हनुमान जी बन्दर नहीं थे

भारतीय इतिहास में अनेक विद्वान् तथा बलवान् हुए हैं। हनुमान उनमें से एक                       व्यक्ति थे। उनकी सेवक के रूप में बहुत अच्छी      है। उनका जीवन आदर्श ब्रह्मचारी का भी रहा है परन्तु हमारे नादान पौराणिक भाइयों ने उन्हें बन्दर मानकर उनके साथ अन्याय किया हैः-
एक वे हैं जो दूसरों की छवि को देते हैं सुधार।
एक हम हैं लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़।।
वे बन्दर न थे, अपितु पूर्णतः ऊपरोक्त गुणों से युक्त एक प्रेरक, आदर्श तथा कुलीन महापुरुष थे। कुछ प्रमाणों से हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। मर्यादा                                           राम से उनकी प्रथम भेंट तब हुई थी, जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। खोजते-खोजते वे दोनों ऋष्यमूक पर्वत पर- सुग्र्रीव की ओर गए तो सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर भयभीत हो गया। उसने अपने मन्त्रियों से यह कहा कि ये दोनों वाली के ही भेजे हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। हे वानर शिरोमणी हनुमान! तुम जाकर पता लगाओ कि ये कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं।
सुग्रीव की इस बात को सुनकर हनुमान जहाँ अत्यन्त बलशाली श्री राम तथा लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिए तत्काल चल दिये। वहाँ पहुँचने से पूर्व उन्होंने अपना रूप त्यागकर भिक्षु (=सामान्य तपस्वी) का रूप धारण किया तथा श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का                           नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।।
-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९
अर्थः- निश्चय ही इन्होंने                                   व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०
अर्थः-                               के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।                   किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे?
रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद,                                   व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर  सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब                                  ने हनुमान जी को उनकी उ                                  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९
अर्थः- हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। इस सत्य को स्वयं हनुमान जी ने भी स्वीकार किया, जब वे लंका में रावण के दरबार में प्रस्तुत किए गए थे-
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्।।
– वा. रामायण, सुन्दरकाण्ड, त्रयस्त्रिंश सर्ग
अर्थः- मैं पवनदेव का औरस पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं सौ योजन पार कर सीता जी की खोज में आया हूँ।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में से ही हम तीसरा प्रमाण भी प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कते हैं कि हनुमान मनुष्य ही थे, न कि वे बन्दर थे। यह प्रमाण तब का है, जब हनुमान लंका में पहुँच तो गए थे किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी सीता जी का पता न कर पाए तो वे सोचने लगे थे कि बिना सीता जी का अता-पता पाए मैं यदि लौटूँगा तो राम जी तथा स्वामी सुग्रीव जी को                   सूचना दूँगा? वहाँ हा हाकार मचेगा। वाल्मीकि ऋषि के                शब्द्दों मेंः-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग
अर्थः- मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा। हनुमान जी को मनुष्य न मानकर बन्दर घोषित करने वाले अपने पौराणिक भाई-बहनों से निवेदन है कि वे अपना हठ त्याग कर यह तथ्य तुरन्त स्वीकार कर लें कि हनुमान सच्चे वैदिक धर्मी मनुष्य थे, न कि वे बन्दर थे क्योंकि वानप्रस्थी बनने की बात सोचना तो दूर क ी बात है, वानप्रस्थ                       होता है, बन्दरों को यह भी ज्ञात नहीं होता। हनुमान को बन्दर मानने वाले लोग तुलसीदास गोस्वामी द्वारा रचित ‘‘हनुमान चालीसा’’ का पाठ करते हैं परन्तु उसमें भी एक प्रमाण ऐसा है जो हमारी बात का समर्थन करता हैः-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे।
कान्धे मूँज जनेऊ साजे।।
काश! ऐसे लोग इस चालीसा में                                   यह पाँचवा पद बोलते-पढ़ते समय इतना समझ पाते कि इसके अनुसार हनुमान जी अपने कन्धे पर जनेऊ धारण किए फिरते थे तथा बन्दर नहीं, अपितु जनेऊ (= यज्ञोपवीत) तो मनुष्य ही धारण करते हैं।
हनुमान दूरस्थ किसी पर्वत पर जाकर मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाए थे। यह कार्य भी कोई बन्दर नहीं कर सकता अपितु कोई मनुष्य ही कर सकता था जिसे जड़ी-बूटियों का पर्याप्त ज्ञान हो।
हनुमान से हटकर अब थोड़े विचार उनके समकालीन रामायण के कुछ अन्य पात्रों के विषय में भी प्रस्तुत हैं। इनमें एक प्रसंग वाली की पत्नी तारा से                               है। जब सुग्रीव दूसरी बार वाली को युद्ध के लिए ललकारने गया तो वाली की पत्नी तारा ने अपने पति को राम जी से मैत्री कर लेने की प्रार्थना की परन्तु वाली ने ऐसा न करके सुग्रीव का सामना करने, सुग्रीव का घमण्ड चूर-चूर करने, परन्तु सुग्रीव के प्राण हरण न करने का वचन देकर तारा को वापिस राजप्रसाद में चले जाने को कहा तो-
