परिक्रमा और पत्थर चूमना
जब कोई शख्स तीर्थयात्री का पहनावा धारण कर चुके, जोकि सीवन-रहित दो आवरण-वस्त्र होते हैं, तब उसे न तो दाढ़ी बनानी चाहिए, न नाखून काटने चाहिएं। तब उसे तीर्थयात्री का गीत-”तलबिया, लब्वैका ! अल्लाहुम्मा ! (ऐ अल्लाह, मैं तुम्हारी सेवा में हाजिर हूँ)“-गाते हुए मक्का की तरफ बढ़ना चाहिए। मक्का पहुंचने पर वह मस्जिद-उल-हराम में वुजू करता है काले पत्थर (अल-जिर-उल-असवद) को चूमता है। तब काबा (तवाफ़) की सात बार परिक्रमा करता है। खुद मुहम्मद ने ”अपने ऊंट की पीठ पर सवार होकर …..” परिक्रमा की थी, ”ताकि लोग उन्हें देख सकें और वे विशिष्ट बने रहें“ (2919)। इसी वजह से उन्होंने कोने (काले पत्थर) को छड़ी से छुआ। अब्बू तुफैल बतलाते हैं-”मैं अल्लाह के रसूल को उस मकान की परिक्रमा करते तथा कोने को उस छड़ी से छूते देखा जो उन के पास थी और फिर उस छड़ी को चूमते देखा“ (2921)।
पत्थर चूमने का रिवाज बुतपरस्ती है। उमर ने कहा था-”कसम अल्लाह की, मैं जानता हूँ कि तुम पत्थर हो और अगर मैंने रसूल-अल्लाह को तुम्हें चूमते न देखा होता, तो मैं तुम्हें चूमता नहीं’ (2912)। ईसाई पंथमीमांसक ”श्रद्धा-निवेदन“ और ”आराधना“ में भेद बतलाते हैं। उनका अनुसरण करते हुए, मुस्लिम विद्वान तर्क करते हैं कि काबा और काला पत्थर श्रद्धा के स्थान हैं, आराधना के नहीं।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान यह है कि तीर्थयात्री अस-सफ़ा पहाड़ की चोटी से अल-मर्वाह पहाड़ की चोटी तक दौड़ते हैं, क्योंकि कुरान (2/158) के अनुसार ये दोनों पहाड़ ”अल्लाह के प्रतीक“ हैं। मुहम्मद का कहना है कि ”अल्लाह किसी व्यक्ति के हज या उमरा को तब तक पूरा नहीं करता, जब तक कि वह सई न करे (यानी अल-सफ़ा और अल-मर्वाह के बीच दौड़ न लें)“ (2923)।
हर बार जब तीर्थयात्री इन पहाड़ों की चोटी पर पहुंचता है तो वह जपता है-”अल्लाह के सिवाय और कोई आराध्य-देव नहीं। उसने अपना वायदा निभाया है, और अपने खिदमतगार (मुहम्मद) की इमदाद की है, और अकेले ही काफिरों के कटक को मार भगाया है।“ मुहम्मद कभी ढील नहीं देते। हर मौके पर वे काफिरों के प्रति एक अटल वैर-भाव मोमिनों के मन में भरते रहते हैं।
author : ram swarup