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मख (त्रुटिहीन) प्रबन्धन (सांतसा विशेषांक प्रथम भाग) : डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

हमारे सद्-प्रयासों और उद्योगों से हमारा जीवन तथा जीवन व्यवहार मख हो। `म’ का अर्थ होता हैं `नहीं’ औंर `ख’ का अर्थ होता हैं छिद्र या त्रुटि। 5 कर्मेन्द्रियों, 5 ज्ञानेन्द्रियों – दश प्राणों, तीन हठों, चार-वाक्, एक मन, एक बुद्धि, एक धी, स्व, अहम्, अध्यात्म, अन्तरात्म, देवात्म, सभी मख हों। मख का अर्थ `त्रुटिहीन’ या शून्य त्रुटिविधा होता है।
हमारे जीवन का लक्ष्य या आदर्श हमारा ईश्वर या परमात्मा होता है। यह लक्ष्य परिपूर्ण या सम्पूर्ण होना चाहिए। यदि हमारे माने गए परमात्मा में छिद्र है, या दोष है, या जडत्व है; तो वह शून्य त्रुटि नहीं हो सकता। अपूर्ण को पूर्ण मान लेने से वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता है। परमात्मा जो पूर्ण है उसके नाम अक्षर, अक्षय, अक्षत, अव्रण, अपापविद्ध, अचल, अस्नाविर, अजर, अमर, अमृत, अरपा आदि मख परक हैं। ये सारे शब्द `मख’ शब्द का अनेकानेक सन्दर्भ़ों में अर्थ प्रदर्शित कर रहे हैं। ये सारे शब्द अलग अलग अर्थ़ों मे क्षेत्र विशेष के लिए शून्यत्रुटि विभाा का प्रबन्धन दर्शाते हैं। आज विश्व में जापान, जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों ने शून्य त्रुटि विद्या में एक क्रान्ति कर दी है। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि विश्व के देशों में शून्यत्रुटि जैसे दो शब्दो के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक शब्द भी नहीं हैं, और वे भारत से शून्यत्रुटि क्रान्ति में आगे चल रहे हैं। वे इस क्षेत्र भारत के गुरु सिद्ध हो गए हैं। भारत इसलिए पिछड़ गया कि उसने सदियों पहले संस्कृति प्रदत्त इन शब्दों का प्रयोग छोड़ दिया है।
आज भारत को आवश्यकता है कि मख प्रबन्धन को अपनाए और विश्व गुरु रूप में इसका निर्यात करे। म-ख याने निर्दोष प्रबन्धन लागू करने का व्यवहारिक रूप वेद तथा वैदिक शब्द एवं उनकी नियतियों में दिया गया है। वैदिक संस्कृति `शून्य त्रुटि’ व्यवस्था का आधारतल मानव को मानती है। मानव ही चल, अचल, धन, मशीन, संसाधनों का संचालक नियामक है। वह ही नियम बनाता उन पर चलता और उन्हें तोड़ता मरोड़ता है। मानव को `मख’ करने की महान योजना वेदों में है। उस योजना का नाम संस्कार (दोषमार्जन, हीनांगपूर्ति, अतिशयाधान), यजन (त्याग, अर्चन-लक्ष्यन, संगठन), आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष), आचार्य (माता, पिता, गुरु, अतिथि), वर्ण-धर्म (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शिल्पी, सेवी) त्रयी (ज्ञान, कर्म, उपासना) आदि हैं। इसी योजना को सार्थक करने के लिए पंचयजन, ऋतु संधी यजन, यजन द्वारा आयु कल्पन, ऋत, शृत, सत्य, बृहत्, यश, श्री, आदि नियामक हैं। मख को यज्ञ भी कहा जाता है। पूरा वैदिक साहित्य मानव जीवन मख करने के उद्देश्य से लिखा गया है। वैदिक साहित्य से सना जीवन एक महान अनुशासन योजना है। इसमें यम सामाजिक जीवन अनुशासन है जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह रूप में है तो नियम व्यक्तिगत जीवन अनुशासन है जो शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान है।
वैदिक शिक्षा शब्द अनुशासन है कि व्यक्ति मख या शून्यत्रुटि अभिव्यक्ति कर सके जिससे शून्यत्रुटि सम्प्रेषण हो। शिशु को अक्षर का स्थान, प्रयत्न और करण समझाते अपना मुंह खोल कर बताते माता पिता अक्षरज्ञान कराएं। `प’ वर्ग के अक्षरो का स्थान ओष्ठ, प्रयत्न स्पृष्ट (स्पर्शन-घर्षण) एवं करण जिव्हा एवं प्राण सम्मिश्र हैं। इसके पश्चात पाणिनी सूत्र अनुशासन, धातु अनुशासन आदि व्याकरण अनुशासन हैं। अर्थ अनुशासन हेतु निघण्टु एवं निरुक्त हैं। रचना करने का लिखन अनुशासन का नाम छन्द है। संवत्सर अनुशासन का नाम ज्योतिष है। मीमांसा कर्म अनुशासन, न्याय तटस्थता या बुद्धि अनुशासन, सांख्य स्तर या क्रम अनुशासन, योगसूत्र योगानुशासन एवं वेदांत ब्रह्म अनुशासन की पुस्तकें हैं। ये समस्त पुस्तकें महान जीवन अनुशासन सिखाती हैं। आयुर्वेद स्वास्थ्य अनुशासन, धनुर्वेद राज्य अनुशासन, गांधर्ववेद स्वर अनुशासन तथा आयोजन अनुशासन, अर्थवेद शिल्प अनुशासन के ग्रन्थ हैं। ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दश उपनिषद अर्थात दश ब्रह्म के निकटतम होने के दशानुशासन हैं। इन अनुशासनों के पठन, पालन से मानव जीवन अरण्यक अर्थात् युद्धरहित शान्त हो जाएगा। ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ये चार ब्रह्म अनुशासन हैं। ब्रह्म का अर्थ विस्तरणशील है। ब्रह्म प्रकटते अनन्त अहसास अनुभूति है। ब्रह्मानुशासन इस अनुभूति प्राप्ति का व्यवहार विज्ञान है। इसके अनन्तर ज्ञानानुशासन है, जिसे वेदानुशासन कहते हैं। वेदों को स्वर, शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, क्रिया सहित ही पढना चाहिए। इस प्रकार वेदांग, वेद-उपांग, उपवेद, उपनिषद, ब्राह्मण, वेद प्रणीत शिक्षा तथा उसका आचरण मानव को मख याने शून्य त्रुटि करता है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन मे प्रकृष्ट शून्यत्रुटि निर्माण करेगा ही।
परमात्मा के मख या शून्य त्रुटि नाम मख प्रबन्धन का व्यावहारिक रूप प्रदर्शित करते हैं। अक्षर का अर्थ है जो क्षर नहीं है, पर क्षर को जानता अपने नियन्त्रण में रखता है। क्षर नाम है परिवर्तनशील का। परिवर्तन क्षरण का महत्वपूर्ण कारण है। अक्षर प्रबन्धक परिवर्तन कारण से होनेवाले क्षरण का अग्रिम ध्यान रखता है। वैकल्पिक कलपुर्ज़ों की व्यवस्था तथा निश्चित समय के बाद अनार्थिक सुधार वाली मशीनों की परिवर्तन योजना अक्षर प्रबन्धन का भाग है। नई तकनीक के आ जाने से पुरानी तकनीक का त्याग भी क्षर या परिवर्तन, प्रबन्धन के अर्न्तगत किया जाता है। क्षमता क्षरण या अक्षमता के स्तर तक व्यक्ति या संस्थान या मशीन के पहुंचने पर उसमें उत्साहन, उन्नयन या संस्कार करना भी अक्षर प्रबन्धन है।
अक्षय वह उत्पाद या निर्माण है जिसमे क्षय या विनष्टि उन परिस्थितियों में कम से कम हो। यह गुणवत्ता प्रत्यय है। लौह धातु को क्षय से बचाने के लिए उसे परिशुद्ध दुर्लभ भाातुओं के निश्चित अनुपात में मिलाकर या उनका लेपन करके या दुर्लभ मिश्र धातु की परत चढ़ाकर अक्षय करने के उच्च गुणवत्तामय कार्य प्रयास गुरुत्वाकर्षण रहित अवस्था में किए जा रहे हैं। एक समय में बजाज स्कूटर अक्षयता में उत्तम होने के कारण सर्वाधिक पसन्द किया जाता था।
अक्षत उत्पाद में क्षत या उतार चढाव सतह दोषों खुरदरेपन का न होना उसका अक्षत होना है। अक्षत नाम उस चावल का है जो पूर्ण कोढ़े सहित भूरापन लिए हुए ढेंकी द्वारा सास-बहू या परिवार सदस्यों के सौंहार्द सामंजस्यमय रिस्तों के रहते छिलका अलग कर प्राप्त किया जाता है। अक्षत चावल प्राप्त करना एक अति लम्बी सावधान जागरूक खेतबनाई, बीज चुनाव, रोपा लगाई, सिंचाई, निंदाई, कटाई, छिटकाई, कुटाई, फटकाई आदि का परिणाम है। अक्षत चावल मध्यम पाचन होने के कारण मधुमेह के सावधान रोगियों द्वारा भी उपयोग में लाया जा सकता है। अन्य चावल द्रुत पाचन के कारण इन्सुलिन उत्पादन सहसा बढ़ा देने के कारण हानिकर होते हैं। अक्षत चावल की भारत में संस्कारों में इतनी महत्ता इसीलिए है। व्यवस्था में `क्षत’ या `घाव’ या व्यतिक्रम या उबड़-खाबड़पन का तत्काल इलाज अक्षत प्रबन्धन की आवश्यकता है। अन्यथा घाव सड़ जाने पर कई बार अंग ही काट देना पडता है। भिलाई इस्पात संयन्त्र में प्रारम्भिक प्रशिक्षण व्यवस्था में लापरवाही हो जाने के कारण एक समय वह अव्यवस्था बढ़ जाने पर उसे सुधारने अन्त्य प्रयास करने पड़े थे।
