दान अपने घर से शुरू हो
मुहम्मद के पहले अरब लोगों में बहुत दानशीलता थी। किन्तु कर के रूप में नहीं। मसलन, उन दिनों अरब अपने ऊंटों को हर छठे या सातवें दिन किसी पोखर के किनारे ले जाते थे, वहां उन्हें दुहते थे और दूध जरूरतमन्दों में बांट देते थे (टि0 1329)।
इस उदारता की मुहम्मद ने सराहना की पर उन्होंने सिखाया कि दान अपने घर से शुरू होना चाहिए। यह मुद्दा अहादीस (2183-2195) में मिलता है। जिस क्रम से व्यक्ति को अपनी सम्पदा का व्यय करना चाहिए, वह इस प्रकार है-सर्वप्रथम अपने आप पर, फिर अपनी बीबी और बच्चों पर, फिर रिश्तेदारों और दोस्तों पर, और फिर नेक कामों पर। इसे बुद्धिमत्ता की बात ही कहा जाएगा।
आम़ रिवाज के मुताबिक, एक अरब ने एक बार यह वसीयत की कि उसकी मौत के बाद उसका गुलाम मुक्त कर दिया जाय। जब मुहम्मद ने यह सुना तो उसे बुलाया और पूछा कि क्या कोई और जायदाद भी उसके पास है। उसने कहा, नहीं। तब मुहम्मद ने उसके गुलाम को 800 दरहम में बेच दिया, और वह रकम उसे दे दी और कहा-”अपने आप से शुरू करो और इसे अपने पर खर्च करो, और कुछ बचे तो तुम्हारे परिवार पर खर्च होना चाहिए, और उससे भी जो बचे, वह तुम्हारे रिश्तेदारों पर खर्च होना चाहिए।“
एक और कहानी है, जो यही बात बतलाती है। एक महिला ने अपनी बांदी को आज़ाद कर दिया। पता चलने पर, मुहम्मद ने उससे कहा-”तुमने उससे अपने मामा को दे दिया होता, तो तुम्हें ज्यादा प्रतिफल मिलता“ (2187)।
अतएव इस मुद्दे पर मुहम्मद ने जो नैतिकता सिखायी, वह विशेषतः उदात्त तो नहीं थी, पर वह आम दस्तूर के अनुसार अवश्य थी। वह क्रांतिकारी नैतिकता तो कतई नहीं थी। गुलामों की मुक्ति न्याय का नहीं, दान का मामला बन गया और वह दान भी मोमिन के परिवार के कल्याण के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए।
author : ram swarup