Category Archives: वेद विशेष

हरि का उपदेश – रामनाथ विद्यालंकार

hari ka updesh1 हरि का उपदेश  – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता हरिः । छन्दः आर्षी परा उष्णिक।

अचिक्रदद् वृष हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः। ससूर्येण दिद्युतदुधिर्निधिः॥

-यजु० ३८.२२

( अचिक्रदत् ) पुनः पुनः उपदेश दे रहा है (वृषा ) सुखवर्षक, ( हरिः२) दोषों का हर्ता परमेश्वर । ( महान् ) वह महान् है, ( मित्रः न दर्शतः ) मित्र के समान दर्शनीय है। वह ( सूर्येण ) सूर्य के द्वारा ( सं दिद्युतत् ) भली भाँति द्युति दे रहा है। वह ( उदधिः ) समुद्र है, (निधिः ) खजाना है।

आओ, वेदोक्त ‘हरि’ का स्मरण करें–‘हरिः ओम्, हरिः ओम्, हरिः ओम्’ । हरि परमेश्वर का एक नाम है, क्योंकि वह दोषों का हरण करनेवाला है। जब हम परमेश्वर के शुद्ध स्वरूप को झाँकी पाते हैं, तब हमें भी उसके समान शुद्ध होने की प्रेरणा मिलती है। वह ‘वृषा’ है, वृष्टि करनेवाला है, जल की वृष्टि के समान सुखों की वृष्टि भी करता है। वह महान् है, हम अल्पशक्ति मानवों की अपेक्षा महाशक्तिसम्पन्न है। उसकी महत्ता को हम इस रूप में प्रकट कर सकते हैं कि हम पानी की एक छोटी सी बंद हैं, तो वह लहराता सागर है, हम मिट्टी के एक क्षुद्र कण हैं, तो वह गगनचुम्बी विशाल पर्वत है, हम प्रकाश की एक चिनगारी हैं, तो वह प्रकाश का महासूर्य है। वह ‘मित्र’ के समान दर्शनीय है। अपने सखा के लिए सब कोई यह चाहता है कि वह हमसे अधिक से अधिक सम्पर्क रखे, वह हमें नित्य दर्शन देता रहे। मित्र की सब गतिविधियाँ हमें अच्छी लगती हैं। प्रभु को हम मित्र बना लेंगे, तो उसका सामीप्य हमें अच्छा लगेगा, उसके गुणों को हम ग्रहण करना चाहेंगे, उसके सदृश बनना चाहेंगे। उसकी एक विशेषता यह है कि वह सूर्य के द्वारा हमें द्युति दे रहा है, प्रकाश और ताप दे रहा है। कल्पना तो कीजिए कि सदा अन्धकार ही हमारे चारों ओर छाया रहे, तो हमारी क्या गति होगी। सूर्य महान् प्रकाश की सौगात लेकर उदित होता है और दिन-भर में हमें अपने प्रकाश से स्नान कराता रहता है। सूर्य का ताप हमें प्राप्त न हो, तो हमारा सारा भूमण्डल ठण्डा पड़ जाए और यहाँ से जीवन समाप्त हो जाए। सूर्य का ताप ही ओषधि-वनस्पतियों को भी जीवित रखता है। सूर्य केवल हमारी पृथिवी को ही नहीं, अपितु सब ग्रहोपग्रहों को अपनी परिक्रमा करवा कर उनका पालन करता है। यदि वे सूर्य की आकर्षणरूप डोर से छूट जाएँ, तो उनका नाम-निशान भी न रहे। वह ‘हरि’ परमेश्वर उदधि’ है, समुद्र है। जैसे समुद्र जल का सागर होता है, वैसे ही वह प्रेमरस का और आनन्दरस का सागर है। उस प्रेम और आनन्द के सागर की लहरों में झूल-झूले कर हम अपने आत्मा के गागर को प्रेम और आनन्द से परिपूर्ण कर लेते हैं। वह ‘हरि’ निधि है, खजाना है। खजाना है गुणगणों का, खजाना है ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम्’ का, खजाना है दयालुता का, न्याय का, खजाना है पुरुषार्थ का, खजाना है वीरता का, प्रताप का, खजाना है अहिंसा-सत्य अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह का।। |

वह ‘हरि’ चीख-चीख कर हमें कुछ सुना रहा है, उपदेश दे रहा है। वेद की ऋचाएँ सुना रहा है, हमें सावधान कर रहा है जीवन में कुछ करने के लिए, पुण्य की पूँजी कमाने के लिए, परलोक सुधारने के लिए। आओ, हम उसकी पुकार सुनें, उससे कुछ सीखें, उसके हो जाएँ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. क्रदि शब्दे, पुनः पुनः शब्दमकरोत्-म० ।।

२. हृञ् हरणे। हरति दोषान् यः स हरि: ।

३. सम्-द्युत दीप्तौ, णिच्, लुङ्, अडभाव।

 हरि का उपदेश  – रामनाथ विद्यालंकार

आत्म परिचय – रामनाथ विद्यालंकार

aatm parichay1आत्म परिचय – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता आत्मा। छन्दः आर्षी पङ्किः।

मयि त्यदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मय॒ि क्रतुः घर्मस्त्रिशुग्वि राजति विराजा ज्योतिषा सह ब्रह्मण तेजसा सह ॥

-यजु० ३८.२७

(मयि) मेरे अन्दर ( त्य) वह ( बृहत्) बहुत शक्तिशाली ( इन्द्रियं ) इन्द्रजुटे प्राण है, (मयि ) मेरे अन्दर ( दक्षः ) दक्षता है, ( मयि ) मेरे अन्दर ( क्रतुः ) कर्म और प्रज्ञा है, मेरे अन्दर ( त्रिशुग् घर्मः ) तीन दीप्तियों का प्रताप ( विराजति ) विराजमान है (विराजा ज्योतिषा सह ) विराड् ज्योति के साथ, ( ब्रह्मणा तेजसा सह ) ब्रह्मतेज के साथ।

