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सत्पात्र बन सकूँ- रामनिवास गुणग्राहक

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्नासुव ।।
भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हंै, वह सब हमें प्राप्त कराइये । (ऋषि भाष्य)
यह मंत्र ऋषि दयानंद को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में आवश्यक रूप से लिखा है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का प्रारम्भ भी इसी मंत्र के साथ किया है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का शब्दार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है । भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मंत्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है । स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मंत्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है । मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मंत्र पाठ करता हूँ । पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ के पालन करने का प्रयास करता हूँ । ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मंत्रों का जो अर्थ किया है, उस ऋषि के अर्थ को ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें । मैं अपनी इस सदिच्छा को लम्बे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने क¢ समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है । यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है । हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है । सद्भाव-सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, जब वो व्यवहार मंे प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है तो वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं । व्यवहार में व्यक्त होने क¢ लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सद्गुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों क¢ फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन क¢ गर्त में गिरने लगते हंै । सुख-शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कत्र्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्संकल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य प्रदान न करें । ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं क¢ हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का सम्मान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे क¢ मानवीय सद्गुणों व सत्कर्माें क¢ साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा । मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी ?
लो क्या करने निकले थे, कहाँ जा निकले । चलो सीधे अपने विषय पर आते हैं- महर्षि दयानन्द ने मंत्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलंे और अपने मन-मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा ।
‘हे सकल जगत् क¢ उत्पत्तिकत्र्ता ! ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’ – ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो भी कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है, वह सब परमात्मा ने ही बनाया है, तो वही उस सबका स्वामी ठहरा । इसके साथ ही जान लें कि सविता शब्द ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शब्द से लिये जा सकते हंै । परमात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है । स्तुति प्रार्थनोपासना के छटे मंत्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे । अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है ।
‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों क¢ दाता परमेश्वर’ । देव शब्द का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है । सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं । क्या दुःख देने वाले को भी ? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है । परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है । यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता । संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं । योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं -‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । अर्थात हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है । जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने की पात्रता है । वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है । यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है । हमारी कमाई हुई धन-सम्पत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासक की व्यवस्था को भी मानते हंै । शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कर्माें का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए ।
मंत्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हंै और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये । मंत्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि‘- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा । यहाँ दुर्गुण और दुव्र्यसन से पूर्व सम्पूर्ण शब्द बहुत ही ध्यान देने योग्य है । हमारे जीवन में जितने भी दुर्गुण हैं, जितने भी दुव्र्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए । एक भी दुर्गुण व दुव्र्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे । अगर हम थोडा सा भी दुःख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाल फैंकंे । हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुव्र्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुव्र्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हंै । दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुव्र्यसनों को दूर भगायें । जो दुव्र्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें । हमारे आन्तरिक दुर्गुण ही हमारे दुव्र्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियांे और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुव्र्यसनों का परिणाम दुःख है । यह मंत्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है । आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हंै या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं । हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तंत्र-मंत्र से दुःख दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता ।
मंत्र में दूसरी प्रार्थना है -‘यद्् भद्रं तन्न आसुव’- अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव हंै वह सब हमको प्राप्त कराइये । जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है । यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो । ऐसे में हमारा हृदय-मन, बु़िद्ध और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते । दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा । दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है । किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते । जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं । पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन में रखी है, उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो ।
यही स्थिति मानव के जीवन की है । सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जीने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृ़िद्ध और सन्तुष्टि नहीं दे सकते । ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं । यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता । अधिकांश लोगों को लम्बे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जडे़ं जमाये बैठे हैं । जीवन को अच्छा, सुखी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खडी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है । जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वैसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुभने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है । इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही परमात्मा के निकट सफल होती है ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सम्यक् ढं़ग से प्रकट करता है । ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये ।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं । कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री । जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसक¢ लिए कल्याणकारक पदार्थाें की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं । जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सम्पन्न सदाचारी एवं सुख का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थाें को छल-बल या कल से हथिया लेते हंै, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते । सीधे शब्दों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थाें का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते । बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों व फसलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को रखना चाहते हैं । जो सच्चे अर्थाें में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शब्दों -‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है । जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कर्माें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हंै, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थाें को पाने का पात्र बन पाता है । आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढ़ेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से ड़रता है । जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी । पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है । प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है । असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता । असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है । मानव-स्वभाव की विचित्रता भी बड़ी अनौखी है । यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और निरन्तर इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थपूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबीे मद के लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।
कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा । सुधी जन जानते हंै कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं । झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुख शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हंै, उनका सुख सत्य की सम्भावना देखकर ही भाग खड़ा होता है । क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का ? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे ? वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिल कर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके ? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्माें में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने का सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण जी भी शब्दान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राणी अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने-सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पडे़ हुए अपने सद्गुणों को कर्माें में उतारिये । हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बना जाएँगें । जब हम अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वभाव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदार्थों को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे । दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा को मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखी और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधी जन के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी । आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे ।
रामनिवास गुणग्राहक
महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मृति भवन न्यास
निकट जसवन्त काॅलेज पुराना परिसर
रातानाडा, जोधपुर (राजस्थान)
सम्पर्कः- 07597894991