– अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।
मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।
यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।
मेरे मुख से निकले ये शब्द सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।
उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों में जो ‘गुण’ शब्द पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।
अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा
राजेन्द्र जी, अध्यात्म में कभी-कभी शब्दों का वह अर्थ नहीं लिया जाता जो साधारण बोलचाल में होता है। आध्यात्म में प्रकृति सगुण और ब्रह्म निर्गुण कहा गया है। यहाँ गुण मात्र सात्विक, राजसिक एवं तामसिक माने गए हैं। सारी सृष्टि इन्ही गुणों से युक्त होने के कारण त्रिगुणमयी कहलाती है।
क्या ईश्वर में दयाकारी है
यदि है तो ये ब्रह्म का गुण नहीं