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इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः : राजेंद्र जिज्ञासु परोपकारी पत्रिका Dec II, 14

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इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः- गत दो-तीन वर्षों में कुछ सज्जनों ने News Valueसमाचार या मीडिया प्रचार शैली से शुद्ध किये गये मुसलमानों में से दो-चार को चुनकर कुछ लेख लिखे फिर एक सज्जन ने मुझ से कुछ ऐसे और नाम सुझाने को कहा। कोई विशेष जानकारी तो कोई दे न सका। शुद्धि आन्दोलन को बढ़ाने के लिए स्वामी चिदानन्द जी, अनुभवानन्द जी, ठाकुर इन्द्र वर्मा जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. गोपालदेव कल्याणी जी, श्याम भाई जी, पं. नरेन्द्र जी की तपस्या पर तो कोई लिखता नहीं। मैंने तब हैदराबाद के ऋषि भक्त मौलाना हैदर शरीफ जी के सबन्ध में कुछ  खोजकर लिखने का सुझाव दिया परन्तु कोई आगे न आया। ऋषि ने देहरादून के महाशय मुहमद उमर को स्वयं शुद्धकर उन्हें आर्य धर्म में दीक्षित कर अलखधारी नाम दिया। यह थी किसी मुसलमान की पहली शुद्धि। इसके पश्चात् दूसरी ऐतिहासिक शुद्धि मौलाना अदुल अज़ीज़ की थी। वह अरबी भाषा व इस्लाम के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन दिनों ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर सबसे बड़ा पद था जो किसी भारतीय को मिल सकता था। आप इस उच्च पद पर गुरदासपुर आदि कई नगरों में कार्यरत रहे। इस शुद्धि का श्रेय पं. लेखराम जी तथा परोपकारिणी सभा को प्राप्त है।

महर्षि दयानन्द जी के बलिदान के पश्चात् यह सब से महत्त्वपूर्ण शुद्धि थी। महात्मा हंसराज इस घटना को बड़ा महत्त्व दिया करते थे। वास्तव में यह घटना हमारे लिए ऊर्जा का स्रोत है। मौलाना अदुल अज़ीज़ कभी कुसंग में पड़कर धर्मच्युत हो गये। वह उत्तर पश्चिमी पंजाब के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्मे थे। उनकी पुत्रियाँ ही थीं। जयपुर के प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध आर्यसमाजी बलभद्र जी ने मेरे एक ग्रन्थ में इनकी शुद्धि की चर्चा पढ़कर मुझसे पत्र व्यवहार करके पूछा था कि हमारे एक कुटुबी युवक को पं. लेखराम जी ने शुद्ध किया था। क्या यह वही तो नहीं? मैंने उन्हें सारी जानकारी देते हुए कहा कि जी हाँ, यह मेधावी आर्य पुरुष आप ही के कुल का था। इस शुद्धि पर कड़ा और बड़ा संघर्ष हुआ था। इस कारण शुद्धि का संस्कार लाहौर में करना पड़ा। विचित्र बात तो यह रही कि पौराणिकों ने विरोध तो डटकर किया परन्तु पौराणिकों का एक वर्ग आर्यसमाज के पक्ष में भी खड़ा हो गया। ऐसा आर्य इतिहासकार पं. विष्णुदत्त जी ने लिखा है। तब एक और विचित्र दृश्य देखने को मिला। स्वामी दर्शनानन्द जी के पिता पं. रामप्रताप आर्यसमाज के विरोधी शिविर में थे और स्वामी जी पं. लेखराम की सेना में थे।

परोपकारिणी सभा का योगदानः इस शुद्धि का श्रेय परोपकारिणी सभा को पं. लेखराम जी ने तो दिया परन्तु इसका प्रमाण कोई नहीं मिल रहा  था। पं. लेखराम जी का लेख मिथ्या नहीं हो सकता सो पूर्ण श्रद्धा से मैंने 35 वर्ष इसके प्रमाण की खोज में लगा दिये। यह घटना ऋषिवर के बलिदान के कुछ ही मास के भीतर घटी। पं. लेखराम जी ने इस उच्च शिक्षित युवक के मन में वैदिक धर्म तथा ऋषि के प्रति ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि अदुल अज़ीज़ जी बहुत धन व्यय करके लबी यात्रा करके परोपकारिणी सभा के प्रथम अधिवेशन में अजमेर पहुँचे। पं. गुरुदत्त, राव बहादुरसिंह मसूदा, कविराजा श्यामलदास तथा मेरठ आदि दूरस्थ नगरों के नेता उस अधिवेशन में उपस्थित थे। उन्होंने महर्षि की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा से आर्य धर्म की दीक्षा लेने की प्रार्थना की। पाठक इसका प्रमाण मांगेंगे। इसके प्रमाण के लिए ‘देशहितैषी’ मासिक अजमेर की फाईल सभा को भेंट की जा रही है।1 अमृतसर के पौराणिकों ने ऋषि पर पत्थर वर्षा की। इस शुद्धि में अमृतसर से ही विशेष समर्थन मिला। पं. विष्णुदत्त जी ने लिखा है कि उनकी पुत्रियाँ अमृतसर के प्रतिष्ठत परिवारों में याही गईं। अदुल अज़ीज़ जी को अब लाला हरजसराय के नाम से जाना जाने लगा। वह जहाँ-जहाँ रहे आर्यसमाज की शोभा बढ़ाई।

हीरालाल गाँधी विषयक प्रश्नः हीरालाल गाँधी विषयक एक लेख पढ़कर कुछ उत्साही युवकों ने मुझसे कई प्रश्न पूछे हैं। प्रश्न लेखक से पूछे जायें तो यही अच्छा होगा। मैं कल्पित बातों का क्या उत्तर दूँ। हाँ! कुछ नई बातें जो सुनाता तो रहा परन्तु लिखी कभी नहीं वे आज लिखने लगा हूँ। पहले यह नोट कर लें कि मैंने भाई परमानन्द जी की जीवनी में प्रत्यक्षदर्शी आर्य पुरुष श्री ओमप्रकाश जी कपड़े वाले दिल्ली की साक्षी से लिखा है कि हिन्दुओं का मनोबल बढ़ाने के लिए आर्यसमाज नया बांस में भी सोत्साह हीरालाल की शुद्धि का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कथन की प्रामाणिकता को कोई नहीं झुठला सकता। श्रीयुत् धर्मपाल आर्य दिल्ली इस तथ्य के साक्षी हैं कि आर्य नेता श्री ओमप्रकाश आर्यसमाज के इतिहास का ज्ञानकोश थे। उनकी स्मृति असाधारण थी। वह उस समारोह के आयोजकों में से एक थे।

हीरालाल ने श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक आदि को सार्वदेशिक सभा में बताया था गाँधी जी के व्यवहार से चिढ़कर बाप को अपयश देने के लिए हीरालाल मुसलमान बना था। वह इस्लाम की शिक्षा से प्रभावित होकर मुसलमान नहीं बना था। वह लबे समय तक बलिदान भवन में ठहरा था। यहीं उसका भाई देवदास उसे मिलने आता रहा। ये बातें मुझे पाठक जी ने सुनाईं। लाला रामगोपाल शालवाले ने भी उसके मुख से सुनी कई बातें सुनाई थीं। जिन्हें आज नहीं लिखूँगा। एक बार हजूरी बाग श्रीनगर  में हीरालाल ने चौ. वेदव्रत जी को वही कुछ बताया जो बलिदान भवन में पाठक जी को कहा था। हैदराबाद सत्याग्रह के समय जवाहरलाल नेहरू के एक हानिकारक व्यक्तव्य का हीरालाल ने कड़ा उत्तर लिखा। आर्य नेता समझते थे कि इसे पढ़कर नेहरू आर्यसमाज को और हानि पहुँचा सकता है। हीरालाल को बहुत कहा गया कि वह अपनी प्रतिक्रिया न छपवाये परन्तु वह नहीं मान रहा था, तब आर्य नेता देवदास गाँधी को बुलाकर लाये। देवदास की बात हीरालाल मान जाता था। देवदास आर्य सत्याग्रह का समर्थन करता ही था। उसके कहने पर हीरालाल ने अपना वह व्यक्तव्य रोका। हीरालाल  की शुद्धि के समय गाँधी परिवार में से कौन-कौन मुबई में था? इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा। पाठक स्वयं जानने का प्रयत्न करे।