क्या तुम मुझ आत्मा का परिचय जानना चाहते हो? मैं हाड़मांस का पिण्ड नहीं हूँ, वह तो मेरा साधन है। मेरी प्रथम विशेषता यह है कि मेरे पास एक इन्द्रजुष्ट महत्त्वपूर्ण वस्तु प्राण है, जो इन्द्रियों का भी इन्द्रिय है। छान्दोग्य उपनिषद् में कथा है कि इन्द्रियों में विवाद उत्पन्न हो गया कि हममें कौन ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। सब इन्द्रियों के एक-एक करके शरीर से बाहर निकलने पर भी शरीर चलता रहा, किन्तु जब प्राण बाहर निकलने लगा तब उसके साथ अन्य इन्द्रियाँ भी खिंचती हुई बाहर निकलने लगीं। अतः प्राण ही ज्येष्ठ और श्रेष्ठ माना जाता है। वह बहत इन्द्रिय प्राण मेरे पास है, जिसके कारण अचेतन पदार्थों की अपेक्षा मैं चेतन, सप्राण और जीवित जागृत माना जाता हूँ। दूसरी प्रशस्त वस्तु मेरे अन्दर ‘दक्ष’ अर्थात् आत्मबल और शारीरिक बल है। इनके अतिरिक्त मेरे पास अन्य भी कई वस्तुएँ हैं, जिनके कारण मैं असीम शक्तिशाली माना जाता हूँ। मेरे अन्दर ‘क्रतु’ है, जिससे प्रज्ञा, कर्म और सङ्कल्प परिलक्षित होते हैं। प्रज्ञा के बल से मैं वेद-वेदाङ्गों को तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन एवं ज्ञानार्जन करता हूँ, तथा कर्म की शक्ति से उस ज्ञान के अनुकूल आचरण करता हूँ। मेरे अन्दर दृढ़ सङ्कल्प भी है, जिसके कारण अपनी प्रतिज्ञा को कभी छोड़ता नहीं हूँ। मेरे पास ‘त्रिशुग् घर्म’ भी है। घर्म निघण्टु कोष के अनुसार यज्ञ का वाचक है। ‘त्रिशुग’ का अर्थ है, जो शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक तीनों पवित्रताओं से युक्त है। अपवित्र यज्ञ कभी सफल नहीं होता। देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान के सब कार्य यज्ञ कहलाते हैं। मेरे इन कार्यों में तीनों प्रकार की पवित्रता विद्यमान रहती है। मेरे अन्दर ‘विराड् ज्योति’ है, जिसके सम्मुख सूर्य, चन्द्र, तारे, विद्युत्, अग्नि सब फीके पड़ जाते हैं। मेरे अन्दर ब्राह्मतेज और क्षात्र तेज भी उपस्थित है। ब्राह्मतेज से मैं योगसाधना द्वारा समाधि की स्थिति में पहुँच सकता हूँ, जहाँ ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ दिखायी नहीं देता और क्षात्र तेज द्वारा मैं आततायी, आतङ्कवादी शत्रुओं को परास्त कर सकता हूँ। मेरे विद्यमान रहते कोई आतङ्कवादी निर्दोष लोगों की हत्या नहीं कर सकता, बम के गोले छोड़कर हाहाकार नहीं मचा सकता।

मैं इन्द्र हूँ, आत्मतेज से भासमान हूँ, क्षात्रबल से देदीप्यमान हूँ। मैं अकेला ही सैंकड़ों से लोहा ले सकता हूँ। मेरे प्रताप को पहचानो, आवश्यकता होने पर मुझे याद करो, मुझे सेवा का गौरव प्रदान करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. निघं० ३.१७

२. त्रि-शुचिर् पूतीभावे ।

 

आत्म परिचय – रामनाथ विद्यालंकार

मृत्यु के पश्चात् जीव की गति – रामनाथ विद्यालंकार

mrityu ke pashchat aatma ki gati1मृत्यु के पश्चात् जीव की गति  – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता सवित्रादयः । छन्दः विराड् धृतिः ।।

सविता प्रथमेऽहन्नग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदित्यश्चतुर्थे । न्द्रमाः पञ्चमऽऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशुमऽइन्द्रएकादशे विश्वेदेवा द्वादशे ॥

 -यजु० ३९.६

 हे मनुष्यो ! इस जीव को शरीर छोड़ने पर ( सविता ) सूर्य ( प्रथमे अहन्) पहले दिन, ( अग्निः ) अग्नि (द्वितीये ) दूसरे दिन, (वायुः ) वायु ( तृतीये ) तीसरे दिन, ( आदित्यः ) मास ( चतुर्थे ) चौथे दिन, ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा ( पञ्चमे ) पाँचवे दिन (ऋतुः ) ऋतु ( षष्ठे) छठे दिन, ( मरुतः ) मनुष्यादि प्राणी ( सप्तमे) सातवें दिन, ( बृहस्पतिः ) बड़े-बड़ों का पालक सूत्रात्मा वायु ( अष्टमे ) आठवें दिन, ( मित्रः ) प्राण ( नवमे ) नौवें दिन, (वरुणः ) उदान (दशमे ) दसवें दिन, ( इन्द्रः ) विद्युत् ( एकादशे ) ग्यारहवें दिन, (विश्वेदेवाः ) सब दिव्य उत्तम गुण ( द्वादशे ) बारहवें दिन प्राप्त होते हैं।

“हे मनुष्यो ! जब ये जीव शरीर को छोड़ते हैं, तब सूर्यप्रकाश आदि पदार्थों को प्राप्त होकर, कुछ काल भ्रमण कर, अपने कर्मों के अनुकूल गर्भाशय को प्राप्त शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं। तभी पुण्य-पाप कर्म से सुख-दुःखरूप फलों को भोगते हैं।”” “जब यह जीव शरीर को छोड़ सब पृथिव्यादि पदार्थों में भ्रमण करता, ‘जहाँ-तहाँ प्रवेश करता और इधर-उधर जाता हुआ कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से जन्म पाता है, तब ही सुप्रसिद्ध होता है।”२ हे मनुष्यो ! जो जीव पापाचरणी हैं वे उग्र, जो धर्मात्मा हे वे शान्त, जो भय  देनेवाले हैं वे भीम, जो भय को प्राप्त हैं वे भीत, जो अभय देनेवाले हैं वे निर्भय, जो अविद्यायुक्त हैं वे अन्धकारावृत, जो विद्वान् योगी हैं वे प्रकाशयुक्त, जो अजितेन्द्रिय हैं वे चञ्चल (धुनि), जो जितेन्द्रिय हैं वे अचञ्चल, अपने-अपने कर्मफलों को सहते-भोगते, संयोग-विक्षेप को प्राप्त हुए जगत् में नित्य भ्रमण करते हैं, ऐसा जानो।”३ ५५ जो जीव शरीर को छोड़ते हैं वे वायु और ओषधि आदि पदार्थों में भ्रमण करते-करते गर्भाशय को प्राप्त होके नियत समय पर शरीर धारण करके प्रकट होते हैं।”४ “हे देह का अन्त करनेवाले जीव! तू सोमलता आदि वा यवादि ओषधियों के मध्य गर्भरूप से रहता है। पीपल आदि वनस्पतियों के मध्य गर्भरूप से रहता है, प्राण वा जलों के मध्य गर्भरूप से रहता है।'”, ” हे जीवो ! जब तुम शरीर को छोड़ो तब यह भस्मीभूत होकर पृथिवी आदि पञ्चतत्त्वों में मिल जाये। तुम और तुम्हारे आत्मा माता के शरीरों में गर्भाशय में प्रविष्ट होकर पुनः शरीर धारण कर विद्यमान होवो।’१६ हे इच्छादि-गुणप्रकाशित जीव! तू जलों और पथिवी के सदन में फिर-फिर प्राप्त होके इस माता के गर्भाशय में शयन करके इसके लिए मङ्गलकारी हो, जैसे बालक माता की गोद में शयन कर उसके लिए मङ्गलकारी होता है।’

