[विशेष टिप्पणीः-सम्वत् १९२६ (सन् १८६९) का महर्षि का काशी शास्त्रार्थ नवयुग की आहट था। श्रद्धेय लक्ष्मण जी लिखित ऋषि जीवन का अनुवाद तथा सम्पादन करते हुए विनीत तत्कालीन कई पत्रों तथा पुराने स्रोतों के प्रमाणों से युक्त अनेक टिप्पणियाँ देकर गवेषकों, लेखकों व विद्वानों के लाभार्थ पर्याप्त नई जानकारी दी है। ऋषि के विरोधियों तथा अन्य मतावलम्बियों के शास्त्रार्थ विषयक विचार भी ग्रन्थ में उद्धृत किये गये हैं।
उस ग्रन्थ पर कार्य करते समय भरसक प्रयत्न व भागदौड़ करने पर भी तब हमें ‘आर्य दर्पण’ मासिक का वह अंक न मिल सका जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था। मेरठ के ऋषि भक्त धर्मपाल के हाथ आर्य दर्पण के कई महत्वपूर्ण अंक लगे परन्तु फरवरी सन् १८८० का वह अंक उन्हें न मिला जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था। सौभाग्य से परोपकारिणी सभा के पुरुषार्थी आर्यवीर श्री राहुल जी आर्य, अकोला ने यह ऐतिहासिक अंक भी खोजकर हमें तृप्त कर दिया है। ‘आर्य दर्पण’ में प्रकाशित ‘शास्त्रार्थ काशी’ आगे दिया जाता है। लक्ष्मण जी के ग्रन्थ के साथ मिलान करके पढ़ने से पाठकों को विशेष लाभ होगा। मूल अंक अब सभा की सम्प्पति है। लक्ष्मण जी के ग्रन्थ में अत्यधिक पूरक सामग्री दी गई है। पाठक उसे भी अवश्य देखें।]
शास्त्रार्थ काशी जो सम्वत् १९२६ में स्वामी दयानन्द सरस्वती और काशी के पण्डितों के बीच आनन्द बाग में हुआ था।
एक दयानन्द सरस्वती नाम संन्यासी दिगम्बर गंगा के तीर विचरते रहते हैं जो सत् पुरुष और सत्य शास्त्रों के वेत्ता हैं। उन्होंने सम्पूर्ण ऋग्वेद आदि का विचार किया है सो ऐसा सत्य शास्त्रों को देख निश्चय करके कहते हैं कि पाषाणादि मूर्ति पूजन, शैवशाक्त, गणपत और वैष्णव आदि सम्प्रदायों और रुद्राक्ष, तुलसी माला, त्रिपुंड्रादि धारण का विधान कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे ये सब मिथ्या ही हैं। कदापि इनका आचरण न करना चाहिये क्योंकि वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरण से बड़ा पाप होता है। ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है।१
इस हेतु से उक्त स्वामी जी हरिद्वार से लेकर सर्वत्र इसका खण्ड़न करते हुए काशी में आकर दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्द बाग में स्थित हुए। उनके आने की धूम मची। बहुत से पण्डितों ने वेदों के पुस्तकों में विचार करना आरम्भ किया परन्तु पाषाणादि मूर्तिपूजा का विधान कहीं भी किसी को न मिला। बहुधा करके इसके पूजन में आग्रह बहुतों को है। इससे काशीराज महाराजा ने बहुत से पण्डितों को बुलाकर पूछा कि इस विषय में क्या करना चाहिये। तब सब ने ऐसा निश्चय करके कहा कि किसी प्रकार से दयानन्द स्वामी के साथ शास्त्रार्थ करके बहुकाल से प्रवित्त आचार को जैसे स्थापना हो सके करना चाहिये। निदान कार्तिक शुद्धि १२ सं. १९२६ मंगलवार को महाराजा काशी नरेश बहुत से पण्डितों को साथ लेकर जब स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के हेतु आए तब दयानन्द स्वामी जी ने महाराजा से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक ले आए हैं वा नहीं?
तब महाराजा ने कहा कि वेद सम्पूर्ण पण्डितों को कण्ठस्थ हैं। पुस्तकों का क्या प्रयोजन है?२ तब दयानन्द सरस्वती ने कहा कि पुस्तकों के बिना पूर्वापर प्रकरण का विचार ठीक-ठीक नहीं हो सकता। भला पुस्तक तो नहीं लाए? तो नहीं सही परन्तु किस विषय पर विचार होगा?