अव्रण व्यवस्था अक्षत से अधिक सावधानी चाहती है। क्षत छोटे सतही घाव का नाम है, पर व्रण बड़े फोडे का नाम है। वह फोडा जिसकी जड़े गहरी हों व्रण कहलाता है। भारतीय संविधान में `किन्तु’ `परन्तु’ `लेकिन’ के महा प्रावधान व्रण हैं। मूल नियमों में रह गई भूलें वे व्रण हैं जो व्यवस्था के लिए, उम्र भर के लिए रिसते घाव का काम करती हैं। अव्रण व्यवस्था की मांग है कि व्यवस्था के मूल प्रावधान या नीति प्रावधान बिलकुल स्पष्ट याने ऋत, शृत, सत्य, ज्ञान, श्रम, तप, तितिक्षा, मुमुक्षुत्व तत्वों पर आधारित हो। इनमें एक खोट, एक त्रुटि कभी कभी सब तहस-नहस कर देती है। आर्य समाज श्रेष्ठ सिद्धान्त संस्था है। उसमें “प्रजातन्त्री चुनाव” के व्रण ने पूरी संस्था को तहस नहस कर डाला है।
अपापविद्धम् प्रबन्धन चल मानव संसाधन से सम्बधित है। मानवीय दोषों का नाम पाप है। निर्दोष मानव अपाप है। सदा निर्दोष या हर बार निर्दोष मानव अपापविद्ध है।
अमल उस व्यवस्था का नाम है जिसमें मल या अपशेष नाम मात्र का ही हो तथा उसका भी उपयोग कर लिया जाए। शून्य अवशेष होना या अमल व्यवस्था एक आदर्श व्यवस्था है। इस्पात संयंत्र में स्लैग से स्लैग सीमेंट, प्रदूषित जल का पुनरुपयोग, ऐश से गेंलीनियम धातु, ऐश का सड़को या ईटों में निर्माण उपयोग, स्क्रेप का पुर्नगलन, वायु प्रदूषण नियन्त्रण आदि व्यवस्था `अमल’ प्रबन्धन के अर्न्तगत ली जा सकती है। अमल व्यवस्था का मापदण्ड पर्यावरण मन्त्र या शान्ति मन्त्र है, जिसके अनुसार 1) सहज प्राकृतिक प्रकाश व्यवस्था, 2) अन्तरिक्ष व्यवस्था, 3) आधार व्यवस्था, 4) प्रवहणशील पदार्थ व्यवस्था, 5) औषध अन्न व्यवस्था, 6) वनस्पति फल व्यवस्था, 7) सामंजस्य व्यवस्था, 8) देव व्यवस्था, 9) ज्ञान व्यवस्था, 10) फैलाव व्यवस्था, 11) स्थैर्य एवं सन्तुलन व्यवस्था, 12) आधिभौतिक व्यवस्था, 13) आधिदैविक व्यवस्था, 14) आध्यात्मिक व्यवस्था की अपेक्षा की गई है कि मानव इन्हे प्राकृतिक शुद्ध अप्रदूषित जी सके। ध्वनि, रूप, स्पर्श, रस तथा गन्ध की अति मानव के लिए मल या प्रदूषण है। ये मानव की कार्य क्षमता को कम करते हैं। अतः इनका निराकरण कर अमल व्यवस्था लागू करना उद्योगों की महान आवश्यकता है।
अमल व्यवस्था से युजित मख प्रबन्धन कः मल है। क्या है मल ? कैसा है मल। मल प्रबन्धन के कः मल स्वरूप में मल का स्तरीकरण किया जाता है। इसके लिए सारे मलों, अपशेषों की सूची बना ली जाती है। इस सूची में सर्वाधिक नुकसानकारी मलों को पहले और बाकी मलों को बाद में रखते हैं। इस क्रम में पहले वे पच्चीस प्रतिशत मल अलग कर लिए जाते हैं जो पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण निराकरण की नजर से होते हैं। इनका निराकरण कर देने से व्यवस्था पचहत्तर प्रतिशत के करीब समस्या मुक्त हो जाती है। अन्य मलों का निराकरण भी क्रमशः कर लिया जाता है।
स्नाविर नाम सबन्धन का है। नस नाडियों के युजन के सम्बन्ध में इस शब्द का प्रयोग होता है। ये युजन अतिजटिल हैं। उद्योग जगत में अन्तर्विभागों तथा सम्प्रेषण आदि के जटिल अन्तर्सम्बन्धों को सहज और सरल करना अस्नाविर प्रबन्धन है। एल्टन मेयो ने कार्य दौरान प्रति घण्टे 5 मिनिट विश्राम का प्रावधान करके व्यवस्था को अस्नाविर करने का प्रयास किया था। उससे उत्पादकता में तेरह प्रतिशत वृद्धि हुई थी। सम्प्रेषण का आधार पंच परीक्षा, अवयय (वैज्ञानिक विधि) प्रमाणसम्मत एवं दर्शनसम्मत होने से सम्प्रेषण यथावत, सारगर्भित, अर्थपूर्ण तथा वैज्ञानिक ही होगा और व्यवस्था सम्प्रेषण क्षेत्र अस्नाविरं होगी।
`अजर’ वह उत्पाद है या व्यवस्था है जो जरा को प्राप्त नहीं होती है। उम्र प्रभाव को जरा कहते हैं। जिस प्रकार सामान्य मानव की क्षमता उम्र के साथ घटती है, उसका शरीर वृद्ध होता है, बाल सफेद हो जाते हैं, त्वचा में झुर्रियां पड़ जाती हैं, याददाश्त कम हो जाती है; उसी प्रकार सामान्य संस्थान भी बूढे हो जाते हैं। उनके भवनों के प्लास्टर उखड़ जाते हैं, उत्साहन कम हो जाता है, कर्मचारी मानसिकता परिवर्तित हो जाती है, संस्थान रूढ़ी ग्रस्त होकर एक लीक पर चलने लगते हैं, कल-पुर्जे घिस जाते हैं, सारी व्यवस्था खटर-खटर करने लगती है। अजर प्रबन्धन इस तथ्य को ध्यान में रखते व्यवस्था को नूतनीकरण (उसकी भौतिक व्यवस्था का उन्नयनीकरण), नवीनीकरण (मशिनों को परिवर्तन), पुनर्जागरण (नव विचारों का संस्थान में प्रवेश), योग (नए लक्ष्य निर्धारित कर उससे युजन की प्रेरणा), नव अनुभवीकरण (पुराने अनुभवों का नए क्षेत्रों मे प्रयोग), सांतसाकरण (सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक द्वारा उन्नयन) आदि एक साथ करके व्यवस्था को अजरता देता है।
अमर वह व्यवस्था है जो मरती नहीं है। व्यक्ति आधारित व्यवस्था मरणशील होती है। प्रजातन्त्र व्यवस्था में तथा कई संस्थानों में मुख्य कार्यकारी अत्यधिक शक्तिशाली होता है। ऐसी अवस्था में प्रधानमन्त्री या मुख्य कार्यकारी के परिवर्तन के साथ ही पूरी व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है, या मरण को प्राप्त होती है। अमर प्रबन्धन का मुख्य तत्व समाज है। व्यक्ति मरण तय है, समाज मरण असम्भव है। इसी प्रकार व्यक्ति नियम अस्थायी है, ऋत-शृत नियम स्थायी हैं। यदि व्यवस्था व्यक्ति नियमाधारित है तो उसका मरण निश्चित है।
ऋत तथा शृत नियमाभाारित व्यवस्था अमर रहती हैं। ऋत शाश्वत प्राकृतिक नियमों का नाम है। शृत आप्त ज्ञान या पंच परीक्षा द्वारा सिद्ध ज्ञान है। भारत सदियों से भी अधिक अमर रहा कि उसके पास सिद्ध ज्ञान- वैदिक साहित्य का आधार था। बौद्ध-जैन काल के विकृत प्रभावों में वह ज्ञान भारत खोता चला गया। बुद्धि को मूर्ति जडत्व से जोड़ दिया गया और उसके लिए पतन के सारे द्वार खुल गए। ऋत शृत व्यवस्था यशकर होती है। समाज यश का आदर करता है। व्यक्ति मर जाता है पर उसका यश जिन्दा रहता है। यश अमर व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण तत्व है।
अमर और अमृत करीब-करीब समानार्थी शब्द हैं पर इनमें प्रयोग का अन्तर है। अमर शब्द दीर्घकालीन व्यवस्था अमरता आधारित है तो अमृत वर्तमानकालिक व्यवस्था का द्योतक है। मृत्योर्मा अमृतं गमय। मृत्यु नहीं अमृत में गति कर। समय से तेज गति के सवार सिद्ध को अवकाश ही अवकाश है। अवकाश है कि वह और अधिक कार्य सहजता पूर्वक कर सके। अमृत में गति एक महान प्रबन्धन का द्योतक है। अमृत का अर्थ है मृत नहीं। दो कल दो मरण हैं। अतीत कल मृत है तथा भविष्य कल मृत है। आज वर्तमान पल अमृत है, जिन्दा है। आज भरपूर कार्य करना है, यही अमृत प्रबन्धन है। जो संस्थान आज में कार्य करते, आज का ध्यान रखते जीते हैं उनके दोनों कल भी जीवित हो जाते हैं। परमात्मा अमृत है कि उसका कल नहीं होता। परमात्म प्रबन्धन का तकाजा है कि उससे जुड़कर उसके गुणों को धारण करके अपने दोनों कलों को भी अमृत करके आज रूप में जियो। आज के अमृत का ही उसमे विस्तार करो। `कल’ की छाया आज पर न हो वरन आज का प्रकाश कल पर हो। आज को विचार पूर्वक जीना है।
एक व्यक्ति कल की चिन्ताओं में डूबा चला जा रहा था। सडक पर एक केले का टुकड़ा पड़ा हुआ था उसका पैर पड़ा और वह रपट-फिसल कर गिर गया। अचानक रपट-फिसल जाने का कारण `रप’ होता है। यह बिना विचारे सहसा होता है। विचार हीन कार्य रप होता है। `रप’ नाम भी पाप का, त्रुटि का या `रव’ का है। रप छिद्र है, दोष का छिद्र है। चाहे उद्योग हो, चाहे घर हो, चाहे सड़क हो, चाहे कार्यालय हो; रप या दोष या त्रुटि या छिद्र या रव नुकसानदेह ही होता है। सड़क पर दोष तो कई कई मृत्युओं का कारण बन जाता है। घर में दोष तलाकों, बटवारों को जन्म देता है। उद्योगों में दोष गुणवत्ताहीनता, उत्पादन हास को जन्म देता है। कार्यालय में दोष कार्यहीनता को जन्म देता है।
इन दोषों का निराकरण व्यवस्था का `रप’ याने फिसल त्रुटि से रहित करना `अरपा’ प्रबन्धन है। अरपा प्रबन्धन का प्रमुख तत्व है `जागरूकता’।  “जागरूकता शत प्रतिशत, त्रुटि या रप शून्य प्रतिशत” यह अरपा प्रबन्धन का आधार तथ्य है।
