कोई भी किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता। हमारी यह गुजरात यात्रा भी निष्फल नहीं रही। यात्रा का मूल उद्देश्य था ऋषि दयानन्द की यात्रा का स्मरण और ऋषि के विचारों को नई पीढ़ी तक पहुँचाना। संसार में मनुष्य अपने लोगों की और अपने जैसे लोगों की इच्छा रखता है। प्रथम अपनापन जन्म से आता है, माता-पिता बच्चे को अपना समझते हैं, बच्चा माता-पिता को अपना समझता है। परिवार के विस्तार में भाई-बहन के बाद सबन्धी आते हैं, जिनको मनुष्य अपना मानता है। इसके बाद इससे बड़ा दायरा जाति के रूप में आता है। जन्म से अपनापन यहीं तक रहता है। इसके बाद अपनेपन के बहुत क्षेत्र हैं। क्षेत्र, भाषा, धर्म, राजनीति, व्यापार, व्यवसाय में जहाँ-जहाँ समानता है, मनुष्य उस-उसके साथ अपनापन जोड़ता है। इनकी अपनेपन की सीमा होती है। इस समानता में विचारों की समानता सबसे बड़ा वर्ग बनाती है। इन्हीं विचारों के आधार पर मनुष्य का संगठन बनता है। इन संगठन, संस्था, परिवारों को हम अपना और दूसरे का मानकर व्यवहार करते हैं। जब मनुष्य आज के जीवन से परे के जीवन की बात करता है तो ऐसे विचारों के संगठन को हम धर्म, मत, सप्रदायों की श्रेणी में लेते हैं। सभी संस्थाओं में विचारों के आधार पर बनने वाली संस्थाओं का रूप व्यापक होता है।
जन्मगत संस्थायें तो रक्त सबन्धों से बंधी होती हैं, उनके व्यापक होने में लबे समय की आवश्यकता होती है। क्षेत्रीय या क्षेत्रीयता, भाषा, कार्य पर आधारित संगठनाी कार्य क्षेत्र तक सीमित रहते हैं। विचारों पर आधारित संगठन, संस्थायें, अपने भौगोलिक परिवेश से बाहर भी जा सकती हैं। हम देखते हैं कि जो इस्लाम अरब में उत्पन्न हुआ, वो आज संसार में बड़े भाग में फैल गया है। यही बात हम ईसाइयत के विषय में घटित होती देखते हैं। येरुशलम से विश्व के अनेक देशों की यात्रा ईसाइयत ने की है। भारत में उत्पन्न बौद्ध धर्म भारत से पूर्व के देशों चीन, जापान आदि में आज भारत से भी अधिक लोगों का धर्म है। जैन मत भारत से बाहर तो बहुत नहीं है परन्तु भारत में बड़ी संया में इस मत के मानने वाले लोग हैं। इस प्रकार अपनेपन का सबसे अच्छा आधार है- समान विचार का होना।
जैसे जन्मगत सबन्ध प्राकृतिक होने के साथ हमारी सुरक्षा और साधनों का आधार होते हैं। जब तक ये आधार रहता है, ये सबन्ध हमें स्वीकार्य होते हैं। जैसे ही हमें अपनी सुरक्षा और सपत्ति पर छिनने, नष्ट होने का भय लगने लगता है, तब ये सबन्ध हमारे लिए व्यर्थ हो जाते हैं। अतएव देश में जितने विवाद और झगड़े होते हैं वे अधिकांश परस्पर सबन्धियों में होते हैं। उनमें भी एक परिवार में, एक माता-पिता से उत्पन्न भाई-बहनों में सबसे अधिक विवाद देखे जाते हैं। जब हमारा परिवार एक नहीं रह सकता तो गोत्र, जाति की एकता की बात करना व्यर्थ है। सभी तभी तक एक हैं जब तक सबके स्वार्थ सिद्ध होते हैं। स्वार्थ हानि होने पर कोई किसी के साथ रहना नहीं चाहता।
जन्मगत, सबन्धगत और जातिगत संस्थाओं की यह स्थिति है, वहाँ विचारगत सबन्धों का भी यही हाल है। अनेक विचार हैं तो भिन्नाी हैं। भिन्न हैं तो परस्पर विरोध भी होगा। एक मत दूसरे मत का विरोध करता है तो स्वार्थ के अतिरिक्त कोई कारण नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में विचार का आधार भी सपूर्ण रूप से अपनेपन का आधार नहीं बनता। एक विचार के लोग दूसरे विचार वालों को विरोधी और शत्रु मानकर व्यवहार करते हैं, तब इसके विस्तार की भी सीमा है। ऐसे विचार कितने भी बढ़ जायें, उनमें भी स्वार्थवश संघर्ष सदा ही होते रहते हैं, होते रहेंगे। प्रश्न उठता है क्या कोई ऐसा विचार भी हो सकता है जिसमें सबका समावेश किया जा सकता है? इसके लिये हमको अपना पिछला इतिहास देखना होगा, वही हमारी समस्या का समाधान कर सकता है।
