मांसाहारी साईं

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आज  अवतारवादी  विचारधारा में विश्वास रखने वाले हिन्दू भाइयों  के मध्य एक नए भगवान् प्रसिद्धि की चरम सीमा को छु रहेहैं। इनके ध्यान से, इनमें श्रध्दा रखने पर तत्कालिक लाभ प्राप्त होने की हसरत इनके भक्त जनता तक पहुंचा रहे हैं . बड़े बड़े उद्योग पति, राजनैतिज्ञ, नाटक मंच की हस्तियों को इनके दरबार में सिर झुकाते हुए देखा जा सकता है। आने वाली चढावे कातो हिसाब ही क्या?  तात्कालिक  लाभ होने की हसरत और लुभावने ख्वाब लोगों की भीड़ को इन की तरफ खींच रही है। आलम येहै की पौराणिक हिन्दुओं के  मंदिरों में रखी मूर्तियों की जगह इस नए भगवान् ने ले ली है। इस नवीन उत्त्पन्न  हुए भगवान् के बारे में पूर्ण जानकारी भी उपलब्ध नहीं है की ये   कौन थे और कहाँ से अवतरित हो गए? शिरडी में पहुँचाने से पूर्व ये कहाँ थे शिरडी कहाँ से पहुंचे ये प्रश्न आज भी उलझे हुए हैं। हाव भाव, वेशभूषा, आचरण , नाम आदि  से मुस्लिम प्रतीत होने पर पर भी इनके  भक्त इस तथ्य को मानने से परहेज करते हैं। इसका एक कारण तो ये ही प्रतीत होता है की यदी ये कारण मान लिया जाये तो हिन्दुओं  ,की भावना आहात हो जायेगी और फिर इनके यहाँ आएगा कौन ? क्यूँकी इनको मानने वालों वाले हिन्दू ही हें बड़ी ही कष्टदायक बात है की इनकी तुलना आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और योगी राज श्री कृष्ण से की जा रही है। मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण करुणा और ज्ञान  के अथाह भण्डार थे। अपना पूरा जीवन इन्होने जीव मात्र के कल्याण के लिएसमर्पित कर दिया।कहाँ मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण और कहाँ ये चिलम पीने और मांस खाने वाला मुसलमान। और ज्ञान के नाम पर मात्र शुन्य |
इनके अनुयायियों के गीता के प्रक्षिप्त श्लोक ” यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः अभुत्थानम धर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम-  जब जब धर्म की हानी और अधर्म की वृद्धी होती है तब तब में धर्म की स्थापना के लिए जन्म लेता हूँ” का सहारा इनका अवतार वाद को सिद्ध  करने के लिए प्रयोग किया है |
धर्म की रक्षा के लिए इन्हें अवतरित माना जाता है। आइये विचार करते हैं की धर्म क्या है। युद्धिष्टिर  को धर्म के लक्षण बताते हुए व्यासदेव कहते हें  कि मनुष्य जिसे अपने प्रतिकूल समझे वैसा आचरण किसी के प्रति न करे।

श्रुयातम धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम
आत्मनः प्रतिकुलानी परेशां न समाचरेत
सर्वत्र प्रतिष्ठित इस  इस तत्व की व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं की ” मनुष्य ऐसा व्यवहार औरों के साथ न करे जो स्वयं अपने को प्रतिकूल या दुखद जान पड़े। यही सब धर्म और नीतियों का सार है। परोपकार ही धर्म है।

न तत्परस्य सन्द्ध्यात प्रतिकुलम यदात्मनह
अश संक्षेपतो धर्मः कामदन्य: प्रवर्तते।  महाभारत अनुशाशन पर्व
जब परोपकार को ही धर्म   माना गया है तो फिर किसी के प्राण लेना कैसे धर्म हो सकता है। और इन साईं तो मांसाहार करते थे और किसी के प्राण लिए बिना मांस की प्राप्ती नहीं होती फिर ये कैसे किस प्रकार धर्म की स्थापना की बात करते हैं।

