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ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं

संस्कृत भाषा में परमात्मा = परम + आत्मा तथा जीवात्मा = जीव + आत्मा दो शब्द हैं।

परमात्मा शब्द का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ आत्मा

और जीवात्मा का अर्थ है प्राणधारी आत्मा

आत्मा शब्द दोनों के लिए आता है और बहुधा परम-आत्मा तथा जीव-आत्माओ का भेदभाव किये बिना समस्त जीवनतत्वो के लिए व्यवहृत किया जाता है।

परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में इतनी समानता है [मगर दोनों के कार्य क्षेत्र निसंदेह अत्यंत विभिन्न हैं] की प्रायः इनके सम्बन्ध के विषय में भ्रम हो जाता है और इस भ्रम के कारन दर्शनशास्त्र तथा धर्म दोनों क्षेत्रो में बाल की खाल निकाली जाती है।

खासतौर पर ईश्वर को ना मानने वाले लोग मनुष्य को ही “सिद्ध” व “ईश्वर” का दर्ज देकर अपनी अल्पज्ञता के कारण ऐसा विचार लाते हैं –

वैदिक ईश्वर का स्वरुप कैसा है और जीव का स्वरुप कैसा है – जब इस प्रकार की चर्चा की जाती है तब आवश्यक हो जाता है इस प्रकृति के बारे में भी कुछ जाना जाए – तो आइये – इस विषय पर कुछ विचार करे –

इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दीखते हैं :

पहिला – इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक, परिवर्तनशील है।

दूसरा – प्रत्येक जाती के प्राणी अपनी जाती के ही अंदर उत्तम, माध्यम और निकृष्ट स्वाभाव से पैदा होते हैं।

तीसरा – इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है वह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है।

पहिला नियम : सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील है इसका अर्थ जो लोग सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानते हैं वे गलती पर हैं क्योंकि स्वाभाव में परिवर्तन नहीं होता ऐसे लोग भूल जाते हैं की परिवर्तन नाम है अस्थिरता का और स्वाभाव में अस्थिरता नहीं होती क्योंकि उलटपलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है की यदि प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने तो ये अनंत परिवर्तन यानी अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एकसमान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रासविकास संभव नहीं रहेगा किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है की सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है सवभविक नहीं, इसीलिएि इस परिवर्तनरुपी प्रधान नियम के द्वारा यह सिद्ध होता है की सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं इसकी बड़ी वजह है की जो भी चेतन और ज्ञानवान सत्ता होगी वो कभी दूसरे के बनाये नियमो में बंध नहीं सकती बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञानस्वतंत्रता से निर्धारित नियमो में बाधा पहुचाती है – जहाँ तक हम देखते हैं परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं – जिस भी जगह उनको दूसरे जड़ पदार्धो में जोड़ा गया – वहां आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं जरा भी इधर उधर नहीं होते इससे ज्ञात होता है की इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है ज्ञानवान नहीं बल्कि जड़ है – इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु मेटर आदि नामो से कहा जाता है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है

दूसरा नियम : सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वाभाव हैं। अनेक मनुष्य प्रतिभावान, सौम्य और दयावान होते हैं, अनेक मुर्ख उद्दंड और निर्दय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोडा आदि पशु स्वाभाव से ही सीधे होते हैं और अनेक शेर, आदि क्रोधी और दौड़दौड़कर मारने वाले होते हैं यहाँ देखने वाली बात है की ये स्वभावविरोध शारीरिक यानी भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है, जो चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। लेकिन ध्यान देने वाली है ये ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, क्योंकि यदि सारे शरीर में ये ज्ञान व्याप्त होता तो किसी का कोई अंग भंग यथा अंगुली, हाथ, पैर आदि कट जाने पर उसका ज्ञानंश कम हो जाना चाहिए लेकिन वस्तुतः ऐसा होता नहीं इसलिए यह निश्चित और निर्विवाद है की ज्ञानवाली शक्ति जो प्राणियों में वास करती है वो पुरे शरीर में व्याप्त नहीं है प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है क्योंकि सुक्षतिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है दूसरा तथ्य ये भी है की यदि पुरे शरीर में ज्ञानशक्ति मौजूद होती तो जैसे शरीर का आकर बढ़ता है वैसे उस शक्ति को भी बढ़ना पड़ता जबकि ऐसा होता नहीं और ये शक्ति परमाणुओ के संयोग से भी नहीं बनी क्योंकि ऊपर सिद्ध किया गया की ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही ये हो सकता है की अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणु एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकते हो। यदि कोई मनुष्य ब्रिटेन में जिस समय पर गाडी दौड़ा रहा है – तो उसी समय पूरी दुनिया में मौजूद इंसान उस गाडी और मनुष्य को नहीं देख पा रहे इसलिए प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव, रूह और सोल के नाम से जानते हैं।

इस विस्तृत सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, वह नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य चन्द्र और समस्त ग्रह उपग्रह अपनी अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशुपक्ष्यादि के शरीरो की बनावट वृक्षों में फूलो और फलो की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज का नियम और प्रत्येक जाती की आयु और भोगो की व्यवस्था आदि जितने इस सृष्टि के स्थूल सूक्ष्म व्यवहार हैं, सबमे व्यवस्था, प्रबंध और नियम पाया जाता है। नियामक के नियम का सब बड़ा चमकार तो प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में दिखलाई देता है। क्यों एक बालक नियत समय तक बढ़ता और क्यों एक जवान धीरे धीरे ह्रास की और – वृद्धावस्था की और बढ़ता जाता है इस बात का जवाब कोई नहीं दे सकता यदि कोई कहे की वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ हैं, तो ये युक्तियुक्त और प्रामाणिक नहीं होगा क्योंकि हम रोज देखते हैं एक ही घर में एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे छोटे बच्चे बढ़ते जाते हैं और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमो से सूचित होता है की इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है जो अनंत आकाश में फ़ैल हुए असंख्य लोकलोकान्तरो का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए हैं। ऐसा इसलिए तार्किक और प्रामाणिक है क्योंकि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के ठहर नहीं सकता। हम सम्पूर्ण सृष्टि में नियमपूर्वक व्यवस्था देखते हैं, इसलिए सृष्टि का यह तीसरा कारण भी सृष्टि के नियमो से ही सिद्ध होता है। इसी को परमात्मा, ईश्वर खुदा और गॉड कहते आदि अनेक नामो से पुकारते हैं हैं जिसका मुख्य नाम ओ३म है।

सृष्टि के ये तीनो कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं।

मेरे मित्रो, ज्ञान और विज्ञान की और लौटिए,

सत्य और न्याय की और लौटिए

वेदो की और लौटिए….

