योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः देवश्रवाः । देवता यज्ञपतिः । छन्दः ब्राह्मी बृहती। आत्मने मे वर्चादा वर्चसे पवस्वौजसे मे वर्चेदा वर्चसे पवस्वायु मे वर्चीदा वर्चसे पवस्व विश्वभ्यो मे प्रजाभ्यो वर्चादसौं वर्चसे पवेथाम् ॥ -यजु० ७ । २८ | हे (वर्षोंदा:१) योगविद्या और ब्रह्मविद्या के दाता योगी विद्वन् ! आप ( मे आत्मने) मेरे आत्मा के लिए ( वर्चसे ) योगवर्चस और ब्रह्मवर्चस प्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों। हे (वर्चेदाः ) वर्चस्विता के दाता ! आप ( मे ओजसे ) मेरे आत्मबल के लिए ( वर्चसे ) योगबलप्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों । हे (वर्षोंदा:४) देहबल के दाता ! आप (मेआयुषे ) मेरे दीर्घायुष्य के लिए (वर्चसे ) शारीरिक बल प्रदानार्थ ( पवस्व ) … Continue reading योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार→
उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः विवस्वान्। देवता प्रजापतिः (परमेश्वरः) ।। छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।। यस्मन्न जातः परोऽअन्योऽअस्ति यऽविवेश भुव॑नानि विश्वा। प्रजापतिः प्रजया सरगुणस्त्रीणि ज्योतीष्ठषि सचते स षोड्शी॥ -यजु० ८ । ३६ | ( यस्मात् परः ) जिससे उत्कृष्ट ( अन्यः न जातः अस्ति) अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुआ है, ( यः ) जो (आविवेश ) प्रविष्ट है (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों में । वह ( प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर (प्रजया) अपनी प्रजा के साथ ( सं रराण:१) सम्यक् क्रीडा करता हुआ ( त्रीणि ज्योतींषि सचते ) अग्नि विद्युत्-सूर्य तथा मन-बुद्धि-आत्मा इन तीनों तीनों ज्योतियों में समवेत है। क्या तुम पूछते हो कि प्रजापति से बढ़कर कौन है ? परन्तु यदि तुम प्रजापति को सच्चे अर्थों में … Continue reading उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार→
अग्नि नामक जगदीश्वर की महिमा -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः पुरोधा: । देवता अग्निः। छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । अन्व॒ग्निरुषसमग्रमख्युदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः -यजु० ११ । १७ | ( अग्निः ) तेजस्वी अग्रनायक जगदीश्वर ( उषसाम् अग्रम् ) उषाओं के अग्रभाग को (अनु अख्यत् ) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। (प्रथमः जातवेदाः ) वही श्रेष्ठ, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशक जगदीश्वर ( अहानि ) दिनों को ( अनु-अख्यात् ) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। वही ( सूर्यस्य) सूर्य की ( पुरुत्रा) बहुत-सी ( रश्मीन्) रश्मियों को ( अनु अख्यत्) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। हे प्रभु तूने ही ( द्यावापृथिवी ) द्यु-लोक और पृथिवी-लोक को ( अनु आततन्थ) विस्तीर्ण किया है। रात्रि का निविड़ अन्धकार दूर हुआ है। उषा का अग्रभाग प्राची में झाँक रहा है। … Continue reading अग्नि नामक जगदीश्वर की महिमा -रामनाथ विद्यालंकार→
पर्यावरण शुद्ध रखें ऋषिः अगस्त्यः । देवता यज्ञः । छन्दः ब्राह्मी त्रिष्टुप् । द्यां मा लेखीरन्तरिक्षं मा हिंसीः पृथिव्या सम्भव ।। अयहि त्वा स्वर्धितिस्तेतिजानः प्रणिनाय महते सौभगाय । अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो विरोह सहस्त्रेवल्शा वि वयश्रुहेम।। -यजु० ५।४३ | हे मनुष्य! तू ( द्यां ) द्युलोक को ( मा लेखी:१) मत खुरच, मत विकृत कर, (अन्तरिक्षं) अन्तरिक्ष को (मा लेखीः ) मत विकृत कर। (पृथिव्या संभव ) पृथिवी के साथ अच्छे पर्यावरण में रह । ( अयं हि तेतिजानः स्वधितिः) यह तीक्ष्ण कुल्हाड़ा (महते सौभगाय ) महान् सौभाग्य के लिए। ( त्वा प्रणिनाय) तुझे प्रेरित कर रहा है। (अतः ) इसलिए ।। ( देव वनस्पते ) हे हरीभरी वनस्पति ! ( त्वं ) तू ( शतवल्शः४) सैकड़ों अंकुरों से युक्त … Continue reading पर्यावरण शुद्ध रखें -रामनाथ विद्यालंकार→
ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू ऋषिः अङ्गमः । देवता ब्राह्मण: । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् । ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमायसुधातुदक्षिणम्।। अस्मद्राता देवत्रा गच्छत प्रदातारमाविशत -यजु० ७ | ४६ मैं ( अद्य) आज ( ब्राह्मणं) ब्राह्मण गुरु को ( विदेयम् ) प्राप्त करूँ, (पितृमन्तं ) जो प्रशस्त पिता की सन्तान हो, (पैतृमत्यम् ) जो पितृजनों के अनुभवपूर्ण मतों से परिचित हो, ( ऋषिम् ) जो ऋषि हो, ( आर्षेयम् ) आर्ष पाठविधि पढ़ाने में कुशल हो, ( सुधातु-दक्षिणम्) उत्तम धर्मप्रचार की दक्षिणा लेनेवाला हो। आगे गुरु शिष्यों को कहता है (अस्मद्राताः५) हमसे विद्या दिये हुए आप लोग ( देवत्रा ) प्रजाजनों में (गच्छत ) जाओ, (प्रदातारम् ) जो समाज तुम्हें उपदेश देने का निमन्त्रण दे अथवा जो समाज या सङ्गठन तुम्हें … Continue reading ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू-रामनाथ विद्यालंकार→
हे जननायक! विक्रम दिखा ऋषिः अगस्त्यः । देवता विष्णुः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् । उरु विष्णो विक्रमस्वरु क्षयाय नस्कृधि। घृतं घृतयोने पिब प्रम॑ य॒ज्ञपतिं तिर स्वाहा। -यजु० ५। ३८ ( विष्णो) हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तू ( उरु ) बहुत अधिक (विक्रमस्व) विक्रम दिखा, ( उरु) बहुत अधिक ( क्षयाय ) निवास के लिए ( नः कृधि ) हमें कर, पात्र बना। (घृतयोने ) हे घृत के भण्डार ! ( घृतं पिब ) घृत पी, पिला। ( यज्ञपतिं ) यज्ञपति को ( प्र प्र तिर) प्रकृष्टरूप से बढ़ा। (स्वाहा ) एतदर्थ हम देय कर की आहुति देते हैं। | हे विष्णु ! हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तुम विक्रम दिखाओ। जब तक विक्रम नहीं दिखाओगे, तब तक रिपुदल तुम्हें अकर्मण्य, … Continue reading हे जननायक! विक्रम दिखा -रामनाथ विद्यालंकार→
अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । अग्नाग्निश्चरति प्रविष्टुऽऋषीणां पुत्रोऽअभिशस्तिपावा। स नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हुव्यसमप्रयुच्छन्त्स्वाहा ।। -यजु० ५।४ (अग्नौ ) यज्ञाग्नि में (अग्निः ) परमात्माग्नि ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुआ (चरति ) विचरता है। यज्ञाग्नि ( ऋषीणां पुत्रः ) ऋषियों का पुत्र है, ( अभिशस्तिपावा) निन्दाओं और शत्रुओं से बचानेवाला है। हे यजमान ! (न: स्योनः ) हमारे लिए सुखकारी (सः ) वह प्रसिद्ध तू ( सुयजा ) सुयज्ञ से (इह) यहाँ (सदं ) सदा ( देवेभ्यः ) वायु, जल आदि दिव्य पदार्थों को सुगन्धित करने के लिए अथवा विद्वानों के हितार्थ (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद किये ( स्वाहा ) स्वाहापूर्वक अग्नि में (हव्यं यज) हव्य का … Continue reading अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है-रामनाथ विद्यालंकार→
अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी पङ्किः । भर्वतं नः सर्मनस सचेतसावरपस मा यज्ञहिसिष्टुं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥ -यजु० ५। ३ हे यजमान-पुरोहित, गुरु-शिष्य तथा गृहस्थ पति-पत्नी ! तुम ( नः ) हमारे लिए (समनसौ ) मन से युक्त अर्थात् सावधान, ( सचेतसौ ) सज्ञान और ( अरेपसौ ) निर्दोष ( भवतं ) होवो। ( मा यज्ञं हिंसिष्टम् ) न यज्ञ की हिंसा करो ( मा यज्ञपतिं ) न यज्ञपति की। हे ( जातवेदसौ ) युगल वेदज्ञो! आप ( अद्य) आज (नः ) हमारे लिए (शिवौ भवतं ) शिव होवो। | यजमान एवं पुरोहित, गुरु एवं शिष्य तथा पति एवं पत्नी अग्निहोत्र-यज्ञ, शिक्षा-यज्ञ और गृहस्थ-यज्ञ को चलाते हैं। … Continue reading अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार→