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महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार और सर्वांगीण धार्मिक व सामाजिक उन्नति के कार्यों से समस्त विश्व उनका ऋणी हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के बलिदान दिवस दीपावली पर

मनुष्य को यदि अपना परिचय जानना हो तो वह वेद वा वैदिक साहित्य में ही मिलता है। परिचय से हमारा तात्पर्य मनुष्य वस्तुतः क्या है,  इसका सत्य ज्ञान का होना ही मनुष्य का परिचय है। महर्षि दयानन्द जी ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए बताया है कि जो मननशील हो और स्व-आत्मवत अर्थात् जैसे मुझे सुख प्रिय व दुःख अप्रिय है इसी प्रकार से अपने हानि व लाभ की तरह दूसरों के सुख दुःख व हानि लाभ को समझता हो। यदि इतना ही जान लिया जाये और इसी पर आचरण किया जाये मनुष्य एक श्रेष्ठ मनुष्य बन सकता है। सभी मनुष्यों में कमी यह देखी जाती है कि वह अपने सुख व दुःख को ही अपना मानते हैं दूसरों के सुख व दुःख की परवाह नहीं करते और इस कारण हम कई बार दूसरों के सुखों की हानि व दुःखों की वृद्धि कर बैठते हैं। अतः हमें मननशील होना चाहिये और इसके लिए आवश्यक है कि हम सद्ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय व अध्ययन करें। इससे हमें सत्य और असत्य का ज्ञान होगा जिससे सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में हमें सहायता मिलेगी। जिस प्रकार से ज्ञानहीन मनुष्य पशु के समान होता है इसी प्रकार वेदादि सद्ग्रन्थों के अध्ययन से शून्य मनुष्य भी पशु के समान ही होता है।

 

आज से लगभग 140 वर्ष पूर्व न केवल भारत देश अपितु सारा विश्व ही अज्ञान व अन्धविश्वासों से भरा हुआ था। शायद ही तब किसी को अपवाद स्वरुप पता रहा हो कि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का स्वरूप क्या है? मनुष्य के ईश्वर, अपने प्रति और संसार व समाज के प्रति कर्तव्य क्या हैं? यदि मनुष्यों को यह पता होते तो संसार में अन्याय, शोषण, पक्षपात, अभाव, रोग व शोक आदि न होते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने कर्तव्यों के प्रति अनभिज्ञ व लापरवाह होता है, मिथ्या पूजा व उपासना प्रचलित होती है, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, गुरूडम, असत्य व मिथ्या ग्रन्थों का अध्ययन व उनकी मिथ्या शिक्षाओं का आचरण होता है। समाज में समरसता का स्थान विषमता लेती है और अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण ही लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति व दूसरों के स्वार्थों की हानि कर उनका शोषण व उन पर अन्याय करते हैं। इन बुराईयों को दूर करने के लिए ज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है। ज्ञान के द्वारा ही अपने कर्तव्य व पदार्थों के सत्यस्वरुप को समझा जा सकता है व दूसरों को भी समझाया जा सकता है। इस पर भी यदि कोई सत्य का आचरण न करें तो दण्ड के द्वारा उसका सुधार कर उसे सत्य मार्ग पर लाना होता है। आज भी सभी देशों में न्यूनाधिक यही परम्परा व व्यवस्था चल रही है। कहीं यह अधिक प्रभावशाली व कारगर है और कहीं यह कमजोर व प्रभावहीन है। इसको प्रभावशाली बनाने के लिए इसकी व्यवस्था करने वाले राज्याधिकारियों व न्यायव्यवस्था से जुड़े हुए व्यक्तियों को पूर्ण सत्य का आग्रही व सत्याचरण के आदर्श को धारण करना होता है। जहां ऐसा होता है वहां व्यवस्था उत्तम होती है।

 

महर्षि दयानन्द जी का जन्म आज से 190 वर्ष पूर्व  सन् 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात के मोरवी जिले के टंकारा नामक ग्राम में हुआ था। उनका किशोरावस्था का गुण उनका मननशील होना था। यही कारण था कि जब पिता के कहने से उन्होंने शिवरात्रि का व्रतोपवास किया तो रात्रि में शिवलिंग पर चूहों को विचरण करता देखकर उनको शिवलिंग में एक सर्वशक्तिमान व दैवीय शक्ति के होने के विश्वास को ठेस लगी और उन्होंने निन्द्रासीन अपने पिता को उठाकर उनसे अनेक प्रश्न किये? पिता के पास उनके प्रश्नों का समाधान नहीं था, अतः उन्होंने उस व्रत को समाप्त कर दिया और सच्चे शिव को जानने का संकल्प लिया। कालान्तर में बहिन की मृत्यु होने पर उन्हें वैराग्य हो गया। अब मृत्यु से बचने और उस पर विजय पाने का एक और संकल्प उनके मन में उत्पन्न व धारण हो गया। जब तक माता पिता ने उन्हें अध्ययन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की, वह घर पर रहे और अध्ययन करते रहे। जब उनके माता-पिता को उनके वैराग्य का ज्ञान हो गया और उन्होंने उनके विवाह का निश्चय कर दिया, तब उससे बचने के लिए और अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए उन्होंने घर का त्याग कर दिया।

 

उन्होंने देश भर में घूम घूम कर ज्ञानी सत्पुरुषों, योगी, विद्वानों, महात्माओं और तपस्वियों की संगति की और उनसे जो भी ज्ञान प्राप्त हो सका या साधना का अभ्यास वह कर सकते थे, उसे उन्होंने जाना व प्राप्त किया। नर्मदा के तट व उसके उद्गम सहित वह उत्तराखण्ड के वन व पर्वतों के दुर्गम स्थानों में घूम घूम कर वह वहां विद्वानों और तपस्वी योगियों की तलाश करते रहे। ऐसा करके वह योग व ज्ञान में अन्यों की अपेक्षा से कहीं अधिक ज्ञानी हो गये। जितना ज्ञान वह प्राप्त कर सके थे, उससे उनका सन्तोष व सन्तुष्टि नहीं हुई। अभी भी उन्हें एक ऐसे गुरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकाओं व संशयों को दूर कर सके। उनकी यह तलाश भी मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती को पाकर पूरी हुई जिनके सान्निध्य में लगभग 3 वर्ष रहकर उन्होंने अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति से आर्ष व्याकरण, वेद व वेदादि साहित्य का अध्ययन किया। गुरु विरजानन्द ने उनकी सभी शंकाओं व संशयों की पूर्ण निवृत्ति कर दी। योग विद्या में वह पहले से ही योग गुरू शिवानन्द पुरी व ज्वालानन्द गिरी की शिक्षाओं व अभ्यास से निपुण हो चुके थे। गुरू विरजानन्द जी से विद्याध्ययन पूरा कर सन् 1863 में उन्होंने उनकी प्रेरणा से धार्मिक व सामाजिक जगत में वेदों वा सत्य के प्रचार को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया। सन् 1863 से आरम्भ कर अक्तूबर, 1883 तक उन्होंने वेद एव वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया। इसके लिए उन्होंने असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सभी धार्मिक व सामाजिक प्रश्नों के वेदों के आधार पर सत्य समाधान प्रस्तुत किये। उनके प्रसिद्ध कार्यों में सन् 1869 में काशी में लगभग 30 विख्यात शीर्षस्थ पण्डितों से मूर्तिपूजा के वेदानुकूल होने पर शास्त्रार्थ था जिसमें प्रतिपक्षियों द्वारा मूर्तिपूजा वेदों के अनुकूल सिद्ध न की जा सकी। स्वामी जी ने वेदों के आधार पर मूर्तिपूजा सहित मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, बाल विवाह, सामाजिक विषमता वा जन्मना जाति-वर्ण व्यवस्था आदि का पुरजोर खण्डन किया। स्त्री व शूद्रों के लिए निषिद्ध वेदों के अध्ययन का उन्होंने उन्हें अधिकार दिया।

 

मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व असत्य के शमन के लिए स्वामी जी ने आर्यसमाज तथा सन् 1883 को अजमेर में परोपकारिणी सभा की स्थापना की। संस्कृत की पाठशालायें खोलकर उन्होंने वेदों के अध्ययन को प्रवृत्त किया। हिन्दी रक्षा व हिन्दी को सरकारी काम काज की भाषा बनाने के लिए हस्ताक्षर अभियान का श्री गणेश किया जिसे अंग्रेज सरकार द्वारा नियुक्त हण्टर कमीशन को प्रस्तुत किया गया। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदभाष्य एवं अन्य सभी ग्रन्थ हिन्दी में लिखकर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तंत किया। धर्म ग्रन्थ के रूप में सत्यार्थ प्रकाश तथा ईश्वरीय ज्ञान वेदों के भाष्य को हिन्दी में सर्वप्रथम प्रस्तुंत करने का श्रेय उन्हीं को है। गोरक्षा व गोवध रोकने की दिशा में भी उन्होंने गोकरूणानिधि पुस्तक लिखकर व अनेक राज्याधिकारियों से मिलकर इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया। गोहत्या व गोमांस सेवन को उन्होंने महापाप की संज्ञा दी और गोरक्षा को राष्ट्र की आर्थिक उन्नति का आधार सिद्ध किया। सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय तथा वेदभाष्य में स्वराज्य व सुराज्य की चर्चा कर तथा धार्मिक व सामाजिक जागृति उत्पन्न कर देश की आजादी के आन्दोलन के लिए भूमि तैयार की। रामायण, महाभारतकालीन और उसके बाद के पूवजों के उत्कृष्ट देशहित के कार्य करने के लिए उनको सम्मान व गौरव दिया। खण्डन-मण्डन, सभी मतों के ग्रन्थों का अध्ययन और समीक्षा, शास्त्रार्थ, वार्तालाप, उपदेश व प्रवचन द्वारा भी वैदिक सत्य मान्यताओं के प्रचार का ऐतिहासिक कार्य उन्होंने किया। उनके आविर्भाव से पूर्व हिन्दुओं का अन्य मतों में लोभ, बलप्रयोग, छल व कपट आदि से धर्मान्तरण होता था। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर हिन्दू धर्म को सत्य व ज्ञान पर प्रतिष्ठित किया तथा अन्य मतों की समीक्षा कर उनमें विद्यमान अज्ञान व अन्धविश्वासों की ओर ध्यान दिलाया जिससे एकपक्षीय धर्मान्तरण समाप्त हुआ और अन्य मत के लोग भी सहर्ष आर्य धर्म को स्वीकार करने लगे। भारतीय समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास, सामाजिक विषमतायें दूर हुई जिससे मनुष्य परस्पर संगठित होकर वैदिक धर्म के अनुसार ईश्वरोपासना, यज्ञ हवन आदि करने लगे व माता-पिता-आचार्य आदि का सम्मान करने की प्रेरणा सबको प्राप्त हुई। मांसाहार के दुगुर्णों व हानियों से भी लोग परिचित हुए तथा बड़ी संख्या में लोगों ने इसे त्याग दिया। उनके प्रचार व प्रयत्नों से शाकाहार में वृद्धि हुई। गोदुग्ध व गोघृत की महिमा में भी वृद्धि हुई। भारतीयता व प्राचीन भारत का गौरव महर्षि दयानन्द के कार्यों से न केवल देश में ही अपितु विदेशों में भी बढ़ा। ऐसे अनेकानेक कार्य महर्षि दयानन्द जी ने किये जिससे देश को अपूर्व लाभ हुआ और उन्नति हुई।