इस प्रकार अक्षर, अक्षय, अक्षत, अव्रण, अपापविद्ध, अमल, अस्नाविर, अजर, अमर, अमृत, अरपा आदि शब्द `मख’ प्रबन्धन या “शून्य त्रुटि प्रबन्धन” की महान विधाए हैं। ये सारे के सारे शब्द परमात्मा के लिए भी वेद में प्रयुक्त हैं। इन शब्दों का वेद-ज्ञान हमें परमात्मा तक पहुंचाता है तथा उनका विद्-ज्ञान संसार में सत्ता, विचार, उपयोग, लाभ भी दिलाता है। भारतीय वैदिक साहित्य वैज्ञानिक आधार पर लिखा गया है जो हमें आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक ज्ञान देता है। इसीलिए सर्वांगणीय उपयोगी है।
हमारी संस्कृति के छै दर्शन जैसा कि हम पूर्व में इंगन कर आए हैं छै अनुशासन हैं। ये अनुशासन मानव तथा व्यवस्था को `मख’ करते हैं। जैमिनी का मीमांसा (1) मीमांसा : तथ्य संकलन, विश्लेषण, शास्त्रीय सिद्धान्त मनन चिन्तन, (2) नित्य कर्म़ों का या दैनिक कर्म़ों का आयोजन कर उन्हें `मख’ करने की जीवन कार्य योजना, (3) नैमित्तिक कर्म़ों की या विशिष्ट लक्ष्य प्राप्ति (माईल स्टोन उपलब्धि) तथा (4) पुरुषार्थ आदि पर योजना बनाने की, (5) काम्य- अ) निषिद्ध या त्रुटि कारक कार्य़ों के निराकरण की योजना, ब) प्रायश्चित्त याने अचानक त्रुटि हो जाने पर सुधार की योजना, स) यज्ञ करने का दर्शन है। इसे जीवन मख करने या शून्य त्रुटि करने का दर्शन कह सकते हैं।
आधुनिक शून्य त्रुटि विचारक जोसेफ एम.जुरान की मख योजना इस प्रकार है-
(1) लक्ष्य निर्धारण, (2) लक्ष्य हेतु आयोजन (संख्या 1 और 2 को मीमांसा कहा जा सकता है), (3) संसाधन विकास, (4) लक्ष्य का गुणात्मक अनुवाद (संख्या 3 एवं 4 नैमित्तिक निमित्त कारण या संसाधनात्मक चिन्तन है), (5) अपक्षय में कमी, (6) माल देने में सुधार, (7) स्वसंतोष, (8) ग्राहक सन्तुलन, (9) लाभ। इनको पुरुषार्थ, यजन, काम्य-निषिद्ध तथा प्रायश्चित्त आदि कार्य़ों के अन्तर्गत ले सकते हैं। मीमांसा दर्शन जीवन संष्लिष्ट है। जबकि जुरान दर्शन उद्योग संष्लिष्ट है।
जैमिनी की शून्य त्रुटि विधा का विवरण देना यहां आवश्यक है। जैमिनी दर्शन को पूर्व मिमांसा कहा जाता है। पूर्व मीमांसा का विषय है धर्म जिज्ञासा या धर्म अनुशासन। मूलतः धर्म आत्मा को मख करने की योजना है। तन जल से, मन तप से, बुद्धि परिश्रम से, धी सत्य से, स्व ऋत से, स्वः शृत से तथा आत्मा धर्म से मख या शून्य त्रुटि होती है। मीमांसा का पहला सूत्र है- अब धर्म अनुशासन का प्रारम्भ। वर्तमान युग में धर्म का “अर्थ आधार उद्देश्य” है। दूसरे उद्देश्य में “प्रेरण को धर्म लक्षण” कहा गया है। प्रेरण : अ) प्रेरणा, ब) उपदेश, क) आदेश तत्वों से बना है। ये तीनों नियत हैं इसलिए नियम हैं।
नियम के तीन क्षेत्र हैं 1) ऋत, 2) शंसन या शासन तथा 3) श्रृत। ऋत शाश्वत प्राकृतिक नियम हैं। शंसन शासन नियम हैं। शृत शाश्वत नैतिक नियम हैं। शाश्वत प्राकृतिक नियमों के अनुरूप शून्य त्रुटि व्यवस्था के लिए चलना एक बाध्यता है। शंसन पकड़े जाने पर दण्डात्मक है। अधिकतर ये शासन की सर्वव्यापकता, कठोरता, स्वअनुशासन बद्धता पर निर्भर है। शृत नियम या नैतिक नियम अपेक्षा या चाहिए आधारित हैं। ये हर व्यक्ति के लिए बाध्यकर नहीं है। इनका नियन्ता ब्रह्म है जिसका न्याय निश्चित है, पर मानव समझ से परे है। शासन को ऋत तथा शृत नियमों की व्यवहार प्रयोग सार्थकता पर आधारित होना चाहिए, तब `मख’ उत्पाद की प्राप्ति होती है। सारांश में प्रकृति नियम प्रेरणा देते हैं। नैतिक नियम उपदेशात्मक हैं और राज्य नियम आदेशात्मक तीनों का समन्वित रूप मानव के लिए महत्वपूर्ण है।
जैमिनी का धर्म कर्मपरक है। जैमिनी गुणवत्ता गुरु था। वह द्रव्यों के उपयोग क्षेत्र में गुण और संस्कार की महत्ता का प्रतिपादन करता है। द्रव्य का “गुणानुरूप संस्कार” एक महान इन्जीनियरिंग हैं। संस्कार में तीन चरण आवश्यक हैं 1) दोषों का निराकरण करना यह निराकरण शून्य तक होना चाहिए। 2) हीन अंगों की प्रतिपूर्ती योजना का क्रियान्वयन करना और (3) अतिशय का (अतिरिक्त) आधान करना कि गुणवत्ता तथा उपयोग में और वृद्धि हो। इन चरणों में गुणों के आधार पर परिष्कार का ध्यान रखना आवश्यक है। गुण संस्कार के साथ पुरुषार्थ और यजन तत्व भी जैमिनी की नजर में सतत रहते हैं।
चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उद्योग जगत के महान सन्देश पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्त का भी प्रतिपादन करते हैं। धर्म का पच्चीस प्रतिशत अर्थ, काम और मोक्ष इन तीनों में हैं। धर्म वह पच्चीस प्रतिशत है जो पचहत्तर प्रतिशत महत्व पूर्ण है। इसका दृढ़ता पूर्वक पालन अर्थ, काम, मोक्ष के पचहत्तर प्रतिशत को सरल साध्य का देता है।
यजन के दो रूप हैं। कव्य तथा हव्य। कव्य अर्थ सहित मन्त्र पाठ है तथा हव्य हवन करना है। ये दोनों ही प्रधान कार्य हैं। सिद्धान्त, उद्देश्य तथा कार्य साथ साथ होने से कर्म गुणवत्ता बढ़ जाना एक स्वाभाविक तथ्य है। यजन अपने आप में भी त्यागन, लक्ष्यन, संगठन अर्थात प्रबन्धन है। इस प्रकार जैमिनी का करीब 5000 वर्ष पुराना गुणवत्ता प्रबन्धन व्यापक है।
मीमांसा दर्शन के अनुसार कर्म के साथ फल जुड़ा है। फल मनुष्य के लिए है और मनुष्य कर्म के लिए है। पुण्य का सुख से और पाप का दुःख से सम्बन्ध नैतिकता की मांग है। शून्य त्रुटि कार्य निर्दोष कार्य या पुण्य है और दोष पूर्ण या त्रुटि पूर्वक कार्य पाप है। शून्य त्रुटि सुख और त्रुटि दुःख देती है। मनुष्य कर्म करता है। कर्म के बाद फल मिलनें में अन्तराल रहता है। हर कार्य समाप्त होने पर फल नहीं देता है। कर्म समाप्त होने पर `अपूर्व’ में बदल जाता है। अपूर्व एक शक्ति का नाम है इस शक्ति में कर्मफल अव्यक्त रूप में कहता है और समय आने पर व्यक्त हो जाता है। कार्य का कौशल यह है कि वह उस अपूर्व का सृजन करे कि अपूर्व भव्य फल दे।
कर्म़ों के अध्यक्ष ब्रह्म एवं शासन है। शासन क्षेत्र में अपूर्व प्रायः ज्ञात रहता है। कभी कभी स्थानान्तर कार्य परिवर्तन आदि अज्ञात भी होते हैं। ब्रह्म क्षेत्र में अपूर्व फल रूप में बहुज्ञ को अंशज्ञात होता है। पर उसका समय अज्ञात रहता है। इसी कारण से अपूर्व को प्रायश्चित्त द्वारा कुछ अंश परिवर्तित किया जा सकता है। कर्म अपूर्व होकर ही फल देता है।
शासन ने शाश्वत नियम विरुद्ध अपूर्व को अग्रिम तथा ऋण रूप में देना शुरू कर कर्म से पूर्व कर दिया है। इसके कारण कार्य के `मख’ या शून्य त्रुटि होने में बाधा पडेगी। आयोजन में जो स्थान सटीक या ऑप्टिमम का है कर्म में वही स्थान अपूर्व का है। अपूर्व की समझ विरले विद्वानों को होती है। ऐसे ही सटीक भी विरले लोग समझते हैं। अपूर्व और सटीक शून्य त्रुटि क्षेत्र में आधार स्थान रखते हैं।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। पुर या अस्तित्व में उषन पैदा करके उन्नत भावों तक पहुंचा देने वाले तत्वों का नाम पुरुषार्थ हैं। धर्म का अपूर्व आत्मा को उन्नत करके परमात्मानुभूति देने वाला है। अर्थ का अपूर्व अर्थ पार भाव उन्नयन देने वाला है। काम का अपूर्व अपनत्व का उच्च रूप मिलकर एक, नेक, सम संकल्प-हृदयभाव देने वाला तथा मोक्ष का अपूर्व अव्याहत आनन्द नन्द प्रदाता है। सामान्य जगत में अपूर्व कैसे मिलता है, कब मिलता है इसका एक उदाहरण इस प्रकार है-
मैं 1964 – 70 में धर्मार्थ दवाखाना सुपेला में चलाता था। 2005 में मैं बाजार गया एक जगह आलू बोंडे खरीदे। उस महिला ने पति की नजर बचाकर दो आलू बोंडे अतिरिक्त दे दिए थे जो घर आने पर मुझे पता चला। उसका कारण समझ न आया। एक और बाजार में उस ठेले पर जाने पर मेरे पूछने से पहले ही उस महिला ने अपने बेटे से कहा इनको ज्यादा देना, मैंने इन्हें पहचान लिया है। बचपन में मुफ्त इलाज करते थे। फिर मुझसे बोली- आप वही डाक्टर हो न सुपेला वाले..?