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता।।
-वा.रा. किष्किन्धा काण्ड, षोडश सर्ग श्लोक १२
अर्थः- वह पति की विजय चाहती थी तथा उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया तथा शोक से मोहित होकर वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई।
मन्त्र का ज्ञान बन्दरों को अथवा बन्दरियों को नहीं होता, न ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि हनुमान का जिन से मिलना-जुलनादि था, उनकी पत्नियाँ भी मनुष्य ही थीं। यही तारा जब अपने पति वाली को प्राण त्यागते देख रही थी तो अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी बोली-
यद्यप्रियं किंचिदसम्प्रधार्य कृतं मया स्यात् तव दीर्घबाहो।
क्षमस्व मे तद्धरिवंशनाथ व्रजामि मूर्धा तव वीरपादौ।।
– वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड, एकविंश सर्ग, श्लोक २५
अर्थः- ‘‘महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आपका कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।’’ इस श्लोक से सिद्ध है कि वाली आर्यों के एक वंश वानर में जन्मा  मनुष्य ही था। इसी प्रकार तारा को भी महर्षि वाल्मीकि ने आर्य पुत्री ही घोषित कियाः-
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९
अर्थः- ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर महानुभाव श्री राम के समीप गई।’’
वाली की मृत्यु के पश्चात् अङ्गद व सुग्रीव ने वाली के शव का अन्त्येष्टि-संस्कार शास्त्रीय विधि से कियाः-
ततोऽग्ंिन विधिवद् द    वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।।
संस्कृत्य वालिनं तं तु विधिवत् प्लवगर्षभाः।
आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शुभजलां शिवाम्।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, षड्विंश सर्ग, श्लोक ५०-५१
अर्थः- ‘‘फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद यह सोचकर कि मेरे पिता लम्बी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए हैं, अङ्गद की सारी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। इस प्रकार विधिवत् वाली का दाह संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी हुई कल्याणमयी तुङ्गभद्रा नदी के तट पर आए।’’
इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि वाली, सुग्रीव, अङ्गद आदि वेद विहित शास्त्रीय कार्य करते थे। यह भी उनके मनुष्य होने का प्रमाण है।
उपर्युक्त तथ्यों के बाद हम अब सामान्य विश्लेषण करते हुए पौराणिकों से पूछते हैं कि वाली की पत्नी तारा, सुग्रीव की पत्नी रुमा हनुमान की माँ अंजनि मनुष्य योनि की स्त्रियाँ थीं तो उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बन्दरों अर्थात् वाली, सुग्रीव तथा केसरी के सङ्ग                                             दिया था? बन्दरों व स्त्रियों से बन्दरों का जन्म होना अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक है। अतः यह सर्वथा अमान्य है कि उक्त पुरुष बन्दर थे। यह भी निवेदन है कि बन्दरों, उनकी पत्नियों, उनके पिताओं तथा उनकी माताओं के नाम नहीं होते, उनके जीवन का कोई इतिहास नहीं होता, खाने-पीने व सोने-जागने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य वे करते नहीं। फिर ऊपरोक्त पात्रों के नामकरण                       हुए? उनके कार्य-व्यवहार मनुष्यों जैसे-कैसे                   हुए?
वास्तविकता यह है कि वानर एक जाति है। इसे आंग्ल भाषा में सरनेम भी कहते हैं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा व हमीरपुर जिलों में नाग जाति के कुछ मनुष्य आपको मिल सकते हैं। नाग                  का अर्थ सर्प है परन्तु वे इस                  को अपने नाम के साथ सहर्ष लिखते हैं। पिछले वर्ष के न्द्र सरकार में कार्यरत एक उच्चाधिकारी जब सेवानिवृ    ा हुए था तो किसी विशेष कारण वश उसका नाम भी दैनिक पत्रों में छपा था। तब पता चला कि वह भी ऊपरोक्त नाग जाति का ही सदस्य था। सन् १९६९ में भारत के राष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरि नामक एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति आसीन हुआ था। गिरि                  का अर्थ पर्वत है परन्तु वह पर्वत न होकर मनुष्य ही था। गिरि उसका सरनेम था या उसकी जाति थी। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उ    ारप्रदेश तथा कुछ अन्य प्रदेशों में बहुत-से लोग (अधिकतर जन्मना क्षत्रिय) अपने नाम के साथ सिंह                  का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ शेर है। हरियाणा में बहुत-से लोग मोर जाति से सम्बद्ध हैं और उनके नाम के पीछे मोर                  लिखा होता है। पंजाब के एक राज्यपाल जयसुख लाल हाथी हुए हैं। हरियाणा में सिंह मार नामक जाति के कई व्यक्ति आपको मिल सकते हैं।
इस वर्णन के आधार पर हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार नाग, गिरि, मोर, सिंह, हाथी व सिंह मार नामक जातियाँ मनुष्यों की ही हैं, न कि सर्पों, पर्वतों, शेरों, हाथियों व शेरों के हत्यारों आदि की हैं, हालांकि इनके शा    िदक अर्थ ऊपरोक्त ही है। इसी प्रकार रामायण के हनुमान, सुग्रीव, बाली, तारा, रुमा, जाम्बवान व अङ्गद आदि वानर नामक मनुष्य जाति के सदस्य थे, न कि ये बन्दर थे। यह उनके कार्यों व इतिहास से प्रमाणित किया गया है।
– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

