देश व जाति के लिये जो जिए….. कृतिशील आर्य सेनानी – स्वामी स्वात्मानन्द – डॉ. नयनकुमार आचार्य

कीर्तिर्यस्य स जीवति-अपार धैर्य के साथ जिनका संघर्षमय जीवन समाज, देश व जाति के लिए व्यतीत हुआ हो, ऐसी आत्माएँ धन्य होती हैं। शरीर से वे इस संसार में न रहते हुए भी उनकी अमर कीर्ति गाथाएँ युगों-युगों तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्तम्भ बन जाती हैं। आर्य जगत् दक्षिण भारत के देशभक्तों से भलीभाँति परिचित हैं हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को अपने अनोखे शौर्य व बलिदान से अमरता प्रदान करने वाले कई नरवीरों की गाथाएँ भले ही ज्ञात हैं, लेकिन प्रखर धैर्यधुरन्धर आर्य सेनानी, ऋषिभक्त स्वामी स्वात्मानन्द जी (रामचन्द्र जी मन्त्री-बिदरकर) के क्रान्तिकारी जीवन व साहस भरे कार्यों से शायद सभी परिचित नहीं होंगें। पद, प्रतिष्ठा व प्रसिद्धी से कोसों दूर रहकर श्री स्वामी जी ने मातृभूमि की रक्षा व आर्य समाज के प्रचार कार्य हेतु जो अनोखे कार्य किये हैं, वे निश्चय ही प्रेरणाप्रद हैं। हैदराबाद स्वतन्त्रताकालीन महाराष्ट्र का लातूर शहर व परिसर ऐसा ही क्रान्तकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ की पुरानी आर्यसमाज (गाँधी चौक) इस समय ८० वें वर्ष में पर्दापण कर रही है। इसी आर्य समाज के एक समय के बहुत ही क्रियाशील मन्त्री वह महान देशभक्त, स्वाधीनता सेनानी श्री रामचन्द्र जी बिदरकर जो क्रान्तिकारी जीवन के कार्यों के कारण तथा बाद में संन्यास दीक्षा लेकर स्वामी स्वात्मानन्द जी के नाम से सर्वत्र विख्यात हुए।

आरम्भिक जीवन– श्री स्वामी जी का जन्म सन् १९०४ में कर्नाटक के बीदर शहर में एक साधारण परिवार में हुआ। माता चन्द्रभागा बाई तथा पिता श्री तुकाराम डोईजोडे ये दोनों धार्मिक, सहिष्णु, स्नेहील स्वभाव के थे। इस दम्पति की रामचन्द्र, लक्ष्मण, पुण्डलिक एवं रत्नाबाई (सोनवे) ये चार संन्तानें हुई। इन सभी में बड़े होने के कारण रामचन्द्र जी पर परिवार की जिम्मेदारियाँ आ पड़ी। युवावस्था में सन् १९३० को वे अपने भाई व परिवार को लेकर लातूर आये। वैसे तो पहले से ही इनका कपड़ा सिलाई (दर्जी) का पारम्परिक व्यवसाय था। शायद बीदर में इस व्यवसाय में प्रगति नहीं हुई होगी, इस कारण उन्हें लातूर आना पड़ा। यहाँ के कपड़ा लाईन में उनका यह सिलाई काम बहुत ही उत्तम रीति से चलता था। उनकी दुकान में लगभग ३५ सिलाई मशीनें थी। बढ़िया काम की वजह से शहर में उनकी प्रतिष्ठित दर्जी के रूप में ख्याति हुई।

 