साईं पूर्णतया करुणा  के भाव से विहीन  ही थे। वह मूक बधिर असहाय प्राणियों को अपनी रक्त पिपासा का ग्रास बनाते रहे।इसके अनेक उद्धरण हमें साईं संसथान द्वारा प्रकाशित साईं सत्चरित्र में देखने को मिल जाते हैं जहाँ ये तथाकथित ईश्वर मांसभक्षण करते और बली देते हुए बड़ी आसानी  से देखे जा सकते हैं :
“कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांस मिश्रित चावल पकाते थे”
साईं सत्चरित्र अध्याय – ३८ पृष्ट  – १४०
“फकीरों के साथ वो आमिष और मछली का सेवन भी कर लेते थे। कुत्ते भी उनके पात्र में मुंह दाल कर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे “
साईं सत्चरित्र अध्याय – ७  पृष्ट – २६
“मस्जिद में एक बकरा बली  के लिए लाया गया। वह अत्यंत दुर्बल और मरने वाला था। ने बाबा ने उनसे चाक़ू लाकर बकरा काटने को कहा।“
साईं सत्चरित्र अध्याय – २३  पृष्ट – ८४
बाबा ने काकासाहेब से कहा कि -” में स्वयं ही बली चडाने का कार्य करूँगा “
साईं सत्चरित्र अध्याय – २३  पृष्ट – ८४

महर्षी दयानंद सरस्वती  तो  दूसरों के दुखो और हानि को ना समझने वाले मनुष्य को मनुष्य की संज्ञा से ही विमुख कर देते हैं।महर्षी कहते हैं की दूसरों के सुख दुःख  हानि लाभ को समझना मनुष्य धर्म है, महर्षि इस  में बारे में स्वमंताव्यामंताव्यप्रकाश में हैं लिखते हैं की  “मनुष्य उसी को कहना की मननशील हो कर स्वात्मवत अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे।अन्यायकारी  से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे”। इतना ही नहीं अपितु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वो महा अनाथ निर्बल और गुण रहित  क्यूँ ना हो उनकी रक्षा उन्नति और प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथमहाबलवान और गुणवान भी हो तथापी उसका नाश अवनति और अपिरयाचरण सदा किया करे अर्थात जहाँ तक हो सके वहाँ तक अत्याचारियो  के बल की हानि और न्याय्कारियों के बल की उन्नति सदा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुणदुःख प्राप्त हो परन्तु इस मनुष्य रूप धर्म से पृथक कभी न होवे।