जवाहिरे जावेद का नया हिन्दी अनुवादः पंजाब के एक उदीयमान सुशिक्षित युवक से कुछ वर्ष पूर्व मेरा सपर्क हुआ। वह आर्यसमाज से जुड़ गया। स्वाध्याय में बहुत रुचि है। वह कुछ सप्ताह अजमेर रहकर न्यायदर्शन पढ़ा रहा था। निरन्तर स्वाध्याय, निरन्तर सेवा और निरन्तर सपर्क से ही संगठन सुदृढ़ होता है। इस युवक ने सभा को पं. चमूपति जी की बेजोड़ दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ का नया हिन्दी अनुवाद छपवाने का प्रस्ताव दिया है। अर्थ की व्यवस्था यही युवक करेगा। श्री धर्मवीर जी ने इस विषय में मुझसे विचार किया। यह कार्य अत्यावश्यक व करणीय है। मैंने दिन रैन व्यस्त होते हुए भी सभा के लिये इस कार्य को सिरे चढ़ाने का आश्वासन दे दिया है। श्री सत्येन्द्रसिंह जी ने मुझे इसके लिए प्रेरित किया है। पं. चमूपति जी के साहित्य ने इस्लाम का रंग रूप ही बदल डाला है। एक ओर इस्लामी आतंकवाद कट्टरवाद है तो साथ के साथ ‘वैदिक इस्लाम’ का उदय हो रहा है। सूचियाँ बनाने वाले एक भाई ने पण्डित जी के योगेश्वर कृष्ण को उनका कालजयी ग्रन्थ बताया है। यह सस्ता मत है। मेरे कहने पर ही स्वामी दीक्षानन्द जी ने शरर जी से इसका अनुवाद करवाया और मुझसे दो बार इस पुस्तक की गौरव गरिमा पर विस्तार से लिखवाया गया। किसी कारण से मेरा निबन्ध साथ न छप सका। शरर जी ने जवाहिर जावेद के एक-एक बिन्दू पर अपनी मार्मिक टिप्पणी कहीं भी नहीं दी। वह बहुत कुछ जानते थे। यह उनकी भूल थीं।

मैं इसका मुद्रण भी ऐसा चाहता हूँ कि पुस्तक के शीर्षक, उपशीर्षक व टिप्पणियाँ देखकर अपने-पराये मुग्ध हो जायें। पण्डित चमूपति अपने समकालीन विद्वानों के मन मस्तिष्क पर तो छाये ही थे उनकी छाप नये इस्लामी साहित्य पर कितनी गहरी है, यह इस नये संस्करण में बताया जायेगा। पाकिस्तान के एक दैनिक ‘कोहिस्तान’ का एक लेख मेरे पास सुरक्षित है, वह लेख इस बात का प्रमाण है कि अनेक मौलवियों पर पण्डित जी का रोब व दबदबा है। श्वह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्लब् (नित्यता) पर एक मुसलमान विद्वान् ने परपरा से हटकर पहली बार एक पुस्तक लिखने का साहस किया है। मृत्यु को ‘ह्रश्चद्गठ्ठद्बठ्ठद्द शद्घ ड्ड स्रशशह्म् ह्लश ठ्ठद्गख् द्यद्बद्घद्ग’ नये जन्म का द्वार बताने का यह साहस वन्दनीय है। ‘कुरान में पैगबर के एक भी चमत्कार का वर्णन नहीं’ यह कई एक ने खुलकर लिखा है।