तब पण्डितों ने कहा कि तुम मूर्तिपूजा का खण्डन करते हो, हम लोग उसका मण्डन करेंगे। पुनः स्वामी जी ने कहा कि जो कोई आप लोगों में मुख्य हो वही एक पण्डित मुझसे संवाद करे।३ पण्डित रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने भी यह नियम किया कि स्वामी जी से एक-एक पण्डित विचार करे।
सबसे पहिले ताराचरण नैयायिक स्वामी जी से विचार के हेतु सन्मुख प्रवृत्त हुए।
स्वामी जी ने उनसे पूछा कि आप वेदों का प्रमाण मानते हैं वा नहीं?
उन्होंने उत्तर दिया कि जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सब को वेदों का प्रमाण ही है।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहीं वेदों में पाषाण आदि मूर्तियों के पूजन का प्रमाण है वा नहीं, यदि है तो दिखाइये और जो न हो तो कहिये कि नहीं है।
तब पं. ताराचरण ने कहा कि वेदों में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदों का ही प्रमाण मानता है औरों का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिये?४
स्वामी जी ने कहा कि औरों का विचार पीछे होगा। वेदों का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पहिले ही करना चाहिये क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मृति आदि भी वेद मूलक हैं इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।
पं. ताराचरण ने कहा कि मनुस्मृति का वेदों में कहाँ मूल है? स्वामी जी ने कहा कि जो-जो मनु जी ने कहा है सो-सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।
विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि रचना की अनुपत्ति होने से अनुमान प्रतिपाद्य प्रधान जगत् का कारण नहीं। व्यास जी के इस सूत्र का वेदों में क्या मूल है।५
इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह प्रकरण से भिन्न बात है। इस पर विचार करना न चाहिये।६
फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि यदि तुम जानते हो तो अवश्य कहो। इस पर स्वामी जी ने यह समझकर कि प्रकरणान्तर में वार्ता जारी रहेगी इससे न कहा और कह दिया कि जो कदाचित् किसी को कण्ठ न हो तो पुस्तक देखकर कहा जा सकता है।
तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो कण्ठस्थ नहीं है तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों उद्यत हुए।
इस पर स्वामी जी ने कहा क्या आपको सब कण्ठाग्र है?
विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि हाँ हमको सब कण्ठस्थ है।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहिये धर्म का क्या स्वरूप है?
विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो वेद प्रतिपाद्य फल सहित अर्थ है वहीं धर्म कहलाता है।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह आपकी संस्कृत है। इसका क्या प्रमाण है। श्रुति वा स्मृति से कहिये।७
विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो चोदना लक्षण अर्थ है सो धर्म कहलाता है। यह जैमिनि का सूत्र है।
स्वामी जी ने कहा कि यह तो सूत्र है, यहाँ श्रुति वा स्मृति को कण्ठ से क्यों नहीं कहते? और चोदना नाम प्रेरणा का है वहाँ भी श्रुति वा स्मृति कहना चाहिये जहाँ प्रेरणा होती है।
जब इसमें विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा तब स्वामी जी ने कहा कि अच्छा आपने जो धर्म का स्वरूप तो न कहा परन्तु धर्म के कितने लक्षण हैं कहिये।
विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि धर्म का एक ही लक्षण है।
स्वामी जी ने कहा कि मनुस्मृति में तो धर्म के दस लक्षण हैं- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध- फिर कैसे कहते हो कि एक ही लक्षण है।८
तब बाल शास्त्री ने कहा कि हमने सब धर्मशास्त्र देखा है।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि आप अधर्म का लक्षण कहिये तब बाल शास्त्री जी ने कुछ उत्तर न दिया फिर बहुत से पण्डितों ने इकट्ठे हल्ला करके पूछा कि वेद में प्रतिमा शब्द है वा नहीं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो है। उन लोगों ने कहा कि कहाँ पर है? स्वामी जी ने कहा कि सामवेद के ब्राह्मण में है।
फिर उन लोगों ने कहा कि वह कौनसा वचन है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह है देवता के स्थान कंपायमान होते और प्रतिमा हंसती है इत्यादि।९
फिर उन लोगों ने कहा कि प्रतिमा शब्द द तो वेदों में भी है फिर आप कैसे खण्डन करते हैं।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिमा शब्द से पाषाणादि मूर्ति पूजनादि का प्रमाण नहीं हो सकता है१०। इसलिए प्रतिमा शब्द द का अर्थ करना चाहिये कि इसका क्या अर्थ है।
तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है उस प्रकरण का क्या अर्थ है?
इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह अर्थ है अथ अद्भुत शान्ति की व्याख्या करते हैं ऐसा प्रारम्भ करके फिर रक्षा करने के लिए इन्द्र इत्यादि सब मूल मन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं। इनमें से प्रति मन्त्र करके तीन-तीन हजार आहुति करनी चाहिये इसके अनन्तर व्याहृति करके पाँच-पाँच आहुति करनी चाहिये । ऐसा करके सामगान भी करना लिखा है। इस क्रम करके अद्भुत शान्ति का विधान किया है। जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है सो मन्त्र मृत्यु लोक विषयक नहीं है किन्तु ब्रह्म लोक विषयक है सो ऐसा है कि जब विघ्नकर्ता देवता पूर्व दिशा में वर्तमान होवे इत्यादि मन्त्रों से अद्भुत दर्शन की शान्ति कहकर फिर दक्षिण दिशा पश्चिम दिशा और उत्तर दिशा इसके अनन्तर भूमि की शान्ति कहकर मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्ति कहके इसके अनन्तर स्वर्ग लोक फिर परम स्वर्ग अर्थात् ब्रह्म लोक की शान्ति कही है। इस पर सब चुप रहे।
फिर बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो-जो देवता है उस-उस की शान्ति करने से अद्भुत देखने वालों के विघ्नों की शान्ति होती है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह तो सत्य है परन्तु इस प्रकरण में विघ्न दिखाने वाला कौन है? तब बाल शास्त्री ने कहा कि इन्द्रियाँ देखने वाली हैं। इस पर स्वामी जी ने कहा कि इन्द्रियाँ तो देखने वाली हैं, दिखाने वाली नहीं ‘स प्राचीं दिशमन्ववर्तते ’ मन्त्र में ‘स’ शब्द का वाच्यार्थ क्या है? तब बाल शास्त्री जी ने कुछ न कहा, फिर पण्डित शिवसहाय जी ने कहा कि अन्तरिक्ष आदि गमन शान्ति करने का फल इस मन्त्र का अर्थ कहा जाता है।११
इस पर स्वामी जी ने कहा कि आपने वह प्रकरण देखा है तो किसी मन्त्र का अर्थ तो कहिये।
तब शिवसहाय जी चुप ही रहे। फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि वेद किससे उत्पन्न हुए हैं?
इस पर स्वामी जी ने कहा कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।
विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि किस ईश्वर से? क्या न्याय शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से वा योग शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से अथवा वेदान्त शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से इत्यादि।१२
इस पर स्वामी जी ने कहा कि क्या ईश्वर बहुत से हैं?
तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर तो एक ही है परन्तु वेद कौन से लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं?
इस पर स्वामी जी ने कहा कि सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं।
फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा ईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध है? क्या प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव वा जन्य जनक भाव अथवा समवाय भाव अथवा सेवक स्वामी भाव अथवा तादात्मय सम्बन्ध है इत्यादि।
इस पर स्वामी जी ने कहा कार्य्य कारण भाव सम्बन्ध है।
फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि जैसे मन में ब्रह्म बुद्धि और सूर्य्य में ब्रह्म बुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है वैसे ही सालिग्राम का पूजन भी ग्रहण करना चाहिये।१३
इस पर स्वामी जी ने कहा जैसे ‘मनोब्रह्मेत्युपासीत’ आदित्य ब्रह्मेत्युपासीत इत्यादि वचन वेद में देखने में आते हैं वैसे ‘पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत’ आदि वचन वेद में कहीं नहीं दीख पड़ते, फिर क्यों कर इसका ग्रहण हो सकता है?
तब पण्डित माधवाचार्य ने कहा-
‘उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजाग्रहि त्वमिष्टापूर्ते इति’
इस मन्त्र में ‘पूर्ते’ शब्द से किसका ग्रहण है?
