हम सब बचपन से एक तत्व के विषय में बहुत कुछ सुनते आए हैं, पर आज भी ध्यान से देखें तो उस तत्व के विषय में हमारी प्रवृत्ति वैसी नहीं बन पाई है, जैसी की होनी चाहिए। कारण, हमारी स्थिति श्रवण तक रही-
न श्रवणमात्रात् तत् सिद्धिः।
सिर्फ सुनने मात्र से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। मान लीजिए- हम रुग्ण हो गए। किसी मित्र ने बताया कि अमुक दवा ले लीजिए, तो क्या हम सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाएँगे? नहीं, हमें बाजार से दवा लानी पड़ेगी, यथोचित समय पर उसका सेवन करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर सम्भावना है कि हम स्वस्थ हो पाएँ। ठीक यही बात उस एक तत्व के विषय में भी घटती है। उस तत्व को हमें व्यक्तिगत स्तर पर, अनुभूति के स्तर पर लाना है, तभी हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। वह अद्भुत त व है- ईश्वर।
ईश्वर को समझने में सहायक उसका सबसे सरलतम गुण है- सर्वव्यापकता। किसी वस्तु को हम उसके गुणों से ही जानते हैं। इसी एक गुण को समझ लेने से उसके कई प्रमुख गुण भली प्रकार से समझ में आ जाते हैं।
ईश्वर सर्वज्ञ है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,
ईश्वर सर्वान्तर्यामी है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,
ईश्वर सर्वरक्षक है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,
वेद कहता है- स पर्यगात्- वह पहले से वहाँ पहुँचा हुआ है।
त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि– सब तरफ उसके मुख हैं।
विश्वतो चक्षुः– सब जगह उसकी आँखें हैं।
अर्थात् वह ईश्वर इस जगत् के कण-कण में विद्यमान है। ‘‘प्रभु सब में, सब कुछ है प्रभु में।’’ यूँ समझें कि सारा संसार ईश्वर में डूबा हुआ है। हर दिशा में, हर सिम्त वह है-
जिधर देखता हूँ, खुदा ही खुदा है,
खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।
जब अव्वल और आखिर खुदा ही खुदा है,
तो अब भी वही कौन उसके सिवा है।
एक क्षण के लिए विचार करें कि माँ-बाप, भाई-बहन, सखा-मित्र आदि तब तक ही हमारी रक्षा कर पाते हैं, जब तक वे हमारे साथ हैं, हमारे साथ उपस्थित हैं। अपनी अनुपस्थिति में वे हमारा सहयोग नहीं कर पाते हैं, उनकी विवशता होती है। ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर देखें, तो पता चलेगा कि वह हर क्षण हमारे पास है, हम उसकी उपस्थिति में उपस्थित हैं। उसकी हाजिरी में हाजिर हैं।
हम मुश्किल परिस्थिति में किससे सहायता माँगते हैं- माँ-बाप से, मित्रों से- जिनकी देने की शक्ति व सीमा सीमित है, जो दोहरे मापदण्ड वाले हैं। आज-इस क्षण अच्छे तो अगले ही क्षण बुरे, जिनके व्यवहार का हम अनुमान ही नहीं लगा पाते। दुनिया में सबसे अधिक अपूर्वानुमेय व्यवहार किसी प्राणी का है, तो वह इस छः फूट के मानव नाम के प्राणी का है। जानवरों का व्यवहार भी अधिकतम सीमा तक निर्धारित रहता है। कुत्ते को रोटी डालोगे तो वह स्नेह से पूँछ हिलाएगा, डण्डा दिखाओगे तो डरेगा, भौंकेगा, पर इस मनुष्य नामक प्राणी का तो पता ही नहीं चलता, जाने कब कौन-से पत्ते फेंक दे? परन्तु ईश्वर हमेशा एकरस है, उसके नियम अटल हैं, वह पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक व्यवहार करता है, हर देश, काल व परिस्थिति में एक-सा ही रहता है। वस्तुतः वह ईश्वर ही हमारी मैत्री के सर्वाधिक लायक है।
