दिनाक 23 अक्टूबर 2014 को रामलीला मैदान,न्यू दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की और से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया. इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थें1 उन्होंने श्रद्धांजलि देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धांजलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतिक अधिक थें. वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा-‘इस देश के महापुरषो में पहला स्थान स्वामी विवेकानंद का हैं1 तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का हैं’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी घोतक हैं. सामान्य रूप से महापुरषो की तुलना नहीं की जाती. विशेष रूप से जिस मंच पर आपको बुलाया गया हैं . उस मंच पर तुलना करने की आवश्यता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना के जाती हैं. छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती. यदि तुलना करनी हैं तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि मेंत तुलना करना न्याय संगत होगा.
श्री वी.के. सिंह ने जो कहाँ उसके लिए उनको दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता हैं, वही कहता हैं. यह आयोजको का दायितव हैं की वे देखे बुलाये गए व्यक्ति के विचार क्या हैं. यदि भिन्न भी हैं तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट शब्दों में उनकी बातो का उतर दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना सगंठन के लिए लज्जाजनक हैं. इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानंद के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत हैं:
भारतवर्ष में सन्यास संसार को छोड़ने और मोह से छुटने का नाम हैं. स्वामी विवेकानंद न संसार
छोड़ पाए न मोह से छुट पाए इसलिय वे सारे जीवन घर और घाट की अजीब खीचतान में पड़े रहे . (वही पृष्ठ – २)
अपने किसी प्रियजन का मुत्यु सवांद पाकर सन्यासी विवेकानंद को रोता देखकर किसी ने मंतव्य दिया- ‘सन्यासी के लिए किसी की मुत्यु पर शोक प्रकाशित करना अनुचित हैं.
विवेकानंद ने उतर दिया ‘यह आप कैसे बाते करते हैं? सन्यासी हूँ इसलिए क्या में अपने ह़दय का विसर्जन दे दूँ .सच्चे सन्यासी का ह़दय तो आप लोगो के मुकाबले और अधिक कोमल होना चाहिए .हजार हो, हम सब आखिर इंसान ही तो हैं.’ अगले ही पल, उनकी अचिंतनिये अग्निवर्षा हुई, ‘ जो सन्यास दिल को पत्थर कर लेने का उपदेश देता हैं, में उस सन्यास को नहीं मानता. (वही पृष्ठ – २)
‘ जो व्यक्ति बिल्कुल सच्चे-सच्चे मन से अपनी माँ की पूजा नहीं कर पाता,वह कभी महान नहीं हो सकता.
इसके लिए स्वामी विवेकानंद ने शंकराचार्य और चैतन्य का उदाहरण दिया. (वही पृष्ठ – ३)
में अति नाकारा संतान हूँ .अपनी माँ के लिए कुछ भी नहीं कर पाया .उन लोगो ने जाने को कहाँ तो बहा कर चला आया. (वही पृष्ठ – ७ )