आओ लौट चले वेदो की और।

महर्षि दयानंद और मनुस्मृति के वचनो पर आक्षेप का उत्तर

हथिनी और हंसिनी चाल संपन्न युवती विवाह के लिए क्यों उपयुक्त है

सत्यार्थ प्रकाश – एक ऐसा कालजयी ग्रन्थ जो सभी आरोपों से आज तक मुक्त रहा है – क्योंकि इसमें कोई ऐसी बात नहीं लिखी गयी जो निरर्थक हो – सभी बाते – ऋषि ने वेदो और अनेको आर्ष ग्रंथो का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के बाद ही लिखा। फिर भी कुछ लोग जानबूझकर अथवा स्वशंका से उत्पन्न कारणों से इस ग्रन्थ के कुछ हिस्सों की यदा कदा आलोचना करते रहते हैं। ऐसे आक्षेपों का इन्हे केवल एक लाभ उठाना है किसी प्रकार इस ग्रन्थ में खोट निकाल कर समाज को दिखा देवे जिससे समाज इस ग्रन्थ को निरर्थक मानकर त्याग दे और फिर ऐसे लालची लोगो की पूछ पुनः समाज में स्थापित हो जावे। कुछ ऐसे भी हैं जो स्वशंका उत्पन्न कर जवाब हासिल करना चाहते हैं। अंतर केवल इतना है की स्वशंका जिसमे उत्पन्न हुई वो सत्य को जानकार मिथ्या को तुरंत त्याग देगा इसमें शंका नहीं लेकिन जो वो लालची लोग हैं जिन्होंने इस आक्षेप को मढ़ा ही अपने प्रपंच के लिए है वो सत्य जानने के बाद भी इस आक्षेप को नहीं छोड़ेंगे।

हम बात कर रहे हैं कुछ लोगो द्वारा ऋषि के लिखे सन्दर्भ पर आक्षेप करने की तो पहले देखते हैं ऋषि ने आखिर लिखा क्या है :

ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में गृहस्थाश्रम के लिए आर्ष ग्रंथो में उपलब्ध व्यवस्थाओ को इंगित किया है। जिस प्रकार सम्पूर्ण सत्यार्थ प्रकाश में बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण कुछ नहीं लिखा इसी प्रकार इस चतुर्थ समुल्लास में भी बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण ऋषि ने कोई व्यवस्था नहीं की है।

चतुर्थ समुल्लास गृहस्थ आश्रम को इंगित करता है इसलिए पूरी व्यवस्था गृहस्थों के लिए कब क्या कैसी और क्यों होनी चाहिए से सम्बंधित है। जब ऋषि ने ये ग्रन्थ लिखा था तब की परिस्थिति पर एक बार नजर डालिये :

1. बाल विवाह से देश त्रस्त था।

2. दहेज़ पीड़ा का बोझ था।

3. महिलाओ को शिक्षा आदि अधिकार से वंचित रखना प्रथम दायित्व था।

4. सती प्रथा जैसी कुप्रथा और महाबुराई फैली थी।

5. बाल विवाह के कारण “अबोध विधवा” का दुःख।

ये कुछ कारण मैंने गिनाये – ऋषि ने इन पीडाओ को महसूस किया – एक नारी का दर्द जाना – महसूस किया की ये देश और धर्म के लिए कितना खतरनाक है। क्या इतने कार्यो से ज्ञात नहीं होता की ऋषि स्त्री विरोधी नहीं थे बल्कि “नारी के उत्थान” हेतु पूर्ण संकल्पित थे। क्या केवल कुछ मूढ़ व्यक्तियों की कल्पनाओ के आधार पर ऋषि दयानंद की विचारधारा को “नारी विरोधी” सिद्ध किया जा सकता है ?

क्या इन कुप्रथाओ विरोध करना अपराध था ?

ऋषि ने केवल सत्य बोला। और कुप्रथाओ का त्याग करने के लिए ही इस कालजयी ग्रन्थ को लिखा। ऋषि के अनेक महान कार्यो को ना देखकर – केवल स्वार्थवश कुछ बातो पर आक्षेप करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो आपने आक्षेप किया – लेकिन सोच समझकर तो करते भाई – आइये देखिये जिस आक्षेप को तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे उसमे प्रमाण क्या हैं और विज्ञानं क्या है – आइये देखिये :

आक्षेप 1. हथिनी और हंसिनी जैसी चाल जिस युवती की हो उससे विवाह करे, हिरणी जैसी चाल वाली लड़की से विवाह न करे।

उत्तर : आश्वलायन गृह सूत्र के अनुसार कन्या में निम्नलिखित शुभलक्षण होने चाहिए –

1. बुद्धि 2. रूप 3. लक्षण अर्थात शुभ लक्षण 4. शील 5. आरोग्य

रूप की परिभाषा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं की जिसमे वर का मन रमे उसे रूप कहते हैं।

आपस्तम्ब ऋषि का भी कथन है की –

“यस्यां मनशचक्षुषोनिबन्धस्तस्यामृद्धिरिति”

अर्थात जिसको देखने से, नेत्र और मन जहाँ बांध जाए, ऐसी कन्या से विवाह शुभ है।

अब कुछ महानुभाव जिन्होंने ऋषि पर आक्षेप कर दिया की चाल के बारे में लिखा यानी ऋषि ने चाल पर ध्यान दिया – मंत्रो को तवज्जो नहीं दी – वो आपस्तम्ब ऋषि के बारे में भी यही सोचेंगे की ऋषि का ध्यान कन्या के चेहरे पर था – ज्ञान आदि विषय पर नहीं।

कन्या के शुभलक्षणयुक्त होने पर बहुत जोर अनेको ऋषियों ने दिया है ताकि गृहस्थाश्रम में विघ्न न हो – दुःख क्लेश आदि उत्पन्न न हो – जैसे

मनु महाराज ने कहा – कन्या लक्षणान्विता होने चाहिए – कन्या अंगहीन न हो, न ही कोई अंग छोटा बड़ा हो, जिसके नाम में सौम्य हो, जो हंस या हाथी की भांति चलती हो, जिसके शरीर के रोम, केश और दांत पतले हो, जिसका शरीर मृदु हो, ऐसी कन्या से विवाह करना उचित है।

दक्ष तथा याज्ञवल्क्य ऋषि ने भी लिखा है की विवाह के पूर्व कन्या के लक्षणों को अवश्य देखे।

शातातप प्रणीत – “पृथ्वी चंद्रोदय” में लिखा है की जिसकी वाणी हंस के सामान हो और वर्ण मेघ की तरह हो अर्थात चिकनाई लिए हुए श्याम वर्ण, ऐसी कन्या से विवाह करने से गार्हस्थ सुख प्राप्त होता है।

नारद जी ने भी लिखा है की मृग के सामान जिसके नेत्र और ग्रीवा हो और हंस के सामान जिसकी गति और वाणी हो ऐसी स्त्री राजपत्नी होती है।

आजकल ऋषि के कथन का विरोध और मजाक उड़ाना फैशन बन गया है – ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में ग्रस्थ आश्रम के लिए लिखा जिसमे स्त्री लक्षणों के बारे में जो शास्त्रो में बताया गया – उन सम्भावनाओ – लक्षणों को बताया ताकि वर स्वयं अथवा वर के माता पिता आदि गुरुजन अच्छी कन्या का अन्वेषण करते समय अपने मन में यह निश्चय कर ले की अमुक कन्या में क्या क्या शुभ लक्षण हैं और उससे विवाह करना कहाँ तक उपयुक्त होगा।

