लड़े जो कर-करके विषपान।
दयानन्द थे भारत की शान।।
बोले गुरुवर दयानन्द, क्या दक्षिणा दोगे गुरु की।
विनय युक्त वाणी में बोले, आज्ञा दो कह उर की।।
आर्य धर्म की ज्योति बुझी है, चली गई उजियारी।
घोर तिमिर में फंसे हुए हैं, पुत्र सभी नर-नारी।।
चार कार्य करने को निकलो, आज्ञा मेरी मान।
दयानन्द थे भारत की शान।।
पहला है आदेश, देश का करना है उपकार।
देश धर्म से बड़ा नहीं है, जग का कुछ व्यवहार।।
पराधीन हो कष्ट भोगता, जन-जन यहाँ कुरान।
स्वतन्त्रता का शुभ प्रभात हो, आवे आर्य सुराज।।
भाव संचरण हो स्वराज का, छेड़ो ऐसी तान।
दयानन्द थे भारत की शान।।
दूजे भारत की जनता है, सच्ची भोली-भाली।
पाखण्डी रचते रहते हैं, नित नई चाल निराली।।
निजी स्वार्थ हित गढ़ते रहते, झूठे ग्रन्थ पुरान।
हुए आचरणहीन इन्हीं से, भूले सच्चा ज्ञान।।
सत्य शास्त्रों की शिक्षा दे, दूर करो अज्ञान।
दयानन्द थे भारत की शान।।
सत् शास्त्रों से वंचित कर दिया, रच-रच झूठे ग्रन्थ।
अपनी पूजा मान के कारण चलाये, निज-निज पन्थ।।
अपने मत को उजला कहते, अन्य की चादर मैली।
सत्य आचरण के अभाव में दिग्भ्रमता है फैली।।
दूर अविद्या हो इनकी यह तृतीय कार्य महान।
दयानन्द थे भारत की शान।।
वेद ज्ञान के विना देश पर आई विपत्ति अपार।
झूठ, कुरीति पाखण्डों की हो रही है भरमार।।
चला रहे ईश्वर के नाम पर, उदर भरु व्यापार।
कार्य चतुर्थ करो तुम जाकर, वैदिक धर्म प्रचार।।
आपके ये आदेश महान, करूँगा जब तक तन में प्राण।
दयानन्द थे भारत की शान।।
-एस.बी.7, रजनी विहार, हीरापुरा,
अजमेर रोड़, जयपुर।