मेरे जीवन में अनेकानेक उदाहरण ऐसे अपूर्व द्वारा प्राप्त कर्मफलों के हैं। जहां भ्रष्ट जमानें में भी मेरा कार्य पूर्व के पुण्य कार्य़ों के कारण ईमानदारी पूर्वक सहजतः हो गया है। पुण्य कर्म़ों का अपूर्व कार्य क्षेत्र में, उद्योग क्षेत्र में भी सहायक होता है। मैं निर्धन बास्तियों में बच्चों को खेल खिलाता आ रहा हूं। ये ही बच्चे कालान्तर में मजदूर बन ठेकेदारों के पास कार्य करते हैं। सुरक्षा विभाग प्रमुख होने के कारण बचपन में खेल खिलाए उन श्रमिकों ने सुरक्षा क्षेत्र में अपूर्व मदद दी। इस मदद पाने का मूल कारण खेल खिलाने के कार्य का `अपूर्व’ ही था।
दूसरा प्रबन्धन गुरु जो शून्य त्रुटि दक्ष है वह है जोसेफ एम. जुरान। इसके शून्य त्रुटि सिद्धान्त के निम्न लिखित चरण हैं- 1) लक्ष्य निर्धारण, 2) लक्ष्य हेतू आयोजन, 3) संसाधन विकास, 4) लक्ष्य का गुणात्मक अनुवाद, 5) अपक्षय में कमी, 6) माल देने में सुधार, 7) स्व सन्तोष, 8) ग्राहक सन्तुष्टि, 9) लाभ। इसकी तुलना हम उत्तर मीमांसा दर्शन या ब्रह्म दर्शन या वेदान्त दर्शन से करें तो हम पाते हैं कि दोनों में अन्त्य लक्ष्य छोड़ पर्याप्त समानता है। उत्तर मीमांसा के चरण क्रमशः इस प्रकार हैं : 1) लक्ष्य ज्ञान, 2) उपासना लक्ष्य के निकटतम चिन्तन, 3) समन्वय, 4) अविरोध, 5) साधन, 6) फल निर्णय, 7) अ) हेय- छोड़ने योग्य, ब) हेय हेतु- छोड़ने योग्य होने के कारण, क) हान- प्राप्ति योग्य, 8) हानोपाय- प्राप्ति योग्य होने के कारण। उत्तर मीमांसा उच्च कोटि का लक्ष्य सिद्धि शून्यत्रुटि-दर्शन है। इसका अति संक्षिप्त व्यवहार उपयोग यहां दिया जा रहा है।
लक्ष्य से ज्ञानात्मक एकाकार शून्य त्रुटि की पहली शर्त है। इसके लिए यथापूर्व अर्थात पूर्व में उपलब्ध जांचित ज्ञान का सहारा आवश्यक है। इसके आरम्भ के चार सूत्र- 1) ब्रह्म या लक्ष्य जिज्ञासा, 2) कार्य जगत की उत्पत्ति, 3) शाóाsं के अनुरूप लक्ष्य कार्य का कारण, 4) लक्ष्य कार्य में व्यापक होता है। लक्ष्य कार्य का उच्च कोटि का समन्वय ही कार्य को शून्य त्रुटि कर सकता है। वह इन सूत्रों में है। कार्य के कारण में `ईक्ष’ तथा `आनन्द’ होना जरूरी है। “ईक्षते न अशब्दम्” एक महान कार्य प्रबन्धन है। सामर्थ्यवान जो सामर्थ्य सीमा (अधिकार सीमा) के बाहर नहीं जाते, नहीं कहते, नहीं कार्य करते वे शब्द आनन्द या शब्द सार्थकता प्राप्त करते हैं तथा आनन्दपूर्वक कार्य सुसम्पन्न करते हैं।
ब्रह्म जगत की उत्पत्ति का आदि कारण है। वह जगत में व्याप्त रहता है। तथा जगत की उत्पत्ति करता है। जगत का निर्माण शाश्वत प्राकृतिक तथा नैतिक नियमानुसार हुआ है। यह एक त्रुटिहीन प्रबन्धन है, उद्योग प्रबन्धन है या उद्योगपति है। उसका उद्योग में व्यापक होना अत्यावश्यक है। व्यापक रहते हुए कार्यात्मक रूप भी संवारना या कायम रखना है। उद्योग जगत शाश्वत प्राकृतिक तथा नैतिक नियमों के अनुरूप होना है। जगत में परमात्म सहज शक्ति (ईक्षण) द्वारा कार्यरत है। उद्योगपति को भी कार्य जगत् में सहज शक्ति व्याप्त रहना है। सहज शक्ति व्याप्ति व्यवहार में जटिल तथा कठिन श्रमसाध्य प्रक्रिया है, पर प्राप्ति की जा सकती है। उसके लिए शर्धं व्रातं गणं के द्वय द्वय के साथ ऊंगलियों के क्रम अनुक्रम अनुरूप प्रशंसनीय नेतृत्व का प्रयोग आवश्यक है।
जड संसाधन चाहे वह धन ही क्यों न हो, स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकते। प्रकृति जड है, असत् है, उसमें सत् रंग, रूप, आकार, नियमबद्ध गति ब्रह्म ईक्षण से होती है। “असतो मा सद्गमय” महान प्रबन्धन सूत्र है। प्रयासपूर्वक आकृतिहीन जड संसाधनों को रंग रूप मय उपयोगी (सत्) पदार्थ़ों में परिवर्तित करना ही उद्योग है। प्रकृति में ही शून्य त्रुटि अर्थ निहित है। प्रकृति “प्रकृष्ट कृति” या शून्य त्रुटि कृति है। प्रकृति रचना यथापूर्व होती है। अनुभव का दुहरना है। वेदान्त (2/2/25) अनुभव के दुहरने को स्मरण कहता है। सारे नित्य कर्म अनुभव स्मरण से सहज कौशल पूर्वक स्वयमेव होते रहते हैं। मानव को उनका पता नहीं चलता। उद्योग कार्य में भी ऐसे कार्य होना शून्य त्रुटि अवस्था के लिए आवश्यक है।
स्वभाव जड में नहीं होता। स्वभाव का अर्थ एक ही जांचा परखा नियमबद्ध अपरिवर्तित कार्य करना। जड में चैतन्य की क्रिया से कई कार्य यथा संयोग वियोग, आकर्षण विकर्षण घटते हैं, अतः जड में स्वभाव नहीं होता है। जड में किए हुए परिवर्तनों का कारण चैतन्य है। वेदान्त दर्शन उन्नति उद्योगों को मात्र गति नहीं मानता है, वरन एक निश्चित गन्तव्य-लक्ष्य की ओर की गति को उन्नति उद्योग मानता है। इस गति की दायक व्यवस्था होती है। जिस प्रकार जीव की गति जिस नियम के अर्न्तगत होती है, जीव उसका नियन्ता नहीं है। इसी प्रकार शून्य त्रुटि के नियमों के निर्णायक कर्मचारी से इतर (अलग) होते हैं। त्रुटि अधिसीमा भी कार्य उत्पादन अनुसार अलग अलग होती है। वेदान्त का चक्रीय सिद्धान्त यह है कि विकास क्रम प्रति विकास क्रम का उलटा होता है। विकास आरम्भ, स्थिति, अन्त क्रम में होता है तो प्रति विकास अन्त से स्थिति आरम्भ अवस्था में पहुंचाता है। निर्माण में जो भाग अन्तिम अवस्था में बनाया जाता है, विध्वंस में वह सर्व प्रथम तोड़ा जाता है। वेदान्तानुसार कारण से कार्य की उत्पत्ति स्थिति चालन होता है और अन्ततः कार्य पुनः विपरीत क्रम में कारण में लीन हो जाता है।
वेदान्त दर्शन कर्ता और कारण में सूक्ष्म धरातलीय भेद करता है। यह भेद उद्योग जगत के लिए शून्य त्रुटि व्यवस्था में सहायक हो सकता है। वेदान्त कहता है- “इन्द्रियां प्राकृत हैं और आत्मा के कारण हैं। यही स्थिति मन की है।” आत्मसंयुक्त सूक्ष्म आत्म संचालित होने के कारण इन्द्रियों तथा मन के साधनों को हम न तो विशुद्ध प्रकृति कह सकते हैं न विशुद्ध चेतना। उद्योग जगत में यह सिद्धान्त इस लिए महत्वपूर्ण है कि आत्मा के साधन इन्द्रियां मन है और इन्द्रियों के साधन औजार, उपकरण, कल-पुर्जे, मशीनें हैं। जड़ पदार्थ़ों पर जड़ साधन मिश्र करणों द्वारा आत्म संचालित होकर उत्पादन करते हैं। विश्व उद्योग जगत को इस सांतसा निर्माण सिद्धान्त को समझना होगा अन्यथा हर शून्य त्रुटि व्यवस्था अधूरी ही रहेगी।
सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक चैतन्य आत्मा, अंश चैतन्य करण प्राण, इन्द्रियों, प्रकृति परिष्कृत उपकरण (करण के करण) एवं उत्पाद जड़ जिसे परिवर्तित होना है तक की व्यवस्था में शून्य त्रुटि कर हर दृष्टि उपयोगी सुसंगत उत्पाद का विशुद्ध रूप पाने में विश्वास रखती है। इस व्यवस्था के साथ इसे परिशुद्ध शून्य त्रुटि करने के लिए हेय अर्थात त्यागनीय कार्य़ों, पदार्थ़ों, कर्मचारियों, व्यवस्थाओं की सूची, हेय-हेतु इनके त्यागनीय होने कारण तथा हान लक्ष्य प्राप्ति में सहायक कार्य़ों, पदार्थ़ों आदि की सूची, हानोपाय इन हानों का सुसंगत उत्तम प्रयोग करने के उपायों की सूची एवं उनके अनुरूप कार्य सोने में सुहागा होंगे।
`हान’ हमारी शक्तियां हैं, `हानोपाय’ हमारी संभावनाएं हैं, `हेय’ हमारी कमजोरीयां हैं और `हेयहेतु’ हमारे खतरे हैं। यह `शकसंख’ (शक्ति, कमजोरी, सम्भावना, खतरे) प्रबन्धन है। जिसे आज के युग में ;SWज्द्ध स्वोट- स्ट्रेंथ, वीकनेस, अपोर्चुनिटी और थ्रेट प्रबन्धन कहते हैं।
उत्तर मीमांसा, पूर्व मीमांसा का उद्देश्य सांसारिक मख प्रबन्धन नहीं है, पर ये मख प्रबन्धन मोक्ष मार्ग पर चलते चलते प्राप्त होते हैं। जापानी शून्य त्रुटि के गुरु गोनिची तागुची और शिंगेयो शिन्गो शून्य त्रुटि के निम्न लिखित तत्व देते हैं- 1) पोके वोके या त्रुटि बराबर शून्य, 2) त्रुटि निराकरण अविलम्ब तत्काल- 1. व्यवस्था अभिकल्पन, 2. परिसीमा आकलन (पैरामीटर डीझाइन) 3. विचलन सीमा अभिकल्पन।
भारतीय संस्कृति का न्याय दर्शन जिसका उद्देश्य निःश्रेयस अन्त्य लक्ष्य प्राप्त करना है, एक व्यवस्था का अभिकल्पन करता है, जिसमें सोलह तत्व हैं। वे इस प्रकार हैं- 1) प्रमाण, 2) प्रमेय (प्रमाण के विषय), 3) संशय, 4) प्रयोजन, 5) दृष्टान्त, 6) सिद्धान्त, 7) अवयव, 8) तर्क, 9) निर्णय, 10) वाद, 11) जल्प, 12) वितण्डा, 13) हेत्वाभास (सत्य से विचलन), 14) छल, 15) जाति, 16) निग्रहस्थान। इन तत्वों के नामों से ही मख प्रबन्धन के अति उच्चस्तरीय स्वरूप का भान होता है। आधुनिक विश्व का विकासाधार वैज्ञानिक विधि या साइऔटिफिक मेथड है। न्यायदर्शन वैज्ञानिक विधि का परमतम पितामह है। अति संक्षेप में हम इसका स्वरूप एवं वर्तमान युग में इसकी उपादेयता देखें-