 

महर्षि के प्रचार से सभी मतों के लोग उनके विरोधी व शत्रु बन गये थे। एक षडयन्त्र के अन्तर्गत जोधपुर में उनको विष देकर उनका जीवन समाप्त कर दिया गया। दीपावली के दिन अजमेर में सूर्यास्त के समय उन्होंने अपने प्राणों को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करते हुए स्वेच्छा से त्याग दिया।  महर्षि दयानन्द ने वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर पुनः संसार को उपलब्ध कराया व ईश्वर तथा जीवात्मा आदि के सत्य स्वरूप से परिचय व ईश्वर उपासना की सच्ची पद्धति हमें बताई। दीपावली पर उनके बलिदान पर्व पर हम उनको अपनी हृदय के प्रेम से सिक्त श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हैं। उनके अपूर्व कार्यों से मानवता लाभान्वित हुई है, अतः सारा संसार उनका ऋ़णी है। उनका यश व कीर्ति चिरस्थाई रहेगी।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

मूक पशु भैंसों की हत्या रोकने पर महर्षि दयानन्द और उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह के बीच वार्तालाप और उसका शुभ परिणाम’

ओ३म्

स्वामी दयानन्द जी सितम्बर, 1882 में मेवाड़ उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जन सिंह के अतिथि थे। नवरात्र के अवसर पर वहां भैंसों का वध रोकने की एक घटना घटी। इसका वर्णन महर्षि के 10 से अधिक प्रमुख जीवनीकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। हम यहां मास्टर लक्ष्मण आर्य द्वारा महर्षि दयानन्द के उर्दू जीवन चरित में प्रस्तुत घटना को प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु कृत हिन्दी अनुवाद से प्रस्तुत कर रहें हैं:

स्वामी जी मूक पशुओं के वकील बनेजब विजयादशमी पर्व आया तो स्वामी जी बग्घी पर बैठकर दशहरा देखने गये तो नवरात्र पर्व पर बलि के लिए भैंसें बहुत मारे जा रहे थे। इस पर स्वामी जी ने उदयपुर के राजदरबार से एक तार्किक विवाद किया। एक अभियोग के रुप में कहा कि भैंसों ने हमें वकील किया है। आप राजा हैं। हम आपके सामने इनका केस (अभियोग) करते हैं। पुरातन प्रथाओं के नएनए रूप दिखाते हुए अन्त में स्वामी जी ने उन्हें समझा दिया कि भैंसों के मारने से पाप के अतिरिक्त कुछ भी लाभ नहीं। यह अत्यन्त क्रूरता है, अन्याय है। तत्पश्चात् स्वामी जी ने उन्हें इससे रोका। तब महाराणा जी (उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह) ने स्वीकार किया और कहा कि हम अविलम्ब तो बन्द नहीं कर सकते, ऐसा करना उचित है। लोग क्रुद्ध होंगे। तब स्वामी जी ने कहा, अच्छा शनैः शनैः घटा दो। तदनुसार वहीं सूची बनाई गई। राणा जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं धीरेधीरे इसे घटाने का प्रयास करूंगा।

 

दयानन्द जी गायों के समान भेंस, बकरी, भेड़ इत्यादि सभी उपकारी पशुओं की सुरक्षा व संवर्धन के पक्ष में तथा उनकी हत्या कर मांसाहार के विरुद्ध थे। वह कहते थे कि पशुओं की हत्या वा मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक बन जाता है और वह योग विद्या के लिए पात्र वा योग्य  नहीं रहता।  योग विद्या का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति और उसका साक्षात्कार है जिसके लिए योगी को बहुत कम मात्रा में शुद्ध शाकाहारी भोजन ही लेना होता है।  मांसाहार करने वालों को अपने इन कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से कालांतर में भोगना ही होता है।  अवश्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम। मनुष्य को मनुष्य मननशील  होने के कारण व सत्य व असत्य को विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करने के कारण कहते हैं।

 

स्वामी दयानंद द्वारा दी गई मनुष्य की परिभाषा भी पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है: 

  ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरुप धर्म से पृथक कभी होंवे।स्वामी जी ने इन पंक्तियों में जो कहा है, उसका उन्होंने अपने जीवन में सदैव पूर्णतः पालन किया और विरोधियों के षडयन्त्र का शिकार होकर दीपावली 30 अक्तूबर, 1883 ई. को अपना जीवन बलिदान कर दिया।

हम आशा करते हैं कि पाठक इससे उचित शिक्षा ग्रहण करेंगे।

 

प्रस्तुतकर्तामनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 

 

‘प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी की महर्षि दयानन्द को श्रद्धांजलि’ -मनमोहन कुमार आर्य,

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महर्षि दयानन्द समस्त विश्व के गुरू वा आचार्य थे। उन्होंने पक्षपात रहित होकर संसार के सभी मनुष्यों के प्रति भ्रातृभाव रखते हुए उनके कल्याण की भावना से वेदों के ज्ञान से उनका शुभ करने के लिए वेद प्रचार का प्रशंसनीय व अपूर्व कार्य किया था। बहुत से मताग्रही लोगों ने उनके यथार्थ अभिप्राय को जानने का प्रयास नहीं किया और उनके विरोधी बन गये। हम विदेशी मतों व सम्प्रदायों की बात तो क्या करें, स्वयं हमारे देश के वेद को मानने वाले पौराणिक लोगों ने उनका विरोध ही नहीं किया अपितु अनेक लोगों ने उनके प्राणहरण की अनेक बार कुचेष्टायें की। महर्षि ने जब वेद प्रचार कार्य आरम्भ किया था, तभी से वह जानते थे कि देश व विदेशी मतों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उनका विरोध करेंगे और उनके प्राण संकटग्रस्त रहेंगे। इस पर भी उन्होंने वेद प्रचार के मार्ग को चुना था क्योंकि सत्य को जाने, अपनायें व धारण किये बिना मनुष्य जाति की उन्नति सम्भव नहीं थी। यह सब कुछ होने पर भी अनेक मत-मतान्तरों के अनेक सुधी व निष्पक्ष लोगों ने स्वामी जी व उनके कार्यों के महत्व को समझा था और उन्होंने निःसंकोच भाव से उसे सार्वजनिक रूप से प्रकट भी किया था। ऐसे ही एक युगपुरूष हिन्दी के साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी थे। आज हम उनकी महर्षि दयानन्द को दी गई श्रद्धाजलि के शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस श्रद्धाजंलि में प्रस्तुत शब्दों को बार-बार पढ़ने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि संसार के सभी मतावलम्बी निष्पक्ष होकर महर्षि दयानन्द व उनके कार्यों का अवलोकन करते तो भले ही वह उनके अनुयायी बनते या न बनते, परन्तु उनका निष्कर्ष अवश्य ही महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के विचारों के अनुरूप होता। यहां यह भी उल्लेख कर दें कि हम कुछ समय पूर्व उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी के महर्षि दयानन्द के चित्र को अपने घरों में लगाने के समर्थन व यह चित्र लगाना मूर्तिपूजा न होकर उन्हें किस प्रकार से उनके कर्तव्यों की प्रेरणा करता है, सम्बंधी विचारों को प्रस्तुत कर चुके हैं।  उसकी पुष्टि महावीर प्रसाद द्विवेद्वी जी के लेख से भी हो रही है। अब द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत विचार प्रस्तुत हैं:

 

‘‘सनातन धर्मावलम्बियों की सन्तति होने और देवीदेवताओं के सम्मुख सिर झुकाने पर भी मेरे हृदय में श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है। वे बहुत बड़े समाजसंस्कर्ता, वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल भाष्यकर्त्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे। उन्होंने जिस समाज की संस्थापना की है, उससे भी अपने देश, अपने धर्म और अपनी भाषा को बहुत लाभ पहुंच रहा है। मैं स्वामी जी की विद्वता और उनके कार्यकलाप को अभागे भारत के सौभाग्य का सूचक चिन्ह समझता हूं। उनका चित्र चिरकाल तक मेरे नेत्रों के सामने रहकर मेरी आत्मा को बल का तथा मेरे बैठने के कमरे को शोभा का, दान देता रहा है। स्वामी जी के विषय में इससे अधिक लिखने की शक्ति इस समय मेरे जराजीर्ण शरीर में नहीं। अतएव

 

धन्यंच प्राज्ञमूर्धन्यं दयानन्दं दयाधनम्।

                        स्वामिनं तमहं वन्दे वारं वारंच सादरम्।।

 

हम अपने पौराणिक विद्वानों से पूछना चाहिते हैं कि क्या वह श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के इस कथन से असहमति रखते हैं? जो व्यक्ति महर्षि दयानन्द सरस्वती के किसी व किन्हीं विचारों से असहमति रखते हैं वह स्वयं से प्रश्न करें कि क्या उन्होंने निष्पक्ष भाव से महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन किया है? हमारे पास ऐसे अनेकों प्रमाण हैं कि जब किसी निष्पक्ष पौराणिक विद्वान ने महर्षि दयानन्द के विचारों व सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया तो वह सदा सदा के लिए उनका अनुयायी बन गया। अनेक मतों में भी उनके ऐसे अनुयायी हुए या बने हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हम स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती का नाम प्रस्तुत करते हैं जो कट्टर पौराणिक साधू थे परन्तु रोगग्रस्त होने पर एक आर्यसमाजी द्वारा उनकी सेवा सुश्रुषा करने और विदाई के समय उस बन्धु द्वारा उन्हें कपड़ें में लपेट कर सत्यार्थप्रकाश भेंट करने और उनसे विनती करने कि जब समय मिले इस पुस्तक को अवश्य पढ़े। सेवाभावी आर्यसमाजी भक्त के इन शब्दों व विपदकाल में उनकी सेवा ने स्वामीजी को पुस्तक पढ़ने के लिए विवश किया और पुस्तक पढ़ने के बाद स्वामी जी पूरी तरह बदल गए और महर्षि दयानन्द के अनुयायी बन गये। उन्होंने मृत्यु पर्यन्त आर्य सन्यासी बनकर देश व वैदिक धर्म की अनेकविध प्रशंसनीय सेवा की। उनका उत्तम कोटि का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सन्मार्ग दर्शन सभी वेद प्रेमियों के लिए पठनयी एवं संग्रहणीय है। एक नही ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द, सत्यार्थ प्रकाश और आर्यसमाज मुझे क्यों प्रिय हैं?’ -मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आरम्भ से लेकर अद्यावधि संसार में अनेक महापुरूष हुए हैं। उनमें से अनेकों ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं या फिर उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं का संग्रह कर उसे ग्रन्थ के रूप में संकलित किया है। हम उत्तम महान पुरूष को प्राप्त करने के लिए निकले तो हमें आदर्श महापुरूष के रूप में महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रतीत हुए। हमने उन्हें अपने जीवन में सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष के रूप में स्वीकार किया है। ऐसा नहीं कि उनसे पूर्व उनके समान व उनसे उत्कृष्ट पुरूष या महापुरूष, महर्षि, ऋषि, योगी आदि उत्पन्न ही नहीं हुए। हमारा कहना मात्र यह है कि हमारे सम्मुख जिन महापुरूषों के विस्तृत जीवन चरित्र उपलब्ध हैं, उनमें से हमने महर्षि दयानन्द को अपने जीवन का सत्य, यथार्थ व आदर्श पथ प्रदर्शक पाया है। न केवल हमारे अपितु वह विश्व के सभी मनुष्यों के सच्चे हितैषी, विश्वगुरू व पथप्रदर्शक रहे हैं व अपने ग्रन्थों व कार्येां के कारण अब भी हैं। विश्व के लोगों ने अपनी अज्ञानता व कुछ निजी कारणों से उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया। महर्षि दयानन्द के अतिरिक्त हम अन्य महापुरूषों यथा श्री रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र जी, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह जी, बंदा बैरागी और सभी आर्य विद्वानों व प्रचारकों को भी अपना आदर्श मानते हैं।