इस पर स्वामी जी ने कहा वायी, कूप, तड़ाग और आराम का ही ग्रहण है।
माधवाचार्य ने कहा कि इससे पाषाणादि मूर्तिपूजन क्यों नहीं ग्रहण होता है?१४
इस पर स्वामी जी ने कहा कि पूर्ति शब्द पूर्ति का वाचक है। इससे कदाचित् पाषाणादि मूर्तिपूजन का ग्रहण नहीं हो सकता। यदि शंका हो तो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये।
तब माधवाचार्य ने कहा कि पुराण शब्द वेदों में है वा नहीं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुराण शब्द तो बहुत सी जगह वेदों में है पुराण शब्द से ब्रह्म वैवतादिक ग्रन्थों का कदाचित् ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि पुराण शब्द भूतकाल वाची है और सर्वत्र द्रव्य का विशेषण ही होता है।
फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस मन्त्र में कि –
‘‘एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानुव्याख्यानानीति’’
यह सब जो पठित है इसका प्रमाण है वा नहीं।१५
इस पर स्वामी जी ने कहा कि हाँ प्रमाण है फिर विशुद्धानन्द जी ने कहा कि जो श्लोक का भी प्रमाण है तो सबका प्रमाण आया।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि सत्य श्लोकों का प्रमाण होता है औरों का नहीं।
तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कियहाँ पुराण शब्द किस का विशेषण है?
इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुस्तक लाइये तब इसका विचार हो। पं. माधवाचार्य ने वेदों के दो पत्रे निकाले१६ और कहा कि यहाँ पुराण शब्द किसका विशेषण है?
स्वामी जी ने कहा कि कै सा वचन है, पढिये।
तब माधवाचार्य ने यह पढ़ा ‘ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानीति’।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि यहाँ पुराण शब्द ब्राह्मण का विशेषण है अर्थात् पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं।
तब पण्डित बालशास्त्री जी आदि ने कहा कि क्या ब्राह्मण कोई नवीन भी होते हैं?१७
इस पर स्वामी जी ने कहा कि नवीन ब्राह्मण नहीं हैं परन्तु ऐसी शंका भी किसी को न हो इसलिये यहाँ यह विशेषण कहा है।
तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास शब्द के व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा।
इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्या ऐसा नियम है कि व्यवधान से विशेषण नहीं हो सकता और अव्यवधान ही में होता है क्योंकि
‘अजो नित्यश्शाश्वतोऽयम्पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे’
इस श्लोक में दूरस्थ देही का भी विशेषण नहीं है? और कहीं व्याकरणादि में भी यह नियम नहीं किया है कि समीपस्थ ही विशेषण होते हैं, दूरस्थ नहीं।१८
तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास का तो पुराण शब्द विशेषण नहीं है इससे क्या इतिहास नवीन ग्रहण करना चाहिये।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि और जगह पर इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है। सुनिये! इतिहास पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः इत्यादि में कहा है।
तब वामनाचार्य आदिकों ने कहा कि वेदों में यह पाठ ही कहीं भी नहीं है।१९
इस पर स्वामी जी ने कहा कि यदि वेदों में यह पाठ न होवे तो हमारा पराजय हो और जो हो तो तुम्हारा पराजय हो। यह प्रतिज्ञा लिखो, तब सब चुप ही रहे।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा करी है वा नहीं।
तब बालशास्त्री ने कहा कि संज्ञा तो नहीं की है परन्तु एक सूत्र में भाष्यकार ने उपहास किया है।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि किस सूत्र के महाभाष्य में संज्ञा तो नहीं की और उपहास किया है, यदि जानते हो तो इसके उदाहरण पूर्वक समाधान कहो।
बाल शास्त्री और औरों ने कुछ भी न कहा।
माधवाचार्य ने दो पत्रे वेदों के२० निकालकर सब पण्डितों के बीच में रख दिये और कहा कि यहाँ यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दसवें दिन पुराणों का पाठ सुने ऐसा लिखा है। यहाँ पुराण शब्द किसका विशेषण है?
