धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण ? स्वघोषित विद्वान का ज्ञान घोटाला

क्या धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है ?
“ वेद प्रकाश” के फरवरी २०१५ के अंक में स्वघोषित  विद्वान  का एक लेख शंका समाधान प्रकाशित हुआ था | जिसमें उन्होंने एक शंका उठाकर उसका समाधान प्रस्तुत किया है |
इस लेख में उन्होंने कहा है कि धर्म आत्मा का साभाविक गुण है | इसीलिए धर्म के जो दस लक्षण हैं वह आत्मा के स्वाभाविक लक्षण हैं |
इस सम्बन्ध में डा. अशोक आर्य , का पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने इसका खंडन करते हुए इसे वैदिक सिद्धांतों के विरुद्ध बताया है | वह कहते हैं कि – “ कि इसके उत्तर में बताना चाहूँगा कि यह सत्य है कि धर्म के दस लक्षण तो हैं किन्तु यह आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है क्योंकि परम पिता परमात्मा ने आत्मा को एक शरीर के माध्यम से इस जगत में भेजा है ताकि :
१. विगत जन्मों में किये गए शुभ – अशुभ कर्मों का फल भोग सके |
२. इस जन्म में कुछ नए कर्म करते हुए कुछ नया भी संचय कर सके |
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने के लिए स्वतन्त्र बनाया है किन्तु फल भोगने के लिए वह प्रभु की व्यवस्था के आधीन है | स्वतन्त्र नहीं है | जब उसे उसके कर्मों के अनुसार फल मिलना है तो इसमें धर्म के दस नियम कहाँ से आ गए ? यदि जीव अर्थात् आत्मा का स्वाभाविक गुण यह दस प्रकार के लक्षण हैं तो फिर प्रतिदिन क़त्ल हो रहे हैं, व्यभिचार हो रहे हैं, बलात्कार हो रहे हैं , चोरी की घटनाएं सामने आती हैं , लोग ए टी एम् तक तोड़ कर धन निकाल कर ले जाते हैं तो यह सब कौन कर रहा है ? यदि आत्मा का स्वाभाविक गुण यह दस लक्षण ही हैं तो फिर आत्मा तो यह कर ही नहीं सकता | कोई चोरी करता ही न , कोई बलात्कार करता ही न, किसी का कभी क़त्ल होता ही न, किन्तु यह सब हो रहा है | यदि आत्मा का गुण यह दस लक्षण ही है तो फिर यह सब कौन कर रहा है ? यह सब किस के आदेश से हो रहा है ? नित्य प्रति जुआ खेलने , शराब व अन्य अनेक प्रकार के नशा करने , दुराचार करने आदि की कथाएँ हमारे सामने आती हैं, दूरदर्शन व् समाचार पत्र इस प्रकार के समाचारों से भरे रहते हैं , यह सब कौन कर रहा है ? इन दस लक्षणों वाली आत्मा जिसे अपने स्वाभाविक गुणों में संजोए हुए है , वह तो यह सब कर ही नहीं सकेगी , फिर या तो यह सब कुछ परमात्मा कर रहा है या फिर मानव कर्म करने में स्वतन्त्र होने के कारण , सब प्रकार के अच्छे व बुरे कर्म वह स्वेच्छा से कर रहा है | जिन का फल उसे भोगना होता है | कुछ अच्छे व बुरे कर्म वह विगत जन्मों के संचित कर्मों के आधार पर फल स्वरूप कर रहा है तथा कुछ नए कर्म भी कर रहा है |
स्वामी जगदीश्वरानन्द जी ने एक पुस्तक “ आदर्श नित्यकर्म विधि” के “समर्पण प्रकरण” में “ हे दयानिधे ! ” … की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि –
हे दया, कृपा, करुणा व वात्सल्य के अनन्तागार प्रभुदेव ! आप एसी कृपा कीजिए कि हम आप की जो स्तुति – प्रार्थना व उपासना कर रहे हैं , उसमें हम नितांत तन्मय तल्लीन व एकाग्रमना हो सकें , हमारी यह प्रार्थानोपासना एसी सार्थक व प्रभाकारी हो जिससे हमारे धर्म ( आत्मा के स्वाभाविक गुण ) अर्थ ( साधना स्वरूप आपसे प्राप्त दिव्य विभूतियाँ , काम ( आप की वेदाज्ञा का सतत पालन एवं आपको मिलने की इच्छा ) मोक्ष ( पूर्णत: आपके आनंद स्वरूप को प्राप्त होना ) आदि पुरुषार्थ चतुष्टय हैं, वह अविलम्ब सिद्ध हों |
इसमें स्वामी जी ने धर्म को आत्मा का स्वाभाविक गुण बताया है |
सोशल मीडिया के कुछ लोगों का भी मानना है की धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है |
श्री मदन रहेजा , मुंबई लिखते हैं :-
यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो मनुष्य को धर्म धारण करने के लिए बार – बार क्यों कहना पड़ता हाँ ! आत्मा धर्म को सहजता से धारण कर सकता है क्योंकि धर्म सरल, सीधा और सहज होता है | आत्मा अल्पज्ञ होने से धर्म की बातों को भूल जाता है इसलिए धर्म ( अच्छे गुणों को ) धारण करने का नाम है |
यदि धर्म जीवात्मा का स्वाभाविक गुण होता तो कोई भी मनुष्य इतना दू:खी नहीं होता | धर्म धारण करके ही वह सुखी होता है | धर्माचरण करने से वह अपवर्ग का भागी होता है |
मनुष्य शुद्र ( अज्ञानी ) पैदा होता है उसको मनुष्य बनाया जाता है , संस्कार दिए जाते हैं तभी वह मनुष्य बनता है इसीलिए वेद भी कहता है – “ मनुर्भव ” | धार्मिक बनने के लिए धर्म धारण करना पड़ता है | पशु – पक्षी मांसाहारी भी होते हैं और शाकाहारी भी इस का यह अर्थ नहीं कि वे धार्मिक या अधार्मिक होते हैं |
एक और मित्र श्री विश्वभूषण जी लिखते हैं | यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो सभी धार्मिक ही होते किन्तु ऐसा नहीं है , जिन – जिन को धार्मिक वातावरण मिलता है वे धार्मिक हो जाते हैं और जिन्हें धार्मिक वातावरण नहीं मिलता वे धार्मिक नहीं हो पाते | यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो पशु पक्षी भी धार्मिक होते | क्या आप मानते हैं कि मनुष्यों की आत्मा और पशु पक्षियों की आत्माओं में कोई अंतर होता है | नहीं | आत्मा का तो कोई लिंग भी नहीं होता , आत्मा का दोनों लिंगों में प्रयोग किया जाता है | आत्मा कभी नहीं मरता और आत्मा कभी नहीं मरती | दोनों ही ठीक हैं | अंतिम बात आत्मा के दो ही स्वभाव हैं | दुःख से छूटना और सुख प्राप्त करना | यह मनुष्य और पशुओं में समान है | अत: धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं अपितु नैमितिक गुण है |
स्वाध्यायशील पाठक इस पर चिंतन मनन करें तथा जो सत्य है वह ग्रहण करें तथा असत्य का त्याग करें | – सम्पादक