न्यायदर्शन प्रमाण से अर्थात कसौटी से शुरू होता है। जांच के साधन का नाम प्रमाण है। सत्य-असत्य की पहचान प्रमाण से होती है। प्रमेय उन विषयों का विवरण है जिन पर प्रमाण कसौटी का प्रयोग किया जा सकता है। यह कसौटी की उपादेयता का क्षेत्र है। भिन्न और परस्पर विरोधी धारणाओं में चुनाव न कर पाना संशय है। संशय निवृत्ति निश्चय में है। जिस अर्थ को प्राप्त करने या छोड़ने का निश्चय करके उसे पाने या त्यागने की यत्न प्रक्रिया प्रयोजन है। वर्तमान युग का शून्य त्रुटि या मख विज्ञान प्रयोजन के इर्द गिर्द घूमता है। न्याय दर्शन के प्रमाण कसौटी, इस कसौटी कसे प्रमेय, विरोधी-अविरोधी धारणाओं का पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्त द्वारा संकलन अर्थात संशय तथा निश्चय द्वारा अपनाई और त्यागी धारणाओं के आयोजन के बाद के प्रयास अर्थात प्रयोजन ये चार तत्व ही जापानी शून्य त्रुटि विधा के साथ-साथ वर्तमान प्रबन्भान गुरु आर्मण्ड व्ही. फैजनवौम के 1) गुणवत्ता मानक तय करें, 2) मानकों की कार्य अनुरूपता, 3) मानक हास पर कार्य, 4) उन्नयन योजना तत्वों को भी अपने में समेटे हैं।
न्याय गुरु गौतम के सिद्धान्त की भारत को आवश्यकता है। न्याय दर्शन का पांचवा तत्व दृष्टान्त है। जिस वस्तु के अर्थ को साधारण मनुष्य और विशेषज्ञ एक समान समझते हैं वह दृष्टान्त है। सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक का मूल उद्देश्य दृष्टान्त में समाहित है। पाश्चात्य प्रशिक्षित प्रबन्धकों और संस्कृति जुड़ी भारतीय जनता के मध्य समन्वय और इसके द्वारा भारत की अप्रतिम उन्नति सांतसा की आकांक्षा है। शाó के अर्थ के निष्कर्ष को सिद्धान्त कहते हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय निगमन ये पांच चरण अवयव हैं, इन्हें वाद कहते है। यह आभाqनिक युग में कार्ल पियर्सन, यंग लुण्डबर्ग आदि विचारकों द्वारा वैज्ञानिक विधि कही जाती है।
तर्क वह विचार है जो हमें ज्ञात से हेतु की नींव पर अज्ञात को दिखा देता है। वैज्ञानिक विधि मे `हेतू’ तथ्य संकलन एवं सारिणीकरण है जो अवलोकन से युजित है। इसके उपयोग द्वारा निहित सत्य (अज्ञात) को ज्ञात करा देने की विधि तर्क है।
पक्ष और प्रतिपक्ष पर विचार करके अर्थ का निश्चय करना निर्णय है। पक्ष और प्रतिपक्ष का अंगीकार करना वाद है। जिज्ञासा भाव, समर्थक प्रमाण, साध्य सिद्धान्त, अविरुद्धता, निश्चित सीमा, वैज्ञानिक विधि (अवयव) वाद के आधार होने चाहिएं।
दूसरे का आक्रमणवत खण्डन तथा अपना बचाव जल्प एवं वितण्डा है। इसमें भी स्वपक्ष की स्थापना न करते दूसरे का खण्डन ही खण्डन वितण्डा है। हेत्वाभास बिना `हेतू’ के चर्चा करना या मूल विषय से हटकर चर्चा में बहक जाना है। अर्थ बदलने से वचन पर विचार करना `छल’ है। जाति का अर्थ श्रेणी है, इसमें उपश्रेणी होती है। जाति पशु, उपजाति गाय, घोड़ा आदि। निग्रहस्थान मूल विषय से असन्दर्भित या पराजय है। वास्तव में उपरोक्त सोलह को जाने, व्यवहार में अपनाए बिना शून्य त्रुटि की संकल्पना पूर्ण नहीं हो सकती है।
शून्य त्रुटि का या मख व्यवस्था का या अछिद्र व्यवस्था का आधार बारह तत्व हैं- 1) आत्मा, 2) शरीर, 3) इन्द्रिय, 4) अर्थ, 5) बुद्धि, 6) मन, 7) प्रवृत्ति, 8) दोष, 9) प्रेत्यभाव (नवीनीकरण शरीर का), 10) फल, 11) दुःख और 12) अपवर्ग। इनमें से प्रथम 6 तत्व आभाार मनुष्य के घटक हैं। अन्य 6 उसकी क्रिया या कर्म के घटक हैं। वर्तमान विश्व की शून्य त्रुटि विधा कर्म सम्बन्धी घटकों पर वह भी मात्र कुछ अंश आधारित है। यही कारण है कि शून्य त्रुटि अपनाने पर भी उन्नत राष्ट्रों के मानव भारतवर्ष के मानव की तुलना में सन्तुष्ट या सुखी नहीं हैं।
आत्मा का स्वरूप पंचेक भाव से स्पष्ट है। प्रत्यक्षीकरण पांच इन्द्रियों से होता है। इनका एकीकरण कर एक वस्तु भाव मन बुद्धि के माध्यम से आत्मा करती है। कटे निम्बू को देख मुंह में पानी आ जाना अर्थात् दर्शन से रसन उद्रेक आत्मा द्वारा एकीकरण है। यह न्याय दर्शन का मूल सिद्धान्त है। रूसी मनोवैज्ञानिक पावलोव ने इस सिद्धान्त महान शोध कार्य करके इसे पुर्नस्थापित किया है। इस महान तथ्य का जिसे इन्द्रिय पंचायन भी कहा जा सकता है, शून्य त्रुटि से महान सम्बन्ध है। पावलोव के प्रयोग दर्शाते हैं कि पहले भोजन ग्रहण करते समय कुत्ते की लार, फिर भोजन देखते, या भोजन की घंटी बजते समय बिना खाने बनने लगी। इन सम्बन्भााsं को पावलोव कन्डीशण्ड रिफ्लैक्स या निर्मित सहज क्रिया कहता है। सरल भाषा में इसे आदत या प्रवृत्ति के संदर्भ में लिया जा सकता है।
एक अति कर्तव्यनिष्ठ सुरक्षा अधिकारी था। उसे देखते ही सारे श्रमिक सुरक्षा व्यवस्था को याद कर उसका उपयोग करने लगते थे। एक बार वह बाजार में सब्जी खरीद रहा था। एक श्रमिक साइकिल पर हेलमेट टांगे सब्जी खरीद रहा था। उसने सुरक्षा अधिकारी को देखा आदतन उसने हेलमेट को सिरपर लगा लिया।
इन्द्रिय पंचायतन यह हे कि पांच इन्द्रियों से अनुभूत वस्तु एक ही अर्थ का सम्प्रेषण करती है ऐसा प्रतीत होता है। इस पंचायतन में भी अर्ध चतुर्थांश का पंचीकरण नियम काम करता है। हर इन्द्रिय पचास प्रतिशत भाग तो स्वयं का ही शतप्रतिशत कार्य करती है और साढे बारह प्रतिशत अन्य इन्द्रियों का कार्य भाव भी उसमें समाविष्ट रहता है। श्रम विभाजन के कार्य समूह द्वारा विविध कार्य एक साथ करने के इस युग में पंचीकरण सिद्धान्त अत्यधिक महत्व रखता है। यह विविध अभियांत्रिकी शाखाओं, विविध श्रम सेवाओं में हाथ की ऊंगलियों के समान या पांच इन्द्रियों के समान समरसता प्राप्त करने में सहायक है। इससे त्रुटि निराकरण या कमीकरण में भी मदद मिलती है।
शरीर आत्मा का करण (साधन) है, आत्मा ही मूलतः हर कार्य का कर्ता है। शरीर साधन के करण मशीनें तथा औजार उपकरण हैं। चैतन्य आत्मा के बिना सारे करण एवं करणव्यवस्था निरर्थ है। बड़ी से बड़ी और सूक्ष्म से सूक्ष्म मशीन का निर्माण जीवात्मा ने बुद्धि, मन, इन्द्रियमय तन के द्वारा किया है। आत्मा तन द्वारा कार्य करती है। “जो बोया सो काटना है” कर्म का शाश्वत सिद्धान्त है। शून्य त्रुटि या मख व्यवस्था बोने वाले शून्य त्रुटि या मख उत्पाद पाते हैं। यह शून्य त्रुटि का महान सिद्धान्त है। मख व्यवस्था मात्र आवश्यक नियमों पर आधारित होना न्याय को अभीष्ट है। जहां एक नियम से काम चल सकता हो वहां अधिक नियमों से काम लेना अनुचित की श्रेणी में आ जाता है।
तन का अर्थ है त + न याने तब नहीं तब नहीं अर्थात् `अब’। मानव में तीन मूल प्रवृत्तियां होती हैं। हर्ष शोक और भय। मोटे तौर पर हर्ष को वर्तमान, शोक को अतीत तथा भय को भविष्य से जोड़ सकते हैं। भय और शोक दुःख (खराब कारणों) के कारण होते हैं। दुः खराब खम् याने इन्द्रियां भी दुःख शब्द की एक व्युत्पत्ति है। तन अब है। ब्रह्म अब अब अब है। तन “तब नहीं, अब, तब नहीं” स्वरूप वाला है। तन का अब आत्म के अब के माभयम के ब्रह्म के अब से जुड़े यह वैदिक साहित्य को अभीष्ट है। यह दर्शन है। इसका शून्य त्रुटि से सम्बन्ध यह है कि “अब समय प्रबन्धन” करना। मख प्रबन्धन क्षेत्र में यह है कि त्रुटि का तत्काल निराकरण उसे शोक या भय का कारण नहीं बनने देगा और यह हर्ष कारक होगा। त्रुटि निराकरण तत्काल इसलिए करना आवश्यक है कि अगर निराकरण तत्काल नहीं किया गया तो यह भूत होकर हमेशा दुःख देती रहेगी या शोक का कारण रहेगी और उसके साथ ही यह भय का भी कारण होगी कि हमें खराब उत्पादकता की परेशानी झेलनी पड़ेगी।
`अब’ प्रबन्धन या तब नहीं या तन प्रबन्धन अस्थायी शरीर से चैतन्य आत्मा में आता है। शरीर जड़ और आत्मा चैतन्य के गुणों में अन्तर करनेवाले तत्वों का लिंग कहते हैं। लिंग जड चैतन्य अन्तर प्रदर्शित करते चिन्ह हैं। पाश्चात्य दर्शन ज्ञान और कर्म को चैतन्यता का चिन्ह मानता था। इमैन्युअल कांट ने इसमें `अनुभूति’ चिन्ह जोडा। कालांतर में वैज्ञानिकों ने इसमें चेष्टा को भी जोड़ा। इस प्रकार ज्ञान, कर्म, अनुभूति और चेष्टा सम्पूर्ण पाश्चात्य दर्शन के अनुसार चैतन्यता के चिन्ह हैं। न्याय दर्शन में आत्मा के छे लिंग इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान हैं। इच्छा और ज्ञान का सम्बन्ध प्रयत्न से है, सुख दुःख अनुभूतियां हैं, द्वेष क्षोभकारक है। शून्य त्रुटि व्यवहार या आत्मवत व्यवहार के लिए किसी भी व्यक्ति को इन छै तत्वों के सन्दर्भ में समझना जरूरी है।