पैगबर को मुक्ति का तवस्सुल (मध्यस्थ) मानने वाले मदरसों में पढ़ाई जाने वाली एक पुस्तक में हमारे भक्तराज अमींचन्द जी का एक गीत पढ़ाया जा रहा है। अजमेर, दिल्ली, हैदराबाद, मालाबार के मदरसों में जाकर देख लो। यह पं. लेखराम, पं. चमूपति की कृपा का प्रसाद है। यह पढ़कर आर्यजन को कैसा लगेगा कि श्वह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्लब् (नित्यता) नाम का ग्रन्थ स्वयं लेखक ने मुझे सप्रेम भेंट किया। आर्यो! सर्व सामर्थ्य से पं. लेखराम की परपरा के विद्वानों के साहित्य का प्रसार प्रकाशन करो। वह दिन दूर नहीं अलीगढ़, देवबन्द और अजमेर के मुसलमान यह पुकारेंगे- ‘पं. शान्तिप्रकाश हमारा है, वह तुहारा नहीं।’ मैं अभी से कहता हूँ कि आपने भक्तराज अमींचन्द के गीत को लिया, कुल्लियाते आर्य मुसाफिर ले ली, जवाहिर जावेद और चौदहवीं का चाँद अपनाया, आप पं. शान्तिप्रकाश, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय भी लेते हो तो ले लो। हम तो सच्चे हृदय से कह रहे हैंः-

कौन कहता है कि हम तुम में जुदाई होगी।

यह हवाई किसी दुश्मन ने उड़ाई होगी।।

ऋषि जीवन पर नई खोजः मेरे बहुत से पत्र-पत्रिकायें दबी पड़ी रह गईं। उनके प्रमाण तो कण्ठाग्र थे परन्तु सामने पुस्तक व पत्रिका रखकर ऋषि जीवन में उनको उद्धृत करना चाहता था। ऐसा हो न सका। अतः श्री रमेशकुमार जी मल्होत्रा ने परोपकारिणी सभा के लिए एक नया, छोटा परन्तु अनूठा ऋषि जीवन लिखने की प्रेरणा दी है। ‘जीवन पल पल क्षण क्षण बीता जाये’ तो भी जी जान से जो कुछ भी मेरे सीने में, मेरे मन व मस्तिष्क में सुरक्षित है सब कुछ आर्यसमाज की नई पीढ़ी को सौंप रहा हूँ। लीजिये! कुछ नई जानकारी। जोधपुर के राजघराने के, सर प्रतापसिंह के आपने बड़े किस्से पढ़ लिये। नन्हीं भगतन को चरित्र का प्रमाण पत्र देने वाले भी देखे। अब सुनिये! ‘देशहितैषी’ में ऋषि के शाहपुरा में कार्यरत होने का समाचार तो मिलता है परन्तु उसके आगे जोधपुर का एक भी समाचार नहीं मिलता। ये सब अंक परोपकारिणी सभा को सौंप दूँगा। नये युवा विद्वान् इस विषय पर विचार करके कारण तो बतावें कि जोधपुर से कोई समाचार क्यों न निकलने दिया गया। मेवाड़ के तो सब समाचार मिल गये।

घोर विरोधी ने स्वीकार कियाः महर्षि के बलिदान पर ‘क्षत्री हितकारी’ पत्र के संया चार पृष्ठ पाँच पर ‘शोक! शोक!! शोक’ शीर्षक देकर ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं, ‘‘हम को शोक है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसा पण्डित इस काल में होना कठिन है, यह एक पुरुष बड़ा विलक्षण बुद्धि और परमोत्साही उद्योगी था। यह सामर्थ्य इसी महाशय में था कि श्रुति, स्मृति के अर्थ को यथार्थ जाने, यह पुरुष पूर्ण आयु को पहुँचने के योग्य था परन्तु काल यह कब सोचता है।’’ इस पत्र के सपादक वीरसिंह वर्मा ऋषि के घोर विरोधी को उनकी विद्वत्ता व व्यक्तित्त्व पर ये शद लिखने पड़े परन्तु इसी लेख में वह ऋषि पर वार भी करता है। न जाने उसकी क्या विवशता थी। चलो! यह तो मानना पड़ा कि श्रुति, स्मृति के यथार्थ अर्थ को जानने का सामर्थ्य इसी महात्मा में है। ‘देशहितैषी’ पत्र से यह अवतरण यहाँ उद्धृत किया है।

