निषेध
यह नियम बहुत उदार प्रतीत होता है। पर यह पूरी तरह ऐसा है नहीं। संख्या, सगोत्रता, सजातीयता, मजहब, पद-प्रतिष्ठा इत्यादि के आधार पर बहुत से प्रतिबंध हैं। उदाहरण के लिए, एक आदमी एक बार में चार से ज्यादा औरतों से शादी नहीं कर सकता (कुरान 4/3)-गुलाम रखैलों की संख्या के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। साथ ही अपनी बीबी के पिता की बहन से अथवा उसकी मां की बहन से भी कोई शादी नहीं कर सकता (3228-3272)। अपने दूधभाई की लड़की के साथ भी कोई शादी नहीं कर सकता और अगर किसी की बीबी जिन्दा है और उसने तलाक नहीं लिया है, तो उस बीवी की बहन से भी शादी नहीं हो सकती (3412-3413)।
गैर-मुस्लिम से शादी करना भी मना है (कुरान 2/220-221)। बाद में इस प्रतिबंध में ढील दे दी गयी और एक मुसलमान मरद किसी यहूदी या ईसाई औरत से शादी कर सकता था (कुरान 5/5)। किन्तु एक मुस्लिम औरत किसी भी हालत में किसी गैर-मुस्लिम से शादी नहीं कर सकती।
अगर दोनों पक्ष पद और हैसियत (कफाह) में समान नहीं है तो भी शादी की इजाजत नहीं है, यद्यपि पद की परिभाषा अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरह से की गई है। सामान्यतः एक अरब को किसी गैर-अरब से ऊंचा माना जाता है। अरबों में पैगम्बर के रिश्तेदार सबसे ऊंचे माने जाते हैं। जिस व्यक्ति ने कुरान का कोई हिस्सा याद कर लिया हो उसे खुद मुहम्मद ने उपयुक्त वर माना था। एक औरत उनके पास आई और उसने अपने आप को उन्हें सौंप दिया। उन्होंने “सिर से पैर तक उस पर एक नजर डाली ….. पर कोई फैसला“ नहीं किया। एक साथी जो वहां खड़ा था, बोला-”रसूल-अल्लाह ! अगर आपको इसकी जरूरत नहीं है तो मुझसे इसकी शादी कर दीजिए।“ पर उस शख्स के पास कुछ भी नहीं था। दहेज में देने के लिए लोहे की अंगूठी तक नहीं। अतः वह निराश हो चला था कि मुहम्मद ने उससे पूछा कि क्या तुम कुरान की कुछ आयतें जानते हो और उन्हें बोल सकते हो ? उस आदमी ने हां कहा तब मुहम्मद ने निर्णय किया और वे बोले-”चलो, कुरान का जो हिस्सा तुम जानते हो, उसके बदले में मैंने इसे तुम्हें शादी के लिए दिया“ (3316)।
किसी को (एक औरत के लिए) अपने भाई से बढ़ कर बोली नहीं लगानी चाहिए। ”एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। इसलिए किसी मुसलमान के लिए अपने भाई से बढ़कर बोली लगाना अनुचित है, और अगर उसके भाई ने कोई इकरार कर लिया हो, तो जब तक वह उसे तोड़ न दे तब तक (दूसरे मुसलमान को) वह इकरार नहीं करना चाहिए“ (3294)।
शिगार शादी भी मना है (3295-3301)।1 यह वह शादी है जिसमें यह व्यवस्था है कि तुम मुझे अपनी बेटी या बहन ब्याहो, बदले में मैं तुमसे अपनी बेटी या बहन ब्याह दूंगा।
जब कोई तीर्थ-यात्रा का आनुष्ठानिक पहनावा पहन ले, तब उसे शादी नहीं करनी चाहिए। पैगम्बर का हवाला देते हुए उस्मान बिन अफ्फान कहते हैं-”एक मुहरिम को न तो शादी करनी चाहिए और न ही शादी का पैगाम भेजना चाहिए“ (3281)। लेकिन यह मुद्दा विवादस्पद है। क्योंकि खुद मुहम्मद ने ”मैमूना से उस वक्त शादी की थी जब वे एक मुहरिम थे“ (3284)।
कोई व्यक्ति अपनी तलाकशुदा बीबी से तब तक दोबारा शादी नहीं कर सकता, जब तक कि वह औरत किसी दूसरे मर्द से शादी न कर ले और नया पति उसके साथ मैथुन करके उसे तलाक न दे चुका हो (3354-3356)। एक तलाकशुदा औरत ने शादी कर ली। फिर उसने अपने पुराने पति के पास वापस जाने का विचार किया। इसके लिए उसने पैगम्बर की इजाजत चाही और पैगम्बर को बतलाया कि उसके नए पति के पास जो कुछ है वह ”किसी वस्त्र की किनारी की तरह है“ (यानी वह यौनदृष्टि से कमजोर है)। पैगम्बर ”हंसे“ पर उन्होंने इजाज़त नहीं दी। उन्होंने उससे कहा-”तुम ऐसा तब तक नहीं कर सकतीं जब तक कि तुम उसकी (नये पति की) मिठास का मजा न ले लो और वह तुम्हारी मिठास न चख ले“ (3354)। 2
author : ram swarup