आर्यसमाज व स्वतन्त्रता संग्राम – लातूर के कई दर्जी (भावसार) लोगों पर आर्यसमाज के विचारों का प्रभाव रहा है। इस कारण रामचन्द्र जी भी इसी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए। वैदिक विचारों का इन पर ऐसा रंग जमा कि देखते ही देखते वे पक्के आर्यसमाजी बन गये। उस समय हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज की सक्रिय भूमिका थी। रामचन्द्र जी में भी क्षात्रवृत्ति  कूट-कूटकर भरी थी, तब वे चुप-चाप थोड़े ही बैठते। अतः बडे उत्साह से इस आन्दोलन में सम्मिलित हुए और  इस आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। ऊँचा पूरा कद, बलिष्ट शरीर और धैर्य-वीरता होने से किसी प्रकार का अन्याय सहन करना, यह उनके बस का नहीं था। इन्हीं कारणों से निजाम के विरुद्ध चलाये गये आन्दोलन में वे जोश के साथ कूद पड़े।

उनकी निराली धाक– इस परिसर में आज भी उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम में आपने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अनोखी धैर्यवृत्ति व शौर्यगुणों के कारण उनकी रजाकरों में एक प्रकार की निराली धाक थी। निजाम की पुलिस भी उनके अतुल बल के कारण सदैव भयभीत रहती थी। क्रान्तिकारों में वे दबंग के रूप में पहचाने जाते थे। अतः लोग इनसे बहुत डरते थे। वे मृत्यु को अपने हाथ में लेकर चलने वाले शूरता की शान, व वीर सैनिक थे। देशभक्ति का उत्साह इनके रग-रग में भरा हुआ था। अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध लड़ना वे अपना परमधर्म समझते थे, किन्तु व्यर्थ ही किसी को कभी कष्ट नहीं दिया। अपूर्व साहस के साथ रजाकारों के अत्याचारों का जमकर मुकाबला किया और कितनों को मौत के घाट उतार दिया। ‘मन्त्री जी’ का नाम सुनते ही प्रतिपक्षियों में आतंक सा छाया रहता था। लातूर तथा परिसर के गाँवों में उनके क्रान्तिकारी जीवन व सहासपूर्ण कार्यों की चर्चा होती रहती थी। बार्शी (जि. सोलापूर) इस ग्राम के समीप ही स्थापित चिंचोली कै म्प के वे प्रमुख थे। श्री स्वामी जी, जहाँ अन्य नागरिकों को देशकार्य के लिए प्रेरित करतें, वहीं कई धनवान् व्यापारियों को राष्ट्रकार्यों के लिए आर्थिक सहयोग हेतु आग्रह भी करते। उनके आवाह्न पर जनता अपना धनमाल व जेवरादि सम्पत्ति  देशकार्य हेतु उन्हें प्रदान करते। एक बार लगभग ५० किलो सोना जमा हुआ, तब स्वामी जी ने यह सारा धन शासन के प्रतिनिधि (जिलाधीश) को सुपूर्द किया। यदि कोई व्यापारी स्वार्थवश सहयोग करने में हिचकिचाता, तो उसे वे समझाते और मातृभूमि की सेवा का महत्वबताकर सत्कर्म में प्रवृत्त  करते। फिर भी कोई इस बात को न मानें, तो वे उसे अच्छा ही सबक सिखाते। एक बार ऐसा ही हुआ। लातूर का एक सधन व्यापारी समझाने बुझाने पर भी आर्थिक सहयोग के लिए तैयार नहीं हुआ, तब उसे लातूर के समीपस्थ हरंगुल नामक गाँव में कड़े रूप में दंडित किया। इतना होने पर वह तुरन्त सहयोग के लिए तैयार हुआ।