स्मरण शून्य त्रुटि का एक महत्वपूर्ण भाग है। मानकों से अनुरूपता शून्य त्रुटि का आभाार है। विभिन्न मानव विभिन्न समय परिस्थिति में कारगर होते हैं। स्मरण में मानकों और उनके अन्तर्सम्बन्धों का रहना गुणवत्ता में महत्वपूर्ण योगदान देता है। न्याय दर्शन सूत्र 3/02/44 में स्मृति के कारणों की निम्न लिखित सूची देता है- 1) प्रणिधान, 2) निबन्ध, 3) अभ्यास, 4) लिंग, 5) लक्षण, 6) सादृश्य, 7) परिग्रह, 8) आश्रय-आश्रित, 9) सम्बन्ध, 10) आनन्तर्य, 11) वियोग, 12) एक कार्य, 13) विरोध, 14) अतिशय, 15) व्यवधान, 16) सुख, 17) दुःख, 18) भय, 19) अर्थित्व, 20) क्रिया, 21) राग, 22) धर्म, 23) अधर्म।
प्राणिधान वर्तमान अवस्था में किसी विशेष पक्ष पर एकाग्रता है। यह गुणवत्ता की एक आवश्यकता है। घनिष्ट अन्तर्सम्बन्ध का नाम निबन्ध है। निबन्ध वास्तव में इस नियम को जन्म देता है कि हर कार्यकारी विभाग दूसरे विभागों के लिए उपभोक्ता तथा उत्पादक की भूमिका निर्माता है। अभ्यास बार बार करके कौशल विकसित करना है। मनोविज्ञान की भाषा में मास्तिष्क कोशिकाओं के मध्य अन्तराल में लयक या बाटन संख्या में वृद्धि करना है, जिससे कार्य सहजता पूर्वक सटीक हो सके।
सादृश्य का नियम गुणवत्ता के लिए मानक अनुरूपता तथा स्तर अनुरूपता के सन्दर्भ में अति उपयोगी है। आश्रय-आश्रित महान गुणवत्ता नियम है। जहां भी मशीनों के दो भाग परस्पर निर्भर करते हैं या सम्बन्धित हैं वहां सहकार्य के मानक का पालन आश्रय-आश्रित मानकों के अनुरूप होता है। पंप मोटर कपलिंग पिस्टन क्रैक पहिया सम्बन्ध, सिलाई मशीन हेंडल सुई ऊर्ध्वगति कपड़ा आगे बढ़ना आदि-आदि असंख्य उदाहरण आश्रय-आश्रित के हैं। अनन्तर्य क्रमबद्धता का नियम है, जिसे गुहव्यवस्था, उत्पादन क्रम मे ध्यान रखना आवश्यक है। कार्य करने का कामुआत या पर्ट नियम आनन्तर्य का ही उदाहरण है। “कार्य समुच्चय” सम्पूर्ण की अवधारणा है। विरोध तथा व्यवधान बाधाओं, रुकावटों को दूर करने के सम्बन्ध में उपयोगित किया जा सकता है। अतिशय (रिकार्ड) का उपयोग प्रोत्साहन के साथ-साथ उच्च कोटि के स्तरीकरण (बेंच मार्किंग) के क्षेत्र हो सकता है। सुख-दुःख भौतिक परिस्थितियों को कार्यानुकूल करने के रूप में, भय भविष्य आयोजन, अर्थित्व प्रशिक्षा, क्रिया- कार्य तकनीक, राग- लगन रूप में तथा धर्म-अधर्म आधार व्यवस्था या कर्म मानकों के रूप में शून्य त्रुटि या `मख’ व्यवस्था में प्रयुत किए जा सकते हैं। इस प्रकार न्याय दर्शन के स्मरण सूत्रों का तानिक चिन्तन परिवर्तन करके `मख’ व्यवस्था हेतु व्यापक प्रयोग कर सांतसा अतिश्रेष्ठ शून्य त्रुटि व्यवस्था विकसित कर लागू करना भारत को विश्वोन्नत कर सकता है।
मख प्रबन्धन का वैदिक स्वरूप जो वेदों में है अत्यधिक प्रांजल तथा सम्पूर्ण है। ऋग्वेद 09/101/13 में मख प्रबन्धन कौन कर सकता है और कौन नहीं कर सकता है इसका विवरण है तथा साथ में इसका उद्देश्य बताया गया है। मन्त्र शब्दार्थ इस प्रकार है- “1) अंभास वाच का वृत-आवृत मरणधर्मा नहीं कर सकता। 2) वह वाच सुन्वान के लिए प्रेरणादायक होती है। 3) भृग जन मख अहननीय रखते श्वान अराधस को अति दूर सदा दूर करें।”
परा-पार वाक का अवतरण तन अस्थायी जुड़े मानव के जीवन में नहीं होता है तथा वह उससे प्राप्त परावाक का वृत आवृत जीवन में नहीं कर सकता। क्योंकी वह भोग उपभोग की तलाश में श्वान के समान दर दर की ठोकरें खाता मख का हनन करता रहता है। सुन्वान- सकारात्मक उत्तम भावों का अधिपती नव्य नव्य मानव के लिए शाश्वत ऋत शृत सनी वाक प्रेरणादायी (धर्म) होती है। ज्योतिपथिक तो असत्य को पीछे छोड़ आए हैं। सम्पूर्ण मख व्यवस्था को लागू करके उसे एषणाग्रस्त भोगियों से बचाकर रखता है।
भय-लालचयुक्त लोग, भोग सुविधा आधारित व्यवस्थाएं `मख’ की उत्पत्ति नहीं कर सकतीं। सुविधा भोगी सांसदों सनी प्रजातन्त्र व्यवस्थाएं `मख’ से कितनी दूर हैं, यह सभी को ज्ञात है। `मख’ अदीन व्यवस्था का नाम है। दीन-हीन कूकर के समान दुम हिलाते व्यक्तियों का समूह तो जगह-जगह घूस, भ्रष्टाचार, के छिद्रों का शिकार होता रहेगा। वेद में अदिति को अदीन कहा है। अछिद्र अदिति- आदित्य गढ़ती है। मार्तण्ड आदित्य जो अछिद्र व्यवस्था का व्यवहार धरातल से भी सामंजस्य रखता है।
वेद भावना है हम शताधिक वर्ष अदीन रहते भरपूर जिएं। भरपूर जिएं या मख जिएं। मार्तण्ड सहित आदित्यों की स्थितियां हमें मख व्यवस्था अनुरूप चलने की प्रेरणा देती हैं। मरणभार्मा मनुष्य मर्त्य है। मार्तण्ड मर्त्य का जीवनक्रम प्रारम्भ करता आदित्य है। भृग का अर्थ दीप्त, प्रदीप्त, तेजस्वी, ओजस्वी तथा वर्चस्वी है। आत्म के परावाक प्रदीप्त होने पर वह इध्म होकर परब्रह्म से संयुक्त होकर भृगु बन जाती है। भृगु आत्म चर्तुवेदी होने के कारण धर्म, सम्पत्ति, प्रजा से समृद्ध होती उन्नती करती है। भृगु स्वयं `मख’ होता है। मख का धातुज अर्थ है गति-प्रगति। मख अछिद्रीकरण या शून्य त्रुटि करण या दुरित रहित करण अपना लिया है जिसने उस व्यवस्था कार्य द्वारा व्यक्ति, परिवार, समाज, कार्यसमूह, राष्ट्र समृद्धि पाता है।
म- नहीं, ख- छिद्र, छिद्र नहीं जिसमें वह मख है। जड़ उत्पाद में छिद्र अपने आप पैदा नहीं हो सकता है। छिद्र कारक है मनुष्य, छिद्र सुधारक भी है मनुष्य, छिद्र अनुमानक है मनुष्य, छिद्र निवारक है मनुष्य। छिद्र निवारण के लिए मनुष्य का `अछिद्र’ होना या मख होना आवश्यक हैं। मानव पांच बाह्यकरण, पांच अंतःकरण, मन, बुद्धि, हृदय क्रमशः का धारण उपयोग कर्ता जीवात्मा है। यदि जीवात्मा के `करणों’ साधनों में कोई छिद्र हो जाए तो मानव छिद्रित हो जाएगा और उसके जीवन से लेकर कार्य़ों तक में छिद्र होगा एवं गुणवत्ता का हास होगा।
यजुर्वेद 36/2 हमें मानव के छिद्र पूरण या मखकरण का तरीका बताता है। मेरी इन्द्रियों या करणों का नासिका, रसना, नेत्र, त्वक, कर्ण, प्राण, वाक, मन, बुद्धि, धी और हृदय में जो अतितृण्ण छिद्र है वह भुवन के बृहस्पति की व्यवस्था के समझ से धारण कर हम पूर दें तो हमारे लिए शम अर्थात सुख एवं शान्ति या भौतिक एवं आन्तसिक परितृप्ति प्राप्त होगी। हमारे आन्तरिक एवं भौतिक करणों में छिद्रों का मूल कारण तृण्ण अतितृण्ण होना है।
तृण्ण का अर्थ है जिसकी तृष्णा हो या लालसा हो। एषणा की तृष्णा होती है। धन सम्पत्ति जिसे वित्त कहते हैं रिश्ते-नाते-समर्थक जिसे पुत्र कहते हैं और पद-सम्मान जिसे यश कहते हैं। इनकी एषणाएं ही तृण्ण है। वित्तैषणा, पुत्रैषणा और यशैषणा के प्रति अति लालसा ही अतितृण्ण है। विश्व की सारी व्यवस्था में त्रुटियों का मूल कारण मानव का एषणा ग्रस्त होना ही है। एषणा छिद्र ही सारी त्रुटियों का मूल कारण है। बृहत् कहते हैं वेद को ओर इस बृहत् का जो पति है या अधिकृत विद्वान है वह बृहस्पति है। `विद्वेद’ या वेद का जीवन में विद् प्रयोग कर्ता मानव विद्-वान है। और इस प्रयोग द्वारा वेद के पार उसके गहन अर्थ़ों में डूब जाता मानव हैं वेद-वान। इन दोनों से अपूर्त व्यक्ति है बृहस्पति, जो पूर्णतः शून्य त्रुटि कार्य करता है।
इसका स्वरूप कुछ इस प्रकार है- यह चतुर्वेदी होता है। “मैं ऋचा वाकमय, यजुः मनमय, साम प्राणमय और अथर्व इन्द्रियमय अर्थात चतुर्वेदी अस्तित्व मैं हूँ। मुझसे वेद का ओज, सहभाव का ओज, प्राण-अपान सिद्धि त्रिबन्ध के माध्यम से इडा पिंगला सुषुम्णा का कंप नंद आनंद एक साथ युजित है”। यह यजुर्वेद 36/1 का भाव है। यह एक `मख’ पुरुष का स्वरूप है, जो शून्य त्रुटि है और अपना हर कार्य शून्य त्रुटि ही करता है।
आधुनिक शून्य त्रुटि विधाएं उत्पाद तथा उत्पाद प्रक्रिया आधारित हैं। ये औसतः जड़ संसाधन परक हैं। इसमें चल संसाधन मानव का आधार प्रसंगवश कहीं कहीं लिया गया है। वैदिक संस्कृति परक मख या शून्य त्रुटि विधाएं मानव परक हैं। प्रसंगवश उनमें जड संसाधनों का उल्लेख किया गया है। सांतसा प्रबन्धन दोनों का समन्वय है। यजुर्वेद 6/17 का मंत्र कहता है- जो अवद्य, मल, अभिद्रोह, ऋतहीनता है तथा निरपराध पर आक्षेप है, या जो त्रुटियों को मूल कारण पाप है इस पाप से आपः प्रवहणशील सत्यप्रेरणाएं तथा पवमान मुक्त करता है।
जिस प्रकार प्रवहणशीलता के कारण जल, वायु, गुरुत्व आदि भौतिकतः मलों का निराकरण करते हैं, उसी प्रकार सत्प्रेरणाएं या सकारात्मकता मानव के अवद्य, मल, अभिद्रोह, ऋतहीनता, निरपराध पर आक्षेप के पाप को बहा ले जाए। वद्य वह है जो वद् के या कहने के उपयुक्त है। शाó, देश, काल, परिस्थिति, वैज्ञानिक विधि, पंच परीक्षा के अनुरूप कहना ही उपयुक्त वद है। उपरोक्त कसौटियों पर कसा कहना ही वद्य है, अन्यथा अवद्य है। वद्य नियम सम्प्रेषण नियम है तथा अर्थ का अनर्थ होनेवाली त्रुटियों से बचाव करते हैं।