जब पाप बढ़ जाता पुण्य न्यून होता है, तब मनुष्य को जीव पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है, तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्य-जन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्रीवाले होते हैं और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग होता है, पुनः पाप-पुण्य के तुल्य रहने से (उत्तम) मनुष्यशरीर में आता और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है।”

“जब शरीर से निकलता है, उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम जन्म है। जब शरीर छोड़ता तब यमालय’ अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है। वह जीव वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है, जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा गर्भ में स्थित हो शरीर धारण कर, बाहर आता है।’ १९ ।

पादटिप्पणियाँ

१. यजु० ३९.४ दे०भा०, भावार्थ ।

२. यजु० ३९.५ दे०भा०, भावार्थ।

३. यजु० ३९.७ दे०भा०, भावार्थ ।

४. यजु० १२.३६ दे०भा०, भावार्थ।

५. यजु० १२.३७ दे०भा० का पदार्थ स्वरचित ।

६. यजु० १२.३८ दे०भा० भावार्थ, संशोधिते ।।

७-८. स०प्र०, समु० ९

मृत्यु के पश्चात् जीव की गति  – रामनाथ विद्यालंकार

आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार

aayu bhar karm yog me laga rah

आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता आत्मा। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

कुर्वन्नेवेह कर्मणि जिजीविषेच्छतः समाः एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति कर्म लिप्यते नरें

-यजु० ४० । २

आत्मा (इह ) इस संसार में ( कर्माणि कुर्वन् एव ) कर्मों को करता हुआ ही (शतंसमाः ) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। ( त्वयि ) तेरे विषय में (एवं ) ऐसा ही विधान है ( इतः अन्यथा न ) इससे भिन्न नहीं है। ( नरे) मनुष्य में (कर्मलिप्यते न ) कर्म लिप्त नहीं होता, उससे चिपट नहीं जाता।।

कुछ मनुष्य यह सोचते हैं कि कर्म तो बन्धन में डालनेवाला है, इसलिए कर्म को तिलाञ्जलि देकर खाली बैठे रहो। उन्हें सावधान करती हुई भगवद्गीता कहती है कि कोई भी मनुष्य बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता। प्रकृति के गुणों से बाधित होकर उसे कर्म करना ही पड़ता है। जो कर्मेन्द्रियों को कर्मों से रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों को स्मरण करता रहता है, वह मूढ़ मनुष्य मिथ्याचारी कहलाता है। इसके विपरीत जो जितेन्द्रिय होकर असक्त रहकर कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग में लगा रहता है, वह विशिष्ट पुरुष कहलाता है। निश्चय ही कर्म अकर्म से अधिक उत्कृष्ट है। जो कर्म न करने का आग्रह करता है, उसकी शरीर-यात्रा भी नहीं चल सकती।’

‘कर्म तीन प्रकार के होते हैं-सात्त्विक, राजस और तामस । जो कर्म आसक्तिरहित होता है, बिना राग-द्वेष के किया जाता है और जिसमें फलेच्छा की उत्कटता नहीं होती वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। जो कर्म फलेच्छा की उत्कटता के साथ या अहंभाव के साथ किया वजाता है वह राजस कर्म कहलाता है। जौ कर्म हानि, लाभ, उपकार, अपकार, क्षय, हिंसा, पौरुष आदि का विचार किये बिना मोहवश किया जाता है, वह तामस कर्म होता है।”

इनमें सात्त्विक कर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है। यहाँ शङ्का यह हो सकती है कि कर्म करेंगे तो कर्मलेप अवश्यंभावी है। कर्म, कर्म के बाद उसका फल, फिर कर्म और कर्मफल, इस प्रकार यह श्रृंखला कभी समाप्त नहीं होगी। कर्म के बन्धन में ही हम बंधे रहेंगे, उससे मुक्ति कभी नहीं होगी। इस कर्मफल से बचने के लिए हम कर्म से विरत होना चाहते हैं। न रहेगा बांस, न रहेगी बांसुरी।। |

इस शङ्का का उत्तर यह है कि कर्म द्विविध होते हैं निष्काम कर्म और सकाम कर्म । जो कर्म किसी सांसारिक भोग की इच्छा न रखकर केवल परमेश्वर की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है, वह निष्काम कर्म होता है, उससे मोक्ष और ईश्वरसान्निध्य के अनन्त सुख की प्राप्ति होती है, उससे सांसारिक, फल प्राप्त नहीं होते। इसके विपरीत जो कर्म धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि के लिए किया जाता है, वह सकाम कर्म होता है। उससे लौकिक सुख प्राप्त होते हैं। यदि किसी की इच्छा कर्मलेप से बचने की है, तो यह निष्काम कर्म करे और जो सांसारिक सुख प्राप्त करना चाहता है वह धर्मपूर्वक सकाम कर्म करे। दोनों ही मार्ग ठीक हैं, सकाम कर्म से भी लोकोपकार और सदाचार प्रशस्त होता है । मन्त्र में कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होता’ कहा है, वह निष्काम कर्म के विषय में है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. भगवद्गीता ३ । ५-८

२. वही १८ । २३-२५

३. स्वामी दयानन्द, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय-विचार, कर्मकाण्ड