निष्काम कर्मयोगी – श्री स्वामी जी एक ऐसे सच्चे देशभक्त थे, जिन्होंने ‘न मे कर्मफले स्पृहा’ इस सूक्ति के अनुसार भाव से माँ भारती की सेवा की। स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने पर भी कभी अपने कामों की चर्चा तक नहीं की। यहाँ तक कि स्वाधीनता सैनिक की पेन्शन लेने से भी इन्कार किया। बाद में आर्यजनों व सहयोगी मित्रों के बहुत समझाने पर वे मान गये। उनसे पूछने पर कि ‘आपने देश व समाज के लिए इतना बड़ा काम किया है, तो पेन्शन क्यों नहीं लेते?’ तब वे कहते-‘मैंने कर्तव्य भावना से देश का काम किया है। माता की रक्षा करना, पुत्र का दायित्व होता है, मैंने पैसों के लिए कोई काम नहीं किया है?’ जब देश के गृहमन्त्री बूटासिंह जी थे, तब उन्हें दिल्ली आमन्त्रित किया गया। स्वामी जी के साथ मन्त्री महोदय ने चर्चा की। उनके क्रान्तिकारी कार्यों की गाथा सुनकर पेन्शन का फॉर्म भरने का आग्रह किया। बहुत विनती करने पर वे इसके लिये राजी हो गये, तब पेन्शन मजूंर हुई। वहीं पर स्वतन्त्रता सेनानी का प्रशस्ति पत्र देकर स्वामी जी का गौरव भी किया गया। इस कार्य के लिए स्वामी जी ने खुद आगे होकर पहल नहीं की, बल्कि भारत सरकार ने खुद आगे होकर  सम्मानित किया।

आगे चलकर स्वामी जी महाराष्ट्र शासन की ओर से स्वाधीनता सैनिक गौरव समिति के विभागीय अध्यक्ष भी बनें। वे देश के लिए प्रामाणिक वृत्ति  से कार्य करने वाले अनेकों स्वाधीनता सैनिकों को प्रमाण पत्र देने व पेन्शन मंजूर करने हेतु शासन को सिफारिशें की। इनके प्रयासों से सही मायने में  देश के लिए कार्य करने वाले उन राष्ट्रभक्तों को योग्य न्याय मिला, जो सदैव प्रसिद्धी से पराङ्मुख रहते थे।

आर्यसमाज का प्रसार कार्य– देशसेवा के साथ ही स्वामी जी का वैदिक धर्म प्रचार कार्य में भी काफी योगदान रहा है। आर्यसमाज (गाँधी चौक) लातूर के वे लगभग २२ वर्ष मन्त्री रहे। उनके कार्यकाल में इस समाज की गतिविधियाँ प्रगतिपथ पर थी। आर्य विचारों के प्रसार हेतु वे सतत प्रयत्नशील थे। प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला वार्षिक उत्सव आर्य जनता के लिए वैचारिक ऊर्जासंवर्धन का स्वर्णिम अवसर माना जाता था। सभा सम्मेलनों पर आमन्त्रित उद्भट वैदिक विद्वानों को सुनने के लिए शहर व देहातों के जिज्ञासु श्रोतागण हजारों की संख्या में आते रहते थे। आज भी वह परम्परा जारी है। सन् १९५६ में स्वामी जी के मन्त्रित्वकाल में विभागीय आर्य महासम्मेलन सफलता के साथ सम्पन्न हुआ, जिसके प्रभाव से अनेकों लोग आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इस सम्मेलन में महात्मा आनन्द स्वामी सहित अन्य विद्वान् मनीषी पधारे थे। संस्था के पदाधिकारी भी उनकी आज्ञा में रहकर कार्य करते थे।

बाद में १९७४ में उन्हीं के निर्देशन में त्रिदिवसीय मराठवाड़ा स्तरीय आर्य महासम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पूर्व प्रधानमन्त्री अटलबिहारी बाजपेयी, डॉ. सत्यप्रकाश, पूर्व सांसद ओमप्रकाश त्यागी, शिवकुमार शास्त्री आदि विद्वान् वक्ताओं को आमन्त्रित किया गया था। आर्य समाज को लोकोपयोगी बनाने में स्वामी जी अग्रणी रहे। दशहरे के पावन पर्व पर नगर में भव्य विजय-यात्रा (जुलूस) निकालने का श्रेय स्वामी जी को जाता है। आज भी नगरवासी बडे धूमधाम से प्रतिवर्ष यह दशहरा जुलूस निकालते हैं।