‘सोने जैसे परिवार का सोना बेटा नरेंदर नाथ लगभग एक ही समय दो-दो प्रबल भंवर में फँस गया था- आध्यात्मिक जगत में विपुल आलोडन दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण से साक्षात्कार .दूसरा भंवर था- पिता विश्वनाथ की आकस्मिक मौत से पारिवारिक विपर्यय .यह एक ऐसी परिस्थिती थी, जब इक्कीस वर्षीय वकालत दा, बड़े बेटे के अलावा कमाने लायक और कोई नहीं था 1’(वही पृष्ठ – २०)
;पिता की मत्यु के साल भार बाद सन १८८५ में मार्च महीने में नरेंदरनाथ ने घर छोड़ देने का फैसला ले लिया था ऐसा हम अंदाजालगा सकते हैं .यह सब व्रतांत पढ़कर आलोचकों ने मोके का फायदा उठाते हुय कहाँ एक टेढ़ा सा सवाल जड़ दिया-स्वामी जी अभाव सन्यासी थें या स्वभाव सन्यासी थें (वही पृष्ठ – २६)
अब घर से उनका कोई खास सरोकार नहीं रहा .हाँ जब वे कोलकत्ता में होते थें तो कभी-कभार माँ से मिलने चले आते थें .सन १८९७ में यूरोप से लोटने के पहले तक घर में किसी ने उन्हें गेरुआ वस्त्र में नही देखा1 (वही पृष्ठ – ४१)
‘ इस प्रसंग में वेणीशंकर शर्मा ने कहाँ हैं- जो कुछ परिवार से जुड़ा हैं, वह निंदनीय या वर्जनीय हैं,ऐसा उनका मनोभाव नही था.मात्रीभक्ति को उन्होंने सन्यास की वेदी पर बलि नहीं दी, बल्कि हम तो यह देखते हैं की वे माँ के लिय उच्च्कान्क्षा , नेतृत्व ,यश सब कुछ का विसर्जन देने को तेयार थें. (वही पृष्ठ –४५ )
‘वेणीशंकर शर्मा की राय हैं- ऐसा लगता हैं स्वामी जी को अमेरिका भेजने को जो खर्चीला संकल्प महाराज ने ग्रहण किया था, उसमे स्वामी जी की माँ और भाइयो के लिए सों रुपये महीने का खर्च भी शामिल था .महाराज ने सोचा कि स्वामी जी को अपनी माँऔर भाइयो की दुषिन्नता से मुक्त करके भेजना ही , उनका कर्तव्य हैं (वही पृष्ठ –४६ )
‘खेतड़ी महाराज को पत्र (१७ सितम्बर १८९८) भेजा मुझे रुपयों की जरूरत हैं, मेरे अमेरिकी दोस्तों ने यथासाध्य मेरी मदद की हैं,लेकिन हर वक्तगत फेलाने में लाज आती हैं, खासतोर पर
इस वजह से बीमार होने का मतलब ही हैं-एक मुश्त खर्च . दुनिया में सिर्फ एक ही इंसान हैं, जिससे मुझे भीख मागंते ममुझे संकोच नहीं होता .और वह इंसान हैं आप .आप दे या न दे, मेरे लिए दोनों बराबर हैं .अगर संभव हो तो मेहरबानी करके , मुझे कुछ रूपये भेज दे (वही पृष्ठ – ५५ )
‘ में क्या चाहता हूँ, उसका विशद विवरण में लिख चुका हूँ .कलकत्ता में एक छोटा सा घर बनाने पर खर्च आएगा दास हजार रुपये .इतने रुपये से चार-पांच जन के रहने लायक छोटा सा घर किसी तरह ख़रीदा या बनवाया जा सकता हैं .घर खर्च के लिए आपर मेरी माँ को हर महीने जो सों रूपये भेजते हैं, वह उनके लिए पर्याप्त हैं .जब तक में जिन्दा हूँ, अगर आप मेरे चर्च के लिए और सों रुपये भेज सकें, तो मुझेबेहद ख़ुशी होगी .बिमारी की वजह से मेरा खर्च भयंकर बढ़ गया हैं .वैसे यह अतिरिक्त बोझ आपको जयादा दिनों तक वहन करना होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता, क्योकिं में हद से हद और दो-एक वर्ष जिन्दा रहूँगा .में एक और भीख भी मांगता
