पृथिवी गोल है: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

यद्यपि देखने से प्रतीत होता है कि दर्पण के समान पृथिवी सम अर्थात् चिपटी है तथापि अनेक प्रमाणों से पृथिवी की आकृति गेंद या कदम्ब फल के समान गोल है, यह सिद्ध होता है। अपने संस्कृतशास्त्रों में इसी कारण इसका नाम ही भूगोल रखा है। यदि कोई आदमी ५० कोश का ऊँचा हो तो झट से उसको इसकी गोलाई मालूम होने लगे । इस पृथिवी के ऊपर हिमालय पर्वत भी गृह के ऊपर चींटी के समान है, अतः इसकी गोलाई हम मनुष्यों को प्रतीत नहीं होती ।

१ – इसके समझने के लिए समुद्र स्थान लीजिए । समुद्र सैकड़ों कोश तक चौड़ा होता है । जल की सतह बराबर हुआ करती है । यदि दर्पणाकार पृथिवी होती तो समुद्र में अति दूर आता हुआ भी जहाज दीखना चाहिए और जहाज के नीचे से ऊपर तक सब भाग एक बार भी दीख पड़े, किन्तु ऐसा होता नहीं । अति दूरस्थ जहाज तो दीखता ही नहीं । ज्यों-ज्यों समीप आता जाता है त्यों-त्यों प्रथम जहाज का ऊपर का शिर दीखता है, फिर मध्य भाग तब नीचे का भाग । अब आप विचार कर सकते हैं कि जल की बराबर सतह पर ऐसी विषमता क्यों ? इसका एकमात्र कारण पृथिवी की गोलाई है । पृथिवी की गोलाई के कारण जहाज के नीचे का भाग छिपा रहता है ।

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२ – पुनः यदि किसी स्थान से आप किसी एक तरफ प्रस्थान करें और सीधे चलते ही जाएँ तो पुनः उसी स्थान पर पहुँच जाएँगे जहाँ से आपने प्रस्थान किया था । इसका भी कारण गोलाई है ।

३ – चन्द्र के ऊपर पृथिवी की छाया पड़ने से चन्द्र ग्रहण होता है । वह छाया गोल दीखती है, इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है, इस सम्बन्ध में अपने शास्त्र का सिद्धान्त देखिये । मैंने प्रारम्भ में ही कहा है कि ज्योतिष शास्त्र वेद का एक अंग है। मुहर्त्तचिन्तामणि, वृहज्जातक, लघुजातक आदि नहीं किन्तु गणितशास्त्र ही ज्योतिष है । जिसमें पृथिवी से लेकर ज्योति: स्वरूप सूर्य तक का पूरा-पूरा हिसाब सब प्रकार से हो, वह ज्योतिष शास्त्र है । जैसे व्याकरण शास्त्र बहुत दिनों से चले आते थे पश्चात् पाणिनी ने एक सर्वांग सुन्दरव्याकरण बनाया तत्पश्चात् वैसा व्याकरण अभी तक नहीं बना है। वैसे ही ज्योतिष शास्त्र अति प्राचीन है । सबसे पिछले आचार्य भास्कराचार्य ने लीलावती, बीजगणित सिद्धान्त शिरोमणि आदि अनेक ग्रन्थ ज्योतिष शास्त्र के रचे । वे ही आजकल अधिक पठन-पाठन में विद्यमान हैं। शब्द कल्पद्रुम नाम के कोश में भूगोल शब्द के ऊपर एक अच्छा लेख दिया हुआ है । भास्कराचार्यकृत सिद्धांतशिरोमणि के भी अनेक श्लोक यहाँ लिखे हुए हैं। मैं इस समय इसी कोश से कतिपय श्लोक उद्धृत करता हूँ । मैं इस समय भ्रमण कर रहा हूँ । अतः मूल ग्रन्थ मेरे पास नहीं है । आप लोग मूल ग्रन्थ में प्रमाण देख लेवें । भारतवर्ष में सिद्धांतशिरोमणि इतना

प्रसिद्ध है कि इसके बिना कोई ज्योतिषी नहीं बन सकता। इसका अनुवाद अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में हुआ है। शंका समाधान करके भास्कराचार्य सिद्ध करते हैं कि पृथिवी गोल है ।

यदि समा मुकुरोदरसंनिभा भगवती धरणी तरणिः क्षितेः उपरि दूरगतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरै रमरै रिव नेक्ष्यते ॥ १ ॥ यदि निशाजनकः कनकाचलः किमु तदन्तरगः स न दृश्यते ॥ उदगयन्ननुमेरु रथांशुमान् कथमुदेति स दक्षिण भागतः ॥

अर्थ – यदि भगवती पृथिवी दर्पण के समान समा अर्थात् समसतह वाली है तो पृथिवी के ऊपर बहुत दूर भ्रमण करते हुए सूर्य को जैसे अमरगण सदा देखा करते हैं वैसे ही मनुष्य भी सदा सूर्य को क्यों नहीं दीखते अर्थात् पृथिवी पर किस प्रकार प्रातः, मध्याह्न, सायं और रात्रि होती है। इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी सम नहीं है। जैसे ऊँचे पर्वत के पूर्व भाग की सीध में वा उसी पर रहने वाले पदार्थ पश्चिमभागस्थ पुरुष को नहीं दीखते तद्वत् पृथिवी के एक भाग में रहने वाला पुरुष पृथिवी के रुकावट के कारण सूर्य को नहीं दीखता । घूमती हुई पृथिवी का जितना – जितना भाग सूर्य के सामने पड़ता जाता है उतना उतना भाग सूर्य की किरणें पड़ने से दिन कहाता है, इसी प्रकार इसके विरुद्ध रात्रि । यदि यह कहो कि वह सूर्य सुमेरु पर्वत के पीछे चला जाता है इस कारण नहीं दीखता तो यह ठीक नहीं, क्योंकि इस अवस्था में वह सुमेरु ही दीख पड़े किन्तु वह दीखता नहीं, अतः यह कथन असत्य है और इसमें द्वितीय हेतु यह है कि तब उत्तरायण और दक्षिणायण भेद भी कभी नहीं होने चाहिएँ, क्योंकि सूर्य समानरूप से सुमेरु की परिक्रमा सब दिन करता है, यह आपका सिद्धान्त है तब ये दो अयन क्यों होते ? अतः सुमेरु पर्वत निशा का कारण नहीं, पुनः वही शंका बनी रही कि मनुष्य को सर्वदा समान रूप से सूर्य क्यों नहीं दीखता ? इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है ।

यदि पृथिवी गोल है तो हमें वैसी क्यों नहीं दीख पड़ती । उसका समाधान पूर्व में लिख आया हूँ । भास्कराचार्य भी वैसा ही कहते हैं यथा-

समोयतः स्यात् परिधेः शतांशः पृथिवी च पृथिवी नितरां तनीयान् ॥ नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना समेव तस्य प्रतिभात्यतः सा ॥

जिस कारण पृथिवी बहुत ही विस्तीर्ण है, अतः उसके शतांश भाग सम हैं। मनुष्य बहुत ही छोटा है। इस कारण इसको सम्पूर्ण पृथिवी सम ही प्रतीत होती है।

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