ग्राह्य थीं, हैं और रहेंगी। आप्त पुरुष उस बात को यह कहकर परिभाषित करते थे कि ‘‘पक्षपात रहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा और जो वेदों से अविरुद्ध है, वह धर्म है।’’ वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जो तर्क-संगत, विज्ञान के और सृष्टि के अनुकूल न हो। संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को विभाग में ऋग्वेद को प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। महाभारत युद्ध के भी सैकड़ों वर्ष बाद की अवधि तक वैदिक धर्म ही इस पृथ्वी पर एक मात्र धर्म था।

जिन महापुरुषों, पैगबरों आदि ने नए मत-पंथ चलाये, पहला धर्मान्तरण तो उन्होंने ही किया, वैदिक धर्म के मानने वालों को पारसी, यहूदी, ईसाई, जैन, बौद्ध या मुसलमान बनाया । इन पंथ प्रवर्तकों के बनाये । प्रचारित किये गये ग्रन्थों में जो भी अच्छी और बुद्धि-गय बातें हैं, उनमें एक भी ऐसी नहीं जो वेदों में न हो  परन्तु फिर भी पंथ-प्रवर्तकों ने नए-नए पंथ चलाकर धर्मान्तरण नाम के वायरस का बीजारोपण तो कर ही दिया । वही रोग धीरे-धीरे महारोग बनता चला गया। ईसाई और इस्लाम मतावलबियों ने धर्मान्तरण के लिए जोर-जबरदस्ती, छल-कपट सहित क्या-क्या हथकण्डे अपनाए, यह इतिहास के पन्नों में भरा पड़ा है। भारत के स्वाधीन होने के बाद भी इस रोग की कोई रोकथाम नहीं हुई। आज तो ईसाई एवं इस्लाम मतावलबी मन से यह चाहते हैं कि उनके द्वारा किये जा रहे हिन्दुओं के धर्मान्तरण के मार्ग में कोई भी रुकावट न हो परन्तु एक भी ईसाई या मुसलमान पुनः हिन्दू न बने । इस बेईमानी का पूर्वानुमान हमारे संविधान निर्माताओं को था। संविधान सभा के सदस्य श्री अनन्त शयनम् अयंगार (जो बाद में बिहार के राज्यपाल और लोकसभा के अध्यक्ष भी रहे) ने कहा था कि भारत में धर्मान्तरण की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। ‘‘यह बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण है कि मजहब का उपयोग किसी की आत्मा को बचाने के लिए नहीं बल्कि समाज को तोड़ने के लिए किया जा रहा है।…..इसलिए मैं चाहता हूँ कि भारतीय संविधान में एक मूृल अधिकार जोड़ा जाए जिससे धर्मान्तरण पर रोक की व्यवस्था हो। मैं सभी को अपील करता हॅूँ कि धर्मान्तरण के भयंकर परिणाम को महसूस करें । बाद में जाकर यह समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी।’’

संविधान सभा में धर्म विषयक प्रकरणः भारतीय संविधान के निर्माण के समय जब संविधान सभा की बैठकों में धर्म के अधिकार का प्रश्न आया तो ईसाइयों के दबाव पर यह निर्णय लिया गया कि अनुच्छेद 25 (ए)के अन्तर्गत किसी भी धर्म के प्रचार या मानने की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख किया जाए। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि धर्म के प्रचार और मानने की स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबन्ध ही नहीं लगाया जा रहा तो ऐसे में इस अधिकार के लिखने की क्या आवश्यकता है। परन्तु फिर भी ईसाइयों के हठ और आग्रह पर यह प्रावधान जोड़ा गया।

सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब संविधान सभा के समक्ष एक अन्तरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की तो कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी ने उसमें निम्न प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव किया-

‘‘कोई भी धर्मान्तरण यदि धोखे, दबाव या लालच के द्वारा या 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति का होता है तो उसे कानून की मान्यता नहीं होगी।’’

श्री मुंशी के इस प्रस्ताव का ईसाई सदस्यों ने एक जुट होकर विरोध किया।

इस प्रकार के धर्मांतरण को रोकने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मध्यप्रदेश और उड़ीसा की राज्य सरकारों द्वारााी समय -समय पर कानून बनाये गये । इन  कानूनों को भी ईसाइयों ने सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती दी। परिणाम स्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह राय व्यक्त की कि लोभ, लालच और दबाव से कराया गया धर्मान्तरण धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता का अंग नही है।

इस चर्चा से यह तो स्पष्ट रूप से निर्विवादित है कि धर्मान्तरण जैसी असामाजिक घटनाओं पर रोकथाम का जब कभी भी प्रयास किया गया तो ईसाई वर्ग ही इसके विरोध में उठ खड़ा होता है। ऐसा क्यों?