प्रकरण ।

४. (कर्माणि) धम्र्याणि वेदोक्तानि निष्कामकृत्यानि-दे० ।।

आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  बन्धुः ।  देवता  रुद्रः ।  छन्दः  आर्षी विराट् पङ्किः।

अर्व रुद्रमंदीमह्यवं देवं त्र्यम्बकम् यथा नो वस्यसंस्करद्यथा नः श्रेयसस्करद्यथा नो व्यवसाययात्

-यजु० ३।५८ |

हम (रुद्रं) रुद्र परमेश्वर से (अव अदीमहि) अपने दोषों और दु:खों का क्षय करवा लें, (त्र्यम्बकं देव) त्र्यम्बक देव से (अव अदीमहि) पापाचरणों का क्षय करवा लें, (यथा) जिससे, वह (नः) हमें (वस्यसः४) औरों से अच्छा नगरनिवासी (करत्) कर दे, (यथा) जिससे, वह (नः) हमें (श्रेयसः) प्रशस्ततर (करत्) कर दे, (यथा) जिससे, वह (नः) हमें (व्यवसाययात्) व्यवसायी और निश्चयात्मक बुद्धिवाला कर दे। |

आओ, रुद्र प्रभु से हम अपने दोष दूर करवा लें, त्र्यम्बक देव से अपने दोष दूर करवा लें । रुद्र परमेश्वर का नाम है, क्योंकि वह दुष्टों को दण्ड देकर रुलाता है। यदि हम उसकी दण्ड-शक्ति का ध्यान रखेंगे, तो दुष्टता करना छोड़ देंगे। सत्योपदेश करने के कारण भी वह रुद्र कहलाता है। उसके सत्योपदेश सुन कर भी हम दोषों को त्याग देंगे। त्र्यम्बक पौराणिक सम्प्रदाय में त्रिनेत्र होने के कारण महादेव को कहते हैं, कामदेव को भस्म करने के लिए उन्होंने एक नेत्र अपने मस्तक में निकाल लिया था। किन्तु महादेव परमेश्वर का तो अशरीरी होने से एक भी नेत्र नहीं है। वे तो बिना नेत्र के ही सबको देखते हैं। यदि आलङ्कारिक दृष्टि से देखें तो त्रिनेत्र क्या, वे तो सहस्राक्ष हैं। अत: सृष्टि, स्थिति, प्रलय तीनों को गति देने के कारण मन, बुद्धि, आत्मा तीनों को उपदेश देने के कारण तथा तीनों कालों में एकरस ज्ञान रखने के कारण परमेश्वर त्र्यम्बक कहलाते हैं । जब हम यह ध्यान करेंगे कि परमेश्वर इतना महान् है कि सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का धारण

और यथासमय उसकी प्रलय भी वह अकेला ही करता है, तब हम सोचेंगे कि वह हमें दुष्टता का दण्ड भी दे सकता है, अत: हमारे दोष दूर हो जायेंगे। उसके उपदेश से भी हमारे मन, बुद्धि, आत्मा निर्दोष होंगे। उसका ज्ञान सब कालों में एकरस रहता है, यदि हम दोष करेंगे, तो उसे वह कभी भूलेगा नहीं और हमें दण्ड अवश्य देगा, यह विचार भी हमें निर्दोष बनाने में सहायक होगा। परमेश्वर देव है, दानी है, दीप्तिमान् है, दीप्ति देनेवाला है। अतः वह हमें सद्गुणों का दान करेगा, हमें सद्गुणों से देदीप्यमान करेगा, इस विश्वास से भी हम निर्दोष हो सकेंगे। निर्दोष होने पर शक्तिमान् होकर हम प्रभु-कृपा से तथा पुरुषार्थ से आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दु:खों को भी दूर कर सकेंगे।

जब तक हम दोषों, अपराधों एवं पापों में संलग्न रहेंगे, तब तक किसी राष्ट्र प्रदेश या नगर के स्थायी निवासियों की श्रेणी में भी हम नहीं आ सकते । त्र्यम्बक रुद्र के ध्यान से अपनी-अपनी अपराधवृत्तियों और पापवृत्तियों को नष्ट करवाकर ही हम स्वागतयोग्य प्रशस्त निवासी होने का प्रमाणपत्र पा सकते हैं। त्र्यम्बक रुद्र का पारसमणिसदृश सम्पर्क लोहे के तुल्य हमें सुवर्णसदृश, प्रशस्त तथा ‘ श्रेयान्’ बना सकता है, रुद्र प्रभु के साथ सम्पर्क से पूर्व जो हमारी स्थिति और योग्यता थी, उसकी अपेक्षा हमें बहुत ऊँचा उठा सकता है। त्र्यम्बक रुद्र प्रभु हमें व्यवसायात्मिका बुद्धिवाले, असमञ्जस की स्थिति में तुरन्त सही निर्णय कर लेने में समर्थनिश्चयात्मक वृत्तिवाले और व्यवसायी भी बना सकते हैं, क्योंकि वे स्वयं इन गुणों से युक्त हैं। कौन मनुष्य किस कोटि के अपराध, दुष्कर्म या पाप का पात्र है और उसे क्या दण्ड मिलना चाहिए, तथा कौन मनुष्य किने सुकर्मों का कर्ता है और उसे क्या सत्फल या पुरस्कार दिया जाना चाहिए इसका वे त्वरित निर्णय कर लेते हैं। हम भी उनसे शिक्षा लेकर किसी भी समस्या का त्वरित समाधान करनेवाले बनें ।

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. अदीमहि सर्वाणि दुःखानि क्षाययेम नाशयेम। दीङ् क्षये, लिङ्र्थे

| लङ्-द० ।।

२. ये ऽ तिशयेन वसन्ति ते वसीयांसः तान्, छान्दस ईकारलोपः-द० ।

३. करत् कुर्यात्, लेट् लकार।

४. श्रेयसः अतिशयेन प्रशस्तान्-द० ।।

५. व्यवसाययात् निश्चयवतः कुर्यात्-द० । वि-अव-षो अन्तकर्मणि,

णिच्, लेट् ।।

६. रुद्रं दुष्टानां रोदयितारं परमेश्वरम्-द० ।।

७. रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति यः । -ऋ० १.११४.३–० ।।

८. पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।।

९. सहस्रशार्षा पुरुषः सहस्राक्षः । -ऋ० १०.९०.१

१०.त्रीन् सृष्टिस्थितिप्रलयान् अम्बयति गमवति यः सः ।

त्रीन् मनोबुद्ध्यात्मनः अम्बति उपदिशति यः सः ।

११.अमति येन ज्ञानेन तदम्बे, त्रिषु कालेषु एकरसं ज्ञानं यस्य तम्-द० |

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार

राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  बन्धुः ।  देवता  रुद्रः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