यूँ ही काल की दृष्टि से देखें तो इस लोक के सम्बन्ध- माता-पिता, भाई-बन्धु, गुरुजन- सभी इस जीवन तक ही सीमित हैं। हम समाप्त तो सब सम्बन्ध समाप्त, पर ईश्वर से हमारा सम्बन्ध तो अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस शरीर के छूटने के बाद भी- हमेशा। लोक में भी जो वस्तुएँ या सम्बन्ध या मैत्री लम्बे काल तक चलती हैं, उनको हम अच्छा समझते हैं, मूल्यवान समझते हैं। ओल्ड इज गोल्ड मानते हैं। इस दृष्टि से भी ईश्वर हमारी मैत्री के मापदण्डों पर पूर्णतया खरा उतरता है, इसलिए हमें उससे मित्रता बढ़ाने व बनाए रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
हमें समस्या कहाँ आती है? हम लोक के मित्रों व सम्बन्धों को तो समय देते हैं, पर ईश्वर के लिए समय निकालना हमें मुश्किल लगता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमें ईश्वर के मह व का पता नहीं, इसलिए सन्ध्या व ध्यान के लिए समय निकालना अत्यन्त कठिन लगता है। रुचि नहीं बनती है। हमें अपने पिता जी की १-२ करोड़ की संपत्ति नजर आती है। मित्रों की योग्यता, धन-वैभव, गुरुजनों का ज्ञान नजर आता है, परन्तु ईश्वर का परम ऐश्वर्य हमारी आँखों से प्रायः ओझल ही रहता है। यह विचार कर लें कि जो पिताओं का भी पिता है, गुरुओं का भी गुरु है, माताओं की भी माता है- वह कितना मह वपूर्ण, विशिष्ट, वरिष्ठ सहयोगी सिद्ध होगा।
दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें- अगर हम जरा-सा कुछ पिता जी के खिलाफ गए तो पिता जी जायदाद से बेदखल कर देंगे। कक्षा में अध्यापक की आज्ञा का उल्लंघन किया तो वे कक्षा से बाहर जाने को कह देंगे। संस्था के अधिकारी रुष्ठ हो गए तो वे संस्था से बाहर निकाल देंगे। एक क्षण के लिए विचार करें कि क्या ईश्वर कभी हमें अपने दायरे से बाहर निकाल सकता है? कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, क्योंकि वह सर्वव्यापक है, हर स्थान पर है। यहाँ से इस लोक से निकालेगा, तो दूसरे लोक में रख लेगा, लेकिन हमेशा अपने सान्निध्य में, अपने पास हमें रखेगा। क्या इस ईश्वरीय प्रेम के तुल्य कोई अन्य सांसारिक व्यक्ति का प्रेम हो सकता है? विचार करेंगे तो स्वयमेव ही उस परम सत्ता के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, समर्पण व प्रेम का भाव उद्भूत हो जाएगा।
हम विकट-से-विकट परिस्थिति में डगमगाएँगे नहीं। एक बार समुद्र में कोई नवविवाहित जोड़ा नाव में बैठ कर जा रहा था। अन्य लोग भी नाव में सवार हो कर जा रहे थे। अचानक तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। सभी लोग चिल्लाने लगे, परन्तु वह युवक प्रेम से ईश्वर का ध्यान करने लगा, ताकि अपने मन को विचलित होने से बचाकर अपनी सुरक्षा का समाधान ढूंढ सके। उसकी पत्नी ने पूछा कि सब लोग हाहाकार मचा रहे हैं और तुम ध्यान कर रहे हो? क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? तो उसने तत्काल पिस्तौल निकाल कर पत्नी की कनपटी पर रख दी। पत्नी मुस्कुराने लगी। युवक ने पूछा- क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? उसने कहा- नहीं। युवक ने पूछा- क्यों? पत्नी बोली- क्योंकि मैं जानती हूँ कि पिस्तौल मेरे प्रियतम के हाथ में है, वह मेरा नुकसान कर ही नहीं सकता। वह युवक बोला- ठीक इसी प्रकार यह नाव भी मेरे परमप्रिय मित्र, सखा ईश्वर के हाथ में है, जो उसको अभीष्ट मानकर करेगा, वही सुझाये हुए उपायों के भय से रहित होगा। यह विश्वास तभी बनता है, जब हम ईश्वर की सत्ता को सर्वव्यापक समझ लेते हैं-
आ गया तेरी शरण जब तो मुझे अब भय कहाँ?