स्वामी जी ने कहा कि पढ़ो इसमें किस प्रकार का पाठ है। जब किसी ने पाठ न किया तब विशुद्धानन्द जी ने पत्रे उठा के स्वामी जी के ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो।
स्वामी जी- आप ही इसका पाठ कीजिये।
तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि मैं ऐनक के बिना पाठ नही कर सकता। ऐसा कहके वे पत्रे उठाकर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने दयानन्द स्वामी जी के हाथ में दिये।
इस पर स्वामी जी दोनों पत्रे लेकर विचार करने लगे। इसमें अनुमान है कि पांच पल व्यतीत हुए होंगे कि ज्यों ही स्वामी जी यह उत्तर कहा चाहते थे कि ‘‘पुरानी जो विद्या है उसे पुराण विद्या कहते हैं और जो पुराण विद्या वेद है वहीं पुराण विद्या वेद कहाता है, इत्यादि से यहाँ ब्रह्मविद्या ही का ग्राह्य है क्योंकि पूर्व प्रकरण में ऋग्वेदादि चारों वेद आदि का तो श्रवण कहा है परन्तु उपनिषदों का नहीं कहा। इसलिये यहाँ उपनिषदों का ही ग्रहण है औरों का नहीं। पुरानी विद्या वेदों की ही ब्रह्म विद्या है इससे ब्रह्मवैवर्तादि नवीन ग्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो वहाँ ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्तादि १८ अन्य पुराण है सो तो वेद में२१ कही ऐसा पाठ नहीं है। इसलिये कदाचित् अठारहों का ग्रहण नहीं हो सकता’’ ज्यों ही यह उत्तर कहना चाहते थे कि विशुद्धानन्द स्वामी उठ खड़े हुए और कहा कि हमको विलम्ब होता है२२। हम जाते हैं।२३ तब सबके सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गए। इस अभिप्राय से कि लोगों पर विदित हो कि दयानन्द स्वामी का पराजय हुआ परन्तु जो दयानन्द स्वामी के चार पूर्वोक्त प्रश्न हैं उनका वेद में तो प्रमाण ही न निकला फिर क्यों कर उनका पराजय हुआ?२४
टिप्पणियाँ
१. आर्य दर्पण में यह हिन्दी उर्दू दोनों भाषाओं में छपा है। दोनों का मिलान करके यहाँ दिया है। जहाँ आवश्यक जाना विराम चिह्न दे दिये हैं। इससे पाठकों को सुविधा होती है।
२. काशी नरेश तथा उसके दक्षिणा भोगी पण्डितों ने शास्त्रार्थ में पहला अनर्थ यही तो किया ऋषि की मांँग कितनी न्याय संगत थी। यह पाठक देख लें।
३. शास्त्रार्थ में दूसरा अनर्थ व अन्याय यह हुआ कि पण्डितों का कोई मुखिया नहीं था। पण्डितों का जमघट बोलता था। महाराजा का कोई अंकुश ही नहीं था।
४. शास्त्रार्थ की तीसरी धांधली यह थी। वेद से प्रतिमा पूजन का प्रमाण ऋषि ने माँगा था। यह चुनौती दी थी। पण्डित मुख्य विषय से छूटते ही भाग निकले।
५. एक पश्चात् दूसरा पण्डित शास्त्रार्थ के विषय से भागने लगा। यह चौथी धांधली थी।
६. ऋषि ने प्रकरण से बाहर जाने से रोका पर कौन सुनता था? यह पाँचवी धांधली थी।
७. काशी नरेश ने वेद सबको कण्ठाग्र होने की तथा स्वामी विशुद्धानन्द ने सब कुछ कण्ठस्थ होने की डींग मारी थी। इस प्रश्न से सारी काशी की विद्या की पोल खुल गई।
८. ऋषि ने मनु जी का प्रमाण देकर प्रतिस्पर्धी का अहंकार चूर कर दिया। यहाँ उर्दू हिन्दी के पाठ में कुछ श द घटे बढ़े हैं। हमने मिलान करके यहाँ लिखा है। भाव भेद कोई नहीं है।
९.आर्य दर्पण की पाद टिप्पणी में ही लिखा है कि यह वेद वचन नहीं है। परन्तु जहाँ है वहाँ भी वेद विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।