एष ते रुद्र भागः सह स्वस्राम्बिक तं जुषस्व स्वाष ते रुद्र भागऽआखुस्ते पशुः ॥

-यजु० ३ । ५७

हे (रुद्र) राजन् ! (एषः) यह (ते भागः) आपका भाग है, जिसे हम (स्वस्रा अम्बिकया सह) अपनी बहिन, माता आदि के साथ देते हैं । (तं) उस भाग को, आप (जुषस्व) स्वीकार कीजिए। हे (रुद्र) नगरपालिकाध्यक्ष ! (एषः) यह (ते भागः) आपका भाग है, उसे आप स्वीकार कीजिए। (आखुः) चूहा, चूहे की प्रवृत्तिवाला मनुष्य (ते) आपके लिए (पशुः) पशुतुल्य है।

सभी राष्ट्रों में राजा की ओर से प्रजा पर कुछ कर (टैक्स) लगाये जाते हैं, जिनसे प्राप्त आय को राजा-प्रजा की ही सार्वजनिक भलाई के लिए व्यय करता है। प्रजा यदि छल से उन करों को देने से बचती है, तो यह सार्वजनिक दृष्टि से एक अपराध है। यदि हम अपने ऊपर लगे आयकर, बिक्रीकर, चुङ्गीकर आदि को कर्तव्य समझकर राजकोष में भेजते रहें, तो उससे हमारा ही कल्याण होगा। जैसे सूर्य समुद्र से जल लेकर उसे सहस्रगुणा बढ़ाकर भूमि पर बरसाती है, वैसे ही राजा सबसे थोड़ा-थोड़ा धन कर रूप में लेकर प्रजा की भलाई में लगा कर उसे सहस्रगुणित रूप में प्रजा पर बरसा देता है।

मन्त्र में प्रजा ‘रुद्र’ नाम से राजा और नगरपालिकाध्यक्ष को सम्बोधित कर रही है। इन्हें रुद्र इस कारण कहते हैं, क्योंकि ये प्रजा के ‘रुत्’ अर्थात् रोग, दु:ख आदि का द्रावण या विनाश करते हैं। हे राजन् ! अपनी आय में से यह आपका भाग निकाल कर हम प्रसन्नतापूर्वक आपकी सेवा में अर्पित करते हैं। हमारी बहिन, माता आदि की हमसे अलग कर योग्य आमदनी है, तो उनसे भी आपका नियत भाग हम आपको दिलाते हैं। उसे आप गृहीत कीजिए। जो कर नगरपालिका हम पर लगाती है, वह कर हम नगरपालिकाध्यक्ष को देते हैं।

हे राजन् ! और हे नगरपालिकाध्यक्ष ! आपके राज्य और नगर में जो ‘आखु’ अर्थात् चूहे की प्रवृत्तिवाला है, वह आपके लिए पशुतुल्य है। जैसे चूहे अनाज, मेवे आदि चुरा कर अपने बिल में भर लेते हैं, ऐसे ही जो राजदेय धन की चोरी करके अपने पास उसका संग्रह करता रहता है, वह चूहा है। उसे राजा और नगरपालिकाध्यक्ष पशुतुल्य मान कर प्रताडित और दण्डित करते हैं। | यह द्रष्टव्य है कि पौराणिक साहित्य में अम्बिका रुद्र की बहिन (स्वसा) नहीं, अपितु पत्नी है। इसी प्रकार चूहा रुद्र का वाहन न होकर गणेश का वाहन है। ब्राह्मणकार अम्बिका को रुद्र की बहिन ही मानते हैं । भाष्यकार महीधर की व्याख्यानुसार अम्बिका रुद्र की बहिन है, जब क्रूर रुद्र की किसी विरोधी को मारने की इच्छा होती है, तब वह अपनी क्रूर बहिन अम्बिका द्वारा उसे मरवाता है। अम्बिका शरद् ऋतु का रूप धारण करके उसका संहार कर देती है। रुद्र और अम्बिका को उनका भाग देने से उनकी क्रूरता शान्त हो जाती है। उन्हें अर्पित करने के बाद जो शेष हविर्भाग रहता है, उसे चूहे के बिल में डाल देना चाहिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो बलिमग्रहीत् । सहस्त्रगुणमुत्स्रष्ट्रमादत्ते हि रसं रविः || -रघवंश

२. रुतं रोगदु:खादिकं द्रावयति अपगमयतीति रुद्रः (रुत्+द्रु गतौ) ।।

३. अम्बिका ह वै नामास्य स्वसा, तयास्यैष सह भागः । श० २.६.२.९

राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार

पाप – मोचन – रामनाथ विद्यालंकार

पाप-मोचन

ऋषिः प्रजापतिः ।  देवता  मरुतः (मनुष्याः) । छन्दः  स्वराड् अनुष्टुप् ।

यद् ग्रामे यदरण्ये यत् सभायां यदिन्द्रिये। यदेनश्चकृमा व्यमिदं तदवेयजामहे स्वाहा

-यजु० ३ | ४५

(यद्) जो (ग्रामे) ग्राम में, (यद्) जो (अरण्ये) जङ्गल में, (यत्) जो (सभायां) सभा में, (यत्) जो (इन्द्रिये) चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के विषय में, (यद्) जो अन्य किसी के विषय में भी (एनः) पाप या अपराध (वयं चकृम) हम करते हैं (तत्) उसे (इदं) यह (अ वयजामहे) हम दूर कर रहे हैं, (स्वाहा) यह कैसा उत्तम व्रत है।

हम जाने या अनजाने कुछ न कुछ पाप या अपराध करते ही रहते हैं। कभी हम ग्रामविषयक अपराध करते हैं। ग्राम के मुखिया का कहना नहीं मानते, ग्राम-पञ्चायत के निर्णयों की उपेक्षा करते हैं, ग्राम को स्वच्छ, साफ-सुथरा नहीं रखते, ग्राम की पवित्र नैतिकता को कलङ्क लगाते हैं, ग्रामवासियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, ग्राम की बहू-बेटियों के साथ शिष्ट व्यवहार नहीं करते, ग्राम की आदर्श स्वायत्त शासनव्यवस्था भङ्ग करते हैं, ग्राम के अतिथियों के साथ अभद्रता करते हैं, ग्राम के बुजुर्गों का अनादर करते हैं, ग्राम के कूपों-जलाशयों को मलिन करते हैं, ग्राम के पशुओं को कष्ट देते हैं। कभी हम वन-विषयक अपराध या पाप करते हैं। वृक्ष हमारे वनों की बहुमूल्य सम्पदा हैं।

