ओ३म्
महर्षि दयानन्द जी अपने विद्यागुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन पूरा कर और गुरु दक्षिणा की परम्परा का निर्वाह कर गुरुजी को दिए वचन के अनुसार भावी योजना को कार्यरूप देने वा निश्चित करने के लिए मथुरा से आगरा आकर रहे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष रहकर उपदेश व प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार किया। आगरा में निवासकाल में महर्षि दयानन्द ने एक दिन पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। इसका अर्थ यह निकलता है कि स्वामीजी के पास वेद की पुस्तकें नहीं थी। पं. लेखराम जी ने इस विषय को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है
“वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान–एक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी ने बड़ी–खोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम न निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत कर लिया करते थे।” इसके बाद इस विषय में आगे लिखा है कि ‘धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओर–स्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।’ धौलपुर का वर्णन इस विषय में मौन है कि स्वामी जी को यहां धौलपुर में वेद की पुस्तक मिली या नहीं। इसके बाद के वर्णनों में भी वेद की पुस्तकों की खोज, उनके प्राप्त होने या न होने का वर्णन नहीं मिलता।
धौलपुर से 20 अक्तूबर 1864 को चलकर स्वामीजी ग्वालियर होते हुए किसी मार्ग से आबू पर्वत आते हैं और यहां से चलकर 85 दिन बाद लश्कर / ग्वालियर पहुंचते हैं। अनुमान किया जाता है कि स्वामीजी आबू पर्वत अपने योग विद्या सिखाने वाले गुरुओं से भेंट करने गये होंगे। आबूपर्वत से ग्वालियर आकर, यहां कुछ समय ठहर कर इसके बाद स्वामी जी 7 मई, 1865 को ग्वालियर से चलकर करौली आते हैं। करौली में निवास का वर्णन करते हुए पं. लेखराम जी अपने जीवन चरित्र में लिखते हैं कि ‘ग्वालियर से स्वामी जी करौली पधारे और राजा साहब से धर्म विषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास किया–फिर वहां से जयपुर चले गये।’ यहां करौली में स्वामी जी ने कई मास ठहर कर वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि स्वामी जी को धौलपुर में वेद की पुस्तक प्राप्त हो गईं थी। यदि न होती तो फिर वह अभ्यास न कर पाते। धौलपुर में उनका 15 दिनों का निवास वेदों की उपलब्धि वा प्राप्ति के लिए ही व्यतीत हुआ प्रतीत होता है। करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इन शब्दों से यह भी प्रतीत होता है कि इससे पूर्व उन्होंने सम्भवतः आबू पर्वत पर भी लगभग ढाई मास रूककर वेदों का प्रथमवार अभ्यास किया था।
स्वामी दयानन्द जी ने कुम्भ मेले के अवसर पर 12 मार्च सन् 1867 से हरिद्वार में प्रवास किया। पं. लेखराम जी के जीवन चरित में ‘उन्हें केवल वेद ही मान्य थे–स्वामी महानन्द सरस्वती’ शीर्षक से वर्णन मिलता है जिसमें कहा गया है कि ‘स्वामी महानन्द सरस्वती, जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एक–एक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नहीं। हमने वेदों के दर्शन वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी को (स्वतः प्रमाण) न मानते थे।’ यहां स्वामी जी के पास वेद होने का अर्थ है कि उन्हें वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यदि वहां प्राप्त न होते तो वहां वेदों के प्राप्त न होने और अन्यत्र से प्राप्त होने का कहीं वर्णन होता। अन्यत्र वेदों की प्राप्ति का उल्लेख न होना संकेत करता है कि स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यहां इतना और बता दें कि दादूपन्थी स्वामी महानन्द जी देहरादून में निवास करते थे और यहां नगर में उनका ‘‘महानन्द आश्रम” के नाम से अपना आश्रम था। स्वामी जी से मिलने और प्रभावित होने के कारण वह आर्यमतानुयायी बन गये थे और उन्होंने अपने आश्रम का परवर्ती नाम भी ‘महानन्द आश्रम् अर्थात् आर्यसमाज’ कर दिया था। हमारा सौभाग्य है कि हम इसी आर्यसमाज के सदस्य रहे हैं।
स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में ही हुई, इस सम्बन्ध में हम आर्य समाज के विद्वान महानुभावों की सम्मति जानना चाहेंगे। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि स्वामी जी को धौलपुर में यह वेद किससे प्राप्त हुए थे? इस विषय में हम यह अनुमान करते हैं कि किसी वेदपाठी परिवार के किसी पण्डित जी वा ब्राह्मण परिवार से ही स्वामी जी को यह वेद प्राप्त हुए होंगे। किसी पुस्तकालय वा किसी पुस्तक विक्रेता के पास से मिलना तो सम्भव नहीं लगता। हमारा अनुमान है कि सन् 1865 वा 1867 से पूर्व वेद भारत में मुद्रित नहीं हुए थे। सम्भवतः पहली बार वेद मन्त्र संहिताओं का मुद्रण व प्रकाशन लाहौर से महर्षि दयानन्द भक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने किया था।
–मनमोहन कुमार आर्य
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