 

टिपण्णी :
वेद प्रकाश पत्रिका के इस लेख पर हम टिपण्णी करते हुए कह सकते हैं कि संभवतया इस स्वघोषित विद्वान  ने अपना यह कल्पित शंका समाधान का प्रश्न स्वामी जगदीश्वरानन्द के शब्दों से लिया होगा यह  जो भी लिखता है सब इधर उधर से उठाकर उसे अपने ढंग से लिखकर अपना बनाने का यत्न करता है | उसके इस शंका समाधान से इस बात की पुष्टी भी होती है कि संभवतया स्वामी जगदीश्वरानंद जी के उपर दिए एक शब्द को उसने उठाया और बिना विचारे यह शंका समाधान का रूप देकर पाठकों को मार्ग से च्युत करने का विफल प्रयास किया | साथ ही हम चाहते हैं कि पाठक और हमारे मित्र इस प्रकार के कथित लेखकों के लेखों व साहित्य को पढ़ने के पश्चात विचार करें कि इसमें कुछ सत्य है भी या नहीं | यह लेखक कथित रूप से बड़े लेखकों का अपमान करने के लिए कुछ उलटा सीधा बोलते रहते हैं तथा उन के लेखन पर दूसरों को फोन व किसी अन्य ढंग से उनके विरुद्ध भ्रांत लेख देने के लिए भी कहते हैं | हमारे मित्र सजग रहते हुए इस प्रकार के लेखकों के विचारों से बचाते हुए समाज के कल्याण के लिए लगे रहें | यही उत्तम होगा | –

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