वे वनभूमि को सुदृढ़ रखते हैं, वर्षा में कारण बनते हैं, फल-फूल आदि देते हैं, वायुमण्डल को सरस, सुगन्धित, शीतल बनाते हैं। उन्हें हम यदि काट कर नष्ट करते हैं, तो पाप करते हैं। इसी प्रकार वन-विषयक राजनियमों की उपेक्षा करके वन के पशुओं को मारना, चोरी से वन का सामान लाना, वन के सौन्दर्य को नष्ट करना आदि भी वन सम्बन्धी अपराध हैं। कभी हम सभा-विषयक अपराध करते हैं। सभा में सभापति के आदेश का उल्लङ्घन करना, सदस्यों के साथ अनुचित व्यवहार करना, सभा में अहितकर परामर्श देना, सभा को शान्ति से न चलने देना आदि सभा के अपराध हैं। कभी हम चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से सम्बद्ध अपराध करते हैं। आँख से अभद्र देखना, कान से अभद्र सुनना, रसना से अभक्ष्य पदार्थ चखना, नासिका से अभद्र सँघना, त्वचा से अभद्र स्पर्श करना, हाथों से अभद्र कार्य करना, इन्द्रियों को दुर्बल करना, इन्द्रियों के रुग्ण हो जाने पर उन्हें पुनः स्वस्थ करने के उपाय न करना आदि इन्द्रियापराध हैं। ग्राम, जङ्गल, सभा और इन्द्रियों के विषय में ही नहीं, अपितु माता, पिता, गुरुजन, अतिथिजन, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति भी हम बहुत से अपराध या पाप करते रहते हैं।

परन्तु आज से हम यह व्रत लेते हैं कि सभी पापों और अपराधों से हम स्वयं को बचायेंगे। व्रत दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचायक होता है। दृढ़ सङ्कल्प-बल द्वारा हम निश्चय ही समस्त अपराधों से बचे रहेंगे। प्रजापति प्रभु की कृपा से हमारा व्रत सफल हो और हम निष्पाप एवं निरपराध जीवन जी सकें।

पाप-मोचन

पादटिप्पणी

१. चकृमा–संहिता में ‘अन्येषामपि दृश्यते’ पा० ६.३.१३७ से दीर्घ।।

पाप-मोचन

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः आसुरिः।   देवता  अग्निः ।  छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

आर्गन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम्। अग्ने सम्राडुभि द्युम्नमुभि सहुऽआयच्छस्व

-यजु० ३।३८


हम (आ अगन्म) आये हैं (विश्ववेदसम्) विश्ववेत्ता, (अस्मभ्यं वसुवित्तमम्) हमें सर्वाधिक धन प्रदान करने वाले आपकी शरण में । हे (अग्ने) अग्रणी जगदीश्वर ! (सम्राट्) हे विश्वसम्राट् ! आप (अभि) हमारे प्रति (द्युम्नम्) यश और (अभि) हमारे प्रति (सहः) बल (आ यच्छस्व) प्रदान कीजिए।

संसार में जितने प्रकार के पदार्थ हैं, उतनी ही विद्याएँ हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के पदार्थ की अपनी-अपनी विशेषता है। इस प्रकार असंख्य विद्याएँ हैं। ब्रह्माण्ड में ज्ञान का समुद्र लहरा रहा है। कोई किसी विद्या का विज्ञानी है, कोई किसी का। विज्ञानी पण्डितों में भी तारतम्य है। ज्ञान में कुछ कमर तक पानी के सरोवर के समान होते हैं, कुछ मुखपर्यन्त पानी वाले सरोवर के समान और कुछ लबालब भरे हुए डुबकी लगाने, तैरने और स्नान करने योग्य सरोवर के समान ज्ञान से लबालब भरे होते हैं। संसारी ज्ञानियों के ऊपर ज्ञानियों का ज्ञानी, विश्वविज्ञ ‘विश्ववेदस्’ अग्नि परमेश्वर विद्यमान है। सबका अग्रणी होने के कारण वह अग्नि है, और विश्ववेत्ता होने के कारण विश्ववेदस्’ कहलाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद मुनि सनत्कुमार के पास विद्याध्ययनार्थ जाते हैं। पूछने पर वे बताते हैं कि मैं चारों वेद, इतिहास, पुराण, वेदों के वेद व्याकरण आदि १९ विद्याओं में पारङ्गत हो चुका हूँ। सनत्कुमार कहते हैं कि ये सब तो लौकिक विद्याएँ हैं, ‘नाम’ हैं। नाम से बढ़ कर वाक् है, वाक् से बढ़ कर मन है इत्यादि विस्तार करते हुए वे ‘भूमा’ तक पहुँचा देते हैं। अन्त में ब्रह्मपुर तथा ब्रह्म तक ले जाते हैं।

इससे ज्ञात होता है कि लौकिक विद्याएँ भी अन्तिम नहीं हैं, उनसे भी परे अध्यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या है। मनुष्य एक-दो विद्याओं में अपूर्ण पण्डित होकर ही स्वयं को विद्वान् मानने लगते हैं। उसकी तुलना में परमेश्वर का ज्ञान कितना अगाध है, इसी कारण वह ‘विश्ववेदाः’ है, सब लौकिक और आध्यात्मिक विद्याओं का पूर्ण विद्वान् है ।।

परमेश्वर का दूसरा विशेषण मन्त्र में ‘वसुवित्तम’ है, अर्थात् वह सबसे बड़ा ‘वसुवित्’ है। वसु धन का नाम है, ‘वित्’ में लाभार्थक विद धातु है, ‘तमप्’ प्रत्यय अतिशय अर्थ में है। वह हमें सबसे बढ़कर धन प्राप्त करानेवाला है। सांसारिक धनपति तो हमें सामान्य और अल्प धन ही प्राप्त कराते हैं, परमेश्वर अग्नि, जल, वायु, भूमि, सूर्य, विद्युत्, वर्षा आदि ऐसे विशिष्ट धन प्राप्त कराता है, जिनके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते। इसके अतिरिक्त वह विद्या, विनय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक धन भी हमें प्रदान करता है। | वह जगदीश्वर ही हमारा असली ‘सम्राट्’ है। हे सम्राट् ! हे राजाधिराज ! तुम हमारा जीवन ऐसा उज्ज्वल कर दो कि हमें ‘द्युम्न’ मिले, हम यश के भागी हों और शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक बल भी हमें प्रदान करो। हे सम्राट् ! हम तुम्हारी प्रजाएँ हैं।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वं सर्वं वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः तम् । ‘विदिभुजिभ्यां विश्वे’ उ० ४.२३९ से असि प्रत्यय ।

२. वसूनि लौकिकानि आध्यात्मिकानि च धनानि वेदयति प्रापयतीति विश्ववित्, अतिशयेन विश्ववित् विश्ववित्तमः तम् ।

३. द्युम्नं द्यातते: यशो वा अन्नं वा । निरु० ५.५

४. ओ-दाण् दाने, ‘षा घ्रा ध्मा स्था०’ पा० ७.३.१८ से दाण को यच्छ आदेश।

५. सह:=बल, निघं० २.९ ।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधातिथिः । देवता बृहस्पतिः । छन्दः आर्षी गायत्री ।

यो रेवान् योऽअमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्द्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः॥

-यजु० ३। २९

(यः) जो बृहस्पति जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि धनों से युक्त है, (यः) जो (अमीवहार) आत्मिक एव शारीरिक रोगों को नष्ट करने वाला, (वसुवित्) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला, और (पुष्टिवर्धनः) पुष्टि बढ़ानेवाला है, तथा (यः तुर:) जो शीघ्रकारी है (सः) वह (नः सिषक्तु) हमें प्राप्त हो।

क्या तुम गर्व करते हो अपनी विशाल बहुमंजिली कोठियों पर, गगनचुम्बी रत्नजटित महलों पर, विस्तृत भूमिक्षेत्र पर, अपार धन-दौलत पर, हरे-भरे रसीले फलों वाले बाग बगीचों पर ? यह तुम्हारा गर्व क्षण- भर में चूर हो जायेगा, जब तुम बृहस्पति परमेश्वर के समस्त ब्रह्माण्ड में फैले हुए अपार ऐश्वर्य पर दृष्टि डालोगे। सूर्य, नक्षत्र और इनके असंख्य ग्रह। उपग्रहों को थोड़ी देर के लिए आँख से ओझल करके भी अपनी छोटी-सी भूमि के ऐश्वर्य को ही देख लो, तो भी तम्हारा ऐश्वर्यशाली होने का गर्व समाप्त हो जायेगा।

पृथिवी पर फैली हुई प्रभु की सम्पदा सोना, चाँदी, रत्न, हीरे, मोती, पन्ने, विविध बहुमूल्य पदार्थों की खाने, नदियाँ, पर्वत, समुद्र, स्रोत, झरने, वनस्पतियाँ, रङ्ग-विरङ्गे पुष्प, रसभरे फल, अमृत पेय से अपनी छोटी-सी सम्पत्ति की तुलना तो करो। फिर यह भी सोचो कि जिस सम्पदा को तुम अपनी कह रहे हो वह भी तो तुम्हारी नहीं, प्रभु की ही बनायी और दी हुई है। तब शीष झुक जाएगा तुम्हारा उस ‘रेवान्’, अर्थात् रयिमान् यो धनवान् प्रभु के सम्मुख। फिर केवल भौतिक धनों का ही नहीं, अपितु विद्या, न्याय आदि धनों को भी वह स्वामी है। अन्य अनेक गुण भी उसके अन्दर हैं। वह ‘अमीवहा’ है, हमारे आत्मिक, मानसिक और शारीरिक रोगों को हर कर हमें स्वस्थ बनानेवाला है। प्रभुकृपा की रोगह अद्भुत बूटी के बिना ब्रह्माण्ड में फैली हुई असंख्यों बूटियाँ और उनके प्रयोक्ता सहस्रों चिकित्सकों की अनवरत चिकित्सा विफल हो जाती है। फिर इस बात को भी मत भूलो कि पृथिवी पर फैली हुई असंख्य ओषधियाँ भी तो प्रभु की ही उत्पन्न की हुई हैं।

प्रभु ‘वसुविद्’ भी है, आध्यात्मिक और भौतिक धन मनुष्य को प्राप्त करानेवाला तथा धन-कुबेर बनानेवाला भी वही है। बृहस्पति प्रभु ‘पुष्टिवर्धन’ भी है, हमारी आत्मिक और शारीरिक पष्टि की पूँजी को बढ़ानेवाला भी है। वह प्रभ ‘तुरः’ है, त्वराशील है, हर क्षेत्र में त्वरा करनेवाला है। उसकी त्वरा या शीघ्रकारिता के बिना ब्रह्माण्ड के कार्य अलस गति से चलते हुए कभी पूर्ण ही न हों। सूर्योदय, चन्द्रोदय, ऋतुचक्र प्रवर्तन, ब्रह्माण्डलीलाप्रचालन सबको वह त्वराशील प्रभु ही करा रहा है। परन्तु परमेश्वर के इन गुणवर्णनों से कोई कार्य सिद्ध होनेवाला नहीं है, जब तक स्वयं अपने अन्दर इन गुणों को धारण न करें।

इसीलिए भाष्यकार महर्षि दयानन्द स्वामी इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं-”मनुष्य जैसी प्रार्थना ईश्वर से करते हैं, वैसा उन्हें पुरुषार्थ भी करना चाहिए। ईश्वर ‘रेवान्’ अर्थात् विद्या आदि धनवाला है, ऐसा विशेषण कह सुन कर कोई कृतकृत्य नहीं हो सकता, अपितु उसे स्वयं भी परम पुरुषार्थ द्वारा विद्या आदि धन की वृद्धि और रक्षा निरन्तर करनी चाहिए। जैसे परमेश्वर अविद्या आदि रोगों को दूर करनेवाला है, वैसे मनुष्यों को भी उचित है कि स्वयं भी अविद्या आदि रोगों को निरन्तर दूर करें । जैसे वह सबकी पुष्टि को बढ़ाता है, वैसे मनुष्य भी सबके पुष्टि आदि गुणों को निरन्तर बढ़ावें । जैसे वह शीघ्रकारी है, वैसे ही मनुष्य भी अभीष्ट कार्य त्वरा से करें ।”