 

संसार में सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। गणनातीत ग्रन्थों में एक ग्रन्थ वेद भी है जिसके बारे में हमें महर्षि दयानन्द जी से पता चला कि वह मनुष्यों व ऋषियों की रचना नहीं अपितु ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में चार सर्वाधिक पवित्र ऋषि आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को संसार के तत्कालीन व भावी मनुष्यों के कल्याण व उद्धार के लिए ईश्वर ने अपने अन्तर्यामी स्वरूप से दिया था। उस ज्ञान को ही स्मरण कर व अन्यों में प्रचार कर इन चार ऋषियों व इनसे पढ़कर ब्रह्माजी ने प्रथम वेदों का प्रचार व प्रसार किया था और तब जो परम्परा आरम्भ हुई थी, उसका ही निर्वहन महर्षि दयानन्द ने ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में किया। महर्षि दयानन्द के आविर्भाव से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का प्रसिद्ध महायुद्ध हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप विश्व की अपने समय की एकमात्र सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति की कालान्तर में अप्रत्याशित अवनति हुई थी। वेद विलुप्ति के कागार पर थे। वेदों के सत्य अर्थ तो प्रायः विलुप्त ही हो चुके थे तथा उनके स्थान पर कपोल कल्पित भ्रान्त अर्थ प्रचलित थे। वैदिक धर्म व संस्कृति में भी अनेक विकार आकर यह अन्धविश्वासों, कुरीतियों, पाखण्डों व सामाजिक असमानताओं सहित शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक अवनत अवस्था में आ गई थी। यही कारण था देश व देश से बाहर अनेक अवैदिक मतों का प्रादुर्भाव हो चुका था। सभी मत सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों से युक्त थे। इन मतों के कारण लोग परस्पर मित्र भाव न रखकर एक दूसरे के प्रति शत्रु भाव ही प्रायः रखते थे। दिन प्रतिदिन इसमें वृद्धि हो रही थी। ऐसा कोई महापुरूष उत्पन्न नहीं हुआ था जो इनमें एकता के सूत्र की तलाश करता और उसका प्रस्ताव कर अपने मिथ्या विश्वासों और मान्यताओं को छोड़कर सत्य का ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का आह्वावन करता। यह काम महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने समय में अपनी पूरी शक्ति व प्राणों की बाजी लगाकर किया जिसका परिणाम आज का पूर्व की तुलना में अधिक उन्नत विश्व कहा जा सकता है जिसमें अनेक अन्धविश्वास कम व दूर हुए हैं, सामाजिक कुरीतियां व विषमतायें कम व दूर हुई हैं और ज्ञान-विज्ञान देश-विदेश में नित्य नई ऊंचाईयों को छू रहा है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व संकल्प, इच्छा शक्ति, वेद ज्ञान, साहस, वीरता, देश प्रेम, प्राणीमात्र के हित को सम्मुख रख कर विश्व कल्याण के लिए वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया। उन्होंने बताया कि वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य व प्रमाणिक ज्ञान है। उनकी मान्यता थी कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है तथा वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ, बुद्धिमान, ईश्वर को मानने वाले सच्चे व निष्पक्ष लोगों का परम कर्तव्य व धर्म है। वेदों की सत्यता और प्रमाणिकता के साथ ही वेदों की प्रासंगिकता और सर्वांगपूर्ण धर्म की पुस्तक होने का प्रबल समर्थन उन्होंने युक्ति व तर्कों सहित अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया है। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि उनके अनेक ग्रन्थ हैं जो सत्यार्थ प्रकाश की मान्यताओं व सिद्धान्तों के पूरक हैं। उनके साहित्य से सिद्ध होता है कि वेद पूर्णरूपेण सर्वांगपूर्ण धर्म ग्रन्थ हैं। धर्म की जिज्ञासा के लिए अन्य किसी ग्रन्थ की मनुष्यों को अपेक्षा नहीं है क्योंकि वेद ईश्वरीय सत्य वाक् होन से स्वतः प्रमाण और संसार के अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं अर्थात् सत्य व प्रमाणिकता में वेदों के समान संसार का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। हां, भाषा आदि के ज्ञान की दृष्टि से वेदों के संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य-अन्य भाषाओं में भाष्य व टीकाओं की सहायता ली जा सकती है। सत्यार्थ प्रकाश को भी हम संसार के सभी मनुष्यों का एक आदर्श धर्म ग्रन्थ कह सकते हैं जिसमें वेदों की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए मनुष्यों के मुख्य-मुख्य कर्तव्यों पर प्रकाश डालने के साथ अकर्तव्य, अन्धविश्वासों व मिथ्या मान्यताओं का परिचय देकर उनका त्याग करने की प्रेरणा भी दी गई है। सत्यार्थ प्रकाश में ऐसा क्या है जो हमें सर्वाधिक प्रिय है? इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत करते हैं।

 

सत्यार्थ प्रकाश का आरम्भ महर्षि दयानन्द ने विस्तृत भूमिका लिख कर दिया है। इससे महर्षि दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाश की रचना करने का उद्देश्य तथा पुस्तक में सम्मिलित किये गये विषयों का ज्ञान होता है। वह लिखते हैं कि उनका इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान, आप्तों (धर्म विशेषज्ञों) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने भूमिका में इन वाक्यों में जो कुछ कहा है, उसका उन्होंने पूरे सत्यार्थ प्रकाश में पूरी निष्ठा से पालन किया है। हम समझते हैं कि इस प्रयोजन व उद्देश्य से शायद ही कोई धर्म ग्रन्थ लिखा गया हो और यदि लिखा भी गया है तो सम्प्रति उनमें अनेक अशुद्धियां व असत्य मान्यतायें, अन्य मतों के प्रति विरोध व शत्रुता का भाव, छल, कपट, लोभ व बल पूर्वक उनका धर्मान्तरण करने का विचार व अनुमति जैसे अमानवीय विचार विद्यमान है जिससे संसार में अशान्ति उत्पन्न हुई है।

 

सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास व अध्याय में हम ईश्वर के मुख्य निज नाम सहित उसके सत्य स्वरूप व 100 से कुछ अधिक नामों व उन नामों के तात्पर्य के बारे में सविस्तार जानकारी प्राप्त करते हैं। इससे वेदों में अनेक ईश्वर व देवता होने की बात निरर्थक व असत्य सिद्ध होती है तथा यह विदित होता है कि एक ही ईश्वर के असंख्य गुण-कर्म-स्वभाव व सम्बन्धों के कारण उसके अनेक नाम हैं। इस अध्याय को समझ लेने पर जहां ईश्वर का सत्य स्वरूप जानकर आत्मा की तृप्ति होती है वहीं ईश्वर के स्वरुप, नाम व कार्यों के विषय में भिन्न भिन्न ग्रन्थों में जो मिथ्या व अन्धविश्वासयुक्त कथन है, उसका भी निराकरण हो जाता है। दूसरे अध्याय में माता-पिता व आचार्यों द्वारा कैसी शिक्षा दी जाये इसका ज्ञान कराया गया है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण व मनुष्य व समाज के धारण व व्यवहार करने योग्य है। तीसरा समुल्लास पढ़कर ब्रह्मचर्य का महत्व व उससे लाभ, पठन पाठन वा अध्ययन-अध्यापन सहित सत्य व असत्य ग्रन्थों का भी परिचय मिलता है और पढ़ने वा पढ़ाने की रीति का भी ज्ञान होता है। सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में युवावस्था में विवाह और गृहस्थ आश्रम के सद् सद् व्यवहारों की शिक्षा दी गई है। पांचवा अध्याय गृहस्थाश्रम का निर्वाह कर इसके कर्तव्यों व दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में प्रवेश व उसके महत्व व विधान को विस्तार से समझाया गया है। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ का छठा अध्याय प्रजा व राजधर्म विषय पर है जिसमें वेद व मुख्यतः मनुस्मृति के आधार पर शासन व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है जिसे पढ़कर अनेक बातों में यह वर्तमान की व्यवस्था से भी श्रेष्ठ प्रतीत होती है। सातवां समुल्लास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद और ईश्वर के स्वरूप के बारे में वेद, युक्ति, तर्क तथा ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाल कर श्रोता की इस विषय में पूर्ण सन्तुष्टि कराता है जिससे संसार के अन्य एतदसम्बन्धी ग्रन्थ निरर्थक से प्रतीत होते हैं। आठवां समुल्लास वैदिक सृष्टि विज्ञान से सम्बन्धित है जिसमें जगत की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर ज्ञान व विज्ञान से परिपूर्ण प्रकाश डाला गया है। यह ज्ञान संसार के अन्य सभी धर्म ग्रन्थों में प्रायः नदारद है जिससे उनकी न्यूनता व अपूर्णता प्रकट होती है।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष, जन्म, मृत्यु, लोक व परलोक की ज्ञान से पूर्ण व्याख्या प्रश्नोत्तर शैली में कर वैदिक ज्ञान का संसार से लोहा मनवाया गया है। दसवें समुल्लास में आचार, अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्य आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ग्याहरवां समुल्लास भारतवर्षीय नाना मत-मतान्तरों की अज्ञानपूर्ण मान्यताओं का परिचय कराता है और साथ हि उनका युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया गया है जिसका उद्देश्य सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कराना मात्र है। बारहवें, तेरहवें व चैदहवें समुल्लासों में क्रमशः चारवाक-बौद्ध-जैन, ईसाई व मुस्लिम मत का विषय प्रस्तुत कर सत्य के ग्रहणार्थ उनकी कुछ मान्यताओं का परिचय दिया गया है। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करने पर मनुष्य को अपने कर्तव्य व धर्म का पूर्ण बोध होने के साथ अन्य मतों का परिचय भी मिलता है। सत्यार्थ प्रकाश के अनुरूप अन्य कोई ग्रन्थ संसार में नहीं है। इससे सत्य धर्म का निर्णय करने व उसका पालन करने का ज्ञान होता है जिससे मानव जीवन सफल होता है। सत्यार्थ प्रकाश वेदों पर आधारित ग्रन्थ है, इसमें दी गई मान्यतायें सार्वभौमिक है और विश्वस्तर पर इनका पालन होने से अशान्ति दूर होकर विश्व में शान्ति की स्थापना की पूर्ण सम्भावना परिलक्षित होती है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर मनुष्य सत्य विधि से ईश्वरोपासना करने वाला भक्त, वायु-जल-पर्यावरण का शुद्धि कर्ता, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों-सच्चे-संन्यासियों की सेवा करने वाला, देश भक्त, समाज सेवी, ज्ञान-विज्ञान का पोषक व धारणकर्ता, स्त्रियों केा आदर व सम्मान देने वाला तथा वैदिक गुणों से धारित स्त्रियों को माता के समान मानकर उनका सम्मान करने वाला आदि अनेकानेक गुणों वाला मनुष्य निर्मित होता है। यह कार्य सत्यार्थ प्रकाश व वेद करते हैं जो अन्य किसी प्रकार से नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश का उद्देश्य किसी मत-मतान्तर का विरोध न कर केवल सत्य को प्रस्तुत करना व उसका पालन करने के लिये लोगों को प्रेरित करना है, यही इस ग्रन्थ की संसार के अन्य सभी ग्रन्थों से विशिष्टता है। हम सत्यार्थ प्रकाश को देवता कोटि के मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में सर्वोत्तम ग्रन्थ पाते हैं, इसलिये हमें यह ग्रन्थ सर्वाधिक प्रिय है। इसके लेखक महर्षि दयानन्द में आदर्श महापुरूष के सभी दिव्य गुण क्रियायें विद्यमान होने उन्होंने समाज, देश विश्व की उन्नति के लिए जो अवदान वा योगदान दिया है, इस कारण उन्हें सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष मानते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने वैदिक विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज ने वेदों के प्रचार प्रसार, कुरीति उन्मूलन, सामाजिक विषमता दूर कर समरसता स्थापित करने सहित देश को स्वतन्त्र कराने में प्रमुख भूमिका अदा की है। सम्प्रति समय के साथ कुछ शिथिलतायें भी संगठन में आयीं हैं जिसको दूर करना नितान्त आवश्यक है जिससे कि प्रभावशाली तरीके से वेदों का प्रचार प्रसार हो और संगठन सुदृढ़ एवं आदर्श बने। महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूर्ण अंहिसात्मक संगठन है और पे्रम व सदभावपूर्वक ज्ञान का प्रचार करता है। इसके मूल में अपनी संख्या बढ़ाने हेतु हिंसा, लोभ, लालच, छल व प्रपंच वर्जित हैं। यह प्राणी मात्र के प्रति दया रखता है। कोई भी सच्चा आर्यसमाजी मांसाहार व मदिरापान, अण्डे व अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करता। आर्यसमाज व वैदिक धर्म के दरवाजे सभी मतों के अनुयायियों के लिये खुले हैं। कोई भी यहां आकर सदाचरण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना कर सफलता प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज ने दलितों सहित सभी वणों के बन्धुओं वैदिक विद्वान बनाने के साथ पुरोहित बनाया है और सभी स्त्रियों को वेद विदुषी भी बनाया है। अनेक कार्यों में यह भी उसका अभूतपूर्व कार्य है। हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि विश्व भर में चर्चित योग वेदों की ही देन हैं। महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का आधार वेद ही हैं। संसार का कोई मनुष्य यह नहीं कह सकता कि वह योग को स्वीकार नहीं करता। सबके जीवन में कहीं अधिक कहीं कुछ कम योग समाया हुआ है। किसी किसी रूप में आसान, व्यायाम प्राणायाम सभी करते हैं। योग के दो अंग यम नियम तथा इनके उपांग अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान को भी प्रायः संसार के सभी लोग मानते इन पर आचरण करते हैं। अतः हमारा मानना है कि संसार के सभी मतों के लोग आंशिक रूप से योग करते हैं। जो योग से परहेज करते हैं उन्हें योग को पूर्णतया अपने जीवन का अंग बनाना चाहिये। इसमें उन्हीं का लाभ कल्याण है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि हम आज जो कुछ हैं, उसमें महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेख विस्तृत हो गया है अतः इन्हीं शब्दों के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं और सभी पाठकों से आग्रह करते हैं कि सत्यार्थप्रकाश का जीवन में बार-बार पाठ करें। इससे आपको वह मिलेगा जो संसार के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन करने से नहीं मिल सकता।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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दयानन्द भक्त और क्रान्तिकारियों के प्रथम गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा’ -मनमोहन कुमार आर्य

गुजरात की भूमि में महर्षि दयानन्द के बाद जो दूसरे प्रसिद्ध क्रान्तिकारी देशभक्त महापुरूष उत्पन्न हुए, वह पं. श्यामजी  कृष्ण वर्म्मा के नाम से विख्यात हैं। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने देश से बाहर इंग्लैण्ड, पेरिस और जेनेवा में रहकर देश को अंग्रेजों की दासता से पूर्ण स्वतन्त्र कराने के लिए अनेक विध प्रशंसनीय कार्य किये। उनका जन्म 4 अक्तूबर, सन् 1857 को गुजरात के कच्छ भूभाग के माण्डवी नामक कस्बे में श्री कृष्णजी भणसाली के यहां एक निर्धन वैश्य परिवार में हुआ था। आप आयु में महर्षि दयानन्द जी से लगभग साढ़े बत्तीस वर्ष छोटे थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा माण्डवी की ही एक प्राइमरी पाठशाला में हुई। जब आप 10 वर्ष के हुए तो आपकी माताजी का देहान्त हो गया। इसके बाद आपका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। आपने ननिहाल भुजनगर में रहकर वहां के हाईस्कूल में अपनी शिक्षा को जारी रखा। आप 12 वर्ष की आयु में एक विदुषी संन्यासिनी माता हरिकुंवर बा के सम्पर्क में आये। उनकी प्रेरणा से आपने संस्कृत भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। कच्छ निवासी सेठ मथुरादास भाटिया आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको अध्ययनार्थ मुम्बई ले गये और वहां विलसन हाईस्कूल में प्रविष्ट कराया। यहां सर्वोच्च अंक प्राप्त कर आपने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और आपको सेठ गोकुलदास काहनदास छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इस छात्रवृत्ति के आधार पर आपने मुम्बई के प्रसिद्ध एल्फिंस्टन हाईस्कूल में अध्ययनार्थ प्रवेश ले लिया। बम्बई के एक धनी सेठ श्री छबीलदास लल्लू भाई का पुत्र रामदास श्यामजी का सहपाठी था। दोनों में मित्रता हो गई। सेठ छबीलदास जी को इसका पता चला तो पुत्र को कहकर श्यामजी को अपने घर पर बुलाया। आप श्यामजी के व्यक्तित्व, सौम्य व गम्भीर प्रकृति तथा आदर भाव आदि गुणों से प्रभावित हुए और आपने उन्हें अपना जामाता-दामाद बनाने का निर्णय ले लिया। इसके कुछ दिनों बाद उनकी 13 वर्षीय पुत्री भानुमति जी से 18 वर्षीय श्यामजी का सन् 1875 में विवाह सम्पन्न हो गया।

 

मुम्बई आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रार्थना समाज के समाज सुधार आन्दोलन से जुड़ गये थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 29 जनवरी से 20 जून, 1875 तक वेदों का प्रचार करते हुए मुम्बई में प्रवास किया था। मुम्बई में उन दिनों बुद्धिजीवी लोगों में उनके प्रवचनों की चर्चा होती थी। आप स्वामीजी के सम्पर्क में आये और उनके न केवल व्यक्तित्व व वैदिक ज्ञान से ही परिचय प्राप्त किया अपितु उनकी सर्वांगीण विचारधारा व कार्यों को जान कर वह उनके अनुयायी बन गये। 10 अप्रैल, सन् 1875 को जब मुम्बई के गिरिगांवकाकड़वाड़ी मोहल्ले में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की गई तो वहां उपस्थित लगभग 100 से कुछ अधिक लोगों में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहित उनके श्वसुर श्री छबीलदास जी श्याला श्री रामदास बतौर संस्थापक सदस्य उपस्थित थे। 12 जून, सन् 1875 को महर्षि दयानन्द जी का रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य पं. कमलनयन के साथ मूर्तिपूजा विषय पर शास्त्रार्थ होने के अवसर पर भी आप इस शास्त्रार्थ में श्रोता व दर्शक के रूप में उपस्थित थे। इस शास्त्रार्थ में दयानन्द जी की विद्वता का लोहा सभी ने स्वीकार किया था। इसके प्रभाव से आप महर्षि दयानन्द के और निकट आये और उनकी प्रेरणा व अपनी इच्छा से आपने वैदिक सहित्य का अध्ययन किया तथा उनके शिष्य बन गये। स्वामी दयानन्द जी के सान्निध्य से उनका संस्कृत का ज्ञान और अधिक परिष्कृत, परिपक्व व समृद्ध हुआ। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने नासिक की यात्रा कर 1 व 2 अप्रैल, 1877 को वहां संस्कृत में वेदों पर व्याख्यान दिये। लोग एक ब्राह्मणेतर व्यक्ति से संस्कृत में धारा प्रवाह व्याख्यान की अपेक्षा नहीं रखते थे। इन व्याख्यानों का वहां की जनता पर गहरा प्रभाव हुआ। इसके बाद आपने अहमदाबाद, बड़ौदा, भड़ौच, भुज और माण्डवी सहित लाहौर में जाकर वेदों पर व्याख्यान दिये। आपके संस्कृत व्याख्यानों से घूम मच गई और श्रोताओं ने आपकी भूरि भूरि प्रशंसा की। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने स्वामी दयानन्द जी के यजुर्वेद व ऋग्वेद भाष्य के प्रकाशन व उसके डाक से प्रेषण के प्रबन्धकत्र्ता का कार्य भी पर्याप्त अवधि तक किया। इंग्लैण्ड जाने तक आप यह कार्य करते रहे थे।

 