भारतीय संसद में धर्मान्तरण की गूंजः वर्ष 1960 में आर्य नेता पं. प्रकाशवीर शास्त्री (स्वतन्त्र सांसद) ने धर्मान्तरण पर अंकुश सबन्धी एक विधेयक प्रस्तुत किया था। श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विधेयक के समर्थन में 19 फरवरी 1960 को लोकसभा में अपने ओजस्वी भाषण में कहा था कि ‘‘अपनी परपरा के अनुसार हमने एक असाप्रदायिक राष्ट्र की स्थापना की है।’’ हमने कहा है कि राज्य किसी धर्म के साथ अपने को नहीं जोड़ेगा और किसी पूजा की विशेष पद्धति के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन असाप्रदायिकता का अर्थ यह नहीं है और धार्मिक स्वतन्त्रता का यह मतलब नहीं हो सकता कि धर्म का परिवर्तन बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास की सीढ़ी न होकर एक ऐसी योजना का अंग बन जाए जिसके पीछे राजनैतिक उद्देश्य छिपे हों।’’

उस समय सरकार और संसद में नेहरु का असाधारण दबदबा था। अतः उस बिल का परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा।

धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक 1978:- जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य थोपे गये आपातकाल की त्रासदी के  पश्चात् वर्ष 1977 में जनता पार्टी ने मोरारजी भाई रणछोड़ जी भाई देसाई के नेतृत्व में केन्द्रीय सत्ता सभाली । वर्ष 1978 में उसी पार्टी के लोकसभा सदस्य श्री ओमप्रकाश त्यागी ने धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया जो इस प्रकार था-

संक्षिप्त नाम और आरभ

  1. (1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम धर्म स्वातन्त्र्य अधिनियम 1978 होगा।

(2) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जो के न्द्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे।

परिभाषाएं :

  1. इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो।

(क) संपरिवर्तन से अभिप्रेत है कि एक धर्म को त्यागकर दूसरे धर्म को अंगीकृत करना।

(ख) बल के अन्तर्गत बल प्रदर्शन या किसी प्रकार की क्षति की धमकी (जिसके अन्तर्गत दैवी अप्रसाद या समाज से बाहर करने की धमकी है) भी होगी।

(ग) कपट के अन्तर्गत दुर्व्यपदेशन या कोई अन्य कपटपूर्ण उपाय भी होगा।

(घ) उत्प्रेरणा के अन्तर्गत किसी दान या परितोषण को, चाहे वह नकद रूप में हो या वस्तुरूप में, प्रस्थापना भी होगी और इसके अन्तर्गत कोई फायदा करना भी होगा चाहे वह धन सबन्धी हो या अन्यथा और-

(ङ) अवयस्क से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जो अट्ठारह वर्ष से कम आयु का हो।

(यह विधेयक विषयक विवरण उनकी पुस्तक ‘धर्मान्तरण’ से लिया है।)

इस विधेयक का भाव यही था कि कोई भी धर्मावलबी दूसरे धर्म के व्यक्ति को छल-कपट, लालच, दबाव आदि के द्वारा धर्मान्तरित न करे। यह व्यवस्था हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, सिख आदि पर बिना किसी भेदभाव के लागू होती । विधेयक संसद के पटल पर रखा गया था। इतने भर से ही चिढ़कर मदर टेरेसा जिसे वेटिकन ने बाद में सन्त घोषित कर दिया ने प्रधानमन्त्री मोरार जी देसाई को पत्र लिखा कि यदि यह विधेयक पास हो गया तो चर्च को चिकित्सालयों एवं विद्यालयों के द्वारा की जा रही सेवा का काम करना कठिन हो जाएगा। श्री देसाई को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने मदर टेरेसा को दो टूक उत्तर दिया कि चर्च यदि धर्मान्तरण के लिए ही (सेवा के नाम पर) चिकित्सालय और विद्यालय चलाता है तो उसे यह कार्य बन्द कर देना चाहिए। यह सेवा नहीं छल है।

यह विधेयक भी कानून का रूप नहीं ले सका परन्तु ईसाइयों के छल-प्रपंच की पोलपट्टी खुल गयी।

पिछले तीन चार महीनों में जब-जब विचारशील लोगों द्वारा यह बात उठाई गयी कि धर्मान्तरण रोकने के लिए कोई भेदभाव रहित कानून बनाया जाये तो मुस्लिम उलेमा भी चर्च के सुर में सुर मिलाते हुए उसका विरोध करने लगते हैं। यह समस्या वास्तव में गभीर है। हिन्दुओं की घर-वापसी पर विरोध हो और ईसाईकरण और इस्लामी करण निर्बाध चलता रहे, यह बात सय समाज क ो स्वीकार करने योग्य नहीं है। सरकार इस पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करे तभी समस्या का समाधान निकल सकता है।

– जागृतिविहार, मेरठ