अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः शङ्खः । देवता पितरः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् । येऽअग्निष्वात्ता येऽअनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेतां यथावृशं तन्वं कल्पयाति ॥ -यजु० १९६० | ( ये ) जो ( अग्निष्वात्ताः ) अग्निविद्या को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए और (अनग्निष्वात्ताः ) अग्नि-भिन्न ज्ञानकाण्ड को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए पितृजन ( दिवः मध्ये ) ज्ञान-प्रकाश के मध्य में ( स्वधया ) स्वकीय धारणविद्या से (मादयन्ते) सबको आनन्दित करते हैं ( तेभ्यः ) उनके लिए ( स्वराड्) स्वराट् परमात्मा ( एताम् असुनीतिं तन्वं ) इस प्राणक्रिया प्राप्त शरीर को ( यथावशं ) इनकी इच्छानुसार ( कल्पयाति ) समर्थ बनाये अर्थात् स्वस्थ और दीर्घायु करे। उवट और महीधर ने अग्निष्वात्त तथा अनग्निष्वात्त … Continue reading अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः प्रजापतिः । देवता गणपतिः । छन्दः शक्वरी। गुणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिइहवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। आहर्बजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥ -यजु० २३.१९ हे आचार्य ! हम ( गणानां गणपतिं त्वा) विद्यार्थी-गणों के गणपति आपको (हवामहे) पुकारते हैं।(प्रियाणां प्रियपतिं त्वा) प्रिय शिष्यों के प्रियपति आपको (हवामहे ) पुकारते हैं। (निधीनां निधिपतिं त्वा ) विद्यारूप निधियों के निधिपति आपको ( हवामहे ) पुकारते हैं। अब पिता ब्रह्मचारी को कहता है-( मम वसो) हे मेरे धन ब्रह्मचारी ! ( अहं) मैं (गर्भधं ) ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास ( आ अजानि ) तुझे लाता हूँ। ( त्वं ) तू ( आ अजासि ) आ जा ( गर्भधं) … Continue reading ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार

वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार

वेदमंत्र  हमारे फटे हृदयों को  सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः प्रजापतिः । देवता छन्दांसि। छन्दः आर्षी उष्णिक् । गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह। बृहृत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥ -यजु० २३.३३ हे मानव ! ( गायत्री)  गायत्री छन्द, (त्रिष्टुप् ) त्रिष्टुप् छन्द, ( जगती ) जगती छन्द, (पढ्या सह अनुष्टुप् ) पक्कि छन्द के साथ अनुष्टुप् छन्द, ( उष्णिहा बृहती ) उष्णिक् छन्द के साथ बृहती छन्द तथा (ककुप् ) ककुप् छन्द (सूचीभिः ) सुइयों से जैसे वस्त्र सिला जाता है वैसे ( त्वी शम्यन्तु ) तेरे फटे हृदय को सिल कर शान्त कर दें। अपने देश के तथा दूसरे देशों के वासी हम सब एक जगदीश्वर के पुत्र होने के कारण परस्पर भाई-भाई हैं। इसी प्रकार सब देशों की नारियाँ परस्पर बहिनें … Continue reading वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः लौगाक्षिः । देवता ईश्वरः । छन्दः स्वराड् अत्यष्टिः । यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चाय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥ -यजु० २६.२ वेदों का वक्ता ईश्वर कहता है—( यथा) क्योंकि ( इमां कल्याणीं वाचं ) इस कल्याणकारिणी वेदवाणी को (जनेभ्यः ) सभी जनों के लिए ( आवदानि ) मैं उपदेश कर रहा हूँ, ( ब्रह्मराजन्याभ्यां ) ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी (शूद्राय च) जन्म से शूद्र के लिए भी ( अर्याय च ) और वैश्य के लिए भी, (स्वाय च) अपनों के लिए भी (अरणाय च ) और परायों के लिए भी, अतः मैं (इह) इस संसार में ( देवानां ) … Continue reading वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः अग्निः । देवता इडा सरस्वती भारती । छन्दः आर्षी गायत्री। तिम्रो देवीर्बहिरेदसदन्त्विड़ा सरस्वती भारती।मही गृणाना॥ -यजु० २७.१९ ( मही ) महती ( गृणाना ) उपदेश देती हुई ( इडा ) इडा, ( सरस्वती ) सरस्वती और ( भारती ) भारती ( तिस्रः देवीः ) ये तीन देवियाँ ( इदं बर्हिः ) इस राष्ट्रयज्ञ के आसन पर ( आ सदन्तु ) आकर स्थित हों। जिस राष्ट्र में वेदोक्त तीन देवियाँ निवास करती हैं, वह राष्ट्र गौरवशाली और भाग्यशाली होता है। वे तीन देवियाँ हैं। इडा, सरस्वती और भारती। ‘इडा’ शब्द वैदिक कोष निघण्टु में अन्नवाची पठित है। अन्न भौतिक सम्पदा का सूचक है, क्योंकि रुपया-पैसा असली सम्पदा नहीं है। असली सम्पदा तो अन्न … Continue reading तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः हैमवर्चिः । देवता अग्निः । छन्दः शक्वरी । यदापिपेष मातरं’ पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्नेऽअनृणो भवाम्यर्हतौ पितरौ मया सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृङ्ख विपृचे स्थवि मा पाप्मना पृङ्ख ॥ -यजु० १९ । ११ ( यत् ) जो ( आ पिपेष ) चारों ओर से पीसा है, पीड़ित किया है ( मातरं ) माता को (पुत्रः ) मुझ पुत्र ने (प्रमुदितः ) प्रमुदित होकर ( धयन्) दूध पीते हुए, ( एतत् तद् ) यह वह ( अग्ने ) हे विद्वन् ! ( अनृणः भवामि ) अनृण हो रहा हूँ। अब बड़ा होकर ( मया ) मैंने (पितरौ ) माता-पिता को ( अहतौ ) पीड़ित नहीं किया है, [प्रत्युत उनकी … Continue reading माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें  रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः शुनःशेपः। देवता अग्निः। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् । यास्तेऽअग्ने सूर्ये रुच दिवसातुन्वन्ति रश्मिभिः। ताभिर्नोऽअद्य सर्वभी रुचे जनाय नस्कृधि॥ -यजु० १८ । ४६ ( याः ते ) जो तेरी (अग्ने ) हे अग्नि! ( सूर्ये रुचः१ ) सूर्य में कान्तियाँ हैं, जो ( रश्मिभिः ) किरणों से ( दिवम् आतन्वन्ति ) द्युलोक को विस्तीर्ण करती हैं, ( ताभिः सर्वाभिः ) उन सब कान्तियों से ( अद्य) आज (नः रुचे कृधि ) हमें कान्तिमान् कर दो, (जनायरुचे कृधि) राष्ट्र के अन्य सब जनों को भी कान्तिमान् कर दो। हे अग्नि! तेरी महिमा अपार है। तू पृथिवी पर पार्थिव अग्नि के रूप में विराजमान है। पृथिवी की सतह पर भी तेरी ज्वाला जल … Continue reading सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः देवा: । देवता प्रजापतिः । छन्दः स्वराट् शक्चरी । सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च में मोदश्च मे जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥ -यजु० १८।५ (सत्यं च मे ) मेरा सत्य ज्ञान ( श्रद्धा च मे ) मेरी श्रद्धा, ( जगत् च मे ) मेरा क्षेत्र, (धनंचमे ) मेरा धन, (विश्वं च मे ) मेरी विश्व के साथ ममता की भावना, ( महः च मे ) मेरा तेज, ( क्रीडा च मे ) मेरी क्रीडा, ( मोदः च मे ) मेरा मोद-प्रमोद, (जातं च मे … Continue reading मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः देवाः । देवता आत्मा। छन्दः शक्वरी । ऊर्क च मे सुनृता च मे पर्यश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे सपीतिश्च मे कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्रं च मऽऔद्भिद्यं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥ -यजु० १८।९ ( ऊ च मे ) मेरा बलप्राणप्रद अन्न, ( सूनृता च मे ) और मेरी रसीली वाणी, (पयःचमे) और मेरा दूध, ( रसः च मे ) और मेरा रस, (घृतं च मे ) और मेरा घृत, (मधुच मे) और मेरा मधु, ( सन्धिः च मे ) और मेरा सहभोज, (सपीतिः च मे ) और मेरा सहपान, ( कृषिः च मे ) और मेरी खेती, ( वृष्टिः च मे ) और मेरी वर्षा, … Continue reading मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना-रामनाथ विद्यालंकार

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना ऋषिः अत्रिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् । समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः ससुरभिर्मघवन्त्सस्वस्त्या। सं ब्रह्मणा देवकृतं यदस्ति सं देवानासुमतौ य॒ज्ञियानास्वाहा। -यजु० ८।१५ ( इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् राजन् ! आप ( नः ) हम प्रजाओं को ( मनसा ) मनोबल से और ( गोभिः) भूमि तथा गौओं से ( सं नेषि ) संयुक्त करते हो। ( मघवन् ) हे विद्याधनाधीश ! ( सूरिभिः ) विद्वानों से ( सं ) संयुक्त करते हो, ( स्वस्त्या ) स्वस्ति से (सं ) संयुक्त करते हो। ( सं ब्रह्मणा ) संयुक्त करते हो उस ज्ञान से ( यत् ) जो (ब्रह्मकृतम् अस्ति ) ईश्वरकृत तथा विद्वज्जनों से कृत है। ( सम्) संयुक्त हों हम (यज्ञियानां देवानां … Continue reading राजा से प्रजजनों की प्रार्थना-रामनाथ विद्यालंकार

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)