(पं० रुद्रदत्त और पं० चन्द्रदत्त पौराणिक से
आरा में शास्त्रार्थअगस्त, १८७२)
पं० रुद्रदत्त और पं० चन्द्रदत्त पौराणिक से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ हुआ
था । पं० रुद्रदत्त ने मूर्तिपूजा के पक्ष में पुराणों के प्रमाण प्रस्तुत किये । स्वामी
जी ने उन्हें यह कहकर आग्रह किया किहम वेद, पाणिनि और मनुस्मृति
(प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर) के सिवाय अन्य ग्रन्थों का प्रमाण नहीं
मानते ।
तत्पश्चात् यह प्रसंग उठा कि पुराण किसने बनाये । स्वामी जी ने कहा
किवञ्चक लोगों के रचे हुए हैं । कुरुक्षेत्र के युद्ध में प्रायः सारे ही राजा
मर गये थे, राजगृह की स्त्रियां उत्पथगामिनी हो गईं, ब्राह्मण असहाय हो गये,
अनेक प्रकार के वञ्चक लोग उत्पन्न हो गये, उन्होंने पुराणादि की रचना
कर डाली, उन्होंने यह भी कहा कि महाभारत का युद्ध भारतवर्ष की अनेक
प्रकार की अवनतियों का मूल हुआ है । तन्त्र—ग्रन्थों के विषय में स्वामी जी
ने अनेक बातें कहीं । जिन्हें सुनकर पं० रुद्रदत्त चिढ़ गये और चटक कर
बोले किऐसी बातें अश्राव्य हैं, इस स्थान से चले जाना ही उचित है । स्वामी
जी ने कहा किआप तो कुछ विचार करते नहीं, इसी से किसी परिणाम
पर नहीं पहुंचते । वेदान्त का प्रसग् उठने पर स्वामी जी ने प्रमाण—चैतन्य,
प्रमेय—चैतन्य और प्रमातृ—चैतन्य के विषय में प्रश्न किये जिनके उत्तर यथामति
पं० रुद्रदत्त ने दिये ।
स्वामी जी दीप्त प्रभाकर के समान थे । उनके गम्भीर विचार और
अतिमानुषिक प्रतिभा के सामने पं० रुद्रदत्त प्रभृति कितनी देर ठहर सकते
थे । वे अपना श्रेय सभा—स्थल से शीघ्रादपि शीघ्र चले जाने में ही समझते
थे । वे केवल वहां से चले जाने का बहाना ढूंढते थे । अतः जब स्वामी
जी ने तन्त्र ग्रन्थों की तीव्र आलोचना की तो उन्होंने यह प्रकट किया कि
उक्त आलोचना असह्य है और सभास्थल से उठकर चले गये ।
(देवेन्द्रनाथ १।२१२)