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष सर मोनियर विलियम सन् 1878 में भारत आये थे। महर्षि के निकटवर्ती शिष्य श्री गोपाल हरि देशमुख की अध्यक्षता में पूना में उनका व्याख्यान आयोजित किया गया था। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा इस व्याख्यान में न केवल सम्मिलित ही हुए अपितु उनका भी धारा प्रवाह संस्कृत में व्याख्यान हुआ जिसका गहरा प्रभाव सर मोनियर विलियम और श्रोताओं पर भी हुआ। उन्होंने पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर के पद का प्रस्ताव दिया। वह इस प्रस्ताव से सहमत हुए। स्वामी दयानन्द जी को भी पंण्डित जी ने जानकारी दी। स्वामी दयानन्द जी ने न केवल अपनी सहमति व्यक्त की अपितु उन्हें इंग्लैण्ड जाकर करणीय कार्यों के बारे में मार्गदर्शन दिया। बाद में स्वामीजी ने उन्हें जो पत्र लिखे उससे भी स्वामीजी के श्यामजी के मध्य गहरे गुरू शिष्य संबंध का अनुमान होता है। श्यामजी ने लन्दन पहुंच कर 21 अप्रैल, सन् 1879 को पदभार सम्भाला था। लन्दन में आपने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास करने हेतु भी इनर टैम्पल में प्रवेश लिया। आपने सन् 1881 के आरम्भ में रायल एशियाटिक सोसायटी के निमन्त्रण पर भारत में लेखन कला का आरम्भ विषय पर अपना शोध प्रबन्ध पढ़ा। इस प्रस्तुति से प्रभावित होकर आपको रायल एशियाटिक सोसायटी का सदस्य बना लिया गया। इंग्लैण्ड एम्पायर क्लब एक ऐसा क्लब था जिसमें राज परिवार के लोग ही सदस्य बन सकते थे। श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ऐसे पहले भारतीय थे जिन्हें क्लब की सदस्यता दी गई थी। सन् 1881 में ही इंग्लैण्ड में भारत मंत्री ने आपको प्राच्य विद्या विशारदों के बर्लिन सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा था। सन् 1883 में आपने लन्दन में बी.ए. की परीक्षा पास की और भारत आ गये। स्वामी दयानन्द जी ने अपने इच्छा पत्र में श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को अपनी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया था। 28-29 दिसम्बर, 1883 को हुए सभा की अजमेर के मेवाड़दरबार की कोठी में आयोजित प्रथम बैठक में आप सम्मिलित हुए। मार्च, 1884 में आप सपत्नीक लन्दन लौट गये थे और नवम्बर, 1884 में आपने बैरिस्ट्री की सम्मानजनक परीक्षा उत्तीर्ण की। आप पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन से बैरिस्ट्री पास की थी। आप जनवरी, 1885 में पुनः स्वदेश लौट आये थे।

 

भारत आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा रतलाम राज्य के सन् 1885 से सन् 1888 तक दीवान रहे। इसके बाद उन्होंने अजमेर में वकालत की। उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह जी ने उन्हें दिसम्बर 1892 में अपने राज्य की मंत्रि परिषद में सदस्य मनोनीत किया। उदयपुर में आप दो वर्षों तक राज्य कौंसिल के सदस्य रहे। 6 फरवरी 1894 को आप जूनागढ़ रियासत के दीवान बने परन्तु जूनागढ़ के कुछ कटु अनुभवों से अंग्रेज जाति के प्रति उनके विश्वास को गहरी चोट लगी। इंडियन नेशलन कांग्रेस की दब्बू नीति उन्हें पसन्द नहीं थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी से उनकी मैत्री थी। चापेकर बन्धुओं द्वारा जब प्लेग कमिश्नर मिस्टर रैण्ड और लेफ्टिनेंट अर्येस्ट की हत्या की गई, तब अंग्रेज सरकार ने तिलक जी को अठारह मास का कारावास का दण्ड दिया। इससे श्यामजी का अंग्रेजों के प्रति विश्वास समाप्त हो गया। श्याम जी का महर्षि दयानन्द के वेद सम्मत राजनीतिक विचारों में पूर्ण विश्वास था। इसका क्रियान्वयन उन दिनों कांग्रेस द्वारा किंचित परिवर्तन के साथ किया जा रहा था जिससे पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहमत थे एवं इसके द्वारा शुभपरिणामों की आशा भी रखते थे।

 

पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने विवेक से विदेश में जाकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने का निर्णय किया। वह उदारवादी विचारों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे। अतः सन् 1897 के अन्तिम दिनों में वह इंग्लैण्ड आ गये। यहां रहकर आपने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिन्हें पूर्णरूपेण इस संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत करना कठिन है। प्रमुख कार्यों में से एक कार्य आपके द्वारा लन्दन में एक मकान खरीदा जिसे इण्डिया हाउस का नाम दिया। यह मकान क्रामवेल एवेन्यू हाईगेट का मकान नं. 65 था। यह इण्डिया हाउस ही हमारे क्रान्तिकारियों का इंग्लैण्ड में मुख्य निवास स्थान व क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना। पं. श्याम जी ने  भारत से इंग्लैण्ड जाने वाले विद्यार्थियों को छात्रवृतियां देना भी आरम्भ किया जिसमें एक शर्त यह होती थी कि छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाला व्यक्ति अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेगा और न उनसे कोई लाभ प्राप्त करेगा। डा. सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार यह इण्डिया हाउस इंग्लैण्ड में भारतीय क्रान्तिकारी गतिविधियों और क्रिया-कलापों का सबसे बड़ा केन्द्र बना रहा। जिन लोगों ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर इंग्लैण्ड में आकर इण्डिया हाउस में निवास किया। इन छात्रों में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर भी थे जो सन् 1906 में वहां पहुंचे थे। इंग्लैण्ड में रहते हुए सन् 1905 में पं. श्यामी जी कृष्ण वर्मा ने एक अंगे्रजी मासिक पत्रिका इंडियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन आरम्भ किया जिसका उद्देश्य उन्होंने भारत में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सुधार घोषित किया। अपने आरम्भिक लेख में आपने लिखा कि यह पत्र बताएगा कि ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में भारतीयों के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया जाता है और उस शासन के प्रति भारतीयों के मन में क्या भावनाएं हैं। पंण्डित जी ने यह पत्र इंग्लैण्ड व विदेशों में लोकमत को जाग्रत करने की दृष्टि से आरम्भ किया था। पं. श्यामजी का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य इंग्लैण्ड में इंडियन होमरूल सोसायटी की स्थापना करना था। यह सोसायटी 18 फरवरी, 1905 को स्थापित की गई थी। इसका पहला उद्देश्य भारत में होमरूल अर्थात् स्वशासन स्थापित करना था। दूसरा उद्देश्य पहले लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इंग्लैण्ड में रहकर सभी आवश्यक कार्य करना था जिससे स्वशासन का अधिकार प्राप्त हो सके। संस्था का तीसरा उद्देश्य देशवासियों में स्वाधीनता तथा राष्ट्रीय एकता से संबंधित बौद्धिक सामग्री व ज्ञान को उलब्ध कराना था। श्यामजी कृष्ण वम्र्मा इस सोसायटी के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष सरदार सिंह राणा, जे. एम. पारीख, अब्दुल्ला सुहरावर्दी और गोडरेज तथा मन्त्री जे. सी. मुखर्जी बनाये गये थे। इन सभी लोगों द्वारा यह घोषणा की गई थी कि उनका उद्देश्य ‘‘भारतीयों के लिए, भारतीयों के द्वारा और भारतीयों की सरकार स्थापित करना है। एक प्रकार से सन् 1905 में उठाया गया यह कदम पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति की दिशा मे बहुंत बड़ा निर्णय व कार्य था जिसे कांग्रेस ने बहुत बाद में अपनाया। वम्र्मा जी की गतिविधियां दिन प्रतिदिन तीव्रतर होती जा रही थी। मई और जून 1907 में पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा के इण्डियन सोशियोलोजिस्ट में लेखों से समूचे इंग्लैण्ड में खलबली मच गई। इसका परिणाम विचार कर जून, 1907 में वह पेरिस चले गए और वहीं से भारत के क्रान्तिकारियों का मार्गदर्शन करने लगे। उनके पेरिस जाने के कारण इंडियन होमरूल सोसायटी का मुख्यालय भी उनके पास पेरिस स्थानान्तरित हो गया। 19 सितम्बर, 1907 को इण्डियन सोशियोलोजिस्ट पत्र पर अंगे्रज सरकार ने पाबन्दी लगा दी। इस पत्र के मुद्रकों श्री आर्थर बोर्सले और एल्फ्रेड एल्ड्रेड को गिरफतार कर लिया गया और उन्हें एक एक वर्ष के कारावास का सजा सुनाई गई। श्यामजी पेरिस में रह रहे थे और वहीं इण्डियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन कर रहे थे। सन् 1914 में पेरिस में भी परिस्थितियां उनके लिए प्रतिकूल हो गईं अतः वह पेरिस छोड़कर जून, 1914 में जेनेवा (स्विटजरलैण्ड) चले गये। यहां रहते हुए भी आप अपना पत्र अंग्रेजी व फ्रेंच भाषाओं में निकालते रहे। इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। राजनैतिक कारणों से आपको अपने पत्र का प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। इस प्रकार निरन्तर कार्य करते रह कर वह आप वृद्ध हो गये थे। अब आप अधिक सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकते थे। अतः देश में चल रहे सत्याग्रह आन्दोलन को आपने अपना समर्थन दिया। 31 मई, 1930 को लगभग 73 वर्ष की आयु में जेनेवा में ही महर्षि दयानन्द के इस शिष्य और भारत माता के योग्य पुत्र पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा का निधन हो गया। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी नेता श्री सरदार सिंह राणा, मैडम भीखाजी रूस्तम जी कामा, जे.एम. पारीख, लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मौलवी मोहम्मद बर्कतुल्लाह, नीतिसेन द्वारकादास, मिर्जा अब्बाज उर्फ मुहम्मद अब्बास आदि उनके देशभक्ति के कार्यों में उनके सहयोगी रहे।

 

श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा महर्षि दयानन्द जी के योग्य शिष्य, संस्कृत व वैदिक साहित्य के विद्वान होने के साथ भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले तथा क्रान्ति को स्वतन्त्रता प्राप्ति का साधन मानने वाले प्रथम चिन्तक, विचारक व अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने वाले आद्य महापुरूष थे। देश की आजादी में उनका योगदान प्रशंसनीय एवं महत्वपूर्ण है। उनके विचारों की अग्नि व कार्यों से देश को अनेक क्रान्ति धर्मी युवक मिले जिन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया था। उनकी आज 159 वीं जयन्ती पर उन्हें शत शत नमन है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘गुजरात के सोमनाथ मन्दिर की लूट पर महर्षि दयानन्द का शिक्षाप्रद व्याख्यान’-मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानंद सरस्वती मूर्तिपूजा का वेदविरुद्ध व अकरणीय मानते थे। उनका यह भी निष्कर्ष था कि देश के पतन में मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, पुरूषों के चारित्रिक ह्रास, सामाजिक कुव्यवस्था, असमानता व विषमता तथा स्त्री व शूद्रों की अशिक्षा आदि कारण प्रमुख थे। विचार करने पर महर्षि दयानन्द की बातें सत्य सिद्ध होती हैं। सत्यार्थ प्रकाश महर्षि दयानन्द जी का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के ग्याहरवें समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों का खण्डन-मण्डन विषय प्रस्तुत किया गया है। ग्याहरवें समुल्लास की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि इस समुल्लास में उनके द्वारा प्रस्तुत खण्डन मण्डन कर्म से यदि लोग उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि उनका तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है न कि वादविवाद व विरोध करने कराने के लिये। इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे भी होंगे, उन को पक्षपातररहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति इस (ग्रन्थ) की पूर्ति में लिखेंगे (यह युक्ति महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के अन्र्तगत लिखी है)। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। आगामी सोमनाथ मन्दिर की घटना को पढ़ते हुए पाठकों को महर्षि दयानन्द के इन शब्दों में व्यक्त की गई भावना को अपने ध्यान में अवश्य रखना चाहिये।