देववाणी के प्रचारक– लातूर में देववाणी संस्कृत भाषा के प्रचार हेतु स्वामी जी ने काफी प्रयास किये। संस्कृत अध्ययन केन्द्र चलाकर संस्कृत को जन-जन तक पहुँचाया। यद्यपि राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले इस शहर में सम्प्रति पुराने व नये मिलाकर गुरुकुलीय स्नातकों की संख्या लगभग ६० से अधिक है। इन्हीं स्नातकों को प्रेरणा देकर स्वामी जी ने उनके माध्यम से संस्कृत का प्रचार कराया। स्वयं संस्कृत सीख न सके, लेकिन समाज में इस भाषा को बीजारोपित करने में स्वामी जी की अहम भूमिका रही है। भारतीय विद्या भवन की परीक्षाओं का केन्द्र भी उन्होंने चलाया। परीक्षाओं के आयोजन हेतु शहर से निधि संकलित कर छात्रों की व्यवस्था करते। साथ ही बच्चों को शुभगुणों से संस्कारित करने हेतु शिशु विहार केन्द्र भी संचालित किया। इस कार्य में नगर के प्रसिद्ध व्यापारी व वेद तथा संस्कृत के अध्येता श्री सेठ बलदवा जी का उन्हें विशेष सहयोग मिलता रहा। जब कभी धन की आवश्यकता पड़ती, तब स्वामी जी बलदवा जी के पास चले जाते और उनसे प्राप्त धनराशि द्वारा संस्कृत प्रचार, पुरस्कार वा अन्य वेदप्रचार आदि कार्य करवाते। स्थानीय ज्ञानेश्वर विद्यालय में संस्कृत प्रचार कार्य हेतु उनका सदैव आना-जाना रहता था। वहाँ के संस्कृत अध्यापक महानुभावपन्थी श्री शास्त्री जी  से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध रहे।

प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. श्री ओमप्रकाश जी होलीकर बताते हैं कि ‘लातूर नगरी में आज संस्कृत का जो विशाल स्वरूप दिखाई दे रहा है, उसके मूल में स्वामी जी की तपस्या व पीठिका रही है। संस्कृत के प्रसार हेतु काम करने वाले इतने समर्पित व्यक्ति को मैंने पहली बार देखा है।’

 

अद्वितीय बलोपासक -बचपन से ही उन्हें व्यायाम से बहुत ही लगाव था। सब काम छोड़कर वे व्यायाम करते । इसलिए उनका शरीर सुडौल व वज्र के समान बन गया था। देश के बालक व युवक शरीरबल के धनी हो, इसीलिए आर्यसमाज में श्रद्धानन्द व्यायाम मन्दिर के नाम से विशाल व्यायामशाला की स्थापना की और आर्ययुवक व्यंकटेश हालिंगे को इसका अध्यक्ष बनाया। स्वामी जी की प्रेरणा से अनेकों युवक इस व्यायामशाला में आते रहे और अपने शरीरधन को संवर्धित करते रहें। मल्लखम्भ विद्या को भी स्वामी जी ने प्रोत्साहन दिया। फलस्वरूप अनेकों बच्चे-बच्चियों ने विभिन्न राष्ट्रीय व प्रान्तीय क्रीडा प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं। व्यायामशाला के अखाड़े में कुस्ती लड़नेवाले अनेकों मल्ल भी स्पर्धाओं में विजयी रहे हैं। अनेकों युवक आर्यवीरदल के राष्ट्रीय शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे। व्यायामशाला में जब भी किसी साहित्य की कमी हो, तब स्वामी जी तुरन्त शहर के दानी व्यापारी सेठ के पास पहुँच जाते और उन्हें वे साहित्य दिलवाने हेतु प्रोत्साहन देते और समय पर सभी प्रकार का साहित्य उपल ध भी होता। लातूर शहर में साथ ही समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में भी स्वामी जी ने व्यायामशाला खोलने हेतु पूर्व विधायक श्री पाटील को प्रेरित किया। इस तरह स्वामी स्वात्मानन्द जी आर्य समाज के माध्यम से शारीरिक उन्नति का पथ प्रशस्त करते रहे। आचार्य देवव्रत को आमन्त्रित कर वे प्रतिवर्ष आसन-प्राणायाम शिविर लगवाते, जिसका अनेकों योगप्रेमियों को लाभ मिलता रहा।