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. (रेवान्) विद्याधनवान्–द०।।

२. (अमीवहा) योऽमीवान् अविद्यादिरोगान् हन्ति सः-द० ।

३. वसुवित्-यो वसूनि धनानि वेदयति प्रापयति सः, विदुल लाभे।

४. (पुष्टिवर्धनः) पुष्टिं शरीरात्मबलं धातुसाभ्यं च वर्द्धयतीति-द० ।

५. तुर:-तुर त्वरणे, जुहोत्यादिः, शीघ्रकारी।

६. सिषक्तुषच समवाये, छान्दस रूप ।

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

ऋषिः  अवत्सारः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  आर्षी त्रिष्टुप् ।

तुनूपाऽअग्नेऽसि तुन्वं मे पाह्यायुर्दाऽअग्नेऽस्यायुर्मे देहि वर्षोदाऽ अग्नेऽसि वर्षों में देहि।अग्ने यन्मे न्वाऽनं तन्मऽआपृण।।

-यजु० ३ । १७

(अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर और भौतिक अग्नि! तुम ( तनूपाः असि ) शरीरों के पालक व रक्षक हो, अतः ( मे तन्वं पाहि ) मेरे शरीर को पालित-रक्षित करो। (अग्ने ) हे परमात्मन् तथा अग्नि-विद्युत्-सूर्य रूप अग्नि! तुम ( आयुर्दाः असि ) आयु देने वाले हो, अत: ( मे आयुः देहि ) मुझे आयु दो। ( अग्ने ) हे परमेश्वर तथा उक्त अग्नियो ! तुम ( वच्चदा: असि ) वर्चस् देने वाले हो, अतः (मे वर्चः३ देहि ) मुझे वर्चस् दो। ( यत् ) जो ( मे तन्वाः ) मेरे शरीर का ( ऊनं ) न्यून है ( तत् मे ) मेरे उस सामर्थ्य को ( आ पृण) पूर्ण करो।।

प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं सुपालित और सुरक्षित रहूँ, मुझ पर दैवी आपदाएँ न आयें, भूकम्प, अतिवृष्टि, नदी की बाढ़ों आदि का शिकार में न होऊँ, मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो, मैं यशस्वी-वर्चस्वी बनूं, मेरे अन्दर जो न्यूनताएँ हैं, वे न रहें। किन्तु इसका उपाय क्या है? इसका उपाय है ‘अग्नि’ । अग्नि अग्रनायक, तेजस्वी, महिमाशाली परमेश्वर का नाम भी है और भौतिक अग्नि को भी अग्नि कहते हैं। भौतिक अग्नि में पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की विद्युत् और द्युलोक का सूर्य सभी आ जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी जहाँ-कहीं अग्नि-तत्त्व है, वह भी अग्नि से गृहीत हो जाता है।

हे अग्नि! तू शरीरों का रक्षक है, मेरे शरीर की भी रक्षा कर। संसार में जितने भी जड़-चेतन शरीर हैं, वे सब ईश्वरीय छत्रछाया से ही रक्षित– पालित हो रहे हैं, अतः ईश्वर की वह छत्रछाया मेरे शरीर को भी प्राप्त होती रहे। इसके अतिरिक्त भौतिक अग्नि भी शरीरों की रक्षा कर रहा है। आग, बिजली और सूर्य हमारे कितने अधिक काम आने वाले तत्त्व हैं। कल्पना कीजिए ये तीनों हमसे छिन जाएँ तो न हम भोजन पका सकेंगे, न घरों, कारखानों आदि में विद्युत् का प्रकाश पा सकेंगे, न हमें दिन में सूर्य का प्रकाश मिलेगा, सदा हम रात्रि से ही घिरे पड़े रहेंगे। इन तीनों प्रकार की अग्नियों का प्रयोग करके सदा हम पालित-रक्षित होते रहें। साथ ही यदि शत्रु हमारी हिंसा करने का मनसूबा बाँधे, तो आग्नेयास्त्रों से उन्हें पराजित करके भी हम रक्षित होते रहें।

हे अग्नि! तू दीर्घायुष्य देनेवाला है, मुझे भी दीर्घायुष्य प्रदान कर। जगदीश्वररूप अग्नि के नियमों का हम पालन करते रहें, तो भी हमें दीर्घायुष्य प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त तीनों प्रकार की भौतिक अग्नियों से लाभान्वित होकर भी हम दीर्घायु हो सकते हैं। अल्पायु होने में शारीरिक और मानसिक रोग बहुत बड़े कारण हैं। वैज्ञानिकों ने तीनों अग्नियों द्वारा रोगनिवारण के अनेक उपाय आविष्कृत किये हैं। चिकित्सकों द्वारा उन उपायों को अपने शरीर पर प्रयोग करवा कर भी हम दीर्घायुष्य पा सकते हैं।

हे अग्नि! तू वर्चस् को देनेवाला है, मुझे भी वर्चस्विता प्रदान कर। वर्चस् में ब्राह्म तेज, आत्मबल, विद्या और विद्वत्ता का तेज आदि आते हैं। परमेश्वराग्नि सब वर्चस्विताओं का स्रोत और पुञ्ज है। उसकी वर्चस्विताओं को अपना आदर्श बना कर हम भी वर्चस्वी बन सकते हैं। आग, विद्युत् और सूर्य के बल और प्रकाश का चिन्तन भी हमें वर्चस्वी बना सकता है।

हे अग्नियो ! मेरे शरीर में, शारीरिक अङ्गों में, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान, मलविसर्जनसंस्थान, मन, मस्तिष्क आदि में जो कोई न्यूनता आ गयी है, बुद्धिबल, शौर्य आदि की कमी हो गयी है, उसे भी तुम दूर कर दो, जिससे मेरा शरीर संस्कृत, निर्दोष, सबल और प्रफुल्ल होकर अपने आत्मा को भी उपकृत करता रहे और परोपकार में भी संलग्न रहे।

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

पादटिप्पणियाँ

१. (तनूपाः) यस्तनूः सर्वपदार्थदेहान् पाति रक्षति स जगदीश्वरः पालनहेतुर्भोतिको वा-द०भा० ।

२. (वर्षोदा:) यो वर्षो विज्ञानं ददाताति, तत्प्राप्तिहेतुर्वा-द०भा० ।

३. (वर्च:) विद्याप्राप्तिं दीप्तिं वा-द०भा० ।

४. पृण-पृ पालनपूरणयोः, क्रयादिः ।

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना