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दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

पिछले अंक का शेष भाग……   http://www.aryamantavya.in/contribution-of-arya-samaj-in-south-india/

शैक्षिक संस्थाएँः निजाम के राज्य में शिक्षा का अभाव था। बड़े-बड़े शहरों में भी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। अधिकांश जनता निरक्षर थी जिसके परिणामस्वरूप नवीन विचारों का स्पर्श तक न था। इतिहास, विज्ञान, गणित इत्यादि विषय उर्दू में पढ़ाएँ जाते थे। मातृभाषा में शिक्षा न दी जाने के कारण अनेक अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। निजी विद्यालयों पर प्रतिबन्ध था, तथापि राष्ट्रीयता, नैतिकता, धार्मिक विचारों के लिए प्रतिबन्ध होते हुए भी १९१६ से १९३५ तक अनेक निजी संस्थाएँ शुरू की गई। जिसमें गुलबर्गा का नूतन विद्यालय, हिपरगा का राष्ट्रीय विद्यालय और हैदराबाद का केशव स्माारक आर्य विद्यालय प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ आर्यसमाज ने भी अपने गुरुकुल तथा उपदेशक महाविद्यालयों की स्थापना की जिनमें वैदिक सिद्धान्त, वैदिक धर्म, नैतिकता की शिक्षा हिन्दी में दी गई। इनमें प्रमुख संस्थाओं में से कुछ निम्न हैं- विवेक वर्धिनी (हैदराबाद), नूतन विद्यालय (गुलबर्गा), गुरुकुल धारूर (धारूर), राष्ट्रीय पाठशाला (हिघरगा), श्री कृष्ण विद्यालय (गुंजोटी), श्यामलाल (उदगीर), नूतन विद्यालय (सेलू), गोदावरी कन्याशाला (लातूर), गुरुकुल घटकेश्वर कन्या गुरुकुल (बेगमपेठ), पुरानी कन्या पाठशाला (हैदराबाद), हिन्दी पाठशाला (हलीखेड़) इत्यादि। उपर्युक्त सभी संस्थाओं में सेवाभावी शिक्षक अर्वाचीन विषयों की मातृभाषा में शिक्षा देकर उनमें राष्ट्रीय-भावना जाग्रत करते थे। जिससे हजारों विद्यार्थियों ने स्वतन्त्रता-संग्राम तथा हैदराबाद मुक्ति-संग्राम में सक्रिय भाग लिया तथा स्वतन्त्रता-संग्राम में महत्वपूर्ण  भूमिका अदा की।

हुतात्माः आर्यसमाज के सामाजिक और धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार के कारण युवकों में राष्ट्रीयता के विचारों का जागरण हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप विदेशी सत्ता  के सभी सुखों तथा प्रलोभनों को लात मार कर अनेक युवकों ने शासकों का खुलकर विरोध किया जिससे वे सरकार के कोपभाजन बने। निजाम ने तो उन्हें अनेक यातनाएँ दी हैं जिनसे अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों के स्वास्थ्य खराब हुआ, कुछ विकलांग हुए तो कुछ लोगों को अपने प्राणों की बलि भी देनी पड़ी। इसके साथ-साथ निजाम के अनुयायी एवं रजाकार भी इनके विरुद्ध हुए अतः वे इन देशप्रेमियों को छल-कपट से मारने की योजनाएँ बनाने लगे। गुंजोटी (महाराष्ट्र) का नौजवान वेदप्रकाश रजाकारों के अन्यायों के विरोध में आवाज उठाता था, इतना ही नहीं उनका प्रतिकार भी करता था जो रजाकारों की आँखों में खटकता था।

रजाकारों ने वेदप्रकाश को मारने का षड़यन्त्र रचा क्योंकि उस बहादुर के साथ सामना करने की रजाकारों में हिम्मत न थी। वह रणबांकुरा था। अतः रजाकारों ने छल-कपट से गाँव में ंउसकी निर्मम हत्या की। किन्तु जैसे ही राष्ट्रयज्ञ हुतात्मा वेदप्रकाश की आहुति पड़ी तो विद्रोह का ज्वालामुखी ऐसा फटा जिसे रोकना निजाम के लिए भी कठिन हो गया। इसी प्रकार यातना की शृंखला तथा छल-बल का सिलसिला निजाम का आगे बढ़ता रहा। जिसके परिणामस्वरूप उदगीर दंगे में दण्डित आर्यजगत् के उद्भट योद्धा, प्रखर सेनानी भाई श्यामलाल को भी विष देकर अमानवीय रूप से मारा गया। इसी प्रकार उपसा गाँव के रामचन्द्राराव पारीक का अत्यन्त क्रूरता पूर्वक वध किया। ईट गाँव के टेके दम्पति ने बड़ी हिम्मत तथा बहादुरी से रजाकारों का सामना किया। वे  न डगमगाए, न मौत से घबराए, और अन्त तक अनेक रजाकारों को अकेले ही सामना करते हुए दोनों पति-पत्नी राष्ट्र के लिए शहीद हुए। इसी प्रकार अन्य बसव कल्याण के धर्मप्रकाश को भी चौक में रजाकारों ने छल-कपट से मारा, किन्तु उसकी शहादत ने सम्पूर्ण कर्नाटक में निजाम के विरोध में आँधी सी आई।