 

पारिवारिक जीवन – मन्त्री जी (रामचन्द्र जी) का गृहस्थाश्रम अल्पकालिक ही रहा। श्रीमती अनसूयाबाई उनकी सहधर्मिणी का नाम था। इन्हें कोई सन्तान नहीं हुई। प्लेग की बिमारी के कारण धर्मपत्नी का अकस्मात ही निधन हो गया। भरी जवानी में पत्नी के बिछुड जाने से उन पर गहरा आघात हुआ। फिर भी धैर्य के धनी रामचन्द्र ने पुनर्विवाह का विचार तक नहीं किया। किसी अनाथ बालिका को बचपन में ही गोद लिया और उसका शन्नोदेवी नाम रखा। इस कन्या को शुभसंस्कार, ऊँ ची शिक्षा आदि दिलाकर बड़ी होने पर उसका डोणगाँव के होनहार डॉक्टर युवक दिगम्बर मुले से विवाह कराया। सम्प्रति यह मुले परिवार उदगीर में फलता-फूलता हुआ प्रगतिपथ पर विराजमान है। छोटे दोनों भाई श्री लक्ष्मणराव व पुंडलिकराव भी अपने भ्राताश्री के पदचिह्नों पर चलते रहें। इन्होंने भी हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया और आर्यसमाज के सम्पर्क में आकर वैदिक विचारों से जुड़े रहे। अपने बड़े भाई से प्रेरणा पाकर ही अनुज लक्ष्मणराव बिदरकर ने अपनी कन्याओं को पढ़ाया और उनके अन्तर्जातीय विवाह कराये।

 

उत्तर  भारत का भ्रमण व संन्यास दीक्षा– वैराग्यवृत्ति धारण कर मन्त्री जी स्वाध्याय, चिन्तन, ध्यान-धारणा आदि कार्यों में संलग्न होकर उत्तर  भारत की ओर चल पड़े। दयानन्द मठ, दीनानगर (पंजाब) में कई माह तक साधना करते रहे। वहीं पर आर्यजगत् के वीतराग संन्यासी स्वामी सर्वानन्द जी का शुभ सान्निध्य पाकर उनसे संन्यास दीक्षा ली और स्वामी स्वात्मानन्द जी बन गये। कुछ समय तक वे हिमाचल के चंबा  स्थित मठ में भी रहे। बाद में हरिद्वार के समीपस्थ महाविद्यालय ज्वालापुर में भी कुछ काल तक निवास किया। भोजन व भण्डारविभाग के प्रमुख बनकर आप गुरुकुलीय व्यवस्था में सहयोग देते रहे और ब्रह्मचारियों को राष्ट्रभक्ति व सुसंस्कारों का पाठ पढ़ाते रहे।

पुनश्च जन्मभूमि में – कई वर्ष उत्तर  भारत में रहकर स्वामी जी महाराष्ट्र आये। लातूर के समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में छोटासा आश्रम (कुटिया)बनाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। तब भोजनादि की असुविधा के कारण होने वाली अड़चनों को देखकर आर्यजनों ने उन्हें आर्यसमाज में रहने की विनती की। अतः उनके आग्रह पर वे आर्यसमाज में रहने लगे। यहाँ पर सादगीपूर्ण विरक्त वृत्ति  धारण कर वे पूर्व की भाँति वेदप्रचारादि कार्यों में संलग्न होकर आर्यों को प्रेरणा देते रहे। यज्ञकार्य में उन्हें विशेष रुचि थी। अपनी आर्यसमाज में भव्य यज्ञशाला बनें, यह उनकी तीव्र अभिलाषा थी। इसके लिए वे अपनी ओर से लगभग ५० हजार रूपयों की राशि भी दान में दी। उनके चले जाने के बाद पदाधिकारियों ने एक विशाल यज्ञशाला निर्माण किया है।

 