 

सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने प्रश्नोत्तर शैली में सोमनाथ मन्दिर के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रश्न करते हुए वह लिखते हैं कि देखो ! सोमनाथ जी (भगवान) पृथिवी के ऊपर रहता था और उनका बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि हां यह बात मिथ्या है। सुनो ! मूर्ति के ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। इसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर में खड़ी थी। जब महमूद गजनवी आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव ! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे कि आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। ये सब म्लेच्छों को मार डालेंगे या अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे। वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त नहीं है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि बहकावट में रहे।

 

जब म्लेच्छों की फौज ने आकर मन्दिर को घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रूपया ले लो मन्दिर और मूर्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम बुत्परस्त नहीं किन्तु बुतशिकन् अर्थात् मूर्तिपूजक नहीं किन्तु मूर्तिभंजक हैं और उन्होंने जा के झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्ति गिर पड़ी। जब मूर्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा अर्थात कोड़े पड़े तो रोने लगे। मुस्लिम सैनिकों ने पुजारियों को कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप और उन के चेलों को गुलाम बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल मूत्रादि उठवाया और चना खाने को दिये। हाय ! क्यों पत्थर की पूजा कर (हिन्दू) सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की (सत्य वेद रीति से) भक्ति की? जो म्लेच्छों के दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो ! जितनी मूर्तियां हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्ति एक भी उन (अत्याचारियों) के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द जी ने जो कहा है वह एक सत्य ऐतिहासिक दस्तावेज है। इससे सिद्ध है कि पुजारियों सहित सैनिको व देशवासियों के अपमान व पराजय का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वास, पाखण्ड, ढ़ोग, वेदों को विस्मृत कर वेदाचरण से दूर जाना आदि थे। यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो व्यक्ति व जाति इतिहास से सबक नहीं सीखती वह पुनः उन्हीं मुसीबतों मे फंस जाती व फंस सकती है अर्थात् इतिहास अपने आप को दोहराता है। महर्षि दयानन्द ने हमें हमारी भूलों का ज्ञान कराकर असत्य व अज्ञान पर आधारित मिथ्या विश्वासों को छोड़ने के लिये चेताया था। हमने अपनी मूर्खता, आलस्य, प्रमाद व कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण उसकी उपेक्षा की। आज भी हम वेद मत को मानने वाली हिन्दू जनता को सुसंगठित नहीं कर पाये जिसका परिणाम देश, समाज व जाति के लिए अहितकर हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने वेदों का जो ज्ञान प्रस्तुत किया है वह संसार के समस्त मनुष्यों के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। लेख की समाप्ति पर उनके शब्दों को एक बार पुनः दोहराते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।यदि ये (मतमतान्तर वाले) लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। आईये, सत्य को ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का व्रत लें। इसके लिये वेदों का स्वाध्याय करें और वेदानुसार ही जीवन व्यतीत करें जिससे देश, समाज व विश्व को लाभ प्राप्त हो।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

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महर्षि दयानन्द और अपमान

प्रत्येक व्यक्ति सोचने समझने के लिए स्वतंत्र हैं . वह अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार परिस्थिति के आंकलन के अनुसार निर्णय लेकर कार्य करता है . एक वर्ग ऐसा  भी होता  जो किसी अन्य के विचारों को  बिना सोचे समझे अनुपालन करना आरम्भ कर देते हैं वहीं  कुछ किसी न किसी कारणवश उनकी बातों से सहमत नहीं होते  . यह मानव जाती का स्वभाव और व्यवहार में प्रदर्शित होता  है .

यही कारण है की महापुरुषों के जहाँ अनुगामी लोगों की पचुरता होती है वहीं ऐसे लोगों का समूह भी होता है जो उनकी बातों से सहमत नहीं होते.  महापुरुष विरोधियों की बातों को सुनने और उनकी कटाक्षों को सहने की सामर्थ्य रखते हैं और इनसे विचलित नहीं होते उनका यही आचरण उन्हें दूसरों से भिन्न और महान बना देता है .

स्वामी दयानन्द भी इसके अपवाद नही थे . महर्षि दयानन्द जी के पूना  प्रवास के दौरान वहां के सम्माननीय लोगों ने ऋषी के सम्मान में एक जूलूस ऋषि दयानन्द को हाथी पर बिठा कर अश्व और गाजे बाजे के साथ निकाला . ( देवेन्द्र बाबू द्वारा रचित जीवन चरित्र )

वहीं पौराणिक पक्ष ने इसके विरोध में दूसरा जूलूस  निकाला और जिसमें एक गधे को सजाकर उस पर गधानंद लिख दिया .

पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक ने इस घटना के बारे में ऋषि दयानन्द के लिए लिखा है :

मान अपमान में समबुद्धि ऋषि दयानन्द :

“जैसे राजा की सवारी का हाथी गाँव के उपद्रवी कुत्तों के भौंकने से तनिक भी नहीं डरता वैसे ही हमारा यह बड़ी प्रसंशा के योग्य प्रबल वीर उपर्युक्त लोगों की असंख्य कुचेष्टाओं से कभी तनिक भी नहीं डगमगाया

ऐसे जगतपूज्य महानुभाव के साथ हमारे पूना के समान अत्यंत सभ्य नगर में कभी कोई ऐसा छल नहीं करना चाहिए था परन्तु कुटिल स्वार्थी और मत्सरी लोगों ने अपने साथ इस नगर को भी कलंकित कर दिया .

खैर ! जहाँ उत्तम लोग रहते हैं वहां चांडालों के घर भी होते हैं . इस लोकोप्ती से यदि हम अपने मन को संतोष भी करा लें तो भी यह बात बुरी हो गयी . इसलिए यहाँ के बहुत से सज्जन और विद्वान लोगों ने स्वामी जी के पास जाकर बहुत खेद व्यक्त किया परन्तु धन्य वह तपोनिधि ! जिसके धैर्य , गाम्भीर्य और शौर्य में तनिक भी अंतर पड़ा हुआ किसी के देखने में नहीं आता .

ऋषि दयानन्द का चरित्र, विद्वता उनका आचरण था ही अद्वितीय जिसे देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे .आलोचनाओं का ऋषी दयानन्द के व्यवहार उनके कार्य पर क्या प्रभाव पढ़ा पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक का लेख और ऋषी दयानन्द के लिए प्रयुक्त उनके शब्द और सम्पादक की इस घटना के उनके शहर में घटित होने को लेकर ग्लानी स्वयं वर्णन कर रही है .इस बारे में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं .

आवश्यकता इस बात पर विचार करने की है  कि आज ऋषि दयानन्द को लेकर जब एक वर्ग अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करे  तो  हमारा व्यवहार कैसा हो !. क्या हमें ऋषी दयानन्द के व्यवहार आचरण से शिक्षा ग्रहण करनी है या निरंकुश आतताइयों के अनुकूल व्यवहार करना हमारा ध्येय होना चाहिए .

हमारा व्यवहार उन आदर्शों उन सिद्धांतों की कसोटी पर हो जिनका  हमारे पूर्वजों हमारे सम्माननीय विभूतियों ने अनुगमन किया है .

 

ओ३म् ‘क्या देश ने महर्षि दयानन्द को उनके योगदान के अनुरूप स्थान दिया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने भारत से अज्ञान, अन्धविश्वास आदि दूर कर इनसे पूर्णतया रहित सत्य सनातन वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना की थी और इसे मूर्तरूप देने के लिए आर्यसमाज स्थापित किया था। वैदिक धर्म की यह पुनस्र्थापना इस प्रकार से है कि सत्य, सनातन, ज्ञान व विज्ञान सम्मत वैदिक धर्म महाभारत काल के बाद विलुप्त होकर उसके स्थान पर नाना प्रकार के अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायें व पाखण्डों से युक्त पौराणिक मत ही प्रायः देश में प्रचलित था जिससे देश का प्रत्येक नागरिक दुःख पा रहा था। अज्ञान व अन्धविश्वास ऐसी चीजें हैं कि यदि परिवार में एक दो सदस्य भी इनके अनुगामी हों, तो पूरा परिवार अशान्ति व तनाव का अनुभव करता है। देश की जब बहुत बड़ी जनता अन्धविश्वासों में जकड़ी हुई हो, तो फिर सारे देश पर उसका दुष्प्रभाव पड़ता ही है और ऐसा ही महर्षि दयानन्द जी के समय में हो रहा था। उनके आगमन से पूर्व वैदिक धर्म के अज्ञान व अन्धविश्वास के कारण तथा विश्व में सत्य धर्म का प्रचार न होने के कारण अविद्यायुक्त मत उत्पन्न हो गये थे जो हमारे सनातन वैदिक धर्म की तुलना में सत्यासत्य की दृष्टि से निम्नतर थे। महर्षि दयानन्द ने सत्य धर्म का अनुसंधान किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सृष्टि की आदि में ईश्वर से ऋषियों को प्राप्त ज्ञान ‘‘चार वेद ही वास्तविक धर्म की शिक्षायें हैं जिनका संसार के प्रत्येक व्यक्ति को आचरण करना चाहिये तभी वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न साकार होने के साथ विश्व में सुख व शान्ति स्थापित हो सकती है। स्वामी दयानन्द जी को सद्ज्ञान प्रदान कराने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। उन्होंने गुरू दक्षिणा में उनसे देश से अज्ञान व अन्धविश्वास मिटाकर देश में वैदिक सूर्य को पूरी शक्ति के साथ प्रकाशित करने का दायित्व सौंपा था जिसे अपूर्व शिष्य महर्षि दयानन्द ने स्वीकार किया और उसका प्राणपण से पालन किया। इतिहास में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जैसे गुरू और स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे शिष्य देखने को नहीं मिलते। ऐसा भी कोई महापुरूष इस देश विश्व में नहीं हुआ जिसे इतनी अधिक समस्याओं के साथ एक साथ जूझना पड़ा हो जितना की स्वामी दयानन्द जी को जूझना पड़ा।

 

