(पं० हलधर ओझा शास्त्री से कानपुर में शास्त्रार्थ३१ जौलाई, १८६९)
कानपुर नगर में भैरव घाट के नीचे फर्श पर शास्त्रार्थ हुआ था।
मुख्य—न्यायाधीश और डब्लू थेन साहब बहादुर ज्वाइण्ट मैजिस्ट्रेट कानपुर तथा
नगर कोतवाल आदि सब सम्मानित व्यक्ति वहां उपस्थित थे । उपस्थिति
२०—२५ हजार मनुष्यों की थी । दो बजे से मनुष्य एकत्रित होने आरम्भ हुए।
साढ़े चार बजे से शास्त्रार्थ आरम्भ हो गया । शास्त्रार्थ का विषय मूर्तिपूजन’’
था । स्वामी जी के सम्मुख लक्ष्मण शास्त्री भटूर वाले और हलधर ओझा
दोनों उपस्थित थे । शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ । मिस्टर थेन साहब बहादुर
जो अच्छे संस्कृतज्ञ थे, मध्यस्थ नियत हुए । सूर्य्यास्त होने के पश्चात् शास्त्रार्थ
समाप्त हुआ ।
स्वामी जी नीचे भैरव घाट पर उतरे हुए थे । प्रथम सब लोगों ने यह चाहा
कि वह घाट के ऊपर आकर शास्त्रार्थ करें और कोतवाल आदि अधिकारियों
ने भी स्वामी जी से कहा कि आप ऊपर आ जायें । स्वामी जी ने उत्तर दिया
कि मैंने किसी को नहीं बुलाया, जिसका जी चाहे वह यहां आ जाये और जिसका
जी चाहे वह न आवे । इस पर सब नीचे चले आये ।
स्वर्गीय बाबू श्यामाचरण बंगाली मुख्य प्रधान, पण्डित काशीनारायण
न्यायाधीश (जो इस समय बनारस में रहते हैं) तथा सुल्तान अहमद कोतवाल
आदि सब सम्मानित व्यक्ति उपस्थित थे । अन्त में सब के सामने मिस्टर
थेन साहब मध्यस्थ ने निर्णय दिया था कि स्वामी जी जीते हैं और उनकी
विद्वत्ता की बहुत प्रशंसा की थी । पण्डित शिवसहाय जी ने वर्णन किया कि
उस दिन मैं उपस्थित था । शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ । हलधर ओझा अपने साथ
लक्ष्मण शास्त्री को भी लाया था । प्रथम प्रश्न हलधर ओझा ने यह किया
कि आपने जो विज्ञापन दिया है जिसका विषय अष्ट गप्पं’’ और अष्ट
सत्य’’ है उस में व्याकरण की अशुद्धि है ।
स्वामी जीये बातें पाठशाला के विघार्थियों की हैं । ऐसे शास्त्रार्थ
सदा पाठशालाओं में हुआ करते हैं । आज वह विषय छेड़ो जिसके लिए
हजारों मनुष्य एकत्रित हैं । व्याकरण के बारे में कल मेरे पास आनामैं समझा
दूंगा ।
तब ओझा ने प्रश्न किया कि आप महाभारत को मानते हैं ?
स्वामी जी ने कहा कि हम मानते हैं ।
ओझा ने एक श्लोक भारत का पढ़ा जिसका अभिप्राय यह था कि
एक भील ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर और सामने रखकर धनुष—विघा सीखी।
स्वामी जीमैं तो यह कहता हूं कि कहीं प्रतिमापूजा की आज्ञा बतलाओ!
इस में तो आज्ञा नहीं पाई जाती है प्रत्युत लिखा है कि एक भील ने ऐसा
किया जैसा कि सदा अज्ञानी लोग आज तक किया करते हैं । वह कोई ऋषि,
मुनि न था, न उसको किसी ने ऐसी शिक्षा दी थी और यदि यह बात कहो
कि उसको ऐसा करने से धनुष—विघा आ गई तो उसका कारण द्रोणाचार्य
की मूर्ति न थी, प्रत्युत अभ्यास का परिणाम था जैसा कि अंग्रेज लोग चांदमारी
के द्वारा सीखते हैं परन्तु वे कोई मूर्ति नहीं धरते । फिर उस पर ओझा जी
चुप रहे और दूसरा यह प्रश्न किया
ओझा जी वेद में प्रतिमा की आज्ञा नहीं है तो निषेध कहां है ?
स्वामी जी ने उत्तर दिया कि जैसे किसी स्वामी ने सेवक को आज्ञा
दी कि तू पश्चिम को चला जा, इससे स्वयं ही तीन दिशाओं का निषेध हो
गया । अब उसका यह पूछना कि उत्तर दक्षिण को न जाउं व्यर्थ है । इसलिये
जो वेद ने उचित समझा, कह दिया और नहीं लिखा वही निषेध है ।
इसके पश्चात् थेन साहब को सन्देह हुआ कि ये स्वामी जी कुछ पढ़े
हैं या केवल मुख से ही शास्त्रार्थ करते हैं । इसकी परीक्षा के लिये एक
पत्रा जो हलधर लाये थे वह परीक्षार्थ स्वामी जी के सामने रख दिया। स्वामी
जी ने पढ़कर सुना दिया। इस पर साहब बहादुर ने स्वामी जी से प्रश्न किया।
थेन साहबआप किस को मानते हैं ?
स्वामी जीएक ईश्वर को ।
तत्पश्चात् थेन साहब ने छड़ी और टोपी उठाई और कहा कि ठीक
बात है, अच्छा प्रणाम । उनके उठते ही सब उठ खड़े हुए और कोलाहल
मचाते हुए चले कि बोलो श्री गग जी की जय । यह सारा कार्य स्वर्गीय
प्रागनारायण तिवारी का था और रुपया या आठ आने के पैसे भी ओझा जी
के सिर से लुटाए और शोर मचाया कि ओझा जीते और स्वामी जी हारे और
उनको गाड़ी में चढ़ाकर ले गये । (लेखराम पृष्ठ ५८६—५९६)