स्वमंताव्यामंताव्यप्रकाशः  पृष्ठ – ७२८

महर्षी  लिखते हैं कि  पशुओं के गले  छुरों   से काटकर जो मनुष्य अपना पेट भर  सब संसार की हानि करते हें क्या संसार  मेंउनसे भी अधिक कोई कोई विश्वासघाती अनुपकारी दुःख देने वाले और पापी जन होंगे ?
ऋषी जीव रक्षा के लिए यजुर्वेद में उल्लेखित परमात्मा की आज्ञा उद्धरित करते हैं की – ( अघन्या यज्मानान्स्य पशुं पाहि ) हे पुरुषतू इसं पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात सब के सुख देने वाली जानो के संबंधी पशुओं की रक्षा कर जिस से तेरी भीरक्षा  होवे और इसीलिए ब्रह्मा से लेकर आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते हैं और अब भीसमझते हैं।
मनु भी मांसाहार को पाप घोषित करते हुए आठ प्रकार के लोगों को  मांसाहार के प्रति पाक के भागी घोषित करते हैं
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति द्याताका . मनु ५/५१
अर्थ – अनुमन्ता = मारने की आज्ञा देने, मान के काटने , पशु आदि के मारने उन को मारने के लिए लेनें और बेचने मांस के पकाने परोसने और खाने वाले आठ आठ मनुष्य घटक हिंसक अर्थात ये सब पापकारी हें
फिर भी इन के अनुयायी इनको ईश्वर का अवतार घोषित करने का भरकर प्रयास करने में लगे हुए हैं। जहाँ हमारे धर्म ग्रन्थ मांसाहार आदि कार्य करने वाली को पापी घोषित करते हैं, अनेकों स्थानों पर प्राणी मात्र की रक्षा करने की आज्ञा देते हैं वही ये तथाकथित ईश्वर इस सभी वेदोक्त सिध्धान्तों के विरुध्ध मांसाहार जैसा पाप का आचरण करते हैं।ये  तथाकथित ईश्वर  अपने लिए स्वयं मांस का निर्माण करने में असमर्थ था और अपनी मांस खाने की लालसा को निरीह प्राणियों के जीवन लीला समाप्तकरके पूरा किया करता था।यह शिष्य घोषित ईश्वर  जो हमेशा “अल्लाह  मालिक ” का जाप करता था  उन निरीह मूक प्राणियों में  दया भाव को न देख सका जिन्हें इन्होने तथा उनकी आज्ञा अनुसार इनके  शिष्यों ने रक्त पिपासा का ग्रास बना लिया । क्या ये प्राणी उस के बच्चे नहीं थे ? ईश्वर को पिता की संज्ञा  दी जाती है  क्या कोई पिता अपने बच्चों पर इतनी निर्दयी हो सकता है को की वो उसके उत्तम कृति मनुष्य को दुसरे प्राणियों को मारने की आज्ञा दे दे ? प्राय यह देखा जाता है   कि  उत्तम संतान अपने से छोटे और असहाय का ध्यान रखते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी इसी नियम का पालनकरता है  और मनुष्य के लिए भोजन पैदा करने से पहले वह पशुओं के लिए भोजन की व्यवस्था करता है।मनुष्य को अपने भोजन की व्यवस्था करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है।अनाज उगाने के लिए भूमी का चयन करना पड़ता है फिर उसे खेती योग्य बनाना पड़ता है |खेत को जोतकर पर्याप्त मात्र में उर्वरक और पाने देकर अनाज उगाया जाता है जबकी पशुओं को भोजन पाने  के लिए ये सब करने की आवश्यकता नहीं  होती है उनके लिए ईश्वर खुद ही खाने की व्यवस्था करता है यहाँ तक की मनुष्यअपने लिए जिस अन्न को उगाता है उसमें भी ईश्वर पशुओं का भाग पहले  ही निर्धारितकर देता है और पशुओं ने लिए खरपतवार स्वयं पैदा हो जाती है उसके लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता।जो ईश्वर उन प्राणियों के प्रति इतना दयालु है उसी ईश्वर का यह शिष्य घोषित ईश्वर उन्हीं  प्राणियों को अपनी भूख  शांत करने का साधन बनाता रहा।

हमें यह सोचने की  आवश्यकता  है कि किस तरह हम वैदिक सिद्धांतों  से पदच्युत हो रहे हैं।वेदोक्त पाप का आचरण करनेवाले व्यक्ती को ईश्वर होने की घोषणा कर देना, ईश्वर की भक्ती त्याग कर व्यक्ती विशेष की भक्ती करना अपने महापुरुषों की तुलना एक चिलम पीन वाले , मांस खाने वाले व्यक्ती से करना क्या हमें शोभा देता है?
हम ऋषी की संताने किस कारणवश अपने वैदिक ज्ञान को तज कर क्यूँ एक विधर्मी  को अपना ईश्वर मानने पर विवश हो गयीहैं ? क्या शीघ्र लाभ की आशा के प्रलोभन  ऊपर इस कदर हावी हो गयी हैं की हमारी विचार करने की शक्ती उसके आगे दुर्बल होगयी है ?

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