स्वामी दयानन्द के समय देश धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों से गम्भीर रूप से ग्रसित था। राजनैतिक दृष्टि से भी यह स्वतन्त्र न होकर पहले मुगलों तथा बाद में अंग्रेजों का गुलाम बना। यह परतन्त्रता ईसा की आठवीं शताब्दी से आरम्भ हुई थी। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से चार ऋषियों को आध्यात्मिक व भौतिक अर्थात् परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान ‘‘वेद’’ प्राप्त हुआ था। सृष्टि के आरम्भ से बाद के समय में उत्पन्न सभी ऋषियों व राजाओं ने इसी वैदिक धर्म का प्रचार कर सारे संसार को अन्धविश्वासों से मुक्त किया हुआ था। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद वेदों का प्रचार प्रसार बाधित हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत में सर्वत्र अज्ञान व अन्धविश्वास फैल गया और इसका प्रभाव शेष विश्व पर भी समान रूप से हुआ। अज्ञानता व अन्धविश्वासों के परिणाम से देश में सर्वत्र मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, पुनर्विवाह न होना, सतीप्रथा, विधवाओं की दयनीय दशा, जन्मना जातिवाद, स्त्रियों व शूद्रों को वेद आदि की शिक्षा का अनाधिकार आदि के उत्पन्न होने से देश व समाज का घोर पतन हुआ। यह समय ऐसा था कि लोग धर्म के सत्यस्वरूप को तो भूले ही थे, ईश्वर व आत्मा के स्वरूप सहित अपने कर्तव्यों को भी भूल गये थे। विधर्मी हमारे बन्धुओं का जोर-जबरस्ती, प्रलोभन व नाना प्रकार के छल द्वारा धर्मान्तरित करते थे। हिन्दू समाज के धर्म गुरूओं को इसकी किंचित भी चिन्ता नहीं थी। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द का आगमन हुआ जैसे कि रात्रि के बीतने के बाद सूर्योदय होता है।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का उद्घोष कर कहा कि वेद ईश्वरीय ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों में कोई बात अज्ञानयुक्त असत्य नहीं है। वेद ज्ञान का उद्देश्य मनुष्यों को धर्म अधर्म तथा सत्य असत्य की शिक्षा देकर कर्तव्य अकर्तव्य का बोध कराना है। वेद विहित कर्तव्य ही धर्म तथा वेद निषिद्ध कार्य ही अधर्म कहलाते हैं। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, बाल विवाह, अनमेल विवाह को उन्होंने वेद विरूद्ध कार्य बताया। उन्होंने पूर्ण युवावस्था में समान गुण, कर्म व स्वभाव वाले युवक युवती के विवाह को वेद सम्मत बताया। वह सबको वेद आदि शास्त्रों सहित ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण एक समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा के पक्षधर थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्णो को वह गुण, कर्म व स्वभावानुसार मानते थे तथा जन्मना जाति वा जन्मा मिथ्या वर्ण व्यवस्था के प्रथम व सबसे बड़े विरोधी थे। उन्होंने देश व जाति के पतन के कारणों पर विचार व अनुसंधान किया और इसकी जड़ में उन्होंने वेद विद्या का अनभ्यास, ब्रह्मचर्य का पालन न करना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, बाल व अनमेल विवाह सहित बहु विवाह एवं व्यभिचार, जन्मना जाति व्यवस्था, सामाजिक असमानता आदि को कारण बताया। उन्होंने पूरे देश में एक जन आन्दोलन चलाया व अनेक कुप्रथाओं का उन्मूलन भी किया। वह आर्य भाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक और गोहत्या सहित सभी पशुओं के प्रति हिंसा वा मांसाहार के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने एक निराकार व सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना का सन्देश दिया। वह त्रैतवाद के उद्घोषक थे व उन्होंने उसे तर्क, युक्ति व न्याय की कसौटी पर सत्य सिद्ध किया। ईश्वर की उपासना की सही विधि उन्होंने देश वा विश्व को दी। ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरूप का भी उन्होंने अनुसंधान कर प्रचार किया। उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन कर पाया कि संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म है और वह है सत्याचरण। सत्य वह है जो वेद प्रतिपादित कर्तव्य हैं। उन्होंने वायु शुद्धि, स्वास्थ्य रक्षा और प्राणि मात्र के सुख तथा परजन्म के सुधार के लिए अग्निहोत्र यज्ञों का भी प्रचलन किया।

 

विधवा विवाह का उनके विचारों से समर्थन होता है, जो कि उन दिनों एक प्रकार से आपद धर्म था। उनकी एक मुख्य देन धार्मिक जगत में मतभेद व भ्रान्ति होने पर उसके निदान हेतु शास्त्रार्थ की प्राचीन पद्धति को पुनर्जीवित करना था। सभी मतों के विद्वानों से उन्होंने अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ किये और वैदिक मान्तयाओं की सत्यता को देश व संसार के समक्ष सिद्ध किया। उनकी एक अन्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन शुद्धि की परम्परा को स्थापित करना था। उनके व उनके अनुयायियों के वेद प्रचार से अनेक स्वजाति व अन्य मतस्थ बन्धु प्रभावित हुए और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक वैदिक धर्म स्वीकार किया। आजकल इस परम्परा को हमारे अनेक पौराणिक बन्धु भी अपना रहे हैं जो कि उचित ही है। शुद्धि का अर्थ है श्रेष्ठ मत व धर्म को ग्रहण करना और निम्नतर व हेय को छोड़ना। हम स्वयं पौराणिक परिवार के थे और हमने आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म को अपनाया है। शास्त्रार्थ व शुद्धि, यह दो कार्य, महर्षि दयानन्द के हिन्दू जाति के लिए वरदान स्वरूप कार्य हैं। उनकी एक प्रमुख देन सत्यार्थ प्रकाश व इतर वैदिक साहित्य का प्रणयन है। सत्यार्थ प्रकाश तो आज का सर्वोत्तम धर्म ग्रन्थ है। जो इसको जितना अपनायेगा, उसकी उतनी ही आध्यात्मिक भौतिक उन्नति होगी। महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों के प्रयत्नों के बाद भी मूर्तिपूजा जारी है जिसका बुद्धि संगत समाधान व वेदों में विधान आज तक कोई मूर्तिपूजा का समर्थक दिखा नहीं सका। अतीत में इसी मूर्तिपूजा व इन्हीं अन्धविश्वासों के कारणों से हमारा सार्वत्रिक पतन हुआ था। अन्य सभी अन्धविश्वास काफी कम हुए हैं जिससे देश में भौतिक सामाजिक उन्नति हुई है। इस सब देश समाज की उन्नति का श्रेय यदि सबसे अधिक किसी एक व्यक्ति को है तो वह हैं महर्षि दयानन्द सरस्वती। हम महर्षि दयानन्द की सभी सेवाओं के लिए उनको कृतज्ञता पूर्वक नमन करते हैं। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर जिन कार्यों को करणीय बताया और जिन अज्ञानपूर्ण कार्यों का विरोध किया, उसे संसार का सारा बुद्धिजीवी समाज स्वीकार कर चुका है जिससे दयानन्द जी के सभी कार्यों का महत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध है।

 

एक काल्पनिक प्रश्न मन में यह भी उठता है कि यदि महर्षि दयानन्द भारत में न आते तो हमारे समाज व देश की क्या स्थिति होती। हमने जो अध्ययन किया है उसके आधार पर यदि महर्षि दयानन्द न आते तो हमारे समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, मिथ्याचार, व्यभिचार, जन्मना जातिवाद, सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर कहीं अधिक वृद्धि को प्राप्त होती। विधर्मी हमारे अधिकांश भाईयों को अपने अपने मत वा धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास करते और उसमें वह सफल भी होते, ऐसा पुराने अनुभवों से अनुमान कर सकते हैं। हिन्दू समाज में उस समय धर्मान्तरण को रोकने वाला तो कोई नेता व विद्वान था ही नहीं। इससे देश का सामाजिक वातावरण भयंकर रूप से विकृत हो सकता था। देश में स्वाधीनता के प्रति वह जागृति उत्पन्न न होती जो आर्य समाज की देन है। आर्य समाज ने आजादी में जो सर्वाधिक योगदान दिया है उसके न होने से देश के आजाद होने में भी सन्देह था। कुल मिलाकर देश की वर्तमान में जो स्थिति है उससे कहीं अधिक खराब स्थिति देश व समाज की होती। यदि महर्षि न आते तो वेद तो पूर्णतया लुप्त ही हो गये होते। योग व आयुर्वेद भी विलुप्त हो जाते या मरणासन्न होते। सच्ची ईश्वरोपासना से सारा संसार वंचित रहता। लोगों को सत्य धर्म व मत-मजहब-सम्प्रदाय का अन्तर पता न चलता। कुल मिलाकर स्थिति आज की तुलना में भयावह होती, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।

 

हमारे इस विवेचन से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि महर्षि दयानन्द देश में सबसे अधिक मान-सम्मान व आदर पाने के अधिकारी हैं। इस पर भी देश के प्रभावशाली लोगों ने अपने-अपने मत, अपने अपने हितों के साधक व राजनैतिक समीकरण में फिट होने वाले इच्छित व्यक्तियों को गुण-दोष को भूलकर मुख्य माना। आर्य समाज जिसने देश को ज्ञान विज्ञान सम्मत बनाने, देश को आजादी का मन्त्र देने व अंग्रेजों से प्रताड़ना मिलने पर भी देश की स्वतन्त्रता के लिए तिल तिल कर जलने का कार्य किया व समाज से असमानता दूर करने का महनीय व महानतम कार्य किया, उसकी देश की आजादी के बाद घोर उपेक्षा की गई है। आज का समय सत्य व यथार्थवाद का न होकर समन्वयवाद व स्वार्थवाद का अधिक दिखायी देता है। सब अपने अपने विचारों व विचारधाराओं के लोगों को ही श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानते हैं जबकि सत्य दो नहीं केवल एक ही होता है। हम निष्पक्ष भाव से विचार करने पर भी महर्षि दयानन्द को ही देश का महानतम महापुरूष पाते हैं। स्वार्थ, अज्ञानता तथा अपने व पराये में पक्षपात करने का यह युग इस देश में कभी समाप्त होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। यह ईश्वर का संसार और ब्रह्माण्ड है। महर्षि दयानन्द तो अपना बलिदान देकर अपना एक एक श्वास इस देश को अर्पित कर चले गये हैं। अब तक भी देश में सत्य आध्यात्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा न होकर हमारे हृदयों में सर्वव्यापक सच्चिदानन्द परमात्मा के स्थान पर पाषाण देवता ही विराजमान हैं। यह स्थिति भी अप्रिय है कि आज आर्य समाज संगठनात्मक दृष्टि से शिथिल पड़ गया है। यहां भी वेद विरोधी व ऋषि द्रोही स्वार्थी व्यक्तियों की कमी नहीं है जो येन केन प्रकारेण अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहते हैं।

 

यदि हमारे सभी देशवासी महर्षि दयानन्द के दिखाये मार्ग को सर्वात्मा स्वीकार कर लेते और उस पर चलते तो आज हम संसार में आध्यात्मिक व भौतिक प्रगति में प्रथम स्थान पर होते। कोई देश हमें आंखे दिखाने की कुचेष्टा नहीं कर सकता था। परन्तु नियति ऐसी नहीं थी। आज भी देशवासी एक मत, एक भाव, एक भाषा, एक सुख दुख के मानने वाले नहीं है। यहां तक कि ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दी गई संस्कृत भाषा व ईश्वरीय ज्ञान वेद भी देश व विश्व में राजनीति व हानि लाभ की दृष्टि से देखे जाते हैं। इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है। इससे समाज बलवान होने के स्थान पर कमजोर हुआ है। महर्षि दयानन्द देश को आदर्श देश व विश्व गुरू बनाना चाहते थे, उनका वह स्वप्न अधूरा है। अनुभव होता है कि इसमें अनेक शताब्दियां लग सकती है। यह सत्य है कि देश व विश्व को सुखी, सम्पन्न, समृद्ध, एक भाव व विश्व गुरू बनाने में जो मार्ग महर्षि दयानन्द ने बताया है, वही एक मात्र सही मार्ग है और उसी पर चल कर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का लक्ष्य प्राप्त होगा। नान्यः पन्था विद्यते अयनाय।