शुभ लक्षणों का जानना इसलिए आवश्यक है ताकि भावी संतान सब सुख और गुणों से भरपूर है, दुर्गणों का लेशमात्र भी न हो। जिससे देश धर्म और समाज की व्यवस्था बानी रहे।

हाँ ये बात भी ठीक है कि स्त्री-लक्षण शास्त्र का ज्ञान करके यह कहना उचित नहीं है की अमुक की पत्नी अच्छी है, अमुक की पत्नी दुष्ट लक्षणा है, लेकिन इतना अवश्य है की यदि इन नियमो का यथावत पालन न किया जाए तो दो प्रकार के दोषो की सम्भावना है :

1. शुभाशुभ दोनों प्रकार के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में पाये जाते हैं। जिस प्रकार के लक्षण अधिक बलवान और विशेष संख्या में होते हों वे विपरीत लक्षणों को दबा देते हैं। “विवेक विलास” आर्ष ग्रन्थ तो नहीं लेकिन वहां एक पंक्ति समझने योग्य है :

“पुष्टं यादव देहे स्याल्लक्षणम् वाप्यलक्षणम्।
इतराब्दाद्यते तेन बलवत फलदं भवेत्।।

भावार्थ : हो सकता है किसी लक्षण से कोई स्त्री दुष्ट प्रतीत होती हो किन्तु उसमे ऐसे बलवान शुभ लक्षण भी हो जिनको हम नहीं देख सकते।

2. प्रत्येक स्थान पर ज्योतिष की भाँती लक्षण शास्त्र में भी देश, काल और पात्र का विचार करना उचित है।

आगे के पोस्ट में इसी विषय को जारी रखकर पुराण आदि ग्रंथो से प्रमाणित किया जाएगा की ऋषि का ज्ञान कितना उच्च कोटि का था। और मॉडर्न विज्ञानं भी पुष्टि करता है ये सिद्ध होगा

आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।

जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?

क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो

बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।

(ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं

(ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।

ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

(ऋग्वेद 10.71.3)

प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।

(ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –

कृपया सत्य को जानिये –

वेद की और लौटिए —

वेद, विज्ञानं, और सृष्टि उत्पति के युवा मनुष्य

नमस्ते मित्रो,

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्य कैसे और किस अवस्था में उत्पन्न हुए होंगे ?

जैसे की आपने विषय पढ़ा – जो बहुत ही गूढ़ है – फिर भी हम कोशिश करेंगे इस विषय पर ध्यान रखकर – वेदो के विज्ञानं को समझने की – वेदो के अनुसार आदि सृष्टि अमैथुनी होती है – पहले समझते हैं ये अमैथुनी सृष्टि क्या है ?

अमैथुनी सृष्टि से अभिप्राय उस सृष्टि से है जिसमे जीवो के शरीर बिना मैथुन (सेक्स) द्वारा उत्पन्न होते हैं – ऐसे शरीर उत्पन्न होने के बाद ही मैथुनी सृष्टि – अभी जो आप देख रहे इस प्रकार संतति उत्पन्न करने वाली होती है।

अब कुछ लोग सोचेंगे – जब प्रकृति का नियम ही मैथुनी सृष्टि से है तो फिर किसप्रकार और क्यों अमैथुनी सृष्टि होती है ? कुछ सोचेंगे ऐसा कैसे हो सकता है ? कुछ कहेंगे वेद सदा ही ज्ञान विज्ञान और तर्क की कसौटी पर किसी तथ्य को कसता है मगर यहाँ अमैथुनी सृष्टि के लिए कौन सा विज्ञानं और तर्क है ? कुछ भाई बिना कुछ सोचे विचार ही इस पोस्ट को लाइक कर देंगे और कमेंट में अपने विचार भी प्रकट नहीं करेंगे –

खैर पहले हम जांच करते हैं की अमैथुनी सृष्टि किस प्रकार होती है :-

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयं आविशत् ।।

अर्थ : हिंस्रकर्म-अहिंस्र, मृदु (दयाप्रधान) क्रूर, धर्म घृत्यादि-अधर्म, सत्य असत्य, जिसका जो कुछ (पूर्वकल्प का) स्वयं प्रविष्ट था, वह वह उस उस को सृष्टि के समय उस (ईश्वर) ने धारण कराया। (२९)

यथा र्तुलिङ्गान्यृतवः स्वयं एव र्तुपर्यये ।
स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः।।

अर्थ : जैसे वसंत आदि ऋतुएँ अपने अपने समय में निज निज ऋतु चिन्हो को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्यादि भी अपने अपने कर्मो को पूर्व कल्प के बचे कर्मानुसार प्राप्त हो जाते हैं। (३०)

(मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक २९-३०)

जिस प्रकार प्रलय काल में सभी जीव सुषुप्ति की अवस्था में गहन निद्रा में होते हैं, जैसे ही सृष्टि का समय आता है ईश्वर जीव के पूर्व कल्प के कर्मो अनुसार उचित फल देकर आदि सृष्टि में उत्पन्न उचित देह द्वारा फल भोग करवाते हैं।

अब सवाल उठेगा ये देह कैसे बनेगी ?

तो उसका जवाब है –

महर्षि मनु ने जो ऋतुओं की उपमा देकर आदि अमैथुनी सृष्टि का वर्णन किया है, यह बहुत ही सारगर्भित है, महर्षि का आशय कुछ इस प्रकार है जैसे ऋतुओं के चिन्ह बिना श्रम विशेष स्वाभाविक ही प्रगट होने लगते हैं। वसंत ऋतू में वृक्षों में वह खमीर गर्मी सर्दी के नियत प्रभाव से उत्पन्न होने लगता है और सर्वत्र बाग़ खिले फूलो से भर जाता है। भूमि की गर्मी सर्दी के प्रभाव से ऐसी दशा स्वयमेव ही हो जाती है की स्वयं ही शंखपुष्पी आदि अनेक फूलवाली औषधीय निकल आती हैं।
ठीक ऐसे ही वसंत ऋतू में भूमि को यदि गर्भाशय मान ले तो कोई संशय नहीं होगा क्योंकि ऋतुओं के परिवर्तन का कारण जल गर्मी की कमीबेसी इसी प्रकार आदि सृष्टि के समय पर पृथ्वी अत्यंत गर्म होती है ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थ भी कहते हैं और हाल के वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं –

एक अवस्था में पृथ्वी और द्यौ साथ थे :

इमौ लोको सह सन्तौ व्यैताम। जै० ब्रा० १।१४५

इमौ वै लोको सहास्ताम्। एत० ब्रा० ७।१०।१

शतपत ब्रा० (७।१।२२३) आदि अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ में श्लोक पाये जाते हैं जिनका
अर्थ है सूर्य और पृथ्वी पहले साथ ही साथ थे। बाद में पृथक हुए

इमौ वै सहास्ताम। ते वायु वर्यवात। तै० शा० ३।४।३

जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई तब बहुत गर्म थी इस हेतु उसमे मनुष्यादि प्रजा का उत्पन्न होना विज्ञानं सम्मत नहीं होता – इसलिए पृथ्वी का उचित तापमान बनाने हेतु वर्षा की गयी और उचित समय पर पृथ्वी और जल के संपर्क से मनुष्य आदि की उत्पत्ति से तीन चतुर्युगी पूर्व वृक्ष औषधियां आदि उत्पन्न हुई –

