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व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर -रामनाथ विद्यालंकार

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर  

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निः । छन्दः आर्ची त्रिष्टुप् ।

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमूहमनृतात् सत्यमुपैमि

-यजु० १।५

हे ( व्रतपते ) व्रतों का पालन करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर, राजन् व विद्वन् ! मैं ( व्रतं चरिष्यामि ) व्रत का अनुष्ठान करूंगा। (तत् ) उस व्रत को ( शकेयम् ) पालन करने में समर्थ होऊँ। ( तत् मे ) वह मेरा व्रत (राध्यताम् ) सिद्ध हो। वह व्रत यह है कि ( अहं ) मैं ( इदं ) यह ( अनृतात् ) अनृत को छोड़ कर ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि) प्राप्त होता हूँ।

हे सर्वाग्रणी विश्वनायक जगदीश्वर आप सबसे बड़े व्रतपति हैं। आपने उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, न्याय, निष्पक्षता, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि अनेक व्रतों को स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है, जिनका आप सदैव पालन करते हैं। अतएव आपको साक्षी रख कर आज मैं भी एक व्रत ग्रहण करता हूँ। वह मेरा व्रत यह है कि आज से मैं अमृत को त्याग कर सदा सत्य को अपनाऊँगा। अब तक मैं अपने जीवन में अनेक अवसरों पर असत्य भाषण और सत्य आचरण करता रहा हूँ, कई बार प्रलोभनों में पड़ कर मन, वाणी और कर्म से असत्य में लिप्त होता रहा हूँ। परन्तु आज मैं आपके संमुख उस असत्य से मुँह मोड़ने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे सिखाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। आप ऐसी शक्ति दीजिए कि इस व्रत का मैं पालन कर सकें।

यदि कभी मैं अपने व्रत को भूल कर सत्य से विमुख होने लगूं तो मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे मेरा व्रत स्मरण करा कर होनेवाले स्खलन से मुझे बचा लीजिए। ऐसी कृपा कीजिए कि मैं अपने जीवन के अन्त तक इस व्रत का पालन करता रहूँ और इस व्रतपालन से मिलनेवाले सुमधुर फलों के आस्वादन से कृतकृत्य होता रहूँ।

व्रतपति जगदीश्वर के अतिरिक्त अन्य व्रतपतियों को भी मैं अपने इस व्रत का साक्षी बनाता हूँ। यदि मैं अपने राष्ट्र का प्रतिनिधि होकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में गया हूँ, तो उसके अध्यक्षरूप व्रतपति के संमुख सदा सत्य का ही पक्ष लेने की प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि में राज्यपरिषद् का सदस्य या राज्य का कोई उच्च अधिकारी हूँ तो राष्ट्रनायक के समक्ष प्रण लेता हूँ कि मैं सदा सत्य का ही पक्षपोषण करूंगा। यदि किसी सभा का सदस्य हूँ तो उसके सभापति के संमुख, यदि मैं किसी संस्था का कर्मचारी हूँ तो उस संस्था के अध्यक्ष के संमुख, यदि किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक या विद्यार्थी हूँ तो उसके कुलपति या प्राचार्य के संमुख, यदि मैं किसी संघ का सदस्य हूँ तो संघचालक के संमुख और जिस परिवार का मैं अङ्ग हूँ, उस परिवार के गृहपति के संमुख मैं सदा सत्य पर ही चलने का व्रत ग्रहण करता हूँ।

इन सबके अतिरिक्त यज्ञाग्नि भी व्रतपति है। प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में जो व्रत उसके लिए निश्चित कर दिया था, उसी व्रत का वह आज तक पालन करता चला आया है। अतः प्रतिदिन प्रात:सायं अग्निहोत्र करते हुए उस व्रतपति अग्नि के सामने भी सत्य का व्रत लेता हूँ। उस व्रतपति अग्नि की ऊपर उठती हुई ज्वालाएँ नित्य मेरे अन्तरात्मा में सत्य की ज्योति को जागृत करती रहें।

शतपथकार का कथन है कि देवजन सत्य के व्रत का ही आचरण करते हैं, इस कारण वे यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई सत्यभाषण और सत्य का आचरण करता है, वह यशस्वी होता है।

व्रतग्रहण

पादटिप्पणियाँ

१. शकेयम्, शक्लै शक्तौ ।

२. राध्यताम्, राध संसिद्धौ।

३. एतद्ध वै देवा व्रतं चरन्ति यत् सत्यं, तस्मात् ते यश, यशो ह भवति य एवं विद्वांत्सत्यं वदति। -श० १.१.१.५

व्रतग्रहण   -रामनाथ विद्यालंकार