मनमोहन कुमार आर्य

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दयानन्द थे भारत की शान -श्रीकृष्ण चन्द्र शर्मा

लड़े जो कर-करके विषपान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

बोले गुरुवर दयानन्द, क्या दक्षिणा दोगे गुरु की।

विनय युक्त वाणी में बोले, आज्ञा दो कह उर की।।

आर्य धर्म की ज्योति बुझी है, चली गई उजियारी।

घोर तिमिर में फंसे हुए हैं, पुत्र सभी नर-नारी।।

 

चार कार्य करने को निकलो, आज्ञा मेरी मान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

पहला है आदेश, देश का करना है उपकार।

देश धर्म से बड़ा नहीं है, जग का कुछ व्यवहार।।

पराधीन हो कष्ट भोगता, जन-जन यहाँ कुरान।

स्वतन्त्रता का शुभ प्रभात हो, आवे आर्य सुराज।।

 

भाव संचरण हो स्वराज का, छेड़ो ऐसी तान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

दूजे भारत की जनता है, सच्ची भोली-भाली।

पाखण्डी रचते रहते हैं, नित नई चाल निराली।।

निजी स्वार्थ हित गढ़ते रहते, झूठे ग्रन्थ पुरान।

हुए आचरणहीन इन्हीं से, भूले सच्चा ज्ञान।।

 

सत्य शास्त्रों की शिक्षा दे, दूर करो अज्ञान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

सत् शास्त्रों से वंचित कर दिया, रच-रच झूठे ग्रन्थ।

अपनी पूजा मान के कारण चलाये, निज-निज पन्थ।।

अपने मत को उजला कहते, अन्य की चादर मैली।

सत्य आचरण के अभाव में दिग्भ्रमता है फैली।।

 

दूर अविद्या हो इनकी यह तृतीय कार्य महान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

वेद ज्ञान के विना देश पर आई विपत्ति अपार।

झूठ, कुरीति पाखण्डों की हो रही है भरमार।।

चला रहे ईश्वर के नाम पर, उदर भरु व्यापार।

कार्य चतुर्थ करो तुम जाकर, वैदिक धर्म प्रचार।।

 

आपके ये आदेश महान, करूँगा जब तक तन में प्राण।

दयानन्द थे भारत की शान।।

-एस.बी.7, रजनी विहार, हीरापुरा,

अजमेर रोड़, जयपुर।

वर्ण व्यवस्था, जन्मना जाति व्यवस्था और महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

महर्षि दयानन्द अपने समय के प्रमुख समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने समय में जन्मना जातिवाद का विरोध किया था और सृष्टि की आदि से प्रचलित गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था को व्यवहारिक घोषित कर उसका ही प्रचार व प्रसार किया था। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने विस्तृत साहित्य, मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में, अनेक स्थानों पर चर्चा की है। वेद आदि प्राचीन साहित्य के आधार पर वह वेदाध्ययन करने कराने, यज्ञ करने वा करवाने तथा दान देने व लेने को ब्राह्मण के मुख्य कर्तव्यों में शामिल करते थे। यदि किसी विप्र ब्राह्मण की सन्तान वेद ज्ञान से शून्य है तो वह वेदाध्ययन न करने व कराने सहित अन्य कर्तव्यों की पूर्ति में भी अक्षम होने से ब्राह्मण नहीं हो सकती। इसी प्रकार से यदि किसी अज्ञानी शूद्र का पुत्र व वा पुत्री ज्ञान की दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के तुल्य हो, तो वह शूद्र न होकर गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही होगा। यदि किसी घोर अज्ञानी में कोई विशेष योग्यता न हो तो फिर वह सन्तान शूद्र ही होगी। स्वामी दयानन्द के समाज सुधार का देशवासियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। लोगों ने वर्णव्यवस्था के गुण-कर्म-स्वभाव के सिद्धान्त को युक्ति व तर्क संगत होने के कारण सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार कर किया था। यह बात और है कि आज तक भी यह सिद्धान्त पूर्ण व्यवहारिक रूप नहीं ले सका। गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था वेदों पर आधारित उन्नत सामाजिक व्यवस्था है और जन्मना जाति व्यवस्था इस व्यवस्था के विपरीत कृत्रिम व अव्यवहारिक व्यवस्था है। जब तक यह जन्मना व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाती, इसके विरूद्ध समाज सुधार प्रेमियों को निरन्तर प्रयत्न करने चाहिये। इससे देश व समाज को भारी क्षति हो रही है। जो लोग एक ही जाति में विवाह करते हैं, उस कारण उनसे कई योग्य सन्तानें जन्म लेने से वंचित होती हैं। यह दुःख का विषय है कि आर्य समाज ने महर्षि दयानन्द के अन्य कई आन्दोलनों की तरह ही वर्णव्यवस्था के प्रचार कार्य से स्वयं को न केवल दूर व पृथक किया है अपितु इस विषय पर सोचना भी छोड़ दिया है।

 

महर्षि दयानन्द का गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था के महत्व, योगदान, उपयोगिता व प्रभाव के विषय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डा. रघुवंश ने श्री यदुवंश सहाय लिखित महर्षि दयानन्द की जीवनी में पुनरुत्थान युग का द्रष्टा शीर्षक से अपने प्राक्कथन में चर्चा की है। उनके इससे सम्बन्धित महत्वपूर्ण विचारों को हम पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं ने, मुख्यतः गांधी जी ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेष्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानन्द ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना शुरू किया था। एक भी ऐसी समस्या नहीं है, जिसकी ओर उन्होंने संकेत किया हो और कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसे उन्होंने छोड़ा हो। समाज के वर्णभेद, उनकी असमानता, उनमें छूआछूत, जन्म से वर्णों के विभाजन आदि के बारे में दयानन्द ने अपने प्रखर विचार रखे थे। उन्होंने इस प्रकार की असमानता को, छुआछूत को, जन्म से वर्ण के निर्धारण को धर्मविरुद्ध और असत्य प्रतिपादित किया। परन्तु उन्होंने कर्म पर आश्रित वैदिक वर्णव्यवस्था की स्वीकृति दी है। हम आधुनिकता के समर्थक यह कह सकते हैं कि कर्म (गुण-कर्म-स्वभाव) पर आश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार कर लेना एक प्रकार का समझौता है, क्योंकि इस प्रकार हम दूसरे मार्ग से परम्परित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं। परन्तु स्थिति का यथार्थ-विवेचन करने से पता चलता है कि जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार करने का घोषणा की है, उन्होंने अपने जीवन में अभी तक जातिवाद को बहुत महत्व दे रखा है। भारतीय राजनीति के विभिन्न स्तरों पर जातिवाद का कितना प्रभाव है, इससे यह प्रमाणित हो जाता है। गांधी जी ने सन्त भाव से निम्न जातियों को हरिजन कहा, परहरिजन शब्द अछूत के समान एक पर्याय मात्र बन कर रह गया। इसकी तुलना में दयानन्द की दृष्टि अधिक स्पष्ट थी। पहले तो उन्होंने (स्वामी दयानन्द ने) कहा कि समाज के विविध अंग रूप उसके वर्णों में ऊंच-नीच का भाव ही अधर्म हैं, क्योंकि अंगों का ऊंचा-नीचा स्थान उनकी श्रेष्ठता का निर्धारक नहीं हो सकता। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि पैरों से हाथ इसलिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि प्राणी के खड़े होने पर वे ऊपर स्थित होते हैं। समाज की व्यवस्था और सन्तुलन के लिए कार्यों का विभाजन किसी किसी रूप में अनिवार्य है पर कार्य के सम्पादन की क्षमता जन्मतः सिद्ध नहीं हो सकती। अतः वर्ण का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार के तर्क और व्यवस्था में कितना बल है, यह स्पष्ट है। साथ ही दयानन्द ने वर्णव्यवस्था के नाम पर जो सामाजिक अन्याय हो रहा था, उसका बड़ा विरोध किया था और इस विद्रोह भाव को समाज की नई रचना में समाहित करने का प्रयत्न भी किया था। बाद के समन्वयवादियों के दृष्टिकोण से उनका विचार कहीं अधिक क्रान्तिकारी रहा है। यह अलग बात है कि आधुनिक ज्ञानविज्ञान के प्रयोग से जिस प्रकार की आद्योगिक और यांत्रिक प्रगति हो रही है, उसमें समाजरचना का स्वरूप ऐसा बदल रहा है, जिसमें पिछली कर्माश्रित वर्णव्यवस्था असंगत हो गई है।’ 

 

डा. रघुवंश जी ने सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण कर अपना जो मन्तव्य प्रस्तुत किया है वह यथार्थ है। उन्होंने स्वामी दयानन्द के विचारों व कार्यों का स्तुति गान किया है जो कि सत्य व ग्राह्य है। आज जन्मना जाति व्यवस्था अप्रासंगिक हो गयी है। वर्तमान में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित प्राचीन वर्ण व्यवस्था अपने मूल स्वरूप से परिवर्तित होकर आधुनिक रूप में विद्यमान है। आज की व्यवस्था में वर्ण समाप्त हो गये हैं और इनका स्थान डाक्टर, इंजीनियर, पुलिस, सेना, सरकारी कर्मचारी, निजी व्यवसायी, कृषक, श्रमिक आदि शब्दों ने ले लिया है। आशा है कि भविष्य में जन्मना जातियां इसी व्यवस्था में विलीन हो जायेगी। यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि आज समाज में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित प्रेम विवाह और परिवारजनों द्वारा आयोजित विवाह भिन्न भिन्न जन्मना जातियों के वर-वधुओं में हो रहे हैं जिन्हें अन्तर्जातीय विवाह कहते हैं। समाज के एक बड़े भाग ने इन्हें स्वीकार भी कर लिया है। इससे जन्मना जातिवाद काफी शिथिल हुआ है। दुःख का विषय है कि आज भी लोग अपने अपने नामों के साथ जन्मना जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे समाज में एकरसता उत्पन्न होने में बाधा होती है। यह जन्मना जाति लिखने की प्रथा यदि समाप्त हो जाये और केवल गोत्रों का ही प्रयोग विवाहार्थ किया जाये तो यह समाज, देश व मनुष्यता के लिए उत्तम हो सकता है। यही स्वामी दयानन्द जी को भी अभीष्ट था। हम आशा करते हैं कि भविष्य में यह व ऐसी सभी कृत्रिम प्रथायें दूर होंगी। लेख समाप्ति पर हम यह कहना चाहते हैं कि सामाजिक व्यवस्था में जो आज परिवर्तन देख रहे हैं, उसमें महर्षि दयानन्द का प्रमुख योगदान है जिससे आज का समाज परिचित नहीं है। स्वामीजी के अनेक देश व समाज हित के कार्यों के लिए उनका कोटि कोटि वन्दन है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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