हूँ-माँ के लिए आप जो हर महीने सों रूपये भेजते हैं, अगर हो सके तो उसे स्थायी रखे.मेरी मौत के बाद यह भी मदद उनके पास पहुचती रहे .अगर किसी कारणवश मेरे प्रति अपने प्यार या दान में विलाप लगाना पड़ें तो एक अकिचन साधु के प्रति कभी प्रेम प्रीति रही हैं,यह बात यद् रखते हुए, महाराज इस साधु की दुखियारी माँ पर करुणा बरसाते रहे 1’ (वही पृष्ठ – ५६ )
‘उन्होंने अपनीयह इच्छा भी बताई कि अब वे अपनी जिन्दगी के बचे-खुचे दिन अपनी माँ के साथ बिताएंगे .उन्होंने कहा- देखा नहीं, इस बार बीच में आपदा हैं- प्रकत वैराग्य ! अगर संभव होता तो में अपने अतीत का खंडन करता, अगर मेरी उम्र दस वर्ष काम होती, तो में विवाह करता .वह भी अपनी माँ को खुश करने के लिए, किसी अन्य कारण से नहीं .उफ़ ! किस बेसुधि में मेने यह कुछ साल गुजार दिये, उचाशा के पागलपन में था’…अगले ही पल वह अपने समर्थन में कह उठे, में कभी उचाभिलाषी नहीं था .खयाति का बोध मुझे पर लाद दिया गया था 1’ ‘निवेदिता ने कहा, खयाति की शुदरता आप में कभी नहीं थी .लेकिन में बेहद खुश हूँ कि आपकी उम्र दस वर्ष कम नहीं हैं ’ (वही पृष्ठ – ५७ )
‘विश्वविजय कर कलकत्ता लोट आने के बाद ( १८९७ ) स्वामी जी का माँ से मिलने जाने का हर द्रश्य भी अंकित हैं 1- पेट्रियट, औरेटर,सेंट कहाँ गुम हो गया वे दोबारा अपनी माँ के गोद के नन्हे से लला बन गए .माँ की गौद में सिर रखकर,असहाय शरारती शिशु की तरह वे रोने लगे-माँ-माँ अपने हाथो से खिलाकर,मुझे इंसान बनाओ. (वही पृष्ठ – ६१)
‘ अगले सप्ताह में अपनी माँ को लेकर तीर्थ में जा रहा हूँ .तीर्थ-यात्रा पूरी करने में कई महीने लग जायेंगे .तीर्थ-दर्शन हिन्दू-विधवायो की अन्तरग साध होती हैं .जीवन भरमेने अपने आत्मीय स्वाजनो को केवल दुख ही दिया .में उन लोगो की कम से कम एक इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहा हूँ . (वही पृष्ठ – ६४ )
स्वामी त्रिगुणातितानंद ने यह भी जानकारी दी हैं- ‘उनकी दोनों बाहे और हाथ किसी औरत की बाहों की तुलना में जयादा खुबसूरत थें. (वही पृष्ठ – १४९ )
‘स्वामी जी के घने काले बालो के एइश्वर्य के बारे में उनकी कई- कई तस्वीरों से हमारी धारणा बनती हैं-घुघराले नहीं, लहर-लहर घने बालो का अरन्य .उनके घने काले बालो का एक छोटा-
गुच्छा अचानक ही मिस जोसेफिन मेक्लाइड ने काट लिया था और वे परेशान हो उठे थें .बालो का वह गुच्छा मिस मेक्लाइड अपने जेवर के डब्बे में संजोकर हमेशा अपने पास रखती थी .स्वदेश लौटकर बेलुड मठ में अपना सिर मुंडाते हुए भी स्वामी जी अपने बालो को लेकर खूब-खूब हंसी-ठटा किया था .ऐसे खुबसूरत बालो जो विदेश में भाषण देते हुए माथे पर झूलकर आँखों को ढँक लेते थें, स्वदेश लौटकर उन्होंने काट फेंका .