17 thoughts on “हनुमान जी बन्दर नहीं थे”

  1. Hanuman ji bandar the yaa nhi yah lekhpadhkar bada dukh hua.kya ho gya he is tarh ke lekh likhne walo ki budhhi ko.sirf bodhhik vilas ke liye kuch tathyo ke adhar par ishwar ko bhi nhi chod rhe.dev to bhawnao me niwas karte he.ham gayo,sarp,pashu pakshiyo,pedo sabki puja krte he.jab lakho log hanumaan jee ki wanar ke rup me puja krte he to apko kya taklif he.sachhai to ye he ki lekh likhne wale mahashy ek bandar ko bhagwan kese maan le yha unka ahnkaar ade a gya .are hamare purwaj bhi vanar the.jis ishwar ne lok klyan ke liye matsy kachua sarp adi rupo me apni upasthiti di ho wha apki soch par dya ati he.mera atal vishwas he ki lakho logo ki bhavnao or shrdha ke liye wo ishwar agar manav bhi hoga tab bhi vanar ban gya ho gaa.jay hnuman

    1. Gaura Mehta ji,

      Shri Ram ke itihas ki jaankari ke liye pramanik grandh Maharshi Valmeeki dwara rachit Ramayan hai.
      Ramayan se tathyon ke aadhar par lekhak ne Mahaparakrami Hanuman ji ke Manushya aur Vedon ke vidwan sabit hona sabit kiya hai

      aapko yah uchit hai ki aap Maharshee valmeeki ramayan se hee yah tathyonk ko rakhte huye lekhan ke dawon ka khanda aur aapke mat ka mandan karen.

