परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान श्री डॉ. धर्मवीर जी एवं मन्त्री श्री ओममुनि जी के नेतृत्व में 30 से अधिक आर्यों का एक दल वेद प्रचारार्थ 21 जून 2015 (रविवार) को अपराह्न में गुजरात के लिए रवाना हुआ। इस कार्यक्रम की पृष्ठभूमि के विषय में कुछ जानकारी देना उचित होगा। परोपकारिणी सभा के सदस्य और आर्यजगत् के प्रतिष्ठित विद्वान्, लेखक, वक्ता और इतिहासज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी पिछले तीन चार वर्षों से महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन चरित पर कार्य कर रहे हैं। दो खण्डों में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सपूर्ण जीवन चरित्र (मा. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक द्वारा लिखित उर्दु जीवन चरित्र का अनुवाद)जिज्ञासु जी के अथक प्रयास का ही सुफल है। इस जीवन-चरित का आज तक उर्दु से हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। इस कार्य को करते हुए ऋषि-जीवन विषयक बहुत से नये तथ्य प्रकाश में आए। ईसवी सन् 1874 के सितबर मास के बाद की अवधि की घटनाओं का अध्ययन करते हुए यह तथ्य सामने आया कि अपना गृह-राज्य गुजरात त्यागने के 28 वर्ष पश्चात् स्वामी दयानन्द जी गुजरात गये थे और गुजरात का यह उनका अन्तिम दौरा था। समाज सुधार और पाखण्ड-खण्डन का कार्य ऋषिवर पूर्ण उत्साह से कर रहे थे। उनके जीवन का यह समय बड़ा घटनापूर्ण था। अप्रैल 1875 में आर्यसमाज की स्थापना भी हो गयी । जिज्ञासु जी ने डॉ. धर्मवीर जी से कहा कि अब से 140 वर्ष पूर्व ऋषि ने आर्य समाज की स्थापना सहित समाज सुधार के जो कार्य किये थे उनकी वर्तमान स्थिति वहाँ जाकर देखनी चाहिए और उन आर्यजनों से मिलना चाहिए जो इस समय ऋषि – मिशन का कार्य कर रहे हैं। वेद प्रचार के कार्य के लिए डॉ. धर्मवीर जी की ओर से हर समय हाँ ही हाँ है। उन्होंने तुरन्त सहमति दे दी। 30-35 लोगों का दल साथ लेकर एक मध्यम साइज की बस सहित चार वाहनों से यह प्रचार यात्रा आरभ हुई। यह कार्य लाखों रूपये के व्यय का था। अन्य राज्यों में बस ले जाने पर तीस हजार से ऊपर की राशि तो टैक्स के ही रूप में देनी पड़ी। चुनौतीपूर्ण कार्य करने में डॉ. धर्मवीर जी सदैव उत्साहित और प्रसन्न रहते हैं। सभा ने यह प्रचार कार्य नासिक से आरभ किया क्योंकि स्वामी दयानन्द 1874 के अक्टूबर मास के उत्तरार्द्ध में नासिक पहुँचे थे और महाराजा होल्कर के सबन्धियों के आवास में ठहरे थे। वहां पर स्वामी जी ने पंचवटी में तथा एक नदी के किनारे पर भी व्यायान दिये और कहा कि यदि रामचन्द्र जी अपनी वनवास की अवधि में पंचवटी में ठहरे थे तो उससे यह स्थान तीर्थ कैसे बन गया। पंचवटी को तीर्थ बताकर जो पण्डा वहाँ पर लोगों को ठगते थे उन्हें स्वामी जी ने शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। परन्तु कोई पण्डित सामने नहीं आया। तब बबई के ‘‘इन्दुप्रकाश’’ समाचार पत्र ने यह समाचार प्रकाशित किया था-
‘‘हमारे शास्त्री न तो सत्य की खोज करते हैं और न उसे स्वीकार करने के इच्छुक हैं इसलिए इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं कि वे स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए सामने नहीं आए। उनकी अदूरदर्शिता और मूर्खतापूर्ण चुप्पी से यही स्पष्ट हुआ कि स्वामी दयानन्द के विचार, विश्वास और सुधार की बातें उन्हें अच्छी नहीं लगीं। स्वामीजी की बौद्धिक शक्ति असाधारण है, उनके व्यायान प्रभावशाली होते हैं और उनकी स्मृति विलक्षण है। अपने सुधार कार्य वे पवित्र शास्त्रों (वेद) के आधार पर करते हैं और संस्कृत के अपने गभीर वैदुष्य का स्वामी जी उपयोग करते हैं। जिस विषय पर वे व्यायान करते हैं तो वेद और धर्म शास्त्रों से इतने प्रमाण देते हैं कि उतने अन्य ग्रन्थों में नहीं है। किसी साधारण पुस्तकालय से इस प्रकार के प्रमाण नहीं मिल सकते।’’
(यह समाचार मूल रूप में अंग्रेजी में है)
“Our Sastris are neither seekers of truth nor willing to accept it. It is therefore, not surprising that they avoided a sastrath with Swamiji. Their shortsightedness and contemptible silence only showed that they disliked Swami Dayanand’s beliefs and reformed views. Swamiji’s mental powers are extraordinary and his speeches are very impressive: his memory is unfailing. In his work of reform, he always relies on the sacred books of the Hindus and makes good us of his profound Sanskrit scholarship. He quotes far more Veda Mantras and the various Dharma Sastras in his lectures than one will find in any treatise on the subject. It is not easy to collect them from an average good library.
उस काल में महर्षि की इसी दिग्विजय की स्मृति में सभा ने यह वेद प्रचार यात्रा निकाली।
यात्रा का आरभ ऋषि उद्यान से 21 जून को अपराह्न हुआ। उस समय अच्छी वर्षा हो रही थी। यात्रा-दल ने 21 जून की रात्रि को उदयपुर में विश्राम किया और 22 जून को वहाँ से चलकर 23 जून को प्रातः नासिक पहुँचा। इस कार्यक्रम में समिलित आर्य जनों में सभा के सदस्य प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, श्री कन्हैयालाल जी (गुडगाँव), गुरुकुल ऋषि उद्यान के 6-7 विद्यार्थियों को साथ लिए हुए आचार्य श्री सोमदेव जी तथा आचार्य कर्मवीर जी, श्री वासुदेव जी आर्य, ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी और प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री भूपेन्द्र सिंह आदि थे। विक्रय हेतु एवं निःशुल्क वितरण हेतु सभा लाखों रुपये का वैदिक साहित्य साथ लेकर गयी थी। विभिन्न स्थानों पर वेद प्रचार के कार्य को मूर्तरूप देने के लिए यज्ञादि कार्यों को कराने में कुशल ब्रह्मचारीगण, आचार्यगण, एवं भजन-प्रवचन के लिए विद्वज्जन साथ में थे। कार्यक्रम का शुाारभ नासिक से हुआ। आगे का पूरा विवरण माननीय जिज्ञासु जी के शब्दों में अगले अंक में आपको पढ़ने को मिलेगा।