ओ3म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त्ँ शरीरम्।
ओ3म् क्रतो स्मर क्लिबेस्मर कृतँ्स्मर।।
-यजु. अ. 40 ।। मं. 15।।
प्राण जीवन की कला है। इसके चलने से शरीर चलता है, इसके रुकने से शरीर रुक जाता है। परमात्मा ने प्राणों की गति में कुछ ऐसा अनुपात रक्खा है, कि एक श्वास-प्रश्वास की मात्रा बिगड़ी नहीं और यह अद्भूत यन्त्र विकृत हुआ नहीं। इसी गति के बिगाड़ का फल रोग और उसी का फल अन्त को मृत्यु है। जब यह बोलता चलता पार्थिव पुतला अचानक मौन साध बैठा, अर्थात् जीव ने शरीर से प्रस्थान किया, तो इसे ज्वाला की भेंट चढ़ायेंगे। उसका सारा सौन्दर्य तथा बल मुट्ठी भर भस्म होगा। फिर तो प्राण-वायु, वायु-तत्व में जा मिलेगा। मृत शरीर में भी वायु का प्रवाह तो होगा, परन्तु प्राण रूप में नहीं। तब उस शरीर से जीव का क्या सबन्ध?
उस समय जीव की अवस्था उस धनाढ्य की सी होगी, जिसने सारी आयु संसार में घूम-घूमकर वैभव इकट्ठा किया, एड़ी चोटी का बल लगाकर पूँजी कमाई, सारे घर को धन-धान्य से भर दिया, अकस्मात् एक दिन लकड़ी के ढेर में चिनगारी सुलगती रहने से भवन में आग लग गई। ईश्वर ने इतनी ही कृपा की कि कार्यवश गृह-स्वामी कुटुब सहित घर से बाहर था। लो। उन कपड़ों को आग लग रही है जो देश-विदेश के कारखानों से आये थे, कुसियाँ और मेजें ज्वाला के मुख में है। जिन दीवारों की सफेदी बिगड़ने के भय से माघ के शीत में आग न जलाते थे, आज ईंधन ने उन पर काला रोगन कर दिया। पुस्तकों का तो नाम ही न रहा। उनके पत्र तथा अक्षर सबने मसि का चोला स्वीकार किया है।
कड़। कड़।। कड़।।। शहतीर तथा कड़ियाँ गिर रही हैं जो सामग्री जलने की न थी, वह उनके दबाव में टूट गई। अब तो न बर्तन रहे, न भूषण, न कोई और नित्य निर्वाह की सामग्री। लाा का घर राख हो जाता है। पानी की गाड़ी आती है और गगनचुबी ज्वालाओं को बुझाती है। पर जो पदार्थ नष्ट हुए, उनको फिर कौन लौटा लाएगा?
नगर का एक प्रसिद्ध धनाढ्य पिस गया। आओ । हम भी आर्थिक सहायता न सही, मौखिक सहानुभूति तो प्रकट कर दें। हम मुख को कुछ शोकावृत-सा बना लेते हैं कि सहानुभूति हार्दिक प्रतीत हो। पर सेठजी की मुख कली वैसे ही प्रफुल्लित है, जैसी आग की आपत्ति से पूर्व थी। कहते हैं- ‘‘यह कोई मेरा बड़ा गोदाम न था। मेरा धन किसी विशेष स्थान में अथवा सामग्री के रूप में स्थित नहीं, किन्तु सारा व्यवसायों में लगा है। कपनियों में हिस्से हैं, अपने कार्यालय हैं, जिनसे स्थाई आय आती है। जो भवन जल गया, इसका भी बीमा करा दिया था। सो चिट्ठी भेजी है, रुपया आ जाएगा, फिर नया भवन बनवा लेंगे।’’
शरीर रूपी भवन को भस्म होते देखने वाले जीव। क्या मन की यही अवस्था है जो उक्त सेठ की थी? क्या तेरी शारीरिक सपत्ति भी व्यवसायगत है? क्या इससे तुझे स्थाई आय है? अर्थात् तेरी शारीरिक शक्तियों का प्रयोग ऐसा है, जिससे आत्मिक बल सदैव बढ़े? क्या इस शरीर के छूटने पर इससे अच्छा शरीर मिलेगा? या मरे पीछे तू मुक्तिधाम को प्राप्त हो जाएगा? यदि अब तक यह यत्न नहीं किया तो आ, अब करें।
आत्मिक बही की पड़ताल
किसी प्रकार की भी उन्नति करने से पूर्व आवश्यक है कि अपनी वर्तमान अवस्था का पूरा ज्ञान प्राप्त किया जाए।
व्यापारी दूसरे दिन की बिक्र ी उसी समय करता है, जब पहले दिन की बही मिला चुके अर्थात् आय व्यय की तुलना करके देख ले कि कितना बचा है? जिसको अपनी पूँजी का पता नहीं वह उसकी वृद्धि के उपाय क्यों कर करेगा?
प्रिय मुमुक्षु। तू पहले अपनी आत्मिक अवस्था पर दृष्टि डाल। वेद कहता है ‘‘कृतं स्मर’’ अर्थात् अपने किए की याद कर। क्या कहीं शिथिलता है? त्रुटियाँ हैं? आलस्य उनकी निवृत्ति में बाधक है। समाज का भय उठने नहीं देता? लज्जा के कारण निर्बल है? ले, इसका भी एक अचूक उपाय है। ‘‘क्लिबे स्मर’’ अर्थात् बल के लिए स्मरण कर। किसका? अर्थात् उस पवित्र पतितपावन,बल के पुञ्ज सर्वशक्ति के आधार, धर्मस्वरूप, तेज के स्रोत प्राु परमात्मा का। बस यही तीन कार्य हैं, जो तुझे प्रतिदिन करने हैं। (1) अपने आचरण पर ध्यान देना, (2) उसमें आई त्रुटियों को विचार गोचर रखना, और (3) सब बलों के भण्डार सर्वशक्तिमान् का स्मरण करना।
लोगों ने मृत्यु को भयानक समझा है। वास्तव में मृत्यु एक परिवर्तन है। मरते हुए पं. गुरुदत्त से लोगों ने पूछा- ‘‘आप प्रसन्न क्यों है?’’ कहा- ‘‘इस देह में दयानन्द न हो सके थे, इससे उत्तम देह पायँगे तो दयानन्द बनेंगे।’’ जो परिवर्तन उन्नति का द्वार हो उसका स्वागत खुले दिल से किया जाता है। जिससे पतन की सभावना हो उससे डरते हैं। मृत्यु शत्रु है तो उसे जीत। घबराने से और भीरु होगा।
शक्तिमान् के स्मरण से शक्ति
शंका हो सकती है कि परमात्मा के स्मरण-मात्र से ही शक्ति क्यों कर आएगी? यह बात जितनी गूढ़ है, उतनी आनन्दप्रद भी है। बच्चा नंगे सिर किसी गली में ोलता है। अपने विचारानुसार जिस बालक को अपने से अच्छा समझता है, उसका अनुकरण करने लगता है। वह लाल रंग का कुर्ता पहने है, तो इसे भी लाल रंग का कुरता चाहिए। बड़ा हुआ, पाठशाला गया। अपने सहपाठियों में से किसी को आदर्श विद्यार्थी जानकर उसका अनुकरण करता है। छोटी श्रेणियों के लिए बड़ी श्रेणियों के विद्यार्थी आचार व्यवहार में नेता हैं। बड़ों के लिए उनका अध्यापक। यह अवस्था मनुष्य के सपूर्ण जीवन में बनी रहती है। कहते हैं, मरते समय भी जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही योनि आगे मिलती है। कथन का सार यह है कि मनुष्य बिना मानसिक आदर्श के नहीं रह सकता। कौन कह सकता है कि खयाली नेताओं के नित्यप्रति चिन्तन से बालक तथा मनुष्य की आत्मा को क्या लाभ अथवा हानि पहुँची? यह लोकोक्ति अक्षरशः सत्य है-
As a man thinketh, so he becometh अर्थात् जैसा मनुष्य सोचता है वैसा वह बन जाता है।
गर्भिणी माता के हृदय में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, वह गर्भ स्थित बच्चे के मानसिक जीवन का आधार बनते हैं। यदि मनन-शक्ति इतनी प्रभावशालिनी है, तो उस परमेश्वर के गुणों के स्मरण का लाभ जिसे नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सर्वशक्तिमान् इत्यादि विशेषणों से युक्त कहा है, क्या-क्या चमत्कार न दिखाएगा? एडीसन की माता एडीसन को पेट में रखती हुई निरन्तर वैज्ञानिक यन्त्रों का ध्यान करती रही तो एडीसन संसारभर का बड़ा विज्ञानवेत्ता हुआ, और मंगलादि नक्षत्रों से विद्युत द्वारा वार्त्तालाप का सबन्ध स्थिर करने लगा। उपासक भी अपने हृदय-गर्भ में सर्व-शक्तिमान् का ध्यान धारण करे तो अवश्य उसका आत्मा अपूर्व-शक्ति को प्राप्त होगा। बलवान् का स्मरण करना वास्तव में बल के लिए अपनी आत्मा के किवाड़ खोलना है।
तो फिर आ। उन्नति के पिपासु। एक तो अपने नित्य-कृत्यों की पड़ताल किया कर। दूसरे, उस दुःखों के मोचनहार मुक्त स्वभाव को सदैव दृष्टिगोचर रख, जिसका स्मरण सर्वतः कल्याणप्रद है। उस मिट्टी के पौधे की भाँति जो नारंगी के साथ जोड़ा जाकर स्वयं नारंगी का वृक्ष बन जाता है, और ‘‘सग्ङतरे’’ के नाम से स्पष्टतया जताता है, कि मैं उत्तम सग्ङ तरे से तर गया हूँ, तू भी उस प्रियतम को अपनी दृष्टि का तारा बना और उसकी ज्योति में ज्योतिर्मय बन जा। फिर देख अन्धकार निकट भी फटकता है? हाँ,हाँ उस निस्संग के उत्तम संग से तर।