‘ हम जानते हैं कि बेलुड मठ में वे हर महीने बाल मुंडवा लेते थें .बेलुड मठ में उनके बाल मूडकर नाइ उन्हें समेट कर फेकने ही जा रहा था की स्वामी जी ने हंसकर मंतव्य किया .अरे देख क्या रहा हैं ! इसके बाद तो विवेकानंद के गुच्छे भार बालो के लिए, दुनिया में ‘क्लैमर ’ मच जायेगा
नरेंदर के अंग-प्रत्यंग के बारे में जब ढेंरो तथेय जमा कर रहा हूँ, तब यह भी बता दूँ कि उनकी ‘टेम्परिंग फिंगर’ थी, बंगला में महेन्दरनाथ दत ने जिन उंगलियों को ‘चम्पे की कली’ कहाँ हैं, इस किस्म की उंगलिया दुविधाशुन्य निश्येयात्म्क मनसिकता का संकेत देती हैं .उनके नाख़ून
ईशत रक्ताभ थें औरे नाख़ून का उपरी हिस्सा ईशत अर्धचंद्राकर संस्कृत में किस्म के दुर्लभ न नाखुनो को ‘नखमणि’ कहते हैं .
महेन्द्रनाथ अपने बड़े भाई के पदचाप के बारे में भी संकेत दे गये हैं- उनके न कदमो की गति जयादा तेज थी, न जयादा धीमी, मानो गम्भीर चिंतन में निमग्न रहकर विजयाकंषा में अतिद्रंड, ससुनिषित ढंग से, धरती पर कदम रखकर चलते थें 1’
, भाषण देते समय विवेकानंद अपने हाथ की उंगलिया पहले कसकर अचानक फेला देते थें उनके मन में जैसे-जैसे भाव संचरित होते थें, उंगलियों का संचरण भी तदनुसार होता रहता था . उनके अवयव के जिस हिस्से कोलेकर देश-विदेश के भक्तो में मतभेद नहीं हैं, वह हैं स्वामी जी की आँखें .जो लोग भी उनके करीब आये,सभी उनकी मोहक राजीवलोचन आँखों के जयगान में मुखर हो उठे. (वही पृष्ठ –१५०)
वेरी लार्ज एण्ड ब्रिलियंट-तमाम अखबारों और विभिन्न संस्मरणों में बार-बार यह घूम-फिरकर आई हैं उनकी आँखों के बारे में अंग्रेजी के और भी दुर्लभ शब्दों का प्रयोग किया हुआ हैं-फ्लोइंग,ग्रेसफुल,ब्राइट, रेडीएंट,फाइन, फुल ऑफ़ फ्लेशिंग लाइट .आलोचकों ने प्रकारांतर से उनकी आँखें पर कीचड उछालने की व्यर्थ कोशिश में अमेरिका में अफवाहे फेलाई अमेरिकी महिलाये उनके आदर्श की और आकृष्टहोकर पतंग की तरह दोडी हुई नहीं आती, वे लोग उनके नयन-कमल की चुम्ब्कीय शक्ति की और खिची चली आती हैं(वही पृष्ठ – १५१ )
इंदौर की घटना हैं .पत्रकार वेदप्रताप वैदिक के पिता श्री जगदीश प्रसाद वैदिक इंदौर के एक विधायक की चर्चा कर रहे थें .वैदिक जी ने विधायक से कहा शंकरसिंह ! तू किसी सिद्धान्त का पालन नहीं करता, अपने को आर्यसमाजी कहता हैं . यह अनुचित हैं .विधायक बोला पंडित जी में पाडे आर्यसमाजी हूँ में निराकार ईश्वर को मानता हूँ आर्य समाज के सिद्धान्तो को मानता हूँ, ऋषि दयानन्द में मेरी निष्ट हैं, में उनको अपना गुरु मानता हूँ वैदिक जी विधायक से बोले- शंकर तुम मांस खाते हो, शराब पीते हो, अन्य क्य्सन करते हो, फिर आर्यसमाजी कैसे हो! शंकर बोला मेरी सिद्धान्तो में निष्ठां हैं इसलिए आर्यसमाजी हूँ .खाता- पीता हूँ कह सकते हो, में बिगड़ा हुआ आर्यसमाजी हूँ .स्वामी विवेकानंद के संस्यास के विषय में कहा जा सकता हैं .तो वे संस्यासी उनकी संस्यास में आस्था हैं, परन्तु व्यव्हार में संस्यास दूर तक भी दिखाई नहीं देता 1