या औषिधी पूर्वा जाता देमयस्त्रियुग पुरा।
मनै नु बभ्रूणामह शत धामानि सप्तच।।
(ऋग्वेद 10.97.1)

औषधियां मनुष्य से तीन चतुर्युगी पूर्व उत्पन्न होती हैं।

ये सिद्धांतभूत नियम है जो वेदो में इस विज्ञानं के सम्बन्ध में पाये जाते हैं।

सिद्धांतो को लेकर ब्राह्मण आदि ग्रंथो में विस्तार और क्रम आदि दिखलाया गया है।

तस्मादात्मन आकाश सम्भूत। आकाशाद्वायु। वायोरग्नि। अग्नेराप। अदभ्य पृथ्वी। पृथिव्या औषधय। औश्विम्यो न्नम्। अन्नात्पुरुष।
तै० उ० 2.1

अर्थ : परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु। वायु से अग्नि और अग्नि से जल। जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधीय। इनसे अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ।

यह एक वैज्ञानिक क्रम है जो उपनिषद में वर्णित है।

तो पृथ्वी में आदि सृष्टि के मनुष्य आदि प्रजा उत्पन्न करने के लिए वसंत आदि ऋतू में गर्भ आदि का उचित तापमान जब आया तब ईश्वर ने “वीर्य” को गर्भ (पृथ्वी) में धारण करवाया।

यहाँ वीर्य उस सामग्री का नाम है जो गर्भ में भ्रूण बनाने में उपयोगी पदार्थ विद्या है – जैसे वीर्य में अनेक गुण (प्रॉपर्टीज) होती हैं – वैसे ही रज में होते हैं – और गर्भ में उचित तापमान होता है जिससे गर्भ में भ्रूण बनता है।

यदि हमें ४ लोगो का भोजन बनाना हो – तो नमक हल्दी मिर्च आदि मसाला – सामान्य ही उपयोग होगा – परन्तु यदि ज्यादा लोगो का खाना बनाना हो तो अवश्य ही ज्यादा हल्दी मिर्च आदि मसाला प्रयुक्त होगा – ठीक इसी प्रकार जब आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था में उत्पन्न होते हैं – तब उत्तम और उचित वीर्य से उस अवस्था के मनुष्य उत्पन्न होते हैं – यदि विज्ञान रज-वीर्य आदि के गुण (प्रॉपर्टीज) ठीक प्रकार जांच लेवे तो विज्ञानिक स्वयं स्वतंत्र रूप से वीर्य का निर्माण कर सकते हैं मगर ऐसा होना अभी हाल के अनुसन्धानियो द्वारा संभव नहीं मगर विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है की “कृत्रिम गर्भ” को बना सके। आने वाले कुछ वर्षो में शायद ये तकनीक ठीक काम करने लगे –

http://en.wikipedia.org/wiki/Artificial_uterus

ठीक इसी प्रकार यदि रज और वीर्य आदि के गुण धर्म (प्रॉपर्टीज) भी ज्ञात कर लेवे तो स्वतंत्र वीर्य – विज्ञानिक स्वयं निर्माण कर सकते हैं। और उचित समय पर जब गर्भ (पृथ्वी) में मनुष्यादि देह में जीव का संयोग ईश्वर को करना होता है तब विद्युत अग्नि आदि से जीव का शरीर से संयोग होता है और जगत में मनुष्य आदि प्रकट होते हैं।

आपो ह यादवृहतीविशवमायन गर्भदयाना जनयतिरग्निम्। (ऋग्वेद म. १० सूक्त १२१ मन्त्र ७)
कारण भूत जले गर्भ में अग्नि को धारण करती हुई विश्व को प्रकट करती हैं।

अब कुछ लोग सोचेंगे – ये युवा अवस्था में ही क्यों आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? तो मित्रो इसका बहुत ही सुन्दर और सरल जवाब ऋषिवर दयानंद ने दिया है –
ऋषि ने सत्यार्थ में इस सवाल का जवाब दिया है –

“आदि सृष्टि में मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न होता है क्योंकि जो बालक उत्पन्न होता तो उसके पालन के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में उत्पन्न करता तो मैथुनी सृष्टि न होती। इसलिए युवावस्था में ही आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं।

तनिक विचार किया जाए तो ये बात सिद्ध भी सही होती है और ऊपर के लेख में वैज्ञानिक और तार्किक रूप से यही सत्य सिद्धांत समझाने का प्रयास किया गया है =

किसी भी लेख में भूलचूक होना स्वाभाविक है – कृपया लेख को पढ़कर अपने सुझाव और परामर्श अवश्य देवे – यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा करे

लौटो वेदो की और

नमस्ते

वेद और मनुस्मृति का मूल

कुछ पौराणिक महाज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग दोनों ही कुछ दिनों से एक विषय पर वार्तालाप करते चले आ रहे हैं, विषय है या सवाल है कुछ भी है वो इस प्रकार है –

मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है ?

इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम देखते हैं मूल का अर्थ क्या होता है ?

मूल का अर्थ होता है आधार, बुनियाद, जड़, आदि। यानी इस सवाल को इस प्रकार समझा जा सकता है –

मनुस्मृति का आधार वेद में कहाँ है ?

यहाँ दो बाते समझनी चाहिए –

1. वेद अपौरुष्य हैं – अर्थात वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो आदि सृष्टि में ही चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित किया गया था। इससे सिद्ध है की वेद में इतिहास नहीं हो सकता और जो वेद में इतिहास खोजे वो गधे के सर पर सींग खोजने का व्यर्थ कार्य ही कर रहा है। इसी कारण से वेदो को श्रुति कहा गया है। ये परंपरा सनातन काल से चली आ रही है पर खेद की आज कुछ तथाकथित विद्वान अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में इस सनातन परम्परा का अपमान करने से भी नहीं चूक रहे।

2. मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा बनाया गया मानवो के लिए निर्मित आचार, व्यव्हार आदि धर्मशास्त्र है जिसे स्मृति कहा गया है। इस धर्मशास्त्र में मनुष्यो को क्या कर्म करने और क्या नहीं करने आदि विषयो से सम्बंधित है, कहने का तात्पर्य है की धर्म पर चलना और अधर्म से पृथक रहने का मनुस्मृति में विधान किया गया है।

अब दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर ये तो सिद्ध हो जाता है की मनुस्मृति वेदो के बहुत बाद की रचना है और मनुस्मृति में महाराज मनु ने वेदो के मंत्रो को देख पढ़ कर बहुत विचार करने के उपरान्त ये धर्मशास्त्र बनाया था। ताकि समस्त मानव जाति का कल्याण हो।

अब सवाल है की श्रुति और स्मृति में अंतर क्या है ?