इतिहास में क्या कोई ऐसा विचार है जिसके स्वीकार करने से सबका कल्याण हो सकता है। क्या सबका विचार एक ही हो सकता है? इतिहास में निर्णायक स्थिति ऐसी हैं जहाँ पर विचार को अन्तिम रूप से अपना आधार बनाया गया है, वहाँ भी विचार को दो भागों में विभक्त किया गया। जो सबके कल्याण की कामना करता है। जिसके स्वीकार करने से सबका भला होना निश्चित है। दूसरा विचार है जो अपना भला करता है, उसको दूसरे के भले-बुरे की चिन्ता नहीं है। इस प्रकार संसार में दो विचार हैं- अच्छे या बुरे। बुरे विचार बुरे इसलिये होते हैं कि अपना भला करने में दूसरे का बुरा हो जाता है या करना पड़ता है। भले विचार की कसौटी है, अपना भला उसे अन्यों की भलाई में लगता है। अच्छे और बुरे धर्म की यही कसौटी है। बुरे विचारों का प्रचार नहीं करना पड़ता, उन्हें सिखाना नहीं पड़ता, बताने की भी आवश्यकता नहीं होती। इसके विपरीत अच्छे विचारों को निरन्तर बताना पड़ता है, सबको बताना पड़ता है।
सब मत-मतान्तरों के रहते ऋषि दयानन्द को क्या आवश्यकता पड़ी कि पुराने प्रचलित विचारों को छोड़कर उन्होंने लोगों को नये विचारों को स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया। पहली बात ऋषि दयानन्द के विचार प्रचलित विचारों से न केवल भिन्न थे अपितु नितान्त विरोधी थे। ऐसी परिस्थिति में या तो प्रचलित विचार अच्छे थे तो स्वामी दयानन्द के विचार गलत होने चाहिए। यदि ऋषि दयानन्द के विचार ठीक हैं तो दूसरे मत-पन्थों के विचारों को मिथ्या या अनुचित कहने का साहस करना चाहिए। ऋषि दयानन्द ने अपने विचारों को सत्य माना और प्रचलित विचारों को मिथ्या घोषित किया। इस घोषणा को हम सत्य कैसे मानें, कैसे स्वीकार करें कि आज प्रचलित मत-पन्थ मिथ्या हैं? यह बात हमारे कहने मात्र से तो मान्य नहीं होगी, न केवल प्रमाण देने मात्र से बात बन सकती है। शास्त्र का प्रमाण तो केवल उसको स्वीकार्य होता है जो शास्त्र को प्रमाण कोटि में मानता हो। जो शास्त्र को स्वीकार ही नहीं करता उसे मिथ्या कहता है ऐसा व्यक्ति कैसे कहेगा कि कौन सा विचार ठीक है और कौन सा विचार गलत है?
हम भली प्रकार से समझते हैं कि संसार में अच्छे और बुरे दो ही प्रकार के विचार हैं, इनसे दो ही कार्य सिद्ध होते हैं, स्वार्थ और परोपकार यही एक ऐसी कसौटी है जिसे पढ़ा या अनपढ़, सभी मनुष्य जान सकते हैं कि दुनिया में क्या अच्छा है या क्या बुरा है? धर्म, अधर्म इस अच्छे-बुरे का पर्यायवाची ही तो है। इसी कारण जो अच्छा है, उसे सत्य और उसे ही धर्म कहा जाता है। इसके विपरीत जो बुरा है, असत्य है, वही अधर्म है। स्वामी दयानन्द धर्म की परिभाषा ही यह करते हैं, जिस कार्य या जिस विचार को सभी अच्छा मानते हैं, वही धर्म है। जिस विचार को कुछ लोग अच्छा मानते हैं, ठीक मानते हैं और बाकी ठीक नहीं मानते हैं, वह धर्म न हीं हो सकता। यही कसौटी ऋषि दयानन्द और उनके धर्म पर भी लागू होती है।
संसार के जितने भी धर्म हैं और जितने भी धर्म गुरु हैं, अपने विचार को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, वे सर्वोच्च व्यक्ति हैं परन्तु ऋषि दयानन्द धर्म को अपने कथन से न जोड़कर धर्म की कसौटी बताते हैं, जो बात कसौटी पर खरी उतरती है, वही धर्म है। इससे धर्म-अधर्म की परीक्षा करने का अधिकार सब धार्मिक लोगों को मिल जाता है। धर्म की परीक्षा करने के लिए धर्म जानने का भी अधिकार मिलता है। यही मौलिक अन्तर है ऋषि दयानन्द के धर्म में और अन्य धर्म गुरुओं के बताये चलाये धर्म में। कोई भी धर्म गुरु अपने शिष्यों को न गुरु की परीक्षा करने का अधिकार देता है न उसके विचारों की परीक्षा करने का ही अधिकार देता है।