स्वामी विवेकानंद के संस्यासी जीवन को व्यव्हार के धरातल पर देखा जाए तो एक वाक्य में कहा जा सकता हैं- उनका जीवन मछली से प्रारम्भ होता हैं और मछली पर आकर समाप्त हो जाता हैं1
किसी भी व्यक्ति के सन्यासी होने की सर्वमान्य कसोटी हैं .यम-नियमो में आस्था रखना , उनका पालन करना, उनके पलना का उपदेश करना, क्योकि इनके पालन करने से व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जीवन की उन्नति होती हैं और यदि कोई कहता हैं की यम-नियमो का पालन न करके,उनके विपरीत आचरण करके कोई संस्यासी महान बनता हैं तो इस से बड़ी मूर्खता और नहीं हो सकती .यम-नियामी में पांच यम-अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्र्हम्चर्ये और अपरिग्रह तथा पांच नियम- शोच, संतोष, तप, स्वाधायक और ईश्वर प्रणिधान हैं .यह दस संस्यास की आवशयक बाते हैं .यदि कोई इनका निषेध करके अपने आपको संस्यासी मानता है, तो वह मर्यादा से पतित ही कहा जा सकता हैं संस्यास,योग, समाधी जैसे बातो में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान हैं,परन्तु विवेकानंद के जीवन में अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हैं .जो मनुष्य अपने भोजन और जिहा के स्वाद के लिए प्राणी- हिंसा का समर्थन करता हो, वह व्यक्ति योग और सन्यास के पथ का पथिक नहीं बन सकता .स्वामी विवेकानंद को मासांहार कितना प्रिय था और वे इसके लिए कितने आग्रही थें .इस बात कोउनके जीवन में आई निम्न घटनाओं को देखकर परिणाम निकाला जा सकता हैं-
“ खाने-पीने के बारे में, बड़े होकर मंझले भाई के नाश्ते की ही बात ले .उन दिनों कलकत्ता की दुकानों में पाडे के मुंड बिका करते थें दोनों भाई नरेंदर और महेंदर ने पाडे वाले से मिलकर पक्का इंतजामकर लिया था .दो चार आने में ही पाडे के दस बारह मुंड जुटा लिए जाते थें दस-बारह सिर और करीब दो-ढाई सेर हरे मटर एक संग उबल कर सालन पकाया जाता था .महेंदर ने लिखा हैं –शाम को में और स्वामी जी ने स्कूल से लोटकर वो सालन और करीब सोलह रोटिया नाश्ते में हजम कर जाते थें1( विवेकानन्द, जीवन के अनजाने सच पृष्ठ १३)
‘ दादा नरेन काफी काम उम्र में सुघनी लेने लगे थें और उसकी गन्ध मसहरी के अन्दर से आती रहती थी,यह बात उनके मंझले भाई महेंदरनाथ हमें बता चुके कबूतर उड़ाने का उन्हें खानदानी शोक था. (वही पृष्ठ – १७ )
‘ एक बार वे भाई, दादा और माँ-पिता के साथ रायपुर जा रहे थें .महेंदरनाथ ने जानकारी दी हैं की घोडाताला में मांस पकाया गया .में खाने को राजी नहीं था बड़े भाई ने मेरे मुहमांस का टुकड़ा टूस दिया और मेरी पीठ पर धोल ज़माने लगे- खा, उसके बाद और क्या! शेर के मुह को खून का स्वाद लग गया (वही पृष्ठ –१८ )
