हरि का उपदेश – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता हरिः । छन्दः आर्षी परा उष्णिक।
अचिक्रदद् वृष हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः। ससूर्येण दिद्युतदुधिर्निधिः॥
-यजु० ३८.२२
( अचिक्रदत् ) पुनः पुनः उपदेश दे रहा है (वृषा ) सुखवर्षक, ( हरिः२) दोषों का हर्ता परमेश्वर । ( महान् ) वह महान् है, ( मित्रः न दर्शतः ) मित्र के समान दर्शनीय है। वह ( सूर्येण ) सूर्य के द्वारा ( सं दिद्युतत् ) भली भाँति द्युति दे रहा है। वह ( उदधिः ) समुद्र है, (निधिः ) खजाना है।
आओ, वेदोक्त ‘हरि’ का स्मरण करें–‘हरिः ओम्, हरिः ओम्, हरिः ओम्’ । हरि परमेश्वर का एक नाम है, क्योंकि वह दोषों का हरण करनेवाला है। जब हम परमेश्वर के शुद्ध स्वरूप को झाँकी पाते हैं, तब हमें भी उसके समान शुद्ध होने की प्रेरणा मिलती है। वह ‘वृषा’ है, वृष्टि करनेवाला है, जल की वृष्टि के समान सुखों की वृष्टि भी करता है। वह महान् है, हम अल्पशक्ति मानवों की अपेक्षा महाशक्तिसम्पन्न है। उसकी महत्ता को हम इस रूप में प्रकट कर सकते हैं कि हम पानी की एक छोटी सी बंद हैं, तो वह लहराता सागर है, हम मिट्टी के एक क्षुद्र कण हैं, तो वह गगनचुम्बी विशाल पर्वत है, हम प्रकाश की एक चिनगारी हैं, तो वह प्रकाश का महासूर्य है। वह ‘मित्र’ के समान दर्शनीय है। अपने सखा के लिए सब कोई यह चाहता है कि वह हमसे अधिक से अधिक सम्पर्क रखे, वह हमें नित्य दर्शन देता रहे। मित्र की सब गतिविधियाँ हमें अच्छी लगती हैं। प्रभु को हम मित्र बना लेंगे, तो उसका सामीप्य हमें अच्छा लगेगा, उसके गुणों को हम ग्रहण करना चाहेंगे, उसके सदृश बनना चाहेंगे। उसकी एक विशेषता यह है कि वह सूर्य के द्वारा हमें द्युति दे रहा है, प्रकाश और ताप दे रहा है। कल्पना तो कीजिए कि सदा अन्धकार ही हमारे चारों ओर छाया रहे, तो हमारी क्या गति होगी। सूर्य महान् प्रकाश की सौगात लेकर उदित होता है और दिन-भर में हमें अपने प्रकाश से स्नान कराता रहता है। सूर्य का ताप हमें प्राप्त न हो, तो हमारा सारा भूमण्डल ठण्डा पड़ जाए और यहाँ से जीवन समाप्त हो जाए। सूर्य का ताप ही ओषधि-वनस्पतियों को भी जीवित रखता है। सूर्य केवल हमारी पृथिवी को ही नहीं, अपितु सब ग्रहोपग्रहों को अपनी परिक्रमा करवा कर उनका पालन करता है। यदि वे सूर्य की आकर्षणरूप डोर से छूट जाएँ, तो उनका नाम-निशान भी न रहे। वह ‘हरि’ परमेश्वर उदधि’ है, समुद्र है। जैसे समुद्र जल का सागर होता है, वैसे ही वह प्रेमरस का और आनन्दरस का सागर है। उस प्रेम और आनन्द के सागर की लहरों में झूल-झूले कर हम अपने आत्मा के गागर को प्रेम और आनन्द से परिपूर्ण कर लेते हैं। वह ‘हरि’ निधि है, खजाना है। खजाना है गुणगणों का, खजाना है ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम्’ का, खजाना है दयालुता का, न्याय का, खजाना है पुरुषार्थ का, खजाना है वीरता का, प्रताप का, खजाना है अहिंसा-सत्य अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह का।। |
वह ‘हरि’ चीख-चीख कर हमें कुछ सुना रहा है, उपदेश दे रहा है। वेद की ऋचाएँ सुना रहा है, हमें सावधान कर रहा है जीवन में कुछ करने के लिए, पुण्य की पूँजी कमाने के लिए, परलोक सुधारने के लिए। आओ, हम उसकी पुकार सुनें, उससे कुछ सीखें, उसके हो जाएँ।
पाद-टिप्पणियाँ
१. क्रदि शब्दे, पुनः पुनः शब्दमकरोत्-म० ।।
२. हृञ् हरणे। हरति दोषान् यः स हरि: ।
३. सम्-द्युत दीप्तौ, णिच्, लुङ्, अडभाव।
हरि का उपदेश – रामनाथ विद्यालंकार