उपदेशकों/पुरोहितों द्वारा प्रचारः- यद्यपि मुम्बई में सर्वप्रथम आर्यसमाज की स्थापना हुई, किन्तु उत्तर  भारत में इसका जन-सामान्य तक प्रचार-प्रसार हुआ। उसका प्रमुख कारण यह भी था कि वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा के लिए तथा उपदेशक बनाने के लिए उपदेशक महाविद्यालयों की स्थापना उत्तर  भारत में ही अधिकांश रूप में हुई। अतः दक्षिण भारत के इच्छुक आर्यसमाजियों ने लाहौर उपदेशक महाविद्यालय का अवलम्बन लिया। वहाँ से वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके उन्होंने अपनी कर्मभूमि दक्षिण भारत को बनाया। हैदराबाद के सुल्तान बाजार आर्यसमाज ने भी अनेक उपदेशकों को मराठवाड़ा, कर्नाटक तथा आन्ध्रपदेश के गाँव-गाँव में भेजकर जन-जागरण का कार्य तो किया ही, साथ ही आर्यसमाज की सैद्धान्तिक भूमिका को भी विशद किया। वेदों के प्रकाण्ड पण्डित श्री धर्मदेव विद्यामार्तण्ड का नाम इसमें सर्वप्रमुख है। उन्होंने दक्षिण की अनेक भाषाओं को स्वयं सीखा और उन्हीं की भाषा में वैदिक सिद्धान्तों का समर्पण भाव से प्रचार किया। इनके साथ-साथ पं. कामना प्रसाद, पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ, पं. विश्वनाथ आर्य, पं. वामनराव येलनूरकर (बसवकल्याण), प्रेमचन्द प्रेम, पं. मदनमोहन विद्यासागर, पं. सुधाकर शास्त्री (बसवकल्याण), श्रीमती माहेश्वरी (मैसूर), राधाकिशन वर्मा (केरल) इत्यादि अनेक उपदेशक अपने उपदेशों से जनसामान्य एवं प्रबुद्ध दोनों ही वर्गों को वैदिक सिद्धान्तों का तथा वेद-मन्त्रों का भाष्य कर आर्यसमाज की दार्शनिक, सामाजिक एवं पारिवारिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते रहे। निजाम के राज्य में जहाँ महिलाओं को शिक्षा से वंचित किया गया था, वहाँ आर्यसमाज ने उन्हें शिक्षित ही नहीं किया अपितु लोपामुद्रा, मैत्रेयी जैसी वैदिक ऋषिकाओं के पद-चिह्नों पर चलने के लिए प्रेरित किया।

गुरुकुलीय विद्यार्थियों का योगदानः महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक सिद्धान्त, वैदिक संस्कृति और वैदिक जीवन-पद्धति के प्रचार-प्रसार के लिए प्राचीन काल से चली आ रही गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति के प्रचलन पर जोर दिया तथा मैकाले द्वारा प्रचलित शिक्षा-पद्धति का विरोध किया, जिसमें केवल क्लर्क तैयार करने का लक्ष्य रखा था। उत्तर  भारत में गुरुकुल कांगड़ी, ज्वालापुर, वृन्दावन, कुरुक्षेत्र इत्यादि अनेक गुरुकुल खोले गए, जिनमें शिक्षा पद्धति वैदिक संस्कृति के अनुकूल थी, साथ ही उनकी जीवन-पद्धति अत्यन्त सादगी भरी थी। उनका सिद्धान्त था- विद्यार्थिनः कुतो सुखम्, सुखार्थिनः कुतो विद्या। इनमें कुछ-कुछ गुरुकुलों में आर्ष-पद्धति अपनाई गई थी तो कुछ गुरुकुलों में प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का समन्वय था। किन्तु कुछ विषयों की शिक्षा का माध्यम हिन्दी एवं कुछ का संस्कृत था। इतना ही नहीं लड़कियों की शिक्षा के लिए स्वतन्त्र रूप से अलग गुरुकुल खोले गए। इसी गुरुकुल प्रणाली के आधार पर दक्षिण में धारूर (महाराष्ट्र) में गुरुकुल खोला गया तथा बाद में गुरुकुल घटकेश्वर, गुरुकुल अनन्तगिरि कन्या गुरुकुल (सभी हैदराबाद), गुरुकुल वार्शी, गुरुकुल येडशी, श्रद्धानन्द गुरुकुल परली इत्यादि अनेक गुरुकुलों की स्थापना की गई। इन गुरुकुलों से अधीत स्नातकों ने दक्षिण में वैदिक सिद्धान्तों तथा आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में एवं साहित्य-निर्माण में मह     वपूर्ण योगदान दिया। जिनमें कुछ नाम उल्लेखनीय हैं- डॉ. भगतसिंह राजूरकर (पूर्व कुलपति, औरंगाबाद, वि.वि.), डॉ. चन्द्रभानु सोनवणे वेदालंकार, प्राचार्य वेदकुमार वेदालंकार, डॉ. कुशलदेव कापसे, डॉ. हरिश्चन्द्र धर्माधिकारी, डॉ. सियवीर विद्यालंकार, श्रीमती मीरा विद्यालंकृता, स्व. शकुन्तला जनार्दनराव वाघमारे, श्रीमती सत्यवती वाघमारे, श्रीमती प्रमिला वाघमारे, श्रीमती सुशीला देवी, निवृ िाराव होलीकर इत्यादि। आधुनिक काल में भी मराठवाड़ा विभाग में सैकड़ों गुरुकुलीय विद्यार्थी वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार अपने-अपने कार्यों में रत रहते हुए कर रहे हैं और साथ ही लेखन-कार्य भी करके आर्यसमाज के सिद्धान्तों का प्रसार कर रहे हैं।