“ मास्टर साहेब ने पूछा ‘ तुम्हारी माँ ने कुछ कहाँ ? नरेंदर ने उतर दिया- नहीं .वे खाना खिलाने के लिए उतावली हो उठी .हिरण का मांस था , खा लिया .लेकिन खाने का मन नहीं था. (वही पृष्ठ – २८ )
‘ दत्त लोगो की मेधा के प्रसंग में और एक सरल कथा भी हैं मंझले भाई नरेंदनाथ से निरन्जन महाराज ने एक बार कहा था .नरेन में इतनी बुद्धि क्यों भरी हैं, जानता हैं ? नरेन् बहुत जयादा हुक्का गुडगुडा सकता हैं अरे हुक्का न गुडगुडाया जाए तो क्या बुद्धि अन्दर से बाहर निकल सकती हैं….तुम भी तमाखू पीना सीखो .नरेन की तरह तुम्हारी बुद्धि भी खुल जाएँगी. (वही पृष्ठ – ४२)
‘ यानि माँ की साडी समस्याओं के समाधान के लिए भरसक कोशिश करते रहे, उनके संसार-वीतरागी जयेष्ट पुत्र ! जाने से पहले माँ की इच्छा और अपना वचन करने के लिए, उन्होंने सिर्फ तीर्थ-यात्रा ही नहीं की बल्कि कालीघाट में बलि तक दे डाली .उनके निधन के बढ़ भी माँ को कोई तकलीफ ना हो, इसके लिए वे अपने गुरु भाइयो से सदर अनुरोध कर गए थें. (वही पृष्ठ – ७१ )
‘ रसगुल्ला प्रसंग में हेडमास्टर सुधांशु शेखर भट्टाचार्य जी ने एक सीधे-सीधे बल्लेबाजी की थी 1’ सुन, विवेकानंद मिठाई खाने वाले जीव थें ही नहीं, वे जो तुम सब की आँखों में आंसू आने के अलावा और कुछ नहीं बचेगा .उस चीज का नाम था – मिर्च (वही पृष्ठ –७६ )
‘ उन्हें खबर मिल चुकी थी की कामिनी-कंचन का परित्याग जरूरी होते हुए भी रामकिशन मठ-मिशन में भोजन के बारे मों कोई बाधा निषेध नहीं हैं. (वही पृष्ठ –७७)
‘ दुनिया भर में एकमात्र वही ऐसे भारतीय थें, जो सप्त सागर पार करके अमेरिका पहुंच और वहाँ वेदान्त और बिरयानी दोनों का एक साथ प्रचार करने का दुसाहस दिखाया. (वही पृष्ठ –७७ )
‘इसी दोर में नरेंदनाथ का सफलतम अविष्कार था- बतख के अंडे को खूब फेटकर, हरी मटर और आलू डालकर भुनी हुई खिचड़ी .गीली-गीली खिचड़ी के बजाय यह व्यंजन-विधि कहीं जयादा उपयोगी हैं, यह बात कई सालो बाद जाकर विशेषज्ञो ने स्वीकार की हैं.उनके पिता गीली खिचड़ी और कालिया पकाते थें और उनके सुयोग्य बेटे ने एक कदम और आगे बढकर और एक नई डिश के जरिये पूर्व-पश्चिम को एकाएक कर दिया (वही पृष्ठ – ८३)
‘बाद में महेंदरनाथ ने लिखा-में वे सब खाने को कतई तेयार नहीं था .मुझे उबकाई आने लगी .बड़े भैया ने मेरे मुहं में मांस ठूसकर, मुक्के-मुक्के सेमेरी धुनाई की और कहता रहा-खा ! खा ! उसके बाद फिर क्या था ? बाघ को जैसे खून का नया नया स्वाद मिल गया और क्या. (वही पृष्ठ – ८३)
पटला दादा ने कहाँ- ले, तू नोट कर .इंसानों के प्रति प्यार, गर्म चाय, खुशबूदार तम्बाकू और दिमाग ख़राब कर देने वाली मिर्च-इन चार मामलो में विवेकानंद सीमाहीन थें. (वही पृष्ठ – ८६)
‘ एक बार होटल में खाकर जब वे ठाकुर के वहाँ आय तो उन्होंने उनसे कहा, ‘ श्रीमान, आज होटल में, जिसे आम लोग अखाघ कहते हैं,खाकर आया हूँ 1’ठाकुर ने उतर दिया- तुझे कोई दोष-पाप नहीं लगेगा’ (वही पृष्ठ –८७)
