ओ३म्
महर्षि दयानन्द के जीवन में अन्य अनेक गुणों के साथ ‘दया’ नाम का गुण असाधारण रूप में विद्यमान था। उनमें विद्यमान इस गुण ‘दया’ से सम्बन्धित कुछ उदाहरणों को आर्यजगत के महान संन्यासी और ऋषिभक्त स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने अपनी बहुत ही प्रभावशाली व मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। पाठकों को इसका रसास्वादन कराने के लिए हम इसे प्रस्तुत कर रहे हैं। यह उल्लेख स्वामी वेदानन्द जी ने स्वरचित ऋषि बोध कथा पुस्तक के ‘जन्म तथा बालकाल’ अध्याय में किया है। स्वामी जी लिखते हैं कि ’’दयानन्द के आगमन से पूर्व गौ आदि पशुओं की अन्धाधुन्ध हत्या हो रही थी। (उनके समय तक किसी ने गोहत्या के विरोध में आवाज उठाई हो, इसका कहीं प्रमाण नहीं मिलता)। ऋषि ने उसको (गोहत्या को) बन्द कराने के लिए अनेक प्रयत्न किये। उनका लिखा ‘‘गोकरुणानिधि” ग्रन्थ काय में लघु है किन्तु उपाय में अति महान् है। उसका एक-एक वाक्य ऋषि के हृदय में इन निरीह पशुओं के प्रति दया एवं करुणा का परिचय दे रहा है। हम प्रत्येक पाठक से अनुरोध करते हैं कि वे एक बार इसका अवश्य पाठ करें। ऋषि ने इसके समीक्षा प्रकरण को, भगवान् से प्रार्थना पर समाप्त किया है। उनके शब्द ये हैं-‘‘हे महाराजाधिराज जगदीश्वर ! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए।”
ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश में प्रार्थना के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे हैं-‘‘जो मनुष्य (ईश्वर से) जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्त्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है।” (सप्तम समुल्लास-सत्यार्थप्रकाश)
ऋषि ने तदनुसार अपनी यह प्रार्थना पुरुषार्थ के साथ की है। गोकरुणानिधि लिखने के अतिरिक्त वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों में गोरक्षा के निमित्त एक आवेदन पत्र पर हस्ताक्षर करा रहे थे। उनकी कामना थी कि कम-से-कम दो करोड़ मनुष्यों के हस्ताक्षर कराके इंग्लैण्ड (की महारानी विक्टोरिया को) भेजे जाएं। इससे ऋषि की दयालुता का बोध सुस्पष्टतया हो जाता है। गौओं के जीवन की रक्षा अर्थात् हत्या बन्द कराने के निमित्त उन्होंने राज्याधिकारियों से भेंट करने में भी संकोच न किया। (इतिहास में गोरक्षा का यह अपूर्व उदाहरण है। सनातन धर्म के बन्धुओं में गोरक्षा की प्रवृत्ति महर्षि दयानन्द की इस घटना के बहुत बाद उत्पन्न हुई)।
अनूपशहर में ऋषि अपनी मधुरिमामयी वाणी से लोगों के हृदयों में धर्मप्रीति की भावनाएं भर रहे थे कि एक कपटी जन ने पान में विष डालकर दिया। वहां का तहसीलदार ऋषि का भक्त था। उसे जब इस वृत्तान्त का भान हुआ तो उसने उस पामर विषदाता को बंधवा दिया। दयालु दयानन्द ने यह सुनकर उससे कहा ‘‘सैयद अहमदजी ! आपने अच्छा नहीं किया। मैं संसार को बन्धनों से छुड़वाने के लिए यत्नवान् हूं, मैं इन्हें बंधवाने, कैद कराने नहीं आया।” अपने घातक के प्रति भी दया। अद्भुत है दयानन्द तेरी दया। धन्य हो तुम्हारी जननी, धन्य है तुम्हारे पिता और धन्य है आपश्री के गुरुदेव। धन्य ! धन्य !!
दयानन्द की दया का एक और उदाहरण सुन लीजिए। जोधपुर में मूर्ख पाचक ने उन्हें दूध के साथ कालकूट विष दिया। एक घूंट पीते ही उन्हें इसका ज्ञान हो गया तो दयालु दयानन्द ने उस जगन्नाथ को रुपये देकर नेपाल भाग जाने को कहा। ऋषि ने उसे कहा–‘‘जगन्नाथ ! शीघ्र यहां से भागकर नेपाल चले जाओ ! राठोरों को यदि तेरी करतूतों का पता चल गया तो तेरा एक-एक अंग काट लेंगे, अतः भाग जा।”
अपने प्राणघातक के प्राणों को बचाने की चिन्ता अतिशय दयालु के अतिरिक्त किसको हो सकती है? इस विषय में दयानन्द की समता का एक भी उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं है। इस प्रकार दया के व्यवहारों के दृष्टान्त ऋषि के जीवन में अनेक हैं। चैदह बार उन्हें विष दिया गया किन्तु दयानन्द ने किसी को दण्ड दिलाने का यत्न नहीं किया।
दयानन्द ने अपने जन्म नाम (दयाल जी) तथा संन्यास नाम (दयानन्द) दोनों को यथार्थ कर दिखाया। यह दयानन्द के गौरव को चार चांद लगाता है।”
हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के जीवन में दया के उपर्युक्त उदाहरणों को पढ़कर उनके हृदय की भावनाओं से कुछ परिचित हो सकेंगे। हम पाठकों को महर्षि दयानन्द का स्वामी सत्यानन्द व अन्य विद्वानों द्वारा लिखित जीवनचरित पढ़ने का भी निवेदन करेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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