संस्कृत और हिन्दी को योगदानःमहर्षि दयानन्द के द्वारा आर्ष ग्रन्थों को प्रामाणिक मानने तथा संस्कृत भाषा को सभी भारतीय भाषाओं की जननी मानने के कारण वैदिक सिद्धान्तों को जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए राष्ट्रभाषा-हिन्दी को प्रस्थापित किया। अतः आर्यसमाज के विविध कार्यकलापों और साहित्य की भाषा हिन्दी के रूप में अभिव्यक्त हुई। जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत के लेखकों तथा चिन्तकों ने भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम संस्कृत और हिन्दी को बनाया। सम्पूर्ण मराठवाड़ा के शिक्षा-क्षेत्र में संस्कृत का जो प्रचार है उसमें आर्यसमाज की संस्थाओं में शिक्षित विद्यार्थी आज जो अध्यापन-कार्य कर रहे हैं, उनकी मह     वपूर्ण भूमिका है। मराठवाड़ा के प्राचार्य हरिश्चन्द्र रेणापूरकर जैसे संस्कृत के उद्भट विद्वान् और कवि ने लगभग २५ संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन किया। जिन्होंने कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार में महनीय कार्य किया। अभी कुछ मास पूर्व ही वे राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय स्तर के संस्कृत विद्वानों के लिए निर्धारित- बादरायण पुरस्कार से सम्मानित किए गए, जो वस्तुतः आर्यजगत् का ही गौरव है। इसके सिवाय अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों में गुरुकुलीय स्नातक संस्कृत के अध्यापन के साथ-साथ प्रचार का कार्य कर रहे हैं। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने (पूर्वाश्रमी स्वतन्त्रता सेनानी रामचन्द्रराव विदरकर) जो स्वयं संस्कृत से अछूते थे किन्तु आर्यसमाज लातूर में अनेक वर्षों तक संस्कृत के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध  कराई जिसने इस क्षेत्र में संस्कृत प्रचार की आधारशिला रखी।

संस्कृत के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार भी दक्षिण भारत में होने का कारण आर्यसमाज ही है। आर्यसमाज के परिवारों में लगभग हिन्दी का ही व्यवहार होता है। इसके साथ दक्षिण-भारत से सैंकड़ों गुरुकुलीय स्नातक अपने-अपने प्रान्तों में हिन्दी का अध्यापन कर रहे हैं। आर्यसमाज से सम्बन्धित सभी व्यक्ति सामान्य बोलचाल में, कार्यालयों में, बाजार इत्यादि में अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इसके साथ राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के अनेक परीक्षा केन्द्रों द्वारा हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ दिलवाई जाती हैं। जिसने दक्षिण-भारत में हिन्दी के प्रचार में महत्वपूर्ण  भूमिका निभाई है। हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत परीक्षा के केन्द्रों में संस्कृत का अध्यापन किया जा रहा है। डॉ. भगतसिंह विद्यालंकार, डॉ. चन्द्रभानु सोनवणे (वेदालंकार), प्रो. भूदेव पाटील (विद्यालंकार), प्राचार्य दिगम्बरराव होलीकर, डॉ. चन्द्रदेव कवड़े जैसे गुरुकुलीय तथा आर्यसमाजी विद्वान् महाराष्ट्र सरकार के पाठ्यपुस्तक मण्डल के कार्यकारिणी सदस्य, विद्यापीठीय पदाधिकारी महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी इत्यादि संस्थानों के प्रमुख पदों पर रहने के कारण अनेक आर्यसमाजी लेखकों के पाठों का पाठ्यक्रमों में समावेश करा कर आर्यसमाज के कार्य एवं उसकी विचारधारा को नवीन पीढ़ी तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण  कार्य किया है। इसके सिवाय लातूर, परली-बैजनाथ, हैदराबाद, औरंगाबाद, सेलू, जालना, नान्देड़ इत्यादि स्थानों पर हिन्दी माध्यम के विद्यालयों से भी हिन्दी के प्रचार में सहयोग हुआ। दक्षिण भारत में स्थित परली-बैजनाथ, वाशी, धारूर, हैदराबाद इत्यादि स्थानों के गुरुकुलों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी तथा संस्कृत भाषा एवं साहित्य का अध्यापन होता है। कर्नाटक में कावेरी नदी के किनारे पर विशाल भूमि में स्थित ‘शान्तिधाम’ गुरुकुल में संस्कृत एवं हिन्दी के प्रचार-प्रसार कार्य हो रहा है। केरल में कालीकट काश्यप आश्रम के संस्थापक डॉ. राजेश भी वैदिक मन्त्रों की शिक्षा जन-सामान्य तक तथा आदिवासियों को भी देकर संस्कृत प्रचार की मह     वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। १५ अगस्त को एम.डी.एच. के संस्थापक महाशय धर्मपाल से प्राप्त तीन करोड़ के सहयोग से ‘वैदिक रिसर्च फाउंडेशन’ की स्थापना की गई है। इसी प्रकार परली-वैजनाथ (महाराष्ट्र) के गुरुकुल में पूर्व सांसद तथा आर्यसमाज के विद्वान् शिक्षा शास्त्री डॉ. जनार्दन राव वाघमारे जी की सांसद निधि से निर्मित ‘पं. नरेन्द्र वैदिक अनुसन्धन केन्द्र’ की स्थापना की गई है। जिसका उत्तरदायित्व  प्रो. डॉ. कुशलदेव शास्त्री एवं प्रो. ओमप्रकाश होलीकर (विद्यालंकार) डॉ. ब्रह्ममुनि की अध्यक्षता में वहन किया जा रहा है।