सामान्य रूप से वेद को ‘श्रुति कहा जाता है और धर्मशास्त्रा को ‘स्मृति। महाराज मनु ने स्पष्ट रूप से स्मृति को ‘धर्मशास्त्रा कहा है-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।

-मनुस्मृति 2/10

भावार्थ : वेद धर्म के मूल हैं। वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्रा में वर्णन हुआ है।

तो यहाँ स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया की धर्म का मूल वेद है और वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्र यानी मनुस्मृति में वर्णन हुआ है।

इससे ये भी सिद्ध हुआ की मनुस्मृति का मूल वेद ही है। और इस आक्षेप का समाधान भी हो गया की मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है।

महर्षि दयानंद और पंडित तारचरण के मध्य शास्त्रार्थ हेतु जो संवाद हुआ वो पठनीय है :

महर्षि दयानंद : क्या आप वेदो का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?

पंडित तारचरण : जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सबको वेदो का प्रमाण ही है।

यहाँ पंडित तारचरण को भी सत्यभाषण ही करना पड़ा क्योंकि जो वेदो को प्रमाण न मानते ऐसा कहते तो बहुत ही निंदा होती – लेकिन ध्यान योग्य बात है की जब वेद को स्वयं ही प्रमाण मान लिया तब अन्य प्रमाण की इन्हे आवश्यकता क्या पड़ी ?

महर्षि दयानंद : कहीं वेदो में पाषाणादि मूर्ति पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि है तो दिखाइए और जो न हो तो कहिये नहीं है।

पंडित तारचरण : वेदो में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदो का ही प्रमाण मानता है औरो का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए ?

यहाँ ध्यान से पढ़ने वाली बात है – ऋषि ने केवल मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सवाल किया की क्या वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण है ? इस पर तारचरण जी से कुछ कहते नहीं बना क्योंकि वो जानते थे की वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं इसलिए अन्य प्रमाणों की और जोर देकर कहा की अन्य प्रमाण भी साक्षी के तौर पर लेने चाहिए मगर तारचरण जी ये भूल गए की खुद भी ऊपर उन्होंने स्वयं माना की जो भी वर्णाश्रम में स्थित है उसके लिए वेद ही प्रमाण है। तब जब वेद ही को वर्णाश्रम में स्थित के लिए प्रमाण मान तब अन्य प्रमाण की साक्षी क्यों ?

महर्षि दयानंद : औरो का विचार पीछे होगा। वेद का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पाहिले ही करना चाहिए क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मिृत आदि भी वेदमूलक है इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदो में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

यहाँ ध्यान योग्य पढ़ने वाली बात है, क्योंकि इससे पंडित तारचरण का पंडितव और महर्षि दयानंद का अद्भुद ज्ञान दोनों ही समझ आ सकते हैं – देखिये महर्षि ने कहा क्योंकि मनुस्मृति वेद पर आधारित है अर्थात जो वेद सम्मत है उसको महाराज मनु ने भी धर्म कहा और जो वेद विरुद्ध है उसे अधर्म कहा – इससे सिद्ध है की मनुस्मृति वेदमूलक है। मगर पंडित तारचरण की पंडताई देखिये :

पंडित तारचरण : मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ?

अब देखिये धूर्तता और छल, ऋषि ने कहा मनुस्मिृति वेदमूलक है यानी वेद सम्मत बात मनुस्मृति में धर्म कहा है, मगर तारचरण जी अपनी धूर्तता करते हुए मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ये सवाल पूछते हैं, खैर फिर भी महर्षि ने बहुत ही अच्छा जवाब देते हुए कहा :

महर्षि दयानंद : जो जो मनुजी ने कहा है सो सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

यहाँ ये बात बहुत ही गूढ़ है जो महर्षि ने बताई – पंडित तारचरण समझ गये इसलिए अब इस विषय से हट गए क्योंकि जो इसी विषय पर रहते तो वेदो से प्रमाण देना होता की मूर्तिपूजा वेद सम्मत है – जो की कभी दे नहीं सकते थे – इसलिए फ़ौरन एक दूसरे पंडित विशुद्धांनंद स्वामी ने प्रकरण को बदलते हुए आक्षेप करने शुरू करे।

इतने से ही पाठकगण समझ लेंगे की पौराणिक व्यर्थ ही आक्षेप मढ़ते हैं जवाब उनपर आजतक नहीं मगर फिर भी आक्षेप महर्षि पर लगाने हैं, खैर हम यहाँ ऋषि के समर्थन में और अनेक ऋषियों जैसे महर्षि व्यास और वाल्मीकि जिन्होंने मनु महाराज के श्लोको को अपने ग्रंथो में महत्त्व प्रदान किया पठनीय है :

महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनु में महाभारत वा व्यास जी का नाम तक नही ।

महाभारत में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
मनुनाSभिहितम् शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन ! महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ३ ५
तैरेवमुक्तोंभगवान् मनु: स्वयम्भूवोSब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , अ० ३ ६ – श ० ५
एष दयविधि : पार्थ ! पूर्वमुक्त : स्वयम्भूवा । महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ५ ८
सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , मोक्षधर्म आदि ।
अद्भ्योSग्निब्रार्हत: क्षत्रमश्मनो लोहमुथितं ।
तेषाम सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिशु शाम्यति ।। – मनु अ० ९ – ३ २ १

ठीक यही मनु का श्लोक महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ४
में आया है और महाभारत के इस श्लोक से ठीक पूर्व २ ३ वें श्लोक में आया है –
“मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना”
अर्थात हे राजेंद्र ! मनु नाम महात्मा ने इन श्लोकों को कहा है !

इसी प्रकार मनु के जो जो श्लोक ज्यों के त्यों महाभारत में है ;
मैं यहाँ अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ

मनु ० १ १ /७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ५
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ९
मनु ० १ १ /१८ ० – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ३ ७
मनु ० ६ /४५ – महा० शांति अ ० २४५ – श ० १५
मनु ० २ /१२० – महा०अनु ० अ ०१०४ – श ० ६४

अब वो श्लोक लिखते है जो मनु के है परन्तु कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७

यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । -महा शांति ३६/४७

अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ जो कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

मनु ० १ १ /४ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ४
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ७
मनु ० १ १ /३७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० २ २
मनु ० ८ /३७२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ६३
मनु ० २ /२३१ – महा० शांति अ ० १०८ – श ० ७
मनु ० ९ /३ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० १४
मनु ० ३ /५५ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० ३

लगभग मनु के ५ ० ऐसे श्लोक है जो ज्यों के त्यों वा कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत में आये है ।
वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा आयी है किन्तु मनु में वाल्मीकि , राम जी आदि का नाम तक नही ।

वाल्मीकि रामायण में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –

किष्किन्धा काण्ड में जब श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उसके आक्षेपों के उत्तर में अन्यान्य कथनो के साथ साथ यह भी कहते है कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव कि स्त्री को बलात हरण कर और उसे अपनी स्त्री बना अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बन चूका है , जिसके लिए (धर्मशास्त्र ) में दंड कि आज्ञा है ।
इस पृथिवी के महाराज भरत है (अतः तू भी उनकी प्रजा है ) ; मैं उनकी आज्ञापालन करता हुआ विचरता हूँ फिर में तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ? जैसे –

श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ||
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ || वाल्मीकि ४-१८-३०

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक ३१ , ३२ भी मनु महाराज के ही है !
उपरोक्त श्लोक किंचित पाठभेद (परन्तु जिससे अर्थ में कुछ भी भेद नही आया ) मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टिकावली में ३१८ व् ३१९ है –

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

राजभिः धूर्त दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || मनु ८ / ३१८