वद्य होने की कई कसौटियां हैं- सत्य, मधुर, प्रिय, सहज, ऋत, शृत, मित, तर्कपूर्वक, प्रमाणपूर्वक, उपयुक्त, शुद्ध, यथार्थ, विचारपूर्वक, शालीन, शान्त, प्रासंगिक, शुभ, समाधानकारक, अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति निर्दोष अभिव्यक्ति है। जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही कहना वद्य है। विद्या वद्य की कसौटी है। इन समस्त वद्य वचनों से की सत्प्रेरणाओं से अवद्य वचनों का निराकरण करना शून्य त्रुटि वद्य की ओर बढ़ना है।
अवद्य वचन इस प्रकार हैं- असत्य, कटु, अप्रिय, आवेगयम, असहज, अनृत, अशृत, अनावश्यक, अहितकर, बिनातर्क, अप्रामाणिक, अनुपयुक्त, अशुद्ध, द्विअर्थी, अनर्थ, अशालीन, अश्लील, अभद्र, अशुभ, अयथार्थ, काल्पनिक, अप्रासंगिक आदि।
मल मानसिक या भौतिक हो सकते हैं। मान्यता के विरुद्ध भाव मन में भर लेना मानसिक मल है। मान्य वह होता है जो मानकों के अनुरूप हो। आज मानसिक मलों की भरमार विश्व में है। सारा का सारा वास्तुशाó जो बिना वैज्ञानिक आधार के माना जा रहा है, मानसिक मल है। आर्किटेक्ट जो वैज्ञानिक अभिकल्पन के बिना है मल ही है।
एक अतिप्रसिद्ध उपाधिधारी आर्किटेक्ट अपने आर्किटेक्ट मित्रों के मध्य स्लैज और कैंटीलीवर पर सौंदर्य आकार बनाने की योजना बना रहे थे। उससे स्लैब की स्पानिंग तथा लोहा योजना बदल जाती थी। मैंने उससे कहा- आप के ऐसा करने से स्लैब तथा कैंटीलीवर की स्पानिंग बदल जाएगी। वह बोला अरे हम तो स्लैब को जैसा चाहे वैसा स्पान करा लेते हैं। यही तो हमारी विशेषता है। सारे आर्किटेक्टों ने हामी भरी। उन्हें स्लैब स्पानिंग के लम्बाई-चौड़ाई अनुपात और बेण्डिंग मूमेंट नियम मालूम नहीं थे। इन मल-मस्तिष्क आर्किटेक्टों ने मेरे देखते-देखते कई भवनों में लम्बान दिशा में मुख्य लोहा डलवाकर देश का अहित किया है। कैंटीलीवर में नीचे लोहा देने का अहित भी कई आर्किटेक्टों ने किया है। जाने कितने छज्जे इसी कारण गिर चुके हैं। ऐसे अनाधिकृत ठेकेदार, मिस्त्री, प्लंबर सारे राष्ट्र में त्रुटिपूर्ण निर्माण कार्य सतत कर रहे हैं।
वैदिक साहित्य “शून्य त्रुटि” व्यवस्था के साथ ही साथ “सम्पूर्ण सटीक” व्यवस्था पर बल देता है, जिससे त्रुटि का प्रवेश ही न हो। ज्ञान भरे अमल मानव ही सम्पूर्ण सटीक व्यवस्था कर सकते हैं। भौतिक मल के सन्दर्भ में देखें तो अवशेष तथा अपशेष भौतिक मल हैं। धूल भी मल है जो व्यवस्था को मलीन करता है। हर प्रदूषण मल सहित होता है। इन मलों की स्वतः शुद्धिकरण तथा तत्काल निराकरण व्यवस्था की मांग है। भारतीय संस्कृति में इस निराकरण तथा शुद्धिकरण के लिए कमल अर्थात् ढूंढ-ढूंढ कर मल निराकरण, विमल अर्थात् विशिष्टतानुरूप मल विभाजन करके उसका निराकरण, अमल अर्थात् व्यवस्था में मल उत्पन्न न हो ऐसा प्रावधान करके, निर्मल अर्थात् मल रहित व्यवस्था या उत्पाद का निर्माण तथा इनके समानान्तर कमला, विमला, अमला, निर्मला आदि व्यवस्थाएं उपलब्ध हैं।
अभिद्रोह का अर्थ ईर्ष्या-द्वेष के कारण मानसिक क्षोभ के कारण गलत प्रक्रिया अपनाना। अभि याने चारों ओर, द्रोह का अर्थ है अनर्थ। चारों ओर अनर्थ कार्य करना अभिद्रोह है। दूसरों की उन्नति से जलने के कारण व्यक्ति जो व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की भावना से अनर्थ कार्य करता है वह `अभिद्रोह’ है। इसका प्रारम्भ ईर्ष्या से होता है। इर्ष्या से द्वेष पैदा होता है। दूसरों की और अपनी असंगत तुलना द्वेष का एक रूप है। द्वेष से दुर्भावना पैदा होती है। यह भावना दूसरों को नीचा दिखाने की होती है। दुर्भावना से विरोध प्रवृत्ति पैदा होती है और विरोध से अभिद्रोह अनर्थकारक कार्य व्यक्ति करता है। अभिद्रोह के कारण व्यवस्था में असामंजस्य और असहयोग के कारण “सम्पूर्ण निर्दोष” व्यवस्था का घात होता है। अकारण असन्दर्भित विरोध अभिद्रोह है। दूसरा अपनी जगह अपनी उन्नति कर रहा है, शून्य उत्पाद कर रहा है और एक व्यक्ति ईर्ष्यावश अकारण उसकी निन्दा कर उसे कभी प्रत्यक्ष कभी अप्रत्यक्ष नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रहा है और स्वयं कुढ़ रहा है, यह अभिद्रोह है। अभिद्रोही व्यक्ति निरर्थ विक्षोभ-भरा होने के कारण द्रोह, उपद्रव, व्यंग, कटाक्ष, झगड़ा, झंझट, राजनीति, निन्दा, अपशब्द, दुर्व्यवहार, जल्प, वितण्डा बकवास करने का आदी होने के कारण व्यवस्था का अवमूल्यन करता रहता है।
प्रकृति के नियमों के अनुरूप चलना ऋत है, इसके विपरीत चलना अनृत है। हर प्राणी में प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक जैव-घड़ी प्रत्यारोपित है। इस घड़ी के प्रभाव से ही मानव नियमित होना सीखता है। श्वास-प्रश्वास का इड़ा-पिंगला से, सुषुम्णा से सम्बन्भा इस जैव घड़ी द्वारा नियन्त्रित समयबद्ध होता है। ऋतुओं में पर्व व्यवस्था पर किए जानेवाले संस्कार जो परिशुद्धि कारक, दोष-निवारक, क्षतिपूरक, अतिरिक्त आधानकारक होते हैं, जैव घड़ी आधारित हैं। इनको रूढ़ रूप में न मानकर वैज्ञानिक रूप में मानना तथा समय आयोजन क्षेत्र में प्रयोग करना ऋत प्रबन्धन है। कार्य प्रबन्धन में ऋतुओं तथा मौसमों का ध्यान एक श्रेष्ठ प्रबन्भाक सदा ही रखता है। यह अति आश्चर्य की बात है कि सारे राजनैतिक, साहित्यिक, सामाजिक सम्मेलन, सेमीनार यहां तक कि समय प्रबन्धन पर सेमीनार विलम्ब से प्रारम्भ होते हैं, पर अन्धविश्वासी पूजादि निर्धारित मुहूर्त समय पर प्रारम्भ होते हैं। मुहुर्त में यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि ऋत व्यवस्था बेखोट है तथा वह मुहूर्त दुबारा नहीं आएगा, इसलिए उसका पालन सभी करते हैं। ऋत प्रबन्धन वाक्य है- “हम सूर्य और चन्द्र के समान नियमबद्ध स्वस्तिपथ चलें।” इसके साथ ही साथ चिन्तक, रचनात्मक, समझदार विद्वानों को साथ करने का भी निर्देश ऋग्वेद 5/51/15 में दिया गया है।
परियोजना प्रबन्धन या दशरूपकम् या कामूआत या पर्ट प्रबन्धन में मील के पत्थर तय होते हैं। अगर इन मील के पत्थरों का आयोजन भारतीय संस्कृति पर्व़ों मकर संक्रान्ती, वसन्त पंचमी, होली, दशहरा, दीवाली, नववर्ष संवत, ईद विभिन्न जयन्तियों, ओणम, लोहडी, क्रिसमस आदि से जोड़ा जा सके तो कार्मिक अधिक उत्साहपूर्वक ज्यादा बेहतर कार्य करेंगे। उनके भरे पर्व उल्लास का कार्य क्षेत्र उपयोग होगा। मील के पत्थर पर्वाधारित होने से मुहूर्त अन्धविश्वास का समयबद्ध होने में भी लाभ मिलना स्वाभाविक है। यह भी मख प्रबन्धन की एक सांतसा विभिा है। जो व्यक्ति ब्रह्म की ऋत व्यवस्था में फैले सूत्र को जानता है वह व्यक्ति सूत्र के सूत्र को जानता है। वह व्यक्ति ज्ञान को जानता है, अतः अज्ञान को जानता है अर्थात शून्यत्रुटि या मख प्रबन्भान करने में दक्ष होता है। ऋत व्यवस्था अपने आप में यथावत है। वह जैसी है वैसी ही दिखती है और वैसी ही चलती है।
विश्व की सबसे सटीक घटी परमात्मा कृत ऋत व्यवस्था से ही उपजी है। सीजियम के अयन विक्षेप पर आधारित सीजियम घड़ी अरब वर्ष में एक विक्षेप त्रुटि दर्शाती है। ऋत प्रबन्भान महान समय प्रबन्धन की सीख देता है। ऋत समय गुरु है। धरा भ्रमण दैनिक, चन्द्र भ्रमण पाक्षिक-मासिक, सूर्य गिर्द धरा भ्रमण ऋतुपरक एवं वार्षिक समय निर्धारक और समय उपदेशक है। इन उपदेश को प्राचीन ऋषियों ने सुना समझा जीया था तभी तो उनपर आभाारित यज्ञ व्यवस्था समयबद्ध रची गई और इसीलिए `यज्ञ’ का नाम `मख’ या छिद्ररहित या सम्पूर्ण है। यज्ञ को श्रेष्ठतम कार्य भी इसीलिए कहते हैं।
बलि का बकरा ढूंढना और उसके माथे दोष मढ़ना आज एक आम बाते है। निर्दोष को दोष देना अर्थात शून्यत्रुटि को त्रुटि में बदलना है। यह व्यवस्था को त्रुटिकारक या छिद्रित या `अमख’ करता है। न्याय का एक सर्वविदित सिद्धान्त है कि निर्दोष को दण्ड कभी भी नहीं मिलना चाहिए, चाहे इसके लिए दोषी भी भले ही छूट जाए। इसी नियम के अन्तर्गत सन्देह का लाभ प्रावधान है।
वैसे सच्चा नियम यह होना चाहिए कि विधि इतनी वैज्ञानिक तथा पूर्ण होवे कि किसी भी निर्दोष को दण्ड किसी भी स्थिति में न मिले एवं कोई भी दोषी किसी भी स्थिति दण्ड से न छूटे। न्यायदर्शन के अनुसार व्यवस्था द्वारा यह आदर्श प्राप्त किया जा सकता है।
दूसरे निर्दोषों पर दोष लगाना लांछन कहलाता है। दण्ड और सम्मान व्यवस्था का प्रयोग अति जागरूकता तथा अति सावधानी की अपेक्षा रखता है। गलत व्यक्ति को सम्मान और सही व्यक्ति को दण्ड से व्यवस्था अति शीघ्र चरमरा जाती है और त्रुटियों के पतन को प्राप्त करती है। चुस्त और दुरुस्त न्याय पूर्ण व्यवस्था ही शून्य त्रुटि या मख व्यवस्था कराती है।