समाज सुधारः दक्षिण-भारत के बड़े भू-भाग पर निजाम का तथा अन्य विदेशी शासकों का आधिपत्य होने के कारण यहाँ की सामाजिक स्थिति अत्यन्त खराब थी। परम्परा से चली आ रही अनेक कालबाह्य रुढ़ियों में समाज जकड़ा हुआ था और बँटा हुआ भी था। जाति प्रथा, धर्मान्तरण की समस्या, स्त्रियों की शिक्षा, विधवा विवाह की समस्या, परित्यक्ता स्त्री की समस्या इत्यादि समस्याओं से समाज ग्रस्त होने के कारण जड़ हो गया। इसे गतिशील बनाने का कार्य आर्यसमाज ने किया। आर्यसमाज मूलतः प्रगतिशील विचारधारा है। अतः इसमें जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए और समाज में भाईचारा लाने तथा ऊँच-नीच को समाप्त करने के लिए अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया। ये अन्तर्जातीय विवाह आर्यसमाज की विचारधारा के अनुरूप ब्राह्मण तथा अन्य उच्च जातियों के लोगों ने स्वयं तथा अपने पुत्र-पुत्रियों के सामान्य जाति में तथा पिछड़ी जातियों में किए। वस्तुतः उस समय यह क्रान्तिकारी कदम था। उन परिवारों पर अघोषित बहिष्कार जैसी स्थिति थी तथापि वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे। आज के अन्तर्जातीय विवाहों की पृष्ठभूमि वस्तुतः आर्यसमाज ने निर्माण की। शेषराव वाघमारे, डॉ. डी.आर. दास, केशवराव नेत्रगांवकर, हरिश्चन्द्र पाटील, माणिकराव आर्य, डॉ. जनार्दनराव वाघमारे, वीरभद्र, पं. ऋभुदेव, नरदेव स्नेही, देवदत्त  तुंगार, धनंजय पाटील, शंकरराव सराफ, डॉ. धर्मवीर, दिगम्बरराव होलीकर, निवृत्तिराव  होलीकर, नरसिंगराव मदनसुरे, डॉ. ब्रह्ममुनि, सुग्रीव काले, लक्ष्मणराव गोजे, बसन्तराव जगताप, रामस्वरूप लोखण्डे, संग्रामसिंह चौहान, दिनकरराव मोरे, किशनराव सौताडेकर, नारायणराव पवार, डॉ. भगतसिंह राजूरकर, इत्यादि आर्यसमाजियों ने जातिभेद निर्मूलन में मह      वपूर्ण कार्य किया। जिसमें कुछ ब्राह्मणों ने अपनी पुत्रियों को दसिनों तथा पिछड़े वर्गों के लोगों में दी तथा अपने घर पिछड़े घर की बहुएँ लेकर आए। कुछ लोगों ने स्वयं भी अन्तर्जातीय विवाह किए और अपने पुत्र-पौत्रादि के विवाह भी अन्तर्जातीय, अन्तर्धर्मीय किए। वस्तुतः उपर्युक्त नामों के अतिरिक्त आज इस सूची में बहुत नाम जोड़ने आवश्यक हैं, किन्तु स्थानाभाव के कारण प्रारम्भिक एवं प्रतिनिधिक नाम ही परिगणित किए गए हैं।

इसके साथ-साथ समाज सुधार के कार्यों में व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, आदर्श गृहस्थ निर्माण का कार्य भी आर्यसमाज ने किया। इसके सिवाय स्त्री शिक्षा, स्त्रियों को वेदाध्ययन के अवसर भी प्रदान किए, तभी स्त्रियाँ कन्या गुरुकुलों में जाकर विद्यालंकार बनकर शिक्षा क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। स्त्री-शिक्षा के साथ-साथ अज्ञान एवं अन्धविश्वास का निर्मूलन, वैदिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, व्यसनमुक्ति, द्यूत-क्रीड़ा मुक्ति जैसे समाजोपयोगी एवं राष्ट्रोपयोगी कार्य आर्यसमाज ने प्रभूत मात्रा में किए। व्यक्ति एवं समाज की उन्नति तथा प्रगति के लिए शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, बौद्धिक प्रगति की दिशा दर्शन का कार्य किया। राष्ट्रप्रेम, त्याग, समर्पण, अन्याय का विरोध, जनजागृति, वैदिक धर्म के प्रति प्रेम, स्वाभिमान-निर्माण, सामाजिक एकता, बन्धुभाव, राष्ट्रीय एकात्मता, शान्ति इत्यादि सकारात्मक मूल्यों को संवर्धित करने के अहर्निश प्रयत्न किए।

राजनीतिः हैदराबाद स्टेट जो निजाम के आधिपत्य में था, उस समय वहाँ की प्रजा पर निजाम ने सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, पत्रकारिता इत्यादि सभी दृष्टियों से अनेक प्रतिबन्ध लगाए थे और रजाकारों के माध्यम से प्रजा पर अन्याय और अत्याचार प्रारम्भ किए गए। उस समय आर्यसमाज के माध्यम से आर्यसमाजी नेताओं ने जनजागृति कर विद्रोह का स्वर अनुगुंजित किया तथा सत्याग्रह किया। देश की स्वतन्त्रता के समय भी आर्यसमाज के नेताओं ने स्वतन्त्रता-संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा उसका नेतृत्व किया। तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश आर्यसमाजी नेताओं ने विविध दलों में प्रवेश कर मन्त्री, विधायक, सांसद इत्यादि स्थानों पर चयनित होकर देशभक्ति तथा राष्ट्र-निर्माण का कार्य किया। यद्यपि इसकी नामावली प्रदीर्घ है तथापि प्रतिनिधि रूप से कुछ नाम निम्नलिखित हैंः- पं. नरेन्द्र, विनायक राव विद्यालंकार, शेषराव वाघमारे, तुलसीराम कांसले, कोरटकर, शिवाजीराव निसंगेकर, जनार्दनराव वाघमारे इत्यादि।