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

शसनाद्वा अपि मोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद विमुच्यते |
अशासित्वा तू तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ मनु ८/३१६

रामायण में स्पष्टतः मनु के श्लोकों (मनुना गीतौ श्लोकौ) कि प्रशंसा विधमान है ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत में थी “मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना” – महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ३

ऐतिहासिक ग्रंथो में ही इतिहास का वर्णन हो सकता है, वेद तो ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसमे इतिहास नहीं हो सकता, क्योंकि वेद धर्म का मूल है इसलिए मनुस्मृति वेदमूलक है तभी उसका वर्णन और महाराज मनु की प्रतिष्ठा रामायण व महाभारत दोनों ही ग्रंथो में विस्तार से मिलती है, यदि अब भी कोई पौराणिक ना माने हठ करे तो इसे देखे :

इदं शास्त्रां तु कृत्वा-सौ मामेव स्वयमादित:।

विधिवद ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन।।

-मनुस्मृति 1/58

अतएव मनु द्वारा उपदिष्ट होने से ही इसका नाम मनुस्मृति है।

महाराज मनु आदि अनेको ऋषियों ने धर्म का मूल वेदो के अनुसार जो नियम बनाये और उनका पालन करने की प्रेरणा दी वही धर्म कहा गया है। यदि कुछ महानुभाव वेद से उसे ना भी जोड़ते हुए ‘चोदना’ प्रेरणा तक ही सीमित रखे जैसे की व्यर्थ ही कोशिश काशी शास्त्रार्थ के दौरान विशुद्धानन्द जी ने की मगर वो भूल गए की कर्तव्य के मूल में प्रेरणा अवश्यम्भावी है अर्थात जिन लक्षणों, कर्तव्यों या नियमो में लोक को धारण करने की प्रेरणा मूलभूत रहती है वे धर्म हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है, यही बात महर्षि ने विशुद्धानन्द जी को जवाब देते समय कही थी :

महर्षि दयानंद : धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति में बताये हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध – फिर सवाल घूम फिर कर विशुद्धानन्द जी पर ही आ गिरा क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरुप को पाहिले ‘चोदना’ अर्थात प्रेरणा बता दिया फिर बाद में धर्म का केवल एक ही लक्षण बताया।

इससे काशी में मौजूद सभी पंडितो का पंडितव और आडमबर सबके सम्मुख निकल आया। नतीजा आजतक सभी पंडित महर्षि दयानंद पर व्यर्थ आक्षेप लगा रहे हैं, जवाब खुद के पास मौजूद नहीं और जिस महर्षि ने अपनी विद्वत्ता काशी ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर वेदो के माध्यम से दिखाई वो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।

निश्चय ही वो महामानव अर्थात महर्षि थे।

धन्य है तुझ को ए ऋषि तूने हमेँ जगा दिया।
सो सो के लुट रहे थे हम,तूने हमेँ जगा दिया।

अब भी चाहे तो अनेको पौराणिक मिथ्या आक्षेप और विलाप करने हेतु स्वतंत्र है।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

कुछ तड़प-कुछ झड़प

– राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर  देने की कलाः गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। . आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।

मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण  तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।

राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।

श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।

आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’

मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’

प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।

आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।

तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।

१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?

तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?

चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’

पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।

पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द  किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’

अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।

आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका  उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।

स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति  धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।

 

ऋषि दयानन्द के दृष्टान्त :आचार्य सोमदेव जी

आचार्य सोमदेव जी ने अपने प्रवचन क्रम में मनुस्मृति का स्वाध्याय कराया। मनु के श्लोकों की धर्म, सदाचार, संस्कृति, चरित्र-निर्माण आदि के अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से सरल व्याख्या प्रस्तुत की। अपने दार्शनिक प्रसंग में आपने बताया कि सांसारिक मनःस्थिति और आध्यात्मिक मनःस्थिति में अन्तर होता है। जहाँ सांसारिक स्थिति में जो हम चाहते हैं, प्रायः वैसा होता नहीं है, और जो होता है वह प्रायः हमें भाता नहीं है (अच्छा नहीं लगता है) और यदि संसार में कुछ अच्छा भी लगने लगता है तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाता- अर्थात् संसार में जो चाहते वह होता नहीं, जो होता है वह हमें भाता नहीं, और जो भाता है वह ठहरता नहीं है। इसके विपरीत आध्यात्मिक स्थिति में जो होने वाली स्थिति होती है, व्यक्ति उसी को चाहता है, जो नहीं हो सकती, उसकी इच्छा नहीं करता। होने वाली स्थिति को चाहता है तो वह प्राप्त होती है और वह स्थायी भी दिखती है, टिकने वाली दिखती है। महर्षि दयानन्द जी ने जब जन्म लिया तो टिकना चाहते थे, जीना चाहते थे लेकिन स्थिति ऐसी दिख रही थी, परिस्थिति ऐसी बन रही थी कि जीवन टिकता हुआ दिख नहीं रहा था, घटनाएँ ऐसी घट रही थीं जिनसे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि भैया, जीवन ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। शिव मन्दिर में गए, टिकाऊ ईश्वर चाहते थे लेकिन यह क्या? ईश्वर भी टिकाऊ नहीं मिल पा रहा। उधर मूर्तियों में चूहें क्या कूदे- ईश्वर भी हाथ से निकलने लगा। तो ऋषि-महर्षि क्या चाहते हैं? अथर्ववेद कहता है-

भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।

ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु।।

– अथर्व. १९/४१/१

भद्रमिच्छन्त ऋषयः ऋषि लोग भद्र को चाहते हैं। भद्र के अतिरिक्त ऋषियों को कुछ भी नहीं चाहिए। मन्त्र में ऋषि का एक विशेषण कहा- स्वर्विदः स्वः सुख (को), विदः जानने वाला। यथार्थ में यदि कोई सुख को जानने वाला होता है, पहचानने वाला होता है तो वह ऋषि ही होता है, आध्यात्मिक व्यक्ति ही होता है, साधक ही होता है। सांसारिक व्यक्ति तो छिछले पानी में सुख ढूँढ़ने लगता है। निरुक्त में ज्ञान पिपासुओं को जलाशय/नदी में स्नान करने वाले के दृष्टान्त से समझाया है अर्थात् जलाशय में नहाने के लिए जाने वालों में कुछ घुटने तक पानी में जाकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, कुछ छाती तक पानी में तृप्त हो जाते हैं, लेकिन अच्छे तैराक तो गहरे जल में गोते लगाकर ही सन्तुष्टि को पाते हैं। वैसे ही जहाँ सांसारिक व्यक्ति थोड़े से सुख से सन्तुष्ट हो जाता है, वहीं आध्यात्मिक थोड़े से सन्तुष्ट नहीं होता है। जब तक सुख की पुष्कल मात्रा न मिल जाए उसकी खोज जारी रहती है। तो यह भद्र प्राप्त कैसे होता है? मन्त्र कह रहा है- तपो दीक्षाम्+उपनिषेदुः अग्रे अर्थात् जब तपो= तप (और) दीक्षाम्= दीक्षा के, उपनिषेदुः= निकट जाते हैं अर्थात् सुख को जानने वाले ऋषि भद्रं को चाहते हुए (उसे प्राप्त करने के लिए) तप और दीक्षा के निकट जाते हैं (तप और दीक्षा का आचरण करते हैं) महर्षि दयानन्द का दृष्टान्त हमारे सामने है, भद्र को प्राप्त करने के लिए ऋषि ने कितना तप किया, चाहे शारीरिक तप हो या वाचनिक तप हो या मानसिक तप हो, इन तीनों ही तपों में तपाकर महर्षि ने स्वयं को कुन्दन बनाया है। जब महर्षि के शारीरिक तप की बात करें तो सच्चे गुरु की खोज में अलकनन्दा के उद्गम की ओर बढ़ते हुए रास्ता बेरी की कटीली झाड़ियों से अवरुद्ध हो गया तो लेटकर वहाँ से आगे निकले और ऐसा करते हुए अपने मांस का बलिदान देना पड़ा। जब और आगे गए तो शीत बढ़ती ही गई, नदी पार करते समय बर्फ के नुकीले किनारों से पैर लहुलुहान हो गए, लेकिन ऋषि भद्र के लिए आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। इसी प्रकार महर्षि दीक्षित भी हुए। मन्त्र कह रहा है जब व्यक्ति तपस्वी और दीक्षित होता है, तब – ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातम् अर्थात् उस तपस्वी और दीक्षित से राष्ट्र उत्पन्न होता है, बल उत्पन्न होता है और ओज उत्पन्न होता है। बल और राष्ट्र तो विदित हैं, यह ओज क्या है? कई बार कहा जाता है कि इसके मुख में ओज है, इसकी वाणी में ओज है, इसके व्यक्तित्व में ओज है। शरीर में ओज है अर्थात् शरीर विशेष कान्ति से युक्त है, यह वैसी ही कान्ति होती है जैसी बसन्त की नई कोपलों (प       िायों) में होती है, जैसे बच्चों के शरीर में होती है। यह चमक करती क्या है? यह व्यक्तियों को आकर्षित करती है। महर्षि दयानन्द के शरीर में ओज था, उनकी वाणी में ओज था। कहते हैं जब महर्षि मूर्तिपूजा खण्डन में अपनी ओजस्वी वाणी में व्याख्यान करते थे, लोग इतने प्रभावित होते थे कि टोकरियों में भर-भरकर अपने घरों की मूर्तियाँ निकाल फेंकते थे। तो तपस्वी और दीक्षित में बल उत्पन्न होता है। महर्षि दयानन्द में कितना शारीरिक बल था? महर्षि जोधपुर में ठहरे हुए थे, भ्रमण में जाते समय मार्ग में एक भारी रहंठ आया करती थी, एक पहलवान जो इस रहंठ को घुमाकर हौदी में पानी भरता था, उसे इस बात का अभिमान था कि मेरे अतिरिक्त इस रहंठ को कोई भी घुमा नहीं सकता। एक बार महर्षि भ्रमणार्थ जब वहाँ पहुँचे तो हौदी को खाली देख, पशुओं के पीने के पानी के लिए और शारीरिक व्यायाम की दृष्टि से रहंठ घुमाने लगे, थोड़ी ही देर में हौदी भर गई, लेकिन महर्षि का व्यायाम भी पूरा नहीं हुआ तो महर्षि टहलने आगे निकल गए। जब लौटे तो इतने में वहाँ पहलवान भी आ चुका था। उसने महर्षि से पूछा- महाराज क्या आपने ये हौदी भरी है? महर्षि ने कहा कि हाँ, हमने भरी है, हमने सोचा कि इससे हमारा व्यायाम हो जाएगा, लेकिन हौदी जल्दी ही भर गई, व्यायाम भी पूरा नहीं हो पाया तो हम टहलते आगे चले गए। पहलवान को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जिस हौदी को भरते-भरते मैं थक जाता हूँ, स्वामी जी का थकना तो दूर, ठीक से व्यायाम भी नहीं हुआ, कितना बल रहा होगा महर्षि के शरीर में! इसी प्रकार मानसिक बल भी, जितनी विषम परिस्थितियों में स्वयं को अडिग रखते हुए महर्षि ने कार्य किया, हम अनुमान कर सकते हैं कि कितना अधिक मानसिक बल रहा होगा और ऐसा होने पर अर्थात् जब भद्र की इच्छा करते हुए तपस्वी व दीक्षित होने पर ऋषि बल, राष्ट्र और ओज को उत्पन्न कर देते हैं तब- तदस्मै देवा उपसंनमन्तु अर्थात् उस ऋषि के लिए देवता भी प्रणाम करते हैं। विद्वान्/श्रेष्ठ उस तपस्वी का सम्मान करते हैं। इति।।

 

तीर्थराज पुष्कर में महर्षि के प्रचार का प्रभाव

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रभाव केवल धनी-मानी सम्पन्न लोगों एवं राजा महाराजाओं पर ही नहीं पड़ा, अपितु सामान्य लोगों पर भी पड़ा। ‘‘आर्य प्रेमी’’ पत्रिका के फरवरी-मार्च १९६९ के महर्षि श्रद्धाञ्जलि अंक में प्रकाशित आलेख हम पाठकों के लाभार्थ प्रकाशित कर रहे हैं                     – सम्पादक

‘मेरी अन्त्येष्टि संस्कार विधि के अनुसार हो’

वेदोद्धारक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जब तीर्थराज पुष्कर पधारते थे तब सुप्रसिद्ध ब्रह्मा जी के मन्दिर में विराजते थे।

मन्दिर के महन्त पारस्परिक मतभेदों की उपेक्षा करते हुए संन्यासी मात्र का स्वागत सत्कार करते थे।

महर्षि का आसन दक्षिणाभिमुख तिबारे में लगता था और महर्षि इसी तिबारे में विराजकर वेदभाष्य करते थे। सांयकालीन आरती के पश्चात् महर्षि के प्रवचन ब्रह्मा जी के घाट पर होते थे पुष्कर के पण्डे पोपलीला का खण्डन सुन बहुत ही कुढ़ते थे परन्तु ब्रह्मा जी के मन्दिर के महन्त के आतंक के कारण कुछ कर नहीं पाते थे। मन्दिरों में पुरुषों की अपेक्षा देवियाँ अधिक आती हैं।

इन देवियों में पुष्करवासिनी एक देवी जब-जब मन्दिर आती अथवा घाट पर महर्षि के प्रवचन सुनती उनसे उसकी श्रद्धा महर्षि के प्रति बढ़ती गई।

कालान्तर में वह देवी वृद्धा हुई और अन्तिम काल निकट आ गया। परन्तु अत्यन्त छटपटाने पर भी प्राण नहीं छूटते थे।

देवी के पुत्र ने अत्यन्त कातर हो माता से पूछा कि माँ तेरे प्राण कहाँ अटक रहे हैं। देवी ने उत्तर  दिया- बेटा यह न बताने में ही मेरा और तेरा भला है। बताकर मैं तुझे काल के गाल में नहीं डालूँगी।

