‘दण्ड देते समय वाणी में क्रोध लाना पड़े तो लाएँ, किन्तु मन में क्रोध न लाएँ”-ऐसा करना अहिंसा है, ऐसा आपने बतलाया, किन्तु ये असत्य है, क्योंकि मन और वचन की एकरूपता नहीं रही?

यह तो सत्य है कि एक व्यक्ति के मन में आ गया कि मैं फलां पड़ोसी की टांग तोड़ दूंगा और वाणी से भी उसने अपने दोस्त को बोल दिया कि इस पड़ोसी की टांग तोड़ दूंगा और शरीर से वह उसकी टांग तोड़ दे, तो तीनों में एकरूपता हो गई। तीनों में एकरूपता होते हुए भी यह अहिंसा नहीं है, यह हिंसा है।
स सत्य का यह अर्थ नहीं है कि मात्र तीनों में एकरुपता हो। मात्र एकरुपता होना, सत्य नहीं कहलाता। उसका प्रयोजन अहिंसा होना चािहए। अहिंसा आदि 5 यम और शौच आदि 5 नियम हैं।
स अहिंसा के संबंध में व्यास भाष्य में लिखा है- उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलाः तत्सि(िपरतयैव प्रतिपाद्यन्ते। अर्थात् बाकी के नौ यम-नियम अहिंसा मूलक हैं। उनका प्रयोग इस ढंग से करना है, कि उनसे अहिंसा की रक्षा होनी चाहिए। हिंसा नहीं होनी चाहिए। अहिंसा का पालन करना हमारा मुख्य प्रयोजन है। अहिंसा का व्यवहार करने के लिए यदि हमको मन और वाणी में कुछ अंतर भी करना पड़े तो कर सकते हैं। प्रयोजन अगर हमारा अहिंसा करना है, दूसरों को धोखा देना नहीं है। जब दूसरे को धोखा दे रहे हैं, तो वो हिंसा और असत्य होता है।
स बच्चे ने जैसे- गड़बड़ कर दी। उसे बार-बार समझाया, लेकिन नहीं मानता। अब उसको ठीक करना है तो हम ऊपर से तो डाँट लगायेंगे, पर मन में उसके प्रति प्रेम-भाव बनाये रखेंगे। अगर मन में प्रेम नहीं है और मार-पीट देंगे, तो ज्यादा पीट देंगे, अन्याय कर देंगे। उसका हाथ-पाँव टूट जाएगा, तो जीवन भर के लिए विकलांग हो जाएगा। ऐसा नहीं करना है। यदि हम ऊपर से डाँटते नहीं, तो वो सुधरेगा भी नहीं। इस सुधार के लिए ऊपर-ऊपर से डाँटना भी है। पर मन में प्रेम-भाव रखना है। इसका नाम अहिंसा है।
स यहां पर दण्ड का प्रयोजन है-सुधार करना। अपना गुस्सा ठंडा करना बिलकुल नहीं। दण्ड इसलिए दिया जाता है, कि बस अपराधी का सुधार हो जाए। न्यायाधीश महोदय कोर्ट में बैठकर के मुकद्मे सुनते हैं, और फिर अपराधियों को दण्ड देते हैं। छः मास की जेल, एक वर्ष की जेल, दो वर्ष की जेल और किसी को फांसी तक भी देते हैं। क्यों जी, क्या जज साहब अपना गुस्सा ठंडा करने के लिए फांसी देते है? वो तो अपराधी केस सुधार के लिए दण्ड देते हैं। ऐसे ही माता-पिता के मन में बच्चे का हित करना ही है। वो मन में हित की भावना रखें, और ऊपर से डाँट लगाएं, ऐसा शास्त्रों में विधान हैं।

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