१०. यह कितना अनर्थकारी तर्क है कि वेद में प्रतिमा शब्द होने से प्रतिमा पूजन का विधान है। वेद में तो प्रमाद, पाप, निन्दा, अनृत, अकर्म, दस्यु, दुरित शब्द भी आये हैं तो क्या इससे प्रमादी, पापी, आलसी, दुष्कर्मी होना सिद्ध हो गया? शास्त्रार्थ के विषय से भागने की काशी में मनमानी की गई।
११. यहाँ उर्दू व हिन्दी के वृत्तान्त में शब्द भेद है। भाव भेद नहीं।
१२. स्वामी विशुद्धानन्द के कथन से सिद्ध है कि मूर्तिपूजा के अनेक ईश्वर हैं। ये लोग दर्शनों में परस्पर विरोध मानते हैं। हिन्दुओं में फूट का बीज इन्होंने ही बोया। विधर्मियों ने इसी का लाभ उठाया।
१३. वेद तथा ईश्वर विषयक ये प्रश्न पाषाण पूजकों की कुटिल कुचाल थी। वेद से प्रतिमापूजन की पुष्टि करने का विषय तो उन्होंने जानबूझकर छोड़ दिया।
१४. श्री लक्ष्मण जी के ग्रन्थ के प्रथम भाग पृष्ठ २५५ पर माधवाचार्य की बजाय ‘बालशास्त्री ने कहा’ छप गया है। यह मुद्रण दोष समझा जावे। देखते जायें अब तक कितने विद्वान् ऋषि के सामने खड़े किये गये।
१५. ध्यान दीजिये यह नया विषय उठाया गया। शास्त्रार्थ का विषय पुराण नहीं था। मूर्तिपूजन के लिए श्रुति का प्रमाण देना था।
१६. ‘‘यह सब तो पठित है’’ ऐसा कहकर ऋषि की विद्वता पर व्यंग्य कसा गया।
१७. आर्य दर्पण में भी यह पाद टिप्पणी मिलती है कि यह पण्डितों का ही मत है। स्वामी जी का नहीं। ये पत्रे वेद के नहीं गृह्यसूत्र के थे। वेद के नहीं। यह बहुत बडा छल था।
१८. यहाँ देखिये फिर नया पण्डित ऋषि के सामने खड़ा किया गया।
१९. विशेषण विषयक ऋषि की आपत्ति व प्रमाण का किसी से कुछ भी उत्तर नहीं बन सका।
२०. यह देखिये एक और विद्वान् को खड़ा होना पड़ा। एक के सामने काशी के कितने महारथी चित्त होते गये।
२१. ये पत्रे गृहृसूत्र के थे, वेदों के नहीं। यह एक सुनियोजित षड्यन्त्र था। किसी एक के मस्तिष्क की उपज नहीं था।
२२. यह भी पण्डितों के मतानुसार कहा। यह स्वामी जी का मत नहीं।
२३. अध्यक्ष काशी नरेश ने तो सभा समाप्ति की घोषणा नहीं की। स्वामी विशुद्धानन्द की पहल से शास्त्रार्थ समाप्त हुआ और हुड़दंग मचने लगा।
२४. ‘आर्यदर्पण’ के उर्दू पाठ का अन्तिम वाक्य यहाँ नहीं दिया तो फिर कैसे समझा जावे कि काशी के पण्डितों का पराजय हुआ और दयानन्द स्वामी का जय।’’ द्रष्टव्य आर्यदर्पण जनवरी सन् १८८० पृष्ठ २०
– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६
धन्य हैं हमारे स्वामीजी!
शंकर संदेश वैसे तो आपको फेसबुक पर जवाब दे ही दिया था पण्डित लेखराम वैदिक मिशन के सदस्य द्वारा परन्तु आपकी उछलन बंद ना होगी इसलिए निवेदन है आप आपका सम्पूर्ण लेख एक बार में ही दे दीजिये और लिंक देने की अपेक्षा यही लेख कॉपी पेस्ट करें
अपने आप को विख्यात करने के लिए आर्य समाज का दामन ना पकडे सीधा लेख लिख दें उतम रहेगा 🙂
आपका जवाब लेख देने के एक सप्ताह के भीतर भीतर यही दे दिया जाएगा
आर्यजी यह अन्तिम वाक्य सही नहीं लिखा -२४. ‘आर्यदर्पण’ के उर्दू पाठ का अन्तिम वाक्य यहाँ नहीं दिया तो फिर कैसे समझा जावे कि काशी के पण्डितों का पराजय हुआ और दयानन्द स्वामी का जय।’’ द्रष्टव्य आर्यदर्पण जनवरी सन् १८८० पृष्ठ २०
यहां यह लिखना चाहिए :- २४. ‘आर्यदर्पण’ के उर्दू पाठ का अन्तिम वाक्य यहाँ नहीं दिया तो फिर कैसे समझा जावे कि काशी के पण्डितों का जय हुआ और दयानन्द स्वामी का पराजय ।’’ द्रष्टव्य आर्यदर्पण जनवरी सन् १८८० पृष्ठ २०
मेरे कथन को समझने की कोशिश करें आर्य जी