व्यवस्था के लचर-पचर होने में “किसी तरह” मान्यता एक महान भूमिका निभाती है। हर व्यवस्था को “किसी तरह” से बचना चाहिए। किसी तरह इन्जीनियरिंग घातक परिणाम देती है। समयबद्ध प्रमोशन पद्धति में एक बार एक “किसी तरह” इन्जीनियर सर्वोच्च पद पर पहुंच गया। “किसी तरह” उस इन्जीनियर के लिए ब्रह्मवाक्य था। उसका दृष्टीकोण किसी तरह काम पूरा करना था। जो किसी तरह इन्जीनियर होता है वह लीपा-पोती में भी दक्ष होता है। यह विभाग प्रमुख भी इसका अपवाद न था। उसने सारे क्षेत्र अभियन्ताओं की मीटिंग बुलाई और कहा हमें प्रगति करनी है, काम पूरा होना चाहिए यह प्रमुख बात है। आप सब “येन केन प्रकारेण” किसी भी तरह कार्य पूरा कीजिए। सभी उसका आशय समझ गए। प्रगति दबाव में एक छोटे से हेल्थ सेंटर के काम में एक छज्जा गिर गया। “किसी तरह” प्रमुख ने कहा कोई बात नहीं प्रगति की कीमत तो चुकानी ही पडती है। और छज्जा गिरने के तथ्य पर लीपापोती कर दी। एक माह बाद एक बडे अस्पताल के निर्माण कार्य में एक बड़ा लम्बा छज्जा गिर गया। विभाग प्रमुख ने स्वचयनित कमेटी बनाई, उसे निर्देश दिए किसी व्यक्ति पर दोष नहीं आना चाहिए। प्रमुख की मंशा के अनुसार कमेटी ने लिपापोती कर दी। इसके बाद वर्कशाप भवन में एक विशालकाय गेबल वाल धराशायी हो गई। किसी तरह या समहाऊ इन्जीनियर ने दोष अति तेज बारिश के माथे मढ़ दिया।
अनृत अशृत का नाम है किसी तरह। अनृत अशृत कभी भी माफ नहीं करता। एक औद्योगिक भवन के सारे कालम टेढ़े बन गए। वे ट्विस्टेड कालम कहलाए। समहाऊ इन्जीनियर के चहेते मुख्य अभियन्ता ने शहर के उपखण्ड में सारे मेन हॉल कम लोहे में बनवा दिए। लोगों के घर पानी से भर गए। निर्धन बस्ती बनी पानी टंकिया कमजोर दीवालों के कारण दो तिहाई ऊंचाई पर ही काम कर सकीं। समहाऊ कमाल तथा धमाल रुका नहीं। एक स्कूल भवन की पूरी की पूरी छत गिर गई। एक बांध क्षेत्र की पूरी लकड़ी गायब हो गई और एक टंकी गिर गई। जांच समितीयां समहाऊ जांच करती रहीं। इन्जीनियर प्रमोशन पाते रहे और एक दिवस गुणवत्ता उत्तम कार्य, शून्य त्रुटि कार्य का हत्यारा समहाऊ इन्जीनियर किसी तरह रिटायर हो गया।
शून्य त्रुटि की मांग है आरम्भ से सावधान..! हरपल सावधान..!! एक गड़रिए ने दस भेडों से कारोबार शुरु किया। मेहनत लगन समझ जागरूकता से उसने उन्नति की और हजारों भेडों का साम्राज्य खड़ा कर लिया। उसके चार बच्चे उसके साथ कार्य करते थे। वह बूढ़ा हो चला था। एक दिवस एक मेमना चोरी हो गया। वृद्ध गड़रिया को पता चला। उसने कहा मेमने को ढूंढो, मेमने को ढूंढो..!! बच्चे ने कहा हजारों भेड़ों में एक मेमना क्या मायने रखता है..? बप्पा तो ऐसी ही चिन्ता करता है। कुछ दिनों बाद पांच भेड़ें चोरी चली गयी। बप्पा ने कहा मेमने को ढूंढो, मेमने को मेमने को ढूंढों..!! लड़के बोले यहां भेड़ें चोरी गई हैं, और बप्पा मेमने की रट लगाए हुए है। दो माह बाद सारे लोग बातें भूल गए। बस बीच बीच में वृद्ध पूछ लेता- मेमने को ढूंढा..? मेमने को ढूंढो..!! और बच्चे हंस देते थे। एक दिन पचास भेडों की चोरी हो गई। बूढे बप्पाने फिर कहां मैने कहा था न मेमने को ढूंढो। बच्चे बोले बप्पा सठियां गया है। यहां भेड़ें चोरी गई हैं और वह मेमने की रट लगा रहा है। अन्ततः भेड़ व्यवसाय घटता गया और चार भाइयों के पास दस-दस, पन्द्रह-दस भेड़ें मात्र रह गइऔ। बप्पा मेमना ढूंढो कहते स्वर्ग सिधार गया। जो लोग मेमने के चोरी पर सावधान नहीं होते हैं वे व्यवसाय बरबादी तक जा पहुंचते हैं।
यदि समहाऊ विभागप्रमुख पहला छज्जा गिरते ही सावधान हो गया होता तो भविष्य में बाकी सब गिरे ढांचे न गिरते। एक “किसी तरह” के मानसिक छिद्र ने पूरी व्यवस्था में छेद कर दिए।
पांच व्यवस्था छिद्रों को सत्प्रेरणाओं तथा पवमान द्वारा जीता जा सकता है। अवद्य को सदा वद्य द्वारा, मल को विमलता द्वारा, अभिद्रोह को संभावना (स्तरीकरण कर उन्नति भावना) द्वारा, अनृत को ऋत पालन द्वारा तथा लांच्छनवृद्धि को सम्मान भाव द्वारा पराजित या दूर किया जा सकता है।
पांच छिद्रों के लिए पांच पवमान सत्प्रेरणाएं हैं। पवमान एक प्रवहणशील मान्यता है या आपः भावना है। आपः एक बहुवचन शब्द है। पवमान आपः महान शून्य त्रुटि विधा है। पवमान सर्वप्रवहणशील परमात्म प्रेरणा का नाम है। यह पेरणा देव व्यवस्था के माध्यम से मुझमें उतरती है। पवमान का उद्देश्य क्या है ? पवमान मुझे मख या पवित्र या शून्यत्रुटि भाव से भरे। अ) क्रत्वे या क्रतु होने के लिए, ब) दक्षता वृद्धि के लिए, स) जीवस्- व्यवस्था में जागरूकता भरने के लिए। (अथर्ववेद 6/19/2)
मख या शून्यत्रुटि कर्म़ों के करने की क्षमता का नाम क्रतु है। इस तरह के कर्म शुभ तथा श्रेष्ठ होते हैं। इन्हें करने के लिए प्रयास करना पड़ता है। तप तथा तितिक्षा पूर्वक ही शून्यत्रुटि कर्म किए जा सकते हैं। लगनपूर्वक भिड़कर सतत लगे रहने से ही मानव का नाम ऋतु होता है। चींटी और मधुमक्खी क्रतु होते हैं। शहद की मक्खी को एक बूंद शहद इकठां करने के लिये हजारों फूलो से रस इकठा करना होता है, सतत उड़ना होता है। चींटी अपने अल्प वजन से अस्सी गुना तक भार खींच सकती है। यह सिद्धि उसे सतत श्रमाभ्यास से मिलती है। चींटी और मधुमक्खी के लिए ये सहज स्वाभाविक कर्म है जिसे वे बिना चिन्तन के करती हैं, क्योंकि दोनों भोग योनिज हैं। मानव कर्म भोग तथा कर्म याने उभययोनिज है। कर्म योनिज होने की अतिरिक्त विशेषता के कारण मानव विचार और मननपूर्वक क्रतु हो सकता है। इसी कारण वह भोग योनिज क्रतुपन से श्रेष्ठ होने में समर्थ है। कर्म, शुभकर्म, सटीक कर्म, श्रेष्ठ कर्मकरने की क्षमता होना क्रतुपन है। दक्षता इन कर्म़ों में वृद्धि देती है। दक्ष- वृद्धौ शीघ्रार्थे च। अनुभव और कौशल के द्वारा आदतन शीघ्र उत्पादन-वृद्धि प्राप्त करना दक्षता है। दक्ष का एक अर्थ बल भी है। दक्षता को शक्ति भी कहा गया है। बिना शक्ति शीघ्र कर्म करना तथा अनुभव और कौशल का सदुपयोग सम्भव नहीं है।
पवमान क्रतु, दक्ष के साथ जीवस् गुण भी देता है। जीवित करने की शक्ति को जीवस् कहते हैं। व्यवस्था में प्राण फूंकना जीवस् द्वारा होता है। एक प्रसिद्ध प्रबन्धन उक्ति जीवस की अर्ध-परिभाषा है- “वह आया.. उसने देखा.. और उसने जीत लिया..!!”। जीवस् सन्दर्भ में यह उक्ति इस प्रकार है- “वह आया.. उसने देखा.. वह भिड़ गया और उसने व्यवस्था में नवजीवन फूंक दिया।” अपनत्व, आस्था, न्याय, विश्वास, शुभ-जीवस् भाव हैं।
कुछ श्रमिक एक ठेकेदार के पास काम करते थे। उनके चेहरे पर कभी हंसी नहीं आती थी। ठेकेदार दिन भर कार्य पर रहता था श्रमिकों से कभी बात नहीं करता था। श्रमिक बुझे बुझे मन से, सुस्त चाल काम करते थे। ठेकेदार के पास कुछ दिवस काम नहीं था। उसने श्रमिक दूसरी जगह भेज दिए। वहां एक जीवस व्यक्ति था। उसने श्रमिकों का काम देखा और उनसे बात की.. पहली बात यह कही- “देखो भई रोटी-रोजी के लिए तो काम करना ही पड़ता है, अब हमारी मर्जी है कि हम हंसते-हंसाते काम करें या रोते-रोते। जब काम करना ही हैं तो हंसते-हंसाते क्यों न करें ?” काम प्रारम्भ हुआ उस व्यक्ति ने “शुभ प्रारम्भ” वाक्य का पालन किया तथा श्रमिकों के साथ होटल में चाय-नाश्ता किया। श्रमिकों के लिए यह नया अनुभव था। दिवस कार्य मध्य वह व्यक्ति श्रमिकों को एक एक चाकलेट देता था। श्रमिकों से बातचीत कर उन्हें हल्का-फुल्का करता था। तीन चार दिन बाद कभी न हंसने वाले श्रमिक हंसते-हंसाते काम करने लगे। प्रथम चरण समाप्त होने पर वह व्यक्ति पत्नी सहित श्रमिकों के साथ होटल की पार्टी में था। एक रेजा (श्रमिक महिला) ने कहा- “कहां आप, कहां हम.. आप अमीर हम गरीब..!” वह हताश हुई। उस व्यक्ति की पत्नी ने कहा दुनियां में सभी गरीब हैं एवं सभी अमीर.. हमसे अमीरों की तुलना में हम गरीब है और तुमसे गरीबों की तुलना में तुम अमीर हो। दो हाथ, दो पैर, दो आंख, एक शरीर हम सब बराबर हैं। श्रमिकों को नई सोच नई दृष्टि मिली, काम में उत्साह आया। उन्हीं श्रमिकों ने पूर्व की तुलना में तैंतीस प्रतिशत अधिक और अच्छा काम किया। व्यवस्था गुणवत्ता जीवस तत्व से बढ़ती है और प्रबन्धन मख होता है।
अरिष्ट का अर्थ है आत्मवत व्यवहार-नियम या अहिंस्य व्यवहार का पालन। यह उच्च कोटि का स्व न्याय है। अरिष्ट-अहिंस्य व्यवहार का सतत हर कर्म पालन करने वाला व्यक्ति अरिष्टतातये अर्थात सततारिष्ट कहलाता है। वह हर व्यवहार सहज शांत सौम्य रहता है। इस प्रकार कर्मत्व, दक्षत्व, जीवसत्व, अहिंस्य भाव परिपुष्टि पवमान द्वारा होती है।…..(क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)