मैं तेरा, किश्ती तेरी, साहिल तेरा, दरिया तेरा।
हमारी कमी, न्यूनता यहाँ रह जाती है, हम मानते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर ईश्वर की अनुभूति नहीं रख पाते हैं। यूँ कहें कि थ्योरी की परीक्षा में तो सफल हो जाते हैं पर प्रैक्टिकल की परीक्षा में या तो उपस्थित ही नहीं होते या होते हैं तो अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। हमें दोनों परीक्षाओं में पास होना है।
इसके लिए आवश्यक है कि जीवन जीते हुए, दिनचर्या करते हुए, हम अपने परम मित्र की याद बनाए रखें। हमें हर क्षण महसूस हो कि हमारा परमप्रिय मित्र साथ है-
नहीं कहता हूँ, दुनिया से जुदा हो।
मगर हर काम में यादे खुदा हो।।
हम जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति का चिन्तन करते हैं, उससे अनुराग हो ही जाता है या यूँ कहें कि जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति से अनुराग होता है, उस-उस का चिन्तन करने से हमें सुख मिलता है, आनन्द मिलता है, तो क्यों न उस परम आनन्दमय, सुख के भण्डार हमारे परम मित्र का चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते चिन्तन किया जाए, उसको स्मरण में रखा जाए। इसको करने से दूसरा लाभ यह होगा कि हम गलत, बुरे कर्मों को करने से बच जाएँगे। जैसे अगर ट्रैफिक पुलिस वाला चौक में खड़ा हो तो हम लाल बत्ती का उल्लंघन नहीं करते हैं, हमें डर, भय होता है- चालान काट दिए जाने का। ठीक उसी प्रकार हम दिनचर्या में चलते हुए भी नियमों को नहीं तोड़ेंगे, क्योंकि हमारा ट्रैफिक पुलिस वाला मित्र तो हर क्षण ड्यूटी पर तैनात है, कभी भी कहीं भी हमें अकेला नहीं छोड़ता। हाँ, हम उसे समझने महसूस करने में नाकाबिल साबित होते हैं-
दिलबर तेरा तेरे आगे खड़ा है,
मगर नुक्स तेरी नजर में पड़ा है।
बचपन से लेकर आज तक कई मित्र बनाए, कई छोड़े, कई मिले, कई बिछुड़े, आज से एक उसकी मैत्री को बनाने में लगें, जो न केवल मित्रता-दिवस पर हमें याद आए, परन्तु हमेशा के लिए हमारे साथ आत्मसात् हो जाए। हम अपने पक्ष को उस मैत्री के लिए योग्य सिद्ध करें, तभी हम इस मित्रता को सही ढंग से, प्रेम से, कृतज्ञता से निभा पाने में सफल हो पाएँगे।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर
jidher dekhta hoon udhar too hi too hai…….ishwar ke niyamon ka paalan karna hi uski upasna hai ….parmatma hame ander se prerna karta hai….. awwal aur aakhir khuda hi khuda hai….hamari nazar ka hi qasoor hai…..jo na dekh payen….aapka lekh parh kar sukhad anubhooti ho rahi hai……….