आचार्य सोमदेव जी ने अपने प्रवचन क्रम में मनुस्मृति का स्वाध्याय कराया। मनु के श्लोकों की धर्म, सदाचार, संस्कृति, चरित्र-निर्माण आदि के अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से सरल व्याख्या प्रस्तुत की। अपने दार्शनिक प्रसंग में आपने बताया कि सांसारिक मनःस्थिति और आध्यात्मिक मनःस्थिति में अन्तर होता है। जहाँ सांसारिक स्थिति में जो हम चाहते हैं, प्रायः वैसा होता नहीं है, और जो होता है वह प्रायः हमें भाता नहीं है (अच्छा नहीं लगता है) और यदि संसार में कुछ अच्छा भी लगने लगता है तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाता- अर्थात् संसार में जो चाहते वह होता नहीं, जो होता है वह हमें भाता नहीं, और जो भाता है वह ठहरता नहीं है। इसके विपरीत आध्यात्मिक स्थिति में जो होने वाली स्थिति होती है, व्यक्ति उसी को चाहता है, जो नहीं हो सकती, उसकी इच्छा नहीं करता। होने वाली स्थिति को चाहता है तो वह प्राप्त होती है और वह स्थायी भी दिखती है, टिकने वाली दिखती है। महर्षि दयानन्द जी ने जब जन्म लिया तो टिकना चाहते थे, जीना चाहते थे लेकिन स्थिति ऐसी दिख रही थी, परिस्थिति ऐसी बन रही थी कि जीवन टिकता हुआ दिख नहीं रहा था, घटनाएँ ऐसी घट रही थीं जिनसे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि भैया, जीवन ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। शिव मन्दिर में गए, टिकाऊ ईश्वर चाहते थे लेकिन यह क्या? ईश्वर भी टिकाऊ नहीं मिल पा रहा। उधर मूर्तियों में चूहें क्या कूदे- ईश्वर भी हाथ से निकलने लगा। तो ऋषि-महर्षि क्या चाहते हैं? अथर्ववेद कहता है-
भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु।।
– अथर्व. १९/४१/१
भद्रमिच्छन्त ऋषयः– ऋषि लोग भद्र को चाहते हैं। भद्र के अतिरिक्त ऋषियों को कुछ भी नहीं चाहिए। मन्त्र में ऋषि का एक विशेषण कहा- स्वर्विदः स्वः सुख (को), विदः जानने वाला। यथार्थ में यदि कोई सुख को जानने वाला होता है, पहचानने वाला होता है तो वह ऋषि ही होता है, आध्यात्मिक व्यक्ति ही होता है, साधक ही होता है। सांसारिक व्यक्ति तो छिछले पानी में सुख ढूँढ़ने लगता है। निरुक्त में ज्ञान पिपासुओं को जलाशय/नदी में स्नान करने वाले के दृष्टान्त से समझाया है अर्थात् जलाशय में नहाने के लिए जाने वालों में कुछ घुटने तक पानी में जाकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, कुछ छाती तक पानी में तृप्त हो जाते हैं, लेकिन अच्छे तैराक तो गहरे जल में गोते लगाकर ही सन्तुष्टि को पाते हैं। वैसे ही जहाँ सांसारिक व्यक्ति थोड़े से सुख से सन्तुष्ट हो जाता है, वहीं आध्यात्मिक थोड़े से सन्तुष्ट नहीं होता है। जब तक सुख की पुष्कल मात्रा न मिल जाए उसकी खोज जारी रहती है। तो यह भद्र प्राप्त कैसे होता है? मन्त्र कह रहा है- तपो दीक्षाम्+उपनिषेदुः अग्रे अर्थात् जब तपो= तप (और) दीक्षाम्= दीक्षा के, उपनिषेदुः= निकट जाते हैं अर्थात् सुख को जानने वाले ऋषि भद्रं को चाहते हुए (उसे प्राप्त करने के लिए) तप और दीक्षा के निकट जाते हैं (तप और दीक्षा का आचरण करते हैं) महर्षि दयानन्द का दृष्टान्त हमारे सामने है, भद्र को प्राप्त करने के लिए ऋषि ने कितना तप किया, चाहे शारीरिक