एक बुतपरस्त विचार
मुस्लिम पंथ-मीमांसा की दृष्टि से देखने पर मक्का और काबा की तीर्थयात्रा का सम्पूर्ण विचार बुतपरस्ती के समान है। किन्तु इस्लाम के लिए उसका बहुत बड़ा सामाजिक एवं राजनैतिक महत्त्व है। मुहम्मद के नेतृत्व में सम्पन्न मक्का की पहली मुस्लिम तीर्थयात्रा भी शायद एक धार्मिक सम्मेलन की अपेक्षा राजनैतिक प्रदर्शन अधिक थी।
हिजरी सन् 6 में मुहम्मद उमरा अनुष्ठान (लघुतर तीर्थयात्रा) के लिए मक्का रवाना हुए। यह मदीना आने के बाद उनकी तीर्थयात्रा थी। वे पन्द्रह-सौ लोगों के तीर्थयात्रा-दल की अगुवाई कर रहे थे। दल का एक हिस्सा सशस्त्र था। संख्यावृद्धि के लिए उन्होंने रेगिस्तान के अरबों से साथ देने की अपील की थी। पर अरबों की प्रतिक्रिया मन्द रही, क्योंकि लूट के माल का कोई वायदा न था और कुरान के शब्दों में, ”वे समझ बैठे थे कि पैगम्बर और मोमिन अपने परिवारों की ओर कभी नहीं लौट पायेंगे“ (48/12)।
तथापि पन्द्रह-सौ एक असरदार संख्या थी और कोई भी समझ सकता था कि उन्हें तीर्थयात्री कहना कठिन है। मक्का वालों का मुहम्मद से एक सन्धि करनी पड़ी, जिसे होडैवा की सन्धि कहा जाता है। मुहम्मद ने इसे अपनी जीत माना और वह जीत ही सिद्ध भी हुई। दो बरस बाद, एक तरह की विलम्बित चढ़ाई के जरिए मक्का वाले परास्त हो गए। जीत के इस साल में तीर्थयात्रा अर्थात् हज़ को इस्लाम के पांच बुनियादी आधारों में से एक घोषित किया गया।
दो बरस बाद, सन् 632 ईस्वी के मार्च में, मुहम्मद ने एक और तीर्थयात्रा की। वह उनकी आखिरी तीर्थयात्रा सिद्ध हुई और मुस्लिम आख्यानों में उसे ”पैगम्बर की विदाई तीर्थयात्रा“ कहकर गरिमामंडित किया जाता है। इसके लिए बड़ी तैयारियाँ की गई थीं। इसे मोमिनों के सम्मेलन से ज्यादा महत्त्व दिया गया था। इसका उद्देश्य मुहम्मद की शक्ति का प्रदर्शन करना था। ”इस महान तीर्थयात्रा में उनका साथ देने के लिए अरब के सभी अंचलों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए दूत भेजे गए थे।
मक्का की हार के बाद, मुहम्मद की ताकत का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं रहा था और वद्दू कबीलों के लोगों ने समझ लिया था कि ये बुलावे, वैसी तीर्थयात्रा से कुछ भिन्न हैं जो वे पहले, अपनी सुविधा से, अपने देवताओं की आराधना के लिए खुद किया करते थे। वे जान गए थे कि यह अधीनता स्वीकार करने का आह्वान भी है। इसी से, पिछली बार से विपरीत, इस बार वे बड़ी तादाद में और उत्साह से आये। ”कारवां जैसे-जैसे बढ़ता गया, सहभागियों की तादाद बढ़ती गई“, जब तक कि वह, वर्णनकत्र्ताओं के अनुसार, 1 लाख 30 हजार से ज्यादा नहीं हो गई (सही मुस्लिम, पृष्ठ 612)। मंडली में शामिल होने के लिए सभी लोग उतावले हो उठे थे।
author : ram swarup