ओं हिरण्य गर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्।
स्दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विद्येम।।
जो स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुख स्वरूप, शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें। (ऋषि भाष्य)
परमात्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप तो है ही साथ ही वह संसार के समस्त प्रकाश करने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि लोकों को धारण भी कर रहा है। यजुर्वेद का बड़ा सर्वज्ञात मंत्र है- ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्’। उपासक समाधि-अवस्था में परमात्मा को पाकर, उस न्यारे-प्यारे प्रभु का साक्षात्कार करके आनन्द विभोर होकर सहसा कह उठता है- अरे। मैंने पा लिया उसे, उस महान् पुरुष को, जो सारे ब्रह्माण्ड़ में सुखपूर्वक शयन करता हुआ सब भक्तजनों को सतत् सुख प्रदान कर रहा है। शरीर रूपी पुरी में शयन करने के कारण मुझ जीवात्मा को पुरुष कहा जाता है और वह परम् पुरुष इस अनन्त सी दिखने वाली ब्रह्माण्ड़ पुरी में शयन कर रहा है। आहा। कैसा है वह? आदित्य वर्ण है। चमक और प्रकाश के लिए हमारे सामने सूर्य से बढ़कर कोई उदाहरण है ही नहीं। वह प्रभु भी आदित्य वर्ण है, सूर्य के समान चमकीला है, प्रकाश स्वरूप है। सुना है कि सूर्य में भी कुछ स्थान प्रकाश रहित है तो क्या परमात्मा भी…….अरे नहीं रे। परमात्मा में तो जितने भी गुण हैं वे सब पूर्णता से हैं। वह परम् पुरुष होने के साथ ही पूर्ण पुरुष भी है। उसका स्वरूप कहीं भी किंचित् भी प्रकाश शून्य नहीं है, वह तमस् अर्थात् अज्ञान-अन्धकार से नितान्त परे है। वह तो पूर्ण प्रकाशस्वरूप है, उसके प्रकाश की तुलना या उपमा संसार के किसी प्रकाशमान पदार्थ से नहीं की जा सकती। ऋग्वेद में कहा है-‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिः आगात् चित्रः प्रकेतो’ (१‐११३‐१), ‘इदं ज्योतिषाम् श्रेष्ठं ज्योतिः’= संसार में प्रकाश करने वाले इन समस्त प्रकाशकों में वह परमात्मा अतीव प्रकाशस्वरूप है। उस परम् प्रकाश प्रभु को, चित्रः प्रकेतः आगात् = अद्भुत प्रज्ञा व पुरुषार्थसम्पन्न पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् का ऋषि भी उद्घोष कर रहा है कि सूर्य चन्द्रमा व विद्युत की चमक भी उसकी चमक, उसके प्रकाश के सामने कुछ नहीं, इस लोक-अग्नि की तो चर्चा ही क्या? वेद बता रहा है कि विलक्षण गुण, कर्म स्वभाव वाला, अद्भुत प्रज्ञा (बुद्धि) और पुरुषार्थ (कार्य-व्यवहार) वाला धर्मनिष्ठ विद्वान् ही उस परमप्रकाश स्वरूप प्रभु को प्राप्त कर सकता है। समाधि-प्राप्त साधक ही- ‘वेदाहमेतं पुरूषं महान्तं’ कह सकता है। उसी की आत्मज्योति तप-साधना के द्वारा इतनी सक्षम व समर्थ हो सकती है जो उस परम् ज्योति का साक्षात् कर सके।
निर्धन-अभावग्रस्त व्यक्ति को एकाएक अपार धनराशि मिल जाए तो वह उसे सम्भाल नहीं पाता हमारी आँखों को देखने के लिए प्रकाश चाहिए, वह प्रकाश कम होगा तो असुविधा होगी लेकिन बहुत अधिक हो तो आँखें चुँधिया जाती हैं। बिजली चमकती है तो हमारी आँखंे स्वतः बन्द हो जाती है। ज्येष्ठ मास में दोपहर एक बजे कड़क-तेज धूप हो तो प्रायः सभी को धूप के काले चश्मे का सहारा लेना पड़ता है। स्पष्ट है कि हमारी सामथ्र्य जितनी होगी हम उतने ही किसी गुण या वस्तु का लाभ उठा सकते हैं। इसीलिए वेद बताता है कि उस परम् प्रकाशस्वरूप प्रभु को अद्भुत गुण सम्पन्न साधक जो तप-साधना के द्वारा अपना सामथ्र्य उतना बढ़ा लेते हंै, वे ही प्राप्त कर सकते हैं। तप के बारे में ऋषि कहते हैं- ‘कायेन्द्रिय सिद्धिऽशुद्धि क्षयात् तपसः’ (यो.२‐५३) शरीर व इन्द्रियों की अशुद्धियों को नष्ट करके इन्हें साधना के योग्य बनाना ही तप है। ‘तपति दुःखी भवति, तप्यते समर्थो वा भवति येन तत् तपः’ अर्थात तप करने वाला प्रथम तप के कारण दुःखी होता है और आगे चलकर वह इस तप से प्रभु प्राप्ति का सामथ्र्य तक पा लेता है। प्रसंगवश अत्यन्त उपयोगी समझते हुए यहाँ तप का स्वरूप भी बतना उपयोगी रहेगा क्योंकि तप के बारे में हमारे देश में बहुत भ्रान्तियाँ पनप रही हैं। आज हम किसी भी जटाधारी, राख लपेटे हुए निरक्षर भट्टाचार्य पाखण्ड़ी को देखकर उसे तपस्वी समझ बैठते हैं और उसकी सेवा को धर्म मानते हैं। हमारे ऋषि लिखते हैं- ‘सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्याय स्तपः (तैत्तÛ)’ अर्थात् सत्य बोलना, सत्याचरण करना तप है। मन-इन्द्रियों का दमन करना तप है तथा वेद आदि सद्ग्रन्थों का श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ना तप है। महर्षि मनु के शब्दों में- ‘वेदाभ्यासहि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते’ (२‐१४१) अर्थात् वेद को स्वीकार करना, वेदमंत्रों पर चिन्तन-मनन और विचार करना, वेदपाठ करना, वेदमंत्रों का जाप करना तथा वेद का प्रचार-प्रसार करना, उपदेश करना- इन सब को मिलाकर वेदाभ्यास कहते हंै और इन पाँचों कर्मों में लगे रहने को महर्षि मनु परम् तप मानते हैं। योगदर्शन सूत्र २‐२३ के भाष्य में महर्षि व्यास लिखते हैं- ‘तपो द्वन्द्व सहनम्’- अर्थात् अपने कत्र्तव्य कर्म को करते हुए सर्दी-गर्मी, धूप-छाँव, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, राग-द्वेष आदि से विचलित हुए बिना लगे रहना, कत्र्तव्य कर्म करते रहना ही तप कहलाता है। ऐसे तप करने वाले को ही परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् होता है।
स्वप्रकाश स्वरूप परमात्मा ही प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमा आदि को धारण कर रहा है। इसी मंत्र में आगे चल कर ‘सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां’ बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘सो परमात्मा इस पृथ्वी और सूर्यादि को धारण कर रहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के पाँचवे मंत्र में इस बात को दो बार कहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के लिए जिन मंत्रों का चयन किया है, उनमें परमात्मा को इस सारे ब्रह्माण्ड़ का निर्माता, संचालक और स्वामी सिद्ध करने का भूरिशः प्रयास किया गया है। इन मंत्रों का अर्थ सहित नित्य पाठ करने से कम से कम मेरे मन-मस्तिष्क पर तो यह प्रभाव पड़ा है कि मैं स्वयं को सदैव परमात्मा की निगरानी और नियंत्रण में अनुभव करता हूँ और ऐसी अनुभूति मुझे निर्भय और निर्दोष बनाने में बहुत सहायक है। पाठक स्वस्थ चित्त से विचार करें कि संध्या में आये अघमर्षण मंत्रों में परमात्मा को इस विश्व ब्रह्माण्ड़ का रचयिता और नियन्ता ही सिद्ध किया है। परमात्मा ने अपने ऋत ज्ञान और सत्रूप प्रकृति से तप पूर्वक इस ब्रह्माण्ड़ को बनाया। उसी ने सूर्य को बनाया और उसी ने दिन रात आदि को बनाकर इस निर्मित ब्रह्माण्ड़ को स्वाभाविक रूप से अपने नियंत्रण में किया हुआ है। तीसरे मंत्र में केवल यही प्रकट किया है कि परमात्मा ने सूर्य चन्द्र आदि विश्व को जैसे अब बनाया है वैसे ही पूर्व कल्प में बनाया था और ऐसा ही आगामी कल्पों में बनाएगा। इन तीन मंत्रों को महर्षि ने अघमर्षण नाम दिया है। वेद कहता है- ‘ऋतस्य धीतिर्वृजनानि हन्ति’ (ऋ 4.23.8) अर्थात् ऋत के धारण करने, ध्यान करने और चिन्तन-मनन करने से हमारी पाप वासनाएँ नष्ट होती हैं। अर्थात् परमात्मा द्वारा इस सृष्टि के बनाने और चलाने का वर्णन जहाँ भी आया है, जिन मंत्रों में ऐसा वर्णन है, उनके ध्यान और चिन्तन से हमारे अन्दर की पाप वृत्ति नष्ट होती है।
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My Only True Friend By Vatsala Radhakeesoon
My Only True Friend
Hectic, hectic is mundane life;
Human beings can barely enjoy time.
To No Human Heart I’m now attached,
Fragile expectations have long ago been smashed.
‘OM,OM,OM*’ in my mind his name rhymes,
Senses, Soul connect to the Omniscient Divine;
My anger,fears, torments he deeply understands,
His justice, love ,strength aren’t like slippery grains of sand.
I feel for me he’s always there,
Whatever he does he’s always fair,
He’s my only True Friend -The Divine
whom in my life flawlessly, constantly shines.
Vatsala Radhakeesoon
*OM: According to the Vedas, the main name of God
اوم ہی جیون ہمارا
اوم ہی جیون ہمارا اوم پرنان دھار ہے
اوم ہے کرتا ودھاتا اوم پالن ہار ہے
اوم ہی دکھ کا وناشک اوم سروا نند ہے
اوم ہے بل تج دھارے اوم کرنا نند ہے
اوم سبکا پوجتے ہے ہم اوم کا پوجن کریں
اوم ہی کے دھیان سےہم شدہ اپنا من کریں
اوم کے گورو منتر جپنے سے رہیگا شدھ من
بوڑھی دن پرتی دن بدھاگئی دھرم میں ہوگے لگن
اوم کے جاپ سے ہمارے گیاں بڑھ تا جاےگا
انت میں یہ اوم ہمکو موکش تک پہنچا یہ گا