    2. agar hamre puraj bandar hai to aaj tak jin bandaro ko hum dekhte aaye hai woh manaw q nhi bane ? unme abhi taki koi pariwartan q nhi huaa. ye science ki theory galta hai ki hamre puraw bandar hai . hanimaan mahanpoorush hai par bandar nhi . naga kathon se bahar nikale please . hamari sanskriti nature ko bachane ke liye unki pooja aur respect karti aur us cheez ko shrdhaa se jodha jata hai aur yah sahi bhi hai warana manaw bina bhaya dikhye koi karya nhi karta hai

  2. आपका अदालत योगी जौनपुर यूपी पूर्व । says:

    धन्यवाद आपका अदालत योगी जौनपुर यूपी पूर्व ।

  3. फिर तो हनुमान ने लंका पूंछ से नही हाथो मे मशाल लेकर जलाइ थी कृप्या ये भी तर्क के आधार पर साबित कर दीजिए त्रेता मे जन्म लेने वाले ज्ञानी महोदय

    1. सत्य को ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए

  4. OUM…
    NAMASTE AARYAVAR..
    KURAAN AUR PURAAN MAANNE WAALE KHUD TO RASAATAL ME DUBGAYE DUNIYAAKO BHI DUBAANE KI CHAKKAR ME HAI…
    INLOGON KI MOOH LAGNE SE ACHCHHAA HAI KHAAMOS RAHANAA…
    INKO SADBUDDHI DE EESHWAR…
    OUM..

  5. Aaj tak koi bhi scientist ye sidh nhi kr paya h ki insano ke purvaj bandar h , bandar me sarir ko dekhkar kewal andaaja lagaya gya h ki bandar Ka sarir kuchh had tak insane jesa hota h , or DNA test ke anusar insan or bandar dono alag alag jaatiya h kyoki insan or bandar Ka DNA ek nhi h , is baat se sidh hota h ki hanuman bandar nhi the wo bhi hamari tarh insaan the

  6. जब बुद्ध शासन इस भारत वर्ष पर १२ सौ वर्ष था तब रामायण पात्र कहा थे उनके पूरातात्विक प्रमाण ईसा के पूर्व के क्यों नही मिलते …??

    1. जनाब रामायण का इतिहास मतलब राम जब हुए थे वह लाखो वर्ष पहले की बात है | आप तो बस अंधभक्त होकर अम्बेडकर का पूजा करते रहे | वैसे साईट पर कई आर्टिकल डाली गयी है | धन्यवाद

  7. Aap ki baat mein satya ke ansh hai. Kyonki vedo ka gyan keval manushyo tak simeet hai, vo pashuo ke liye nahi hai. Aur jain grantho ke anusar bhi hanuman manushya hi the.

    Aap bata sakte hai ke hanuman ke bandar hone ke manyata kab se prasiddh hui.

    – Dhanyawad

    1. जब से वेद को छोड़कर सब पुराण इत्यादि को मानने लगे लोग | शायद ५००० ६००० साल पहले से | यह अपने अंदाज से बोल रहा हु इसका कोई प्रमाण नहीं दे सकता

  8. जय हनुमान। हनुमान कवच सबसे शक्तिशाली कवच ​​है जो आपको नीच ऊर्जा से बचाता है|

    1. ये सब अज्ञानता कि बातें हैं
      सभी को अपने कर्मानुसार फल भोगना पड़ता है

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