अनोखी क्षमाशीलता – किसी कवि ने कहा है- क्षमा वीरस्य भूषणम्। अर्थात् क्षमाशीलता वीरपुरुषों का आभूषण होती है। जुलमी रजाकारों के अत्याचारों से लोहा लेने वाले नरवीर स्वात्मानन्द जी में प्रखर शौर्य के साथ ही अनूठी क्षमावृत्ति भी थी। शहर के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा एक अन्याय हुआ। एक मासूम महिला की असहायता का फायदा उठाकर उसने अत्याचार किया। नाजायज गलत सम्बन्ध स्थापित किया, परिणाम वही हुआ, जो होना था। पेट में पलने वाले बच्चे को अपनाने व उस महिला को आश्रय देने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब वह स्त्री स्वामी जी के पास आयी और उसने वह सारी दुःखभरी कहानी सुना दी। उस पीड़ित महिला के वेदना सुनकर स्वामी जी ने उसे आश्वस्त किया। अपने कार्यकर्ताओं  से उस अपराधी व्यक्ति की तलाश कर सामने लाने का आग्रह किया। स्वामी जी के प्रभाव से वह व्यक्ति उनके चरणों में आकर गिरा, उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया व क्षमा मांगी। स्वामी जी ने भी उसे अपूर्व क्षमादान करते हुए छोड़ दिया। उस महिला को किसी अज्ञात सुरक्षित स्थान पर रखकर पिता की भाँति उसकी देखभाल की। पूरा समय बीतने पर जब बच्चा पैदा हुआ, तब उस बच्चे की पालन-व्यवस्था का भार किसी अन्य परिवार पर सौंप दिया और उस महिला को समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीने का अधिकार प्रदान किया। ऐसे थे क्षमा, करुणा व दया के पुजारी श्री स्वामी स्वात्मानन्द जी

 

सभी को पितृतुल्य छत्रछाया – स्वामी जी के त्यागमय, कर्मठ जीवन को देखकर अनेकों लोग उनकी ओर आकृष्ट हो गये। सभी लोगों से उनके मधुर सम्बन्ध थे। उनका क्रान्तिकारी जीवन ही उन्हें यश गौरव दिलाने में पर्याप्त रहा। सर्व श्री स्वा. सै. वासुदेवराव होलीकर, स्वा. सै. शंकरराव जडे, स्वा. सै. निवृत्तिरव  होलीकर, स्वा. सै. चन्द्रशेखर बाजपेयी, पू. उत्ममुनि, हरिशचन्द्र गुरु जी, हरिशचन्द्र पाटील आदि से उनका सदैव विचारविमर्श होता था। धनंजय पाटील, परांडेकर, पाराशर, तेरकर, प्रो. नरदेव गुडे, प्रो. विजय शिंदे, प्रो. मदनसुरे, प्रो. होलीकर, प्रो. दत्तात्रेय  पवार, हालिंगे बंधू, कैप्टन डॉ. भारती जाधव आदियों पर उनका विशेष स्नेहाशीष रहा। श्री महेन्द्रकर सहित अनेकों आर्य परिवार स्वामी जी की श्रद्धाभाव भोजनादि की व्यवस्था करते  थे।स्वामी जी जीवन के अन्त तक आर्यसमाज लातूर में रहे। यहाँ का निवास भवन आज भी स्वामी जी के नाम से पहचाना जाता है। लेखक को भी छात्रावस्था में उनका प्रेमाशीर्वाद मिला व उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। वृद्धावस्था में आर्य समाज के पदाधिकारियों, आर्यजनों व परिजनों ने उनकी श्रद्धाभाव से सेवा

शुश्रुषा की। ऐसे महान तपोनिष्ठ महात्मा ने दि. ७ अगस्त १९९४ को अपनी जीवन यात्रा समाप्त की। ऐसे महान कर्मयोगी, महान देशभक्त को शत् शत् अभिवादन।

– श्रुतिगन्धम्, ब-१३, विद्यानगर,

परली-वैजनाथ जि. बीड (महाराष्ट्र)

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