अब श्री श्री माँ की जुबानी, नरेन के खाना पकाने का किस्सा सुनें .ठाकुर के लिए कोई रसोई बनाने का जिक्र छिडा था .जब में काशीपुर में ठाकुर के लिए खाना पकाती थी तब ठन्डे पानी में ही मांस चढा देती थी .थोडा सा तेजपत्ता और मसाले डाल देती थी .मांस जब रुई की तरह सीझ जाता था,तो उतार लेती थी मेरे नरेन् को तरह तरह से मांस पकाना आता था .वह मांस को खूब भुनता था, आलू मसलकर कैसे-कैसे तो पकता था, क्या तो कहते हैं उसे ? शायद किसी तरह का चाप-कटलट होगा . (वही पृष्ठ –८८ )
सदाचरण को ही परम धर्म कहाँ हैं
आचार: परमो धर्म: 11
शेष भाग अगले भाग में …..परोपकारी नवम्बर (द्वितीय ) २०१४
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achha lekh hai
Dayanand ke mukabile viveka nand kahin nahi thehrte,, tulna nahi karni chahiye…
अरे बेवकूफ!
तू स्वामी विवेकानंद को पाखण्डी कहता है और दयानंद सरस्वती को ‘महापुरुष’ समझता है!
अरे बेवकूफ!
दयानंद सरस्वती की असलियत तो एक ‘बेवकूफ’ भी बता सकता है और वो भी “प्रमाण” के साथ….
ऐसे ही एक बेवकूफ की video का ये link है – https://youtu.be/sebefBKqtsU
जरूर देख लेना. इसे देख लेने के बाद तेरी हैसियत नहीं रह जायेगी स्वामी विवेकानंद को पाखण्डी, तम्बाकू पीने वाला, मांसाहार करने वाला कहने की!!!
और सुन!
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “जब मैं स्वयं में इतनी कमियाँ होते हुए स्वयं से प्रेम करता हूँ तो फिर दूसरों में थोडी-बहुत कमियाँ होने पर उनसे प्रेम क्यों नहीं कर सकता!”
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “यदि दिन-रात यही चिंता लगी रही कि ये क्या कह रहा है; वो क्या लिख रहा है तो याद रखना कि जीवन में कोई भी महान कार्य नहीं कर सकोगे.”
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “किसी से बहस करने की आवश्यकता नहीं है. तुम्हें जो कुछ सिखाना है, सिखाओ. दूसरों की बातों में मत उलझो; उन्हें अपनी ही धुन में मस्त रहने दो. जब सत्य की ही विजय होती है तो फिर वाद-विवाद से क्या मतलब?”
और रही बात – विवेकानंद के दयानंद के सामने टिकने की तो बस इतना ही जान लो कि द्वेषी के सामने प्रेमी नहीं टिका करता क्योंकि अगर उसके सामने प्रेमी टिकेगा तो द्वेषी और अधिक द्वेष करेगा. इसलिये तुम्हारा ये कहना बिलकुल ठीक है कि विवेकानंद दयानंद के सामने कहीं नहीं टिकते. तुम तो बुद्धिमान हो. अगर तुम्हें कोई पागलखाने में छोड़ आये तो क्या तुम वहाँ टिक सकोगे?
स्वामी विवेकानंद के इस छोटे से भक्त का whatsapp No. याद कर लो – 9568344790 (शेखर प्रताप सिंह)
विवेकानंद भ्रमित व्यक्ति और अंग्रेजों के मानसिक गुलाम थे
Rishwa Arya!
तुम्हारे ‘बकने’ से हो जायेंगे (विवेकानंद भ्रमित और गुलाम) ?
तुम क्या जानों स्वामी विवेकानंद का मोल ?