संसार के मनुष्यों में बड़ा बनने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है। यही भाव गुरु में भी होता है। गुरु शद ही बड़े और भारी का पर्यायवाचक है। संसार में सभी बड़े बनने की इच्छा वाले लोग जब बड़ा बनने का प्रयास करते हैं तो उनके पास एक ही उपाय होता है, वे बड़े बन सकते हैं, जब कोई उनके पास छोटा हो। छोटा-बड़ा शद सापेक्ष है, जब तक कोई छोटा न हो, कोई बड़ा नहीं बन सकता। पशु में भी बड़ा-छोटा होता है। वहाँ बल से ही बड़ा बना जाता है, दुर्बल को भगाकर-मारकर जानवर बड़ा शक्तिशाली अधिकार सपन्न बनता है। उसी प्रकार मनुष्य भी बड़ा बनने के लिए दूसरे को कमजोर-दुर्बल बनाने का यत्न करता है। कोई दुष्ट व्यक्ति अपने को बड़ा सिद्ध करता है, तो अपनी दुष्टता से सबको पीड़ित करता है। वह सब को दुःखी कर सकता है, इसलिए बड़ा है। धनवान दूसरों के धन को छीनकर अपने पास अधिक धन संग्रह कर लेता है, तभी सबसे बड़ा धनी बन जाता है। बलवान भी सबको पराजित करके स्वयं सबसे बड़ा, स्वयं को सबसे बड़ा बलवान घोषित करता है।
मनुष्यों की यही प्रवृत्ति गुरु बनने वाले लोगों में है। ऐसे गुरु अपने शिष्यों में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिये, अपने ज्ञान को अन्तिम घोषित करते हैं। अपने शिष्यों को गुरु की या गुरु के विचारों की परीक्षा करने का अधिकार नहीं देते। जो कुछ ईसा ने कहा है- उसको चुनौती देने की सोचना भी गलत है। इस्लाम के संस्थापक मोहमद साहब का तो कहना ही क्या। वहाँ रसूल के बिना खुदा का मूल्य ही कुछ नहीं है। वे खुदा की बन्दगी में अपनी बन्दगी भी अपने अनुयायियों से कराते हैं। उन्होंने अपने भक्तों की बुद्धि पर अंकुश लगाया हुआ है। मोहमद इस्लाम के अनुयायी को सोचने का अधिकार नहीं देते। जो कुरान में कहा गया वही सच और अन्तिम है। जो मोहमद ने किया वही आदर्श भी है। आज संसार में ईसा के अनुयायियों की संया प्रथम स्थान पर और मोहमद के अनुयाइयों की दूसरे स्थान पर है। ये दोनों धर्म गुरु धर्म संसार के सबसे बड़े धर्म गुरु हैं परन्तु इनको बड़ा बनने के लिये उन्हें अपने भक्तों, अनुयायियों को, शिष्यों को छोटा बनाना पड़ा तब ये गुरु बड़े बन सके। आज जो कुछ उपद्रव संसार में देखा जा रहा है, उसका कारण है मनुष्य के सोचने पर, उसकी बुद्धि पर अंकुश लगाना। महाभारत के बाद में भारत के धर्म गुरुओं का भी यही हाल है। किसी भी मत-सप्रदाय में गुरु को बड़ा बनने के लिए शिष्यों को छोटा, मूर्ख, अज्ञानी रखना अनिवार्य है। कोई धर्म गुरु नहीं कहता- मेरी बात पर विचार करके स्वीकार करना। मेरे से अच्छी बात कहीं और मिल जाये तो उसे भी मान लेना। वहाँ तो गुरु जी ने कहा वह अन्तिम सत्य है, उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
ऋषि दयानन्द इसके अपवाद हैं। वे अपने अनुयायियों को अपने धर्म की परीक्षा करने का अधिकार देते हैं। वे अपने विचारों की परीक्षा करने का निर्देश देते हैं। कैसे परीक्षा करनी चाहिए? परीक्षा करने का प्रकार भी अपने ग्रन्थों में दिया है। स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं तो उसके प्रतिपादित करने के लिए परीक्षा का उपाय भी बतलाते हैं। सभी धर्मों के बारे में जानना, सबकी अच्छाई-बुराई का वर्णन करना और वैदिक धर्म से उसकी तुलना करना तब निर्णय देना। इससे श्रेष्ठ और