भूल सुधारःअल्पज्ञ जीव से भूल का होना सभव है। जब कभी लिखने-बोलने में जाने-अनजाने या मुद्रण दोष से हमसेाूल हो गई, हम ने पता लगने पर झट से क्षमा माँगते हुए भूल का सुधार करना अपना कर्त्तव्य जाना। अभी ‘तड़प झड़प’ में इन दिनों लातूर (महाराष्ट्र) के ठाकुर शिवरत्न जी का नाम देना था परन्तु भूलवश हरगोविन्द सिंह लिखा गया। उनके भाई का नाम गोविन्दसिंह था। वह कलम (मराठवाड़ा) के जाने माने आर्य पुरुष थे। इन दोनों की चर्चा मेरे ग्रन्थों में है। ‘तड़प झड़प’ डाक में भेजते ही चूक का पता चल गया। मैंने तत्काल चलभाष करके धर्मवीर जी को इसे ठीक करने को कहा। व्यस्ततायें उनकी भी इतनी हैं कि वह ऐसा न कर सके। फिर बता दें कि ठाकुर शिवरत्नसिंह जी ने पंजाब के पं. विष्णुदत्त से अपनी पुत्री का विवाह किया तो पौराणिकों के प्रचण्ड बहिष्कार के कारण उन्हें विदर्भ से पंजाब पलायन करना पड़ा।

एक दुःखद लेखः‘आर्यजगत्’ के 25 मई अंक में माननीय कृष्णचन्द्र जी गर्ग पंचकूला का ‘जगन्नाथ’ विषयक एक लेख छपने की जानकारी मिली। यह लेख किस प्रयोजन से लिखकर छपवाया? यह मैं समझ न पाया। ऋषि के हत्यारे का नाम जगन्नाथ नहीं, यह कहानी झूठी है इत्यादि बातें लिखने की क्या आवश्यकता पड़ गई? श्रीराम शर्मा, लक्ष्मीदत्त दीक्षित आदि बहुत निब घीसा चुके। महत्त्व हत्यारे के नाम का नहीं, मुय बात ऋषि के विषपान की, ऋषि को मरवाने के षड्यन्त्र की है। इस विषय पर प्रमाणों के ढेर लगा कर लक्ष्मण जी के ग्रन्थ में जितनी जानकारी दी गई है, किसी भी ग्रन्थ में इतनी खोज नहीं मिलेगी।

ऋषि की जोधपुर यात्रा के समाचार क्यों बाहर न निकलने दिये गये? यह ऊपर हम बता चुके। श्री कृष्णसिंह बारहट का ग्रन्थ छप चुका है। क्या देखा है? आपके घर के पास से दित्तसिंह ज्ञानी के कथित शास्त्रार्थों की कल्पित कहानी छपी, नन्हीं वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देते हुए लिखा गया। श्री गर्ग जैसे सब सयाने यह चुपचाप पढ़ते-सुनते रहे। स्वामी आत्मानन्द जी को ऋषि ने चित्तौड़ में गुरुकुल खोलने के लिए कहा, अन्त समय में नाई को पाँच रुपये दिये गये। इन दो प्रेरक प्रसंगों को झुठलाया गया। तैलंग स्वामी की आड़ में ऋषि पर वार प्रहार किया गया। अब शाहपुरा के रसोइये की दुहाई देकर आर्यजन को क्या सन्देश देना चाहते हैं? आपकी भावना शुद्ध है, यह मैं जानता हूँ।

