स्तुता मया वरदा वेदमाता-७
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।।
मन्त्र कहता है परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है। परिवार विविधता की दृष्टि से अपूर्व इकाई है। इसमें पति-पत्नी समान युवा होने पर भी स्त्री-पुरुष के भेद से नितान्त भिन्न हैं। बच्चे और बूढ़े एक-दूसरे आयुवर्ग से नितान्त भिन्न होते हैं। माता-पिता और बालक सम्बन्ध से सबसे निकट होने पर भी योग्यता सामर्थ्य से शून्य और शिखर का अन्तर रखते हैं। इन सबको मिलाकर एक इकाई बनती है जिसे हम परिवार के रूप में जानते हैं।
अधिक समय तक एक साथ समय बिताने वाली इस इकाई में विविधता के कारण समस्याओं की अधिकता तथा विविधता होना स्वाभाविक है। परिवार में विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं। पूरक होना एक-दूसरे को एक-दूसरे की आवश्यकता बताता है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे को इसीलिए चाहते हैं क्योंकि उनका कार्य परस्पर सहयोग से चलता है। इस सहयोग को व्यवस्थित करने के उपाय को व्रत नाम दिया गया है। व्रत शब्द से सभी व्यक्ति परिचित होते हैं परन्तु रूढ़िगत अर्थ ही सबके काम में आता है। व्रत से हम समझते हैं ऐसी प्रतिज्ञा जिसके पालन करने का कोई मनुष्य संकल्प करता है। कोई किसी वस्तु के त्याग का संकल्प करता है, कोई किसी वस्तु के स्वीकार करने की इच्छा करता है। व्रत व्यापक शब्द है, इसका अर्थ है चयन करके स्वीकार करना।
ब्रह्मचारी को व्रती कहते हैं, उसने बहुत सारे संकल्प लिये होते हैं
जब बालक को यज्ञोपवीत धारण कराते हैं तो व्रत का मन्त्र बोलकर आहुति दिलवाते हैं। अग्ने व्रतपते, चन्द्र व्रतपते, सूर्य व्रतपते, वायो व्रतपते और व्रतानां व्रतपते। व्रतों का पालन करने वाले पदार्थों का उदाहरण दिया गया है। संसार में अग्नि व्रतपति है, सूर्य-चन्द्र-वायु सभी तो व्रतपति हैं, व्रतों के स्वामी हैं। यहाँ व्रतपति कहने से नियमों के स्वामित्व का बोध होता है। ये नियम विवशता नहीं हैं, स्वीकृत हैं इनका पालन करना इनका स्वभाव है। स्वभाव बन गये नियम खण्डित नहीं होते। परमेश्वर को इस प्रसंग में व्रतानां व्रतपते कहा है अर्थात् संसार में जितने भी व्रत हो सकते हैं उन सब व्रतों का वह स्वामी है। जितने नियम उसके अपने हैं उतने नियम तो किसी ने भी नहीं धारण कर रखे हैं। इसी कारण वह समस्त संसार को नियम में चलाने का सामर्थ्य रखता है। परमेश्वर नित्य है, इसलिए उसके नियम भी नित्य हैं, परमेश्वर सर्वत्र है, इस कारण उसके नियम ज्ञानपूर्ण हैं, उसके नियमों में कहीं त्रुटि नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान् है अतः उसके नियमों में पालन कराने का सामर्थ्य भी है।
व्रत चलने के लिए अनिवार्य है- जिस मार्ग पर आप चलना चाहते हैं, चलने की इच्छा करते हैं, तब आप अपने विचारों का विश्लेषण करके निर्णय की ओर ले चलते हैं। तब पहली स्थिति बनती है और आपका विचार संकल्प का रूप लेता है। जब भली प्रकार विचार करके निश्चय करते हैं, तब यह संकल्पित विचार स्थायी बन जाता है। यह विचार के स्थायी करने की घोषणा का नाम व्रत हो जाता है।
संकल्प व्रत बन जाता है, वह अपने नियम पर, अपने मार्ग पर चल पड़ता है। यह व्रत है। यह व्रत उसे नियम पर चलने का अधिकार देता है, उसे दीक्षा कहा गया है। दीक्षित होने का अर्थ है, उस व्रत के साथ उसे सब पहचानते हैं। वह पहचान उसे चलने का, आवश्यक वस्तु को प्राप्त करने का अधिकार देता है। यह यात्रा जब प्रयोजन की पूर्णता तक जाती है तब उस पूर्णता को, सफलता को दक्षिणा कहा जाता है। यह सफलता का आधार है। व्रत अर्थात् व्रत पर चलकर ही सफलता की पूर्णता तक पहुँचा जा सकता है। व्रत की मनुष्य को पूरे जीवन में आवश्यकता रहती है। मनुष्य का जीवन निरर्थक नहीं है, सप्रयोजन है, यदि प्रयोजन जीवन में है तो उसको प्राप्त करने का उपाय भी होना चाहिए, इसलिए व्रत की आवश्यकता होती है।
जैसे बालक के, छात्र के जीवन में व्रत की आवश्यकता है, उसी प्रकार गृहस्थ के जीवन में भी व्रत की आवश्यकता होती है। इसी कारण विवाह संस्कार में वर-वधु एक दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर व्रतों के पालन करने का संकल्प लेते हैं, इतना ही नहीं वे अपने व्रतों का पालन भी करते हैं, वे अपने साथी के व्रत से भी परिचित होते हैं तभी तो कहते हैं- मैं तुम्हारे व्रतों को अपने हृदय में धारण करता हूँ। व्रत को समझ लें तो जीवन को चलाना और समझना सरल हो जायेगा।