वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।

वेदः स्मृतिः सदाचारः वेद, स्मृति , सत्पुरूषों का आचार च और स्वस्य आत्मनः प्रियम्, अपने आत्मा के ज्ञान से अविरूद्ध प्रियाचरण एतत् चतुर्विधं धर्मस्य लक्षणम ये चार धर्म के लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं से धर्म लक्षित होता है ।

(स० प्र० दशम समु०)

साक्षात् सुस्पष्ट या प्रत्यक्ष कराने वाले ।

‘‘श्रुंति – वेद, स्मृति – वेदानुकूल आप्तोक्त, मनुस्मृत्यादि शास्त्र सत्पुरूषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वर प्रतिपादित कर्म और अपने आत्मा में प्रिय अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है जैसा कि सत्यभाषण, ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं से धर्माधर्म का निश्चय होता है । जो पक्षपातरहित न्याय सत्य का ग्रहण असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है, उसी का नाम धर्म और इस के विपरीत जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण रूप कर्म है, उसी को अधर्म कहते हैं ।’’

(स० प्र० तृतीय समु०)

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