तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और अन्तरिक्ष हैं- रामनाथ विद्यालंकार

तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और  अन्तरिक्ष हैं -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः गोतमः । देवता ईश्वरः । छन्दः आर्षी पङ्किः।। अन्तस्ते द्यावापृथिवी दधाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम्। सुजूर्देवेभिरर्वारैः परैश्चान्तर्यामे मघवन् मादयस्व ॥ -यजु० ७।५ ईश्वर कह रहा है-हे योगसाधक ( ते अन्तः ) तेरे अन्दर ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को (दधामि ) रखता हूँ। ( अन्तः दधामि ) अन्दर रखता हूँ (उरुअन्तरिक्षम् ) विशाल अन्तरिक्ष को। ( अवरैः परैः च देवेभिः ) अवर और पर देवों से (सजू:१) समान प्रीतिवाला होकर ( अन्तर्यामे ) अन्तर्यज्ञ में ( मघवन् ) हे योगैश्वर्य के धनी ! तू ( मादयस्व ) स्वयं को आनन्दित कर। हे मानव ! तू अन्तर्यज्ञ रचा। देख, बाहरी सृष्टि में सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष मिलकर यज्ञ रचा रहे हैं। सूर्य पृथिवी को प्रकाश … Continue reading तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और अन्तरिक्ष हैं- रामनाथ विद्यालंकार

बालक का गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार 

बालक का   गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः गृत्समदः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः क. आर्षी गायत्री,र, निवृद् आर्षी उष्णिक्। कविश्वे देवासऽआर्गत शृणुता म इमहर्वम् । । एवं बर्हिर्निषीदत।’उपयामगृहीतोऽसि विश्वेभ्यस्त्वा । देवेभ्यएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥ -यजु० ७ । ३४ शिष्य कहता है—( विश्वे देवासः ) हे सब विद्वान् गुरुजनो! ( आ गत ) आओ, ( शृणुत) सुनो ( मे ) मेरे ( इमं हवम् ) इस पढ़ाये हुए पाठ को, (इदं बर्हिः ) इस कुशासन पर (निषीदत ) बैठो। आगे माता-पिता बालक को कहते हैं ( उपयामगृहीतः असि) तू यम-नियमों से जकड़ा हुआ है। हमने ( त्वी ) तुझे (विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) सब विद्वान् गुरुओं को सौंपा है, (एषः ) यह गुरुकुल ( ते योनि:४) तेरा घर है। हमने ( त्वी … Continue reading बालक का गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार 

होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार 

होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः अत्रिः । देवता गृहपतयः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । वयहि त्वा प्रति यज्ञेऽअस्मिन्नग्ने होतारमवृणीमहीह ।ऋर्धगयाऽऋर्धगुतार्शमिष्ठाः प्रजनन्यज्ञमुर्पयाहि विद्वान्त्स्वाहा॥ -यजु० ८। २० ( अग्ने ) हे विद्वन्! (वयं हि ) हम गृहपतियों ने निश्चय पूर्वक ( अस्मिन् प्रयति यज्ञे ) इस प्रारभ्यमाण यज्ञ में त्वा) आपको ( होतारम् ) होता, यज्ञनिष्पादक (अवृणीमहि ) वरण किया है। आप पहले भी ( इह ) यहाँ (ऋधक् ) समृद्धिपूर्वक ( अशमिष्ठाः ) शान्ति या पूर्णाहुति करते रहे हैं। अतः (विद्वान्) विद्वान् आप (प्रजानन्) यज्ञ के विधि-विधान को जानते हुए ( यज्ञम् उपयाहि ) यज्ञ में आइये, और (स्वाहा ) आहुति दिलवाइये ।। बड़े यज्ञों में चार ऋत्विज् होते हैं—होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा । होता मन्त्रपाठ, उद्गाता सामगान, अध्वर्यु … Continue reading होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार 

इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार

इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः अत्रिः । देवता वाक्। छन्दः आर्षी जगती । पुरुदस्मो विषुरूपऽइन्दुरन्तर्महिमानमानञ्ज धीरः। एकपदीं द्विपद त्रिपदीं चतुष्पदीमष्टापदीं भुवनानु प्रथन्तास्वाहा॥ -यजु० ८।३० ( पुरुदस्म:१) अतिशय दु:खक्षयकर्ता, (विषुरूपः ) विविध रूपों वाला, ( धीरः) धीर, बुद्धिमान् ( इन्दुः२) आनन्द से आर्द्र करनेवाले परमेश्वर ने ( अन्तः ) शरीर तथा ब्रह्माण्ड के अन्दर ( महिमानं ) महिमा को ( आनञ्ज ) प्रकट किया हुआ है। उसकी (एकपदीं ) ओम् रूप एक पदवाली, ( द्विपदीं ) अभ्युदय और निःश्रेयस इन दो पदोंवाली, (त्रिपदीं ) मन, बुद्धि, आत्मा इन तीन पदोंवाली, (चतुष्पदीं ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पदोंवाली और ( अष्टापदीं ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्षों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास इन चार आश्रमों रूप आठ … Continue reading इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः शासः । देवता विश्वकर्मा ईश्वरः । छन्दः क. भुरिग् आर्षीत्रिष्टुप्, र. विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।। के वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेऽअद्या हुवेम। स नो विश्वानि हव॑नानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुर्कर्मा। ‘उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा विश्वकर्मणऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे -यजु० ८ । ४५ हम ( वाचस्पतिं ) वाणी के स्वामी, (मनोजुवं) मन को गति देनेवाले, (विश्वकर्माणं ) विश्व के कर्मों के कर्ता परमेश्वर को ( अद्य ) आज ( वाजे ) संग्राम में ( हुवेम ) पुकारें । ( स विश्वशम्भूः साधुकर्मा ) वह विश्वकल्याणकारी, साधु कर्मोवाला परमेश्वर (अवसे) रक्षा के लिए (नः विश्वानि हवनानि ) हमारी सब पुकारों को ( जोषत् ) प्रीतिपूर्वक सुने । हे मानव ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) … Continue reading तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार

जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः: । छन्दः निवृद् आर्षी बृहती। सुत्रस्यऽऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृताऽअभूम। दिवं पृथिव्याऽअध्यारुहामाविदाम देवान्त्स्वर्योतिः ॥ -यजु० ८।५२ हे जीवन्मुक्ति! तू ( सत्रस्य) जीवन-यज्ञ की ( द्धिःऋ असि ) समृद्धि है। (अगन्मज्योतिः ) पहुँच गये हैं हम प्रजापति रूप ज्योति तक। ( अमृताः अभूम) अमर हो गये हैं, जीवन्मुक्त हो गये हैं। (पृथिव्याः दिवम् अध्यारुहाम ) पृथिवी से द्युलोक में चढ़ गये हैं, निचले स्तर से सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गये हैं। हमने (अविदामदेवान्) पा लिया है, दिव्य गुणों को, ( स्वः) आनन्द को, (ज्योतिः ) दिव्य प्रकाशको।। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये जीवन के पुरुषार्थ-चतुष्टय कहलाते हैं। धर्माचरण, धर्मानुकूल उपायों से अर्थसञ्चय एवं धर्मानुकूल काम का सेवन करते हुए मोक्ष के लिए प्रयत्नशील … Continue reading जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः वसिष्ठः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् । चतुस्त्रिशत्तन्तवो ये वितनिरे यऽइमं यज्ञस्वधया दर्दन्ते। तेषां छिन्नसम्वेतद्दधामि स्वाहा घुर्मोऽअप्येतु देवान् ॥ -यजु० ८।६१ | ( चतुस्त्रिंशत् ) चौंतीस (तन्तवः) सूत्र ( ये वितत्निरे ) जो देहरूप ताने को तन रहे हैं, (ये ) जो ( इमं यज्ञं ) इस जीवन-यज्ञ को ( स्वधया) आत्मधारणशक्ति से ( ददन्ते ) धारण कर रहे हैं, ( तेषां छिन्नं ) उनके छिन्न हुए अंश को ( एतत् सं दधामि ) यह संधान कर रहा हूँ, पूर्ण कर रहा हूँ। ( स्वाहा ) शरीर में यथोचित ओषधि की आहुति से स्वस्थ किया हुआ ( घर्म:२ ) जीवन-यज्ञ ( देवान्) दिव्य गुणों को ( अप्येतु) प्राप्त हो। यों तो … Continue reading देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार

अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार

अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः वसिष्ठः । देवता यज्ञ: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।। यज्ञस्य दोहो विर्ततः पुरुत्रा सोऽअष्टधा दिवमन्वाततान। य यज्ञ धुक्ष्व महिं मे प्रजायाश्चरायस्पोषं विश्वमायुरशीय स्वाहा। -यजु० ८ । ६२ ( यज्ञस्य ) योग-यज्ञ का ( दोहः ) दूध ( पुरुत्रा ) बहुत स्थानों में ( विततः ) फैला हुआ है । (सः ) वह यज्ञ ( अष्टधा ) यम, नियम आदि आठ योगाङ्गों के खम्भों पर (दिवं ) आत्मा रूप द्युलोक का ( अन्वाततान) तम्बू तानता है। ( नः यज्ञ ) वह तू हे योगयज्ञ ( मे प्रजायां ) मेरी प्रजा में ( महि रायस्पोषं ) महान् योगैश्वर्य की पुष्टि को ( धुक्ष्व ) दोहन कर। मैं योगबल से ( विश्वम् आयुः ) सम्पूर्ण आयु … Continue reading अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः बृहस्पतिः । देवता वाजी । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् । वातरम्हा भव वाजिन् युज्यमानऽइन्द्रस्येव दक्षिणः श्रियैधि। युञ्जन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदसऽआ ते त्वष्टा पत्सु जवं दधातु ॥ -यजु० ९।८ हे ( वाजिन्) बली मनुष्य ! तू (नियुज्यमानः ) कर्म में नियुक्त होता हुआ (वातरंहाःभव ) वायु के समान वेगवाला हो। ( इन्द्रस्य इव ) राजा की तरह ( श्रिया) लक्ष्मी से ( दक्षिणः ) सम्पन्न ( एधि ) हो। ( युञ्जन्तु ) कार्यों में प्रेरित करें ( त्वा ) तुझे (विश्ववेदसः ) सकल विद्याओं के वेत्ता ( मरुतः ) विद्वान् जन । ( त्वष्टा ) जगत् का शिल्पी परमेश्वर ( ते पत्सु ) तेरे पैरों में (जवं ) वेग ( आ दधातु ) … Continue reading हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः बृहस्पतिः । देवता बृहस्पतिः इन्द्रश्च । छन्दः आर्षी जगती । बृहस्पते वाजं जय बृहस्पतये वाचे वदत बृहस्पतिं वाजे जापयत। इन्द्र वाजे जयेन्द्राय वाचे वदतेन्द्रं वाजे जापयत ।। -यजु० ९ । ११ ( बृहस्पते ) हे महान् शक्ति के स्वामी जीवात्मन्! तू ( वाजं जय ) देवासुरसंग्राम को जीत । ( बृहस्पतये ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा के लिए ( वाचे वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। ( बृहस्पतिम् ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा को ( वाजं ) संग्राम (जापयत ) जितवाओ। ( इन्द्र ) हे परमैश्वर्यवान् मन ! तू ( वाजं जय ) संग्राम को जीत। ( इन्द्राय ) परमैश्वर्यवान् मन के लिए (वाचं वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। (इन्द्रं … Continue reading आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)