तप हो या वाचनिक तप हो या मानसिक तप हो, इन तीनों ही तपों में तपाकर महर्षि ने स्वयं को कुन्दन बनाया है। जब महर्षि के शारीरिक तप की बात करें तो सच्चे गुरु की खोज में अलकनन्दा के उद्गम की ओर बढ़ते हुए रास्ता बेरी की कटीली झाड़ियों से अवरुद्ध हो गया तो लेटकर वहाँ से आगे निकले और ऐसा करते हुए अपने मांस का बलिदान देना पड़ा। जब और आगे गए तो शीत बढ़ती ही गई, नदी पार करते समय बर्फ के नुकीले किनारों से पैर लहुलुहान हो गए, लेकिन ऋषि भद्र के लिए आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। इसी प्रकार महर्षि दीक्षित भी हुए। मन्त्र कह रहा है जब व्यक्ति तपस्वी और दीक्षित होता है, तब – ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातम् अर्थात् उस तपस्वी और दीक्षित से राष्ट्र उत्पन्न होता है, बल उत्पन्न होता है और ओज उत्पन्न होता है। बल और राष्ट्र तो विदित हैं, यह ओज क्या है? कई बार कहा जाता है कि इसके मुख में ओज है, इसकी वाणी में ओज है, इसके व्यक्तित्व में ओज है। शरीर में ओज है अर्थात् शरीर विशेष कान्ति से युक्त है, यह वैसी ही कान्ति होती है जैसी बसन्त की नई कोपलों (प िायों) में होती है, जैसे बच्चों के शरीर में होती है। यह चमक करती क्या है? यह व्यक्तियों को आकर्षित करती है। महर्षि दयानन्द के शरीर में ओज था, उनकी वाणी में ओज था। कहते हैं जब महर्षि मूर्तिपूजा खण्डन में अपनी ओजस्वी वाणी में व्याख्यान करते थे, लोग इतने प्रभावित होते थे कि टोकरियों में भर-भरकर अपने घरों की मूर्तियाँ निकाल फेंकते थे। तो तपस्वी और दीक्षित में बल उत्पन्न होता है। महर्षि दयानन्द में कितना शारीरिक बल था? महर्षि जोधपुर में ठहरे हुए थे, भ्रमण में जाते समय मार्ग में एक भारी रहंठ आया करती थी, एक पहलवान जो इस रहंठ को घुमाकर हौदी में पानी भरता था, उसे इस बात का अभिमान था कि मेरे अतिरिक्त इस रहंठ को कोई भी घुमा नहीं सकता। एक बार महर्षि भ्रमणार्थ जब वहाँ पहुँचे तो हौदी को खाली देख, पशुओं के पीने के पानी के लिए और शारीरिक व्यायाम की दृष्टि से रहंठ घुमाने लगे, थोड़ी ही देर में हौदी भर गई, लेकिन महर्षि का व्यायाम भी पूरा नहीं हुआ तो महर्षि टहलने आगे निकल गए। जब लौटे तो इतने में वहाँ पहलवान भी आ चुका था। उसने महर्षि से पूछा- महाराज क्या आपने ये हौदी भरी है? महर्षि ने कहा कि हाँ, हमने भरी है, हमने सोचा कि इससे हमारा व्यायाम हो जाएगा, लेकिन हौदी जल्दी ही भर गई, व्यायाम भी पूरा नहीं हो पाया तो हम टहलते आगे चले गए। पहलवान को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जिस हौदी को भरते-भरते मैं थक जाता हूँ, स्वामी जी का थकना तो दूर, ठीक से व्यायाम भी नहीं हुआ, कितना बल रहा होगा महर्षि के शरीर में! इसी प्रकार मानसिक बल भी, जितनी विषम परिस्थितियों में स्वयं को अडिग रखते हुए महर्षि ने कार्य किया, हम अनुमान कर सकते हैं कि कितना अधिक मानसिक बल रहा होगा और ऐसा होने पर अर्थात् जब भद्र की इच्छा करते हुए तपस्वी व दीक्षित होने पर ऋषि बल, राष्ट्र और ओज को उत्पन्न कर देते हैं तब- तदस्मै देवा उपसंनमन्तु अर्थात् उस ऋषि के लिए देवता भी प्रणाम करते हैं। विद्वान्/श्रेष्ठ उस तपस्वी का सम्मान करते हैं। इति।।