धार्मिक प्रचारः निजाम ने अपने राज्य में वैदिक धर्म के प्रचारकों, उपदेशकों तथा भजनोपदेशकों पर अनेक प्रकार के बन्धन लाद दिए थे। उनके प्रवचन, शास्त्रार्थ, उपदेश इत्यादि धार्मिक अधिकारों पर अनेक पाबन्दियाँ लगा दी गई थी। मध्य-दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा, हैदराबाद ने उपदेशक और भजनोपदेशक नियुक्त कर देहातों में प्रचार किया। एक ईश्वर, एक धर्म, एक धर्मग्रन्थ, एक जाति का प्रचार कर राष्ट्रैक्य का निर्माण अपने प्रवचनों, भजनों तथा उपदेशों द्वारा किया। समय-समय पर उ    ार भारत के विद्वानों को आमन्त्रित कर श्रावण मास में श्रावणी सप्ताह के अवसर पर प्रचार करते रहे। स्वातन्त्र्यो      ार काल में वही काम महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा, कर्नाटक आ.प्र. सभा तथा आन्ध्र आर्य प्रतिनिधि सभा कर रही है। पं. नरदेव स्नेही, पं. विश्वनाथ (जहीराबाद), पं. कर्मवीर, पं. नरेन्द्र, श्यामलाल, बंसीलाल इत्यादि ने बहुत परिश्रम से रास्ते न रहने वाले गाँवों में जाकर प्रचार जमकर किया। उपर्युक्त विद्वानों के साथ-साथ आजकल डॉ. ब्रह्ममुनि जी के नेतृत्व में उतर भारत के अनेक विद्वान्- प्रो. रघुवीर वेदालंकार, डॉ. वेदपाल, प्रो. राजेन्द्र विद्यालंकार, डॉ. महावीर जी, आचार्य नन्दिता जी शास्त्री, प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु तथा महाराष्ट्र के भी अनेक गुरुकुलीय स्नातक, भजनोपदेशक, उपदेशक वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं जिनमें प्रमुख नाम निम्न हैं- प्राचार्य वेदकुमार वेदालंकार, पं. सुरेन्द्रदास जी, प्राचार्य देवदत तुंगार, डॉ. नयनकुमार आचार्य, पं. नारायणराव कुलकर्णी, ज्ञानकुमार आर्य इत्यादि। महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा (परली-वैजनाथ) द्वारा ‘वैदिक गर्जना’ नामक मुखपत्र भी पाक्षिक रूप में डॉ. ब्रह्ममुनि जी के मार्गदर्शन में तथा डॉ. कुशलदेव शास्त्री के निधन के बाद अत्यन्त कुशलता से डॉ. नयनकुमार आचार्य के सम्पादकत्व में तथा विद्वज्जनों के सम्पादक मण्डल के दिशा-निर्देश में प्रकाशित होता है, जो महाराष्ट्र के आर्यजगत् विद्वानों पर सामयिक रूप से विशेषांक निकालकर उनके कृतित्व को उजागर करता है।

उपर्युक्त सभी विद्वान् अपने व्याख्यानों तथा विविध शिविरों द्वारा धार्मिक प्रचार एवं वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। साथ ही वार्षिकोत्सव संस्कारों तथा वैदिक साहित्य एवं लेखन से भी प्रचार करते हैं। लातूर से श्री स्वतन्त्रता सेनानी जड़े जी के सुपुत्र के सम्पादकत्व में लातूर समाचार साप्ताहिक तथा दैनिक आर्यजगत् के विद्वानों के लेखों को मराठी तथा हिन्दी में प्रकाशित कर रहे हैं।

दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

 

देश के भौगोलिक अध्ययन के लिए, इसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है- पहला उत्तर  और दूसरा दक्षिणी भाग। यद्यपि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है, तथापि सामान्य रूप से उत्तरी  भाग को ‘उत्तर  भारत’ और दक्षिणी भाग को ‘दक्षिण भारत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। उपर्युक्त विभाजन के अतिरिक्त पाश्चात्य विद्वानों ने एक अलग प्रकार की भ्रामक संकल्पना की है कि आर्य बाहर से इस देश में आए और वे उत्तरी भाग में निवास करने लगे तथा यहाँ के पूर्व निवासियों को उन्होंने दक्षिण में भगाया, अतः उत्तर के निवासी ‘आर्य’ कहलाए और दक्षिण के निवासी ‘द्रविड’ कहलाए। पाठ्यक्रमों में इसी अवधारणा को पढ़ाया जाने के कारण सुशिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग में यही भ्रामक अवधारणा प्रबल है। किन्तु यह अवधारणा तर्क व प्रमाण सम्मत नहीं है, क्योंकि संस्कृति, भाषा और दर्शन इन तीनों का उद्गम स्थान एक ही भारत है। दक्षिण की सभी भाषाओं में संस्कृत का शब्द -भण्डार प्रचुर मात्रा में तत्सम रूप में पाया जाता है तथा वेद का पठन-पाठन दक्षिण भारत में ही पारम्परिक रूप से विद्यमान हैं। पूरे भारत में जीवन-पद्धति वेद सम्मत थी, किन्तु धर्माचार्यों ने स्वार्थ, अज्ञान, अन्धविश्वास, सदोष मतमतान्तर के कारण जो वेद विरुद्ध परम्परा प्रारम्भ की उससे हमारी सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय स्थिति अत्यन्त खोखली हो गई। ऐसी आन्तरिक कलह की स्थिति को देखकर उत्तर से अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने समृद्ध भारत पर आक्रमण किए तथा यहाँ की सम्पत्ति , संस्कृति, शिक्षा-पद्धति और जीवन-पद्धति पर तीव्र कुठाराघात किया।

आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों दृष्टियों से कालबाह्य रुढ़ियों तथा सिद्धान्तों से घुन लगा हुआ समाज पूरी तरह खोखला हो गया था। ऐसी दुरावस्था में गुजरात प्रान्त के टंकारा में सन् १८२४ में महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। उनके गुरु विरजानन्द जी ने मानव मात्र में व्याप्त दुःख, अशान्ति तथा रोग के मूलभूत कारण- अज्ञान, अविवेक तथा अन्धविश्वास को बताकर सबके कल्याणार्थ वेद के शाश्वत ज्ञान को मानव-मात्र के कल्याण का मार्ग बताया तथा महर्षि दयानन्द ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर किया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने वेदों की अपौरुषेयता तथा आर्ष ग्रन्थों की प्रामाणिकता बताकर तथा अनेक ग्रन्थों का प्रणयन कर मानव-मात्र को जीवन के श्रेयमार्ग का पथिक बनाने के लिए सन् १८७५ में मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की।

यद्यपि आर्यसमाज की स्थापना मुम्बई में हुई तथापि उसका प्रचार-प्रसार उत्तर  भारत में- विशेष रूप से पंजाब में हुआ। लाहौर में उपदेशक महाविद्यालय की स्थापना की गई। दक्षिण भारत के अनेक विद्यार्थी वहाँ पढ़कर उपदेशक बनकर आए और दक्षिण भारत में आर्य समाज के वैचारिक सिद्धान्तों से उपदेशों के द्वारा जनजागृति का कार्य किया।

दक्षिण भारत का योगदानः दक्षिण भारत में उस समय निजामशाही का राज्य था। मराठवाड़ा के वर्तमान आठ जिले, कर्नाटक के ५ जिले तथा आन्ध्र के जिलों को जोड़कर हैदराबाद राज्य की सीमा थी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में अन्य शासकों के अपने-अपने राज्य थे। उस समय दक्षिण भारत में अनेक मत-मतान्तर थे तथा जैन, बौद्ध, पारसी, इस्लाम, ईसाई, विविध पन्थ, सम्प्रदाय और धर्म प्रचलित थे। ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज को अपना कार्य दक्षिण भारत में करना पड़ा।

व्यक्ति निर्माणः दक्षिण भारत के बहुत लोगों ने आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित होकर विद्वान् बनने के लिए उत्तर  भारत की वैदिक संस्थाओं में अध्ययन किया, आर्यसमाज का आजीवन प्रचार किया और साथ ही नए व्यक्तियों को आर्यसमाजी बनने की प्रेरणा दी। इनमें कुछ प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं- पं. नरेन्द्र, पं. श्यामलाल, बंसीलाल, शेषराव वाघमारे, उत्त्ममुनी , विनायकराव विद्यालंकार, न्यायमूर्ति कोरटकर, चन्द्रशेखर वाजपेयी। इन लोगों ने अनेक क्षेत्रों में आर्यसमाज के अनेक पहलुओं को लेकर काम किया, जिसके परिणामस्वरूप आज दक्षिण भारत में हजारों आर्यसमाजी अपने विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं।

संस्थाएँः आर्यसमाज के सैद्धान्तिक विचारों के प्रचार-प्रसार, सेवा, सुरक्षा एवं व्यक्ति निर्माण के लिए आर्यसमाज और संगठन की स्थापना की गई। मुम्बई के बाद बीड़ (महाराष्ट्र) जिले के निवासी तिवारी नामक व्यक्ति ने महर्षि दयानन्द के भाषण सुनकर दूसरा आर्यसमाज सन् १८८० में धारूर नामक ग्राम में स्थापित किया। इसके बाद सुल्तान बाजार (हैदराबाद) में आर्यसमाज की स्थापना की गई जो दक्षिण भारत के आर्यसमाज का बहुत बड़ा केन्द्र था। जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक प्रदेश ने अपनी-अपनी प्रादेशिक सभाओं की स्थापना की जैसे- मुम्बई आर्य प्रतिनिधि सभा, मध्य दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से संलग्न।

दक्षिण भारत के आर्यसमाजी विद्वान्ः दक्षिण भारत में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के कारण तथा उ    उत्तर  भारत की संस्थाओं में पढ़कर अनेक विद्वान् तैयार हुए और उन्होंने अपने-अपने प्रान्तों में जाकर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इनमें कुछ नाम निम्न प्रकार हैं- पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ (उस्मानाबाद), बंशीलाल व्यास (हैदराबाद), शामलाल (उदगीर), डी.आर. दास (लातूर), गोपालदेव शास्त्री (बसदकल्याण) प्रेमचन्द्र प्रेम (भदनुर), पं. मदनमोहन विद्यासागर, गोपदेव शास्त्री, पं. वामनराय येवणूरधर इत्यादि।  यह सूची प्रदीर्घ है, स्थानाभाव के कारण कुछ ही विद्वानों के नाम गिनाए हैं।

साहित्य-निर्माणः- जनमानस तक वैदिक सिद्धान्तों को पहुँचाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति के लिए साहित्य और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को प्रादेशिक भाषाओं में भी निर्माण किया। इन विचारों से समाज में जागृति हुई। प्रमुख लेखकों में पं. नरेन्द्र, विनायकराव विद्यालंकार, खंडेराव कुलकर्णी, उत्त्ममुनी इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इसके साथ दक्षिण भारत की सभी भाषाओं में महर्षि दयानन्द की पुस्तकों का अनुवाद भी किया गया।