पुत्र ने जब अत्यन्त आग्रह किया तो देवी ने कहा कि ब्रह्मा जी के मन्दिर में जो तेजस्वी महाराज तिबारे में बिराज कर शास्त्र लिखते थे और घाट पर पोपों का खण्डन करते थे, उनकी लिखी संस्कार विधि के अनुसार मेरा दाग करे तो मेरे प्राण छूटे। पर बेटा ऐसा नहीं होने पावेगा। दुष्ट पण्डे तेरा अटेरण कर देगें। पुत्र ने कहा- माँ तू निश्चिन्त हो प्राण छोड़। अथवा तो तेरी अन्त्येष्टि संस्कारविधि के अनुसार होगी और नहीं तो मेरा और तेरा दाग साथ ही चिता पर होगा। वृद्धा ने शरीर त्याग दिया। उन दिनों पुष्कर में आर्य समाज का कोई चिह्न नहीं था।

अजमेर के तत्कालीन आर्य समाज में संभवतया अधिक से अधिक १०-१५ सभासद होंगे। वृद्धा के पुत्र ने अजमेर आर्य समाज के मन्त्री जी के पास अपनी माता की अन्तिम इच्छा की सूचना भिजवाई और कहलाया कि आपके सहयोग की प्रतीक्षा उत्कंठापूर्वक करुँगा। मंत्री जी ने उत्तर भिजवाया कि निश्चित रहो, प्रातः काल होते हम अवश्य आवेंगे और जैसी परिस्थिति होगी उस का सामना करेंगे। मंत्री जी ने स्थानीय सब सभासदों को सूचना भिजवाई।

इन सभासदों में एक सभासद ऐसे थे कि जो तुर्रा गाने वालों और खेल-तमाशों के स्थानीय अखाड़ों के उस्ताद थे।

इन सभासद के पास जब सन्देश पहुँचा तो उन्होंने अखाड़ों के चौधरी से कहा कि तुम मेरी जगह किसी और को अखाड़ों का उस्ताद बनाओ। मैं पुष्कर जा रहा हूँ और सम्भव है जीवित नहीं आऊँ। चौधरी ने पूछा क्या बात है और वास्तविकता जान कर कहा, ये देवी तो हमारी बिरादरी की है। तत्काल चौधरी जी ने बिरादरी में खबर कराई और लगभग ३००-३५० व्यक्ति रातोंरात पुष्कर पहुँचे। इधर अन्य आर्य सभासद भी हवन सामग्री लेकर प्रातःकाल होते ही पहुँच गये। इतना समारोह और बलिदान भाव देख कर पण्डों का साहस विरोध करने को नहीं हुआ। अन्त्येष्टि किस धूमधाम से हुई होगी इस का अनुमान पाठक स्वयं कर लें। कहते हैं उस दिन पुष्करराज की किसी दुकान में घृत और नारियल नहीं बचे सब खरीद लिये गये। इस अन्त्येष्टि का प्रभाव चिरकाल तक रहा।

 

परोपकारिणी पत्रिका अप्रैल प्रथम २०१५

विश्व को ऋषी दयानन्द की देन – प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। महर्षि का बोध पर्व उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण  घटना है। आज पूरे विश्व में मानव के अधिकारों तथा मानव की गरिमा का मीड़िया में बहुत शोर मचाया जाता है। ऋषि के प्रादुर्भाव से पूर्व मानव के अस्तित्व का धर्म व दर्शन में महत्व ही क्या था?

बाइबिल की उत्पत्ति  की पुस्तक में आता है कि परमात्मा ने जीव, जन्तु, पक्षी, प्राणी पहले बनाये फिर उसने कहा, ‘‘Let us make man in our image’’ अब नये बाइबिल में श     द बदल गये हैं। अब हमें पढ़ने को मिलता है, ‘‘Let us make human beings in our image, in our likeness.’’ अर्थात् परमात्मा ने कहा हम ‘पुरुष को’ (अब मानवों को) अपनी आकृति जैसा और अपने सरीखा बनायें। यह कार्य छठे दिन किया गया। मानव की इसमें गरिमा क्या रही? वह जीव-जन्तुओं से पीछे बनाया गया और क्यों बनाया गया? इसका उत्तर  ही नहीं।

इस्लाम में मनुष्य को बन्दः कहा जाता है और भक्ति को उपासना को बन्दगी कहा जाता है। बन्दः का अर्थ है दास और बन्दगी का अर्थ दासता, सेवा करना आदि। तो यहाँ भी मानव की गरिमा क्या हुई? अबादत का अर्थ भी बन्दगी-दासता ही है। हिन्दू तो जगत् को मिथ्या व ब्रह्म को-केवल ब्रह्म की सत्ता  को स्वीकार करते थे। कुछ आत्मा को अनादि भी मानते थे। सब कुछ अस्पष्ट था।

महर्षि दयानन्द जी ने सिंह गर्जना करके कहा कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीनों अनादि हैं। तीनों की सत्ता है। जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का घोष करके ऋषि मानव की गरिमा पहली बार इस युग में संसार को बताई।

जहाँ कर्ता  है, वहीं क्रिया होगी और जहाँ क्रिया है वहाँ कर्ता को मानना पड़ता है। सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह, उपग्रह सब गति करते हैं। गति देने वाले परमात्मा की सत्ता  तो स्वतः सिद्ध हो गई। उपादान कारण के बिना आज भी कुछ बनते नहीं देखा गया सो जगत् के उपादान कारण प्रकृति का अनादित्व भी सिद्ध हो गया। विज्ञान ऐसा ही मानता है। यह महर्षि दयानन्द की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

मनुष्य की उत्पत्ति  की बात चली तो यह भी जान लें कि बाइबिल में आता है I give you every seed bearing plant on the face of the whole earch and every tree that has fruit with seed in it. They will be yours for fodd.  फिर लिखा है,  Trees that were pleasing to the eyes and good for food.

अर्थात् दो बार ईश्वर ने बाइबिल के अनुसार शाकाहार को मानव का पवित्र भोजन बताया व बनाया। यही वेदादेश है परन्तु ईसाई व मुसलमान ही मांसाहार व पशुहिंसा में अग्रणी हैं। ऋषि ने पेड़, पौधों, जलचर, नभचर व गाय आदि सब प्राणियों की मानव कल्याण व विश्व शान्ति के लिये सुरक्षा को आवश्यक बताया।

ऋषि बोध पर्व के दिन ऋषि के जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार जाग उठे। उन्हें पता चला कि ईश्वर वह नहीं जिसे हम बनाते हैं। ईश्वर वह है जो सृष्टि का कर्ता  है। ईश्वर खाता नहीं, वह खिलाता है। वह भोक्ता नहीं भोग देता है। वह द्रष्टा है। कर्म फल का भोग करने वाला जीव है। सर सैयद अहमद ने लिखा कि शिवरात्रि के दिन दयानन्द जी को जो ज्ञान हुआ क्या वह इलहाम (ईश्वरीय ज्ञान) नहीं था? आत्मा को प्रभु की आवाज सुनाई न दे तो दोष किसका? ऋषि ने स्वयं लिखा है कि आत्मा में नित्य गूञ्जने वाली आपकी आवाज को प्रभु हम सुनते रहें। मन में भय, लज्जा और शङ्का जो दुष्कर्म, पाप करते समय