एक आदमी यह जानना चाहता था कि उसके हीरे का कौन-कितना मूल्य देता है. इसके लिये उसने अपने एक नौकर को वह हीरा देकर बाजार में भेज दिया. नौकर ने सबसे पहले बैंगन बेचने वाले से पूछा कि – इस चीज (हीरा) – का क्या दोगे ? तो बैंगन वाले ने कहा कि मैं इसके बदले नौ सेर बैंगन दे सकता हूँ. नौकर ने कहा कि थोडा और ऊपर बढो तो उसने कहा कि मैंने तो पहले ही बाजार-दर से ज्यादा बोल दिया है–नौ सेर बैंगन से–एक भी बैंगन फालतू नहीं दूंगा. नौकर (हँसकर) वहाँ से आगे चल दिया. फिर वह एक कपडे वाले की दुकान में गया और पूछा की आप–इस चीज (हीरा)–का क्या दाम देंगे तो उसने कहा कि नौ सो रुपये से एक पैसा भी ज्यादा नहीं दे सकता ; मैंने पहले ही बाजार-दर से ज्यादा कह दिया है. नौकर फिर हँसकर वहाँ से आगे बढा. फिर वो एक बहुत बडे जौहरी के पास गया और उससे पूछा कि आप इस चीज का क्या दाम देंगे ? तो जौहरी ने कहा कि मेरे पास यह करोडो की दुकान है ; यही मेरा सब कुछ है–इस हीरे के बदले मैं यह पूरी दुकान तुम्हें दे सकता हूँ.
हीरा अनमोल है – यह बात जौहरी ही जानता था – बेचारे बैंगन वाले को क्या पता हीरे का मूल्य!
बेचारे बैंगन वाले को तो बैंगन बेचने से ही मतलब है–उसकी हैसियत नहीं – हीरे का मूल्य समझने की.
हीरा तो हीरा है — किसी के बकने से क्या होता है ?
नमस्ते शेखर जी
अच्छी कहानी थी परन्तु सत्य तो सत्य ही रहेगा वह इस प्रकार की कहानियों से बदलेगा तो नहीं
विवेकानन्द के बारे में उनके ही मिशन से लिखी गई किताबें पढ़े कुछ आँखे आपकी भी खुल जाएगी
Tu h kon bhai
Jise sanyas ka b ni pta k sanyas kya hota h agar ghar or pariva r ko chhodna hi sirf sanyaas h to ek chor b ye kar deta h par uskr vichar ek sanyasi k kabhi ni hote.।।
Pahle ap.jan lo k kya h ye sab or apne khud hi likha h k maahapurusho ka samman hi karna chahye or khud hi kissi ka apman karne ki bekar kosis kar re ho…
Jha apka dimag h usse bhut age us mahatma ki soch thi…..
satya bolane se kisee ka apmaan naheen hota
aap bataiyen ki tathya kahan galat hein
yadi aap saty sabit hote hein ki hamen galat likha hai to ham post ke sath sath kshama bhee mangane ko taiyar hien
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “दूसरों के हित के लिये हर वस्तु का त्याग कर देना ही वास्तव में संन्यास है.”
कपडा रंग लेना, घर-बार छोड देना – ये संन्यास नहीं होता. अगर होता तो फिर तो सब लोग ऐसा करके भगवान को पा लिये होते….
संन्यासी तो संन्यासी ‘भीतर’ से होता है; बाहर से नहीं होता, अगर होता तो कोई भी संन्यासी हो जाता….
और ‘भीतर’ की चीज को संसारी लोग नहीं जान सकते. भीतर की चीज को तो भगवान और भगवान को पा लेने वाले महापुरुष ‘ही’ जान सकते हैं….
भगवान शरीर पर ध्यान नहीं देते; भगवान केवल मन पर ध्यान देते हैं. गीता के 8 वे अध्याय के 7 वे श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि – “तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर; मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करने से तू मुझे ही प्राप्त करेगा.”
विवेकानंद भ्रमित व्यक्ति और अंग्रेजों के मानसिक गुलाम थे