पत्रिकाएँः हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना के बाद ‘मुंशी रे दकन’ साप्ताहिक निकाला गया जो वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करता था। उर्दू साप्ताहिक ‘नई जिन्दगी’ जे.एन. शर्मन के सम्पादकत्व में निकलने लगा। शोलापुर से ‘वैदिक सन्देश’ तथा ‘सुदर्शन’ भी साप्ताहिक प्रकाशित होने लगे। चन्दूलाल, पं. नरेन्द्र तथा सोहनलाल ठाकुर के सम्पादकत्व में ‘वैदिक आदर्श’ साप्ताहिक प्रारम्भ हुआ, जो उर्दू में प्रकाशित होकर मुसलमानों के अत्याचारों का जवाब प्रखरता से देता था। बाद में यही साप्ताहिक ‘सोलापुर’ से ‘वैदिक सन्देश’ के नाम से निकलने लगा जो पुनः ‘आर्यभानु’ के नाम से हैदराबाद से शुरू हुआ। लक्ष्मणराव पाठक ने ‘निजाम विजय’ पत्रिका शुरू की। अनेक पत्रिकाएँ नाम बदलकर निकलने लगीं।

व्याख्यान मालाः ग्रामीण भाग के जन साधारण लोगों के लिए जो अनपढ़, अशिक्षित और अज्ञानी थे उनकी वैचारिक जागृति के लिए उनके गाँवों में जाकर उनके समय के अनुसार, उन्हीं की भाषा में विद्वान् पण्डित तथा भजनोपदेशकों ने व्याख्यानों से जनजागरण का कार्य किया। प्रतिवर्ष श्रावणी सप्ताह तथा भारतीय काल गणनानुसार नववर्ष के प्रारम्भ में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाता था जिसमें विविध सम्मेलन आयोजित किये जाते थे जैसे- धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, महिला सम्मेलन, वेद-सम्मेलन, संस्कृत सम्मेलन, संस्कार शिविर आदि। इसके साथ ही सामयिक विषयों पर भी व्याख्यान आयोजित किए जाते थे। जिसमें अन्धश्रद्धा निर्मूलन, व्यसनमुक्ति, स्वास्थ्य रक्षा इत्यादि द्वारा जन-जागरण का मह  वपूर्ण कार्य आर्यसमाज के इन उपक्रमों द्वारा किया जाता था।

षोडश संस्कारः महर्षि दयानन्द ने वेदाधारित १६ संस्कार का महत्व  बताकर मनुष्य निर्माण कार्य के लिए प्रतिपादन किया। साथ ही इसकी वैज्ञानिकता भी प्रतिपादन की। सोलह संस्कारों की प्रासंगिकता प्रतिपादित की तथा समाज के जिस वर्ग का उपनयन संस्कार नहीं होता था उन सबका आर्यसमाज ने उपनयन संस्कार कराया तथा समाज के वातावरण का निर्माण किया। इसके साथ-साथ कन्याओं तथ महिलाओं का भी उपनयन संस्कार करा कर नारी को म्हात्व्यपूर्ण  स्थान दिलाया। जिसके फलस्वरूप आज महिलाएँ पौरोहित्य का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करा रही हैं। अन्त्येष्टि संस्कार का भी वैदिक पद्धति से प्रचलन किया।

शिविरों का आयोजनः ग्रामीण तथा शहरी भागों में वैचारिक क्रान्ति, सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता, मानव को संस्कारित करने के लिए विद्वान् और सेवाभावी लोगों ने शिविरों का आयोजन किया। संस्कार शिविरों द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वाश्रमी हरिश्चन्द्र गुरु जी) ने अनेक तरुण विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियों को सन्मार्ग बताकर सुसंस्कारित, जागरूक तथा कर्तव्य  परायण नागरिक बनाया। इसी प्रकार आर्यवीर दल तथा स्वास्थ्य रक्षा शिविरों द्वारा नवयुवकों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न की तथा व्यसनाधीनता से परामुख किया। इसके साथ-साथ कन्याओं की उन्नति के लिए कन्या संस्कार शिविर, समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को पौरोहित्य कार्य की वैदिक निधि का ज्ञान कराने के लिए पुरोहित प्रशिक्षण शिविर, बाल्यावस्था के कोमल मन पर राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए तथा संस्कारों के बीजवपन के लिए बाल संस्कार शिविर, मन की स्थिरता के लिए ध्यान योग शिविर, आसन प्राणायाम शिविर तथा योग शिविर, रोग चिकित्सा के लिए प्राचीन काल की ऋषियों द्वारा अनुमोदित आयुर्वेद चिकित्सा शिविर तथा गोमाता की रक्षा के लिए गो कृषि शिविर आयोजित किए जाते हैं, जिससे समाज के उपर्युक्त सभी क्षेत्रों तथा अंगों में जागृति आने से व्यक्ति, परिवार, समाज सभी सुखी और स्वस्थ बन सके।

सम्मेलनों का आयोजनः समाज के अन्तिम छोर के व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ, पूरे समाज को जगाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति, सामुदायिक परिवर्तन, आत्मविश्वास, सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा बल, बाह्य परम्पराओं से विद्रोह के लिए अनेक शीर्षस्थ विद्वानों के भाषणों से समाज परिवर्तन के लिए विविध स्तरों पर अनेक सम्मेलन आयोजत किए गए। जिनके परिणामस्वरूप जनसामान्य में सामाजिक जागृति हुई। इन सम्मेलनों से विविध प्रदेशों के आर्यसमाजी व्यक्तियों का जहाँ पारस्परिक परिचय हुआ वहीं भाषाई आदान-प्रदान भी हुआ जिसने आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वानों और लेखकों के साहित्य के अनुवाद कार्य के लिए सेतु का कार्य किया। ये सम्मेलन प्रान्तीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। जैसे मॉरीशस के अन्तर्राष्ट्रीय आर्य सम्मेलन में श्री हरिश्चन्द्र जी धर्माधिकारी इत्यादि ने सम्मिलित होकर वहाँ की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक स्थितियों का अध्ययन किय। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अर्ध शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९३३) तथा महर्षि दयानन्द जी के शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९८३-८४) में दक्षिण भारत  के हजारों कार्यकर्ता  सम्मिलित हुए और वहाँ से ऊर्जा प्राप्त कर अपने-अपने शहरों, गाँवों तथा महानगरों में अधिकसक्रियता से भाग लिया। इसी प्रकार सामाजिक सुधारों के लिए महिला सम्मेलन, वानप्रस्थियों के आत्म कल्याण के लिए वानप्रस्थी सम्मेलन, सैद्धान्तिक विषयों के विचार-मन्थन के लिए विद्वत्-सम्मेलन, आयोजित किए जिसमें डॉ. ब्रह्ममुनि,डॉ. कुशलदेव शास्त्री, डॉ. देवदत्त  तुंगर आदि ने सक्रिय भाग लिया। बसैये बन्धु ने औरंगाबाद में मराठवाड़ा स्तर का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विद्वानों तथा स्वन्त्रता-सैनानियों को सम्मानित किया गया।

निजाम के विरोध में सत्याग्रहः अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, संस्कृति एवं मानव-धर्म को मिटाने के विरुद्ध, असुरक्षा के विरुद्ध तथा राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने के लिए, व्यक्ति, परिवार, समाज में  जागृति लाकर शासन के विरुद्ध निजाम के विरोध में न्याय, धर्म, संस्कृति और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह प्रारम्भ किया। निजाम ने आर्यसमाज के विद्वानों के प्रवेश बन्दी, यज्ञ बन्दी, समाचार-पत्रों पर बन्धन तथा धार्मिक उत्सवों तथा विद्वानों के भाषणों पर बन्दी लागू कर दी, जिससे सार्वदेशिक सभा दिल्ली के नेतृत्व में उत्तर  भारत से विभिन्न नेताओं के नेतृत्व में सत्याग्रही लोगों के जत्थे पर जत्थे आए। उदगीर के दंगे से मराठवाड़ा का वातावरण भी पूरी तरह अशान्त हो गया। श्यामलाल, रामचन्द्रराव कामठे, गंगाराम डोंगरे तथा अमृराव जी को पकड़ा गया और जिन्हें कड़ी से कड़ी धाराओं में सजा दी गई उसमें श्यामलाल जी का बलिदान हुआ। गुलबर्गा में सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया जिसमें दक्षिण केसरी पं. नरेन्द्र पर अमानवीय अत्याचार किए गए, जिसमें उनकी एक टांग टूट गई। उन्हें कारावास में अनेक यातनाएँ दी गईं और खाने के लिए सीमेंट की रोटी दी गई। कठोर से कठोर यातनाओं को देने के बाद भी इन देशप्रेमी आर्य सत्याग्रहियों ने माफी नहीं माँगी, जिससे अन्य लोगों में भी देश-प्रेम की भावना जगी और जगह-जगह पर क्रूर निजाम के विरोध में आन्दोलन होने लगे जिसमें हजारों सत्याग्रहियों को कठोर कारावास हुआ तथा अनेक सत्याग्रही हुतात्मा हुए। प्रथम जत्थे के नेता महात्मा नारायण स्वामी थे जो गुरुकुल काँगड़ी के ४० विद्यार्थियों को लेकर शोलापुर से हैदराबाद गए। इसके बाद आठ आर्य नेताओं के नेतृत्व में जिनमें अन्तिम- विनायकराव विद्यालंकार थे, सत्याग्रह किया गया। जिसके सामने निजाम को झुकना पड़ा और उनकी माँगें मान ली गईं। इस सत्याग्रह में मित्रप्रिय मिसाल (नसगीर), खण्डेराव द     दत्तात्रय (शोलापुर) गोविन्दराव (नसंगा), पाण्डुरंग (उस्मानाबाद), सदाशिवराव पाठक (शोलापुर) माधवराव पाठक (लातूर) आदि का जेल में बलिदान हुआ तथा महाराष्ट्र के लगभग ४०० सत्याग्रही लोगों को कठोर कारावास की यातनाएँ भोगनी पड़ी। जिनमें शेषराव वाघमारे, गुरु लिंबाड़ी चव्हाण, दिगम्बरराव धर्माधिकारी, आराम परांडेकर, भीमराव कुलकर्णी (डॉ. धर्मवीर, कार्यकारी प्रधान, परोकारिणी सभा के पिता) रघुनाथ टेके, दिगम्बर शिव नगीटकर, तुलसीराम कांबले, दिगम्बर पटवारी, शंकरराव कापसे इत्यादि सत्याग्रहियों के नाम प्रमुख हैं। यह सूची अत्यन्त प्रदीर्घ है लेकिन स्थानाभाव के कारण कुछ व्यक्तियों के ही नाम दिए गए हैं। इन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों के त्याग, बलिदान, राष्ट्रप्रेम, सिद्धान्तप्रियता इत्यादि मूल्यों के कारण ही भारतवर्ष की आजादी के बाद लगभग १३ महीने बाद हैदराबाद राज्य स्वतन्त्र हुआ।

शेष भाग अगले अंक में……