श्री पं. लेखराम जी ने सर्वप्रथम सर नाहरसिंह के नाम ऋषि का एक पत्र छापा कि शाहपुरा के दिये सब नौकर बड़े निकमे थे। इस पत्र का प्रमाण देकर हमने श्रीराम और प्रिं. लक्ष्मीदत्त को चुप करवाया। स्वामी सत्यानन्द जी के ग्रन्थ की विशेषतायें भी हैं, कुछ कमियाँ भी हैं। जगन्नाथ की कहानी झूठी का शोर मचाकर इस ग्रन्थ का अवमूल्यन न करें। मूलराज के गीत गा-गाकर उसे ऋषि का कर्मठ साथी बता कर आर्य इतिहास प्रदूषित किया गया। आप चुप बैठे रहे, यह चिन्ता का विषय है। परोपकारी के धर्म रक्षा महाभियान में जुड़िये।

स्वामी बलेश्वरानन्द जी द्वारा समान के लिए आभारः पुण्डरी के स्वामी श्री ब्रह्मानन्द आश्रम के स्तभ प्रिय आर्यवीर राजपाल स्वामी बलेश्वरानन्द जी का सन्देश लेकर आये कि हम इस वर्ष आपका समान करना चाहते हैं। स्वीकृति दें। मैं प्रायः हर व्यक्ति व संस्था का ऐसा प्रस्ताव अब सुनकर अनसुना कर देता हूँ। माँगने की, धन संग्रह की प्रवृत्ति न बन जावे। लोकैषणा की सर्पिणी न डस जावे, सो समान से बचता हूँ परन्तु स्वामी जी का प्रस्ताव मैंने स्वीकार करके तत्काल निर्णय कर लिये कि वह जो कुछ देंगे उसमें कुछ और धन मिलाकर श्रीमती वेद जिज्ञासु के नाम की स्थिर निधि स्थापित करके अभी 50.000/- की राशि परोपकारिणी सभा को भेंट करूँगा।

स्वामी जी ने तो मेरे मनोभाव न जाने कैसे जान लिये कि समान राशि ही 51000/- की भेंट कर दी। मैंने यह राशि सभा को पहुँचा दी है और इसमें जो कुछ हो सकेगा और राशि मिला दी जावेगी। मैं स्वामी जी का, आश्रम का और स्वामी जी के भक्तों का हृदय से आभार मानता हूँ। यह आश्रम वेद प्रचार का वैदिक धर्म का और आर्यसमाज का सुदृढ़ दुर्ग बने, ऐसा हम सबका प्रयास होना चाहिये।

कहानीकार सुदर्शन जी तथा हरियाणाः स्वर्गीय चौ. मित्रसेन जी बहुत दूरदर्शी थे। आपने चौधरी छोटूराम जी की एक उर्दू पुस्तक (लेखमाला) का हिन्दी अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन की इच्छा शिरोधार्य कर प्राक्कथन स्वरूप चौधरी छोटूराम तथा आर्यसमाज पर कुछ खोजपूर्ण सामग्री देने का सुझाव रखा। चौधरी जी को मेरा सुझाव जँच गया। छपने पर मुझे कुछ प्रतियाँ भेजना वे भूल गये। एक ठोस काम वे कर गये। इसमें मैंने एक घटना दी कि चौधरी छोटूराम जी ने कहानीकार सुदर्शन जी को जाट गज़ट का सपादक  बनाया। केवल इसलिये कि वह पक्के आर्यसमाजी हैं। एक गोरे पादरी के साथ टक्कर लेने से गोरा शाही सुदर्शन जी से चिढ़ गई। चौ. छोटूराम, चौ. लालचन्द से आर्यसमाजी सपादक को हटाने का दबाव बनाया। चौ. छोटूराम अड़ गये। सरकार की यह बात नहीं मानी। यह घटना प्रथम विश्व युद्ध के दिनों की है। वर्ष का स्मरण मुझे नहीं था हरियाणा के किसी भी आर्य ने, जाट ने, अजाट ने इस घटना के समय का पता लगाने में कतई रुचि नहीं दिखाई। अब सुदर्शन जी की एक पुस्तक से प्रमाण मिल गया कि आप 1916-1917 में रोहतक में कार्यरत थे।

टिप्पणी

1. द्रष्टव्य देशहितैषी मासिक का मार्च 1884 का अंक।