वैज्ञानिक विधि अच्छे-बुरे को समझने की दूसरी नहीं हो सकती। यहाँ गुरु ने कहा है इसलिये कोई बात स्वीकारनी है, यह आदेश नहीं है, गुरु ने ठीक बात कही है इसलिये मानने योग्य है, यह मानने वाले का निर्णय है, उसका विवेकाधिकार है। कोई मनुष्य गुरु की परीक्षा करेगा, कैसे करेगा, उसको पहले जानना पड़ेगा। विवेक करने की योग्यता अर्जित करनी पड़ेगी। यह योग्यता कौन देगा? शिष्य में यह योग्यता कैसे आयेगी? इसका उत्तर है- यह योग्यता गुरु ही देगा, गुरु शिष्य को ज्ञानवान बनायेगा, तभी वह विवेक करने योग्य बन सकेगा।
स्वामी जी ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाने के लिये विवेक को कुण्ठित करने वाली अज्ञान बढ़ाने वाली बातों से जनता को अवगत कराया। ज्ञान में आर्ष-अनार्ष भेद बताया, वेदाध्ययन का अधिकार दिया। समाज में जन्मगत जाति-पांति, ऊँच नीच, छुआछूत, बालविवाह जैसी कुप्रथाओं का खण्डन किया। अनाथ तथा अवैध समझी जाने वाली सन्तानों को सुरक्षा, समान, समानता का अधिकार दिया। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, गुरुडम, गुरु को ईश्वर मानने जैसी परपराओं का खण्डन किया। अपने देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति का गौरव स्थापित किया। गौरक्षा, कृषि, स्वराज्य, स्वतन्त्रता आदि राष्ट्रीय सन्दर्भों से देश की जनता को जाग्रत कराया।
हम देखते हैं आज के गुरु शिष्यों को मूर्ख बनाकर स्वयं बुद्धिमान् बनते हैं। शिष्यों को अज्ञानी रख कर अपने ज्ञान का डंका बजाते हैं। ऋषि दयानन्द इस युग के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो सबको अधिकार सपन्न बनाकर अधिकारी बनते हैं। सब शिष्यों को ज्ञानी बनाकर गुरु बनने में विश्वास करते हैं। अपने अनुयायी को परीक्षा का उपाय बताकर परीक्षा करने का अधिकार देकर उत्तीर्ण होने वाले गुरु हैं। स्वामी दयानन्द का बड़प्पन औरों से इसी अर्थ में भिन्न है। लोग दूसरे की आँख फोड़कर लाठी देने का पुण्य कमाते हैं, ऋषि दयानन्द अन्धे को आँख देकर उसकी लाठी छुड़वा देते हैं। इस प्रकार बड़ा बनने के लिए एक प्रकार है, दूसरों को छोटा बनाना है। दूसरा प्रकार सबको बड़ा बनाकर बड़ा बनना। पहले प्रकार में मनुष्य स्वयं को बड़ा बनाता है, दूसरे प्रकार में उसे दूसरे बड़ा कहते हैं। आपको लगता है तो आप उसे बड़ा मानिये, नहीं लगता तो आप स्वतन्त्र हैं। परन्तु बड़ा बनाने के पहले उपाय में शिष्य स्वतन्त्र नहीं बाध्य हैं।
ऋषि दयानन्द ने सबको वेदाध्ययन का अधिकार देकर सबको बड़ा बनने का मार्ग प्रशस्त किया यही उनके बड़ा होने का कारण है। जो लोग अपने शिष्यों को मूर्ख रखते हैं, वे कालान्तर में स्वयं मूर्ख बन जाते हैं और समाज और राष्ट्र को भी मूर्ख बना देते हैं, जैसा आज भारत में और सारे विश्व में हो रहा है। आज की परिस्थिति में ऋषि दयानन्द के विचारों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, बढ़ती ही रहेगी, घटेगी नहीं। इन विचारों से या तो स्वार्थी द्वेष करते हैं जिनके पाखण्ड पर चोट पड़ने से उनकी आजीविका नष्ट होती है, अथवा अज्ञानी लोग जिनको इन विचारों के महत्त्व का पता नहीं है, वे ही ऐसे प्रलाप कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द तो शास्त्र की बात कहते हैं। शास्त्र की सुरक्षा, ज्ञान की वृद्धि, भक्तों-शिष्यों को ज्ञानी बनाकर ही हो सकता है। ज्ञान की वृद्धि शास्त्र जानने वालों के निर्माण और उनकी संया में वृद्धि से ही हो सकती है। अतएव कहा गया है –
ब्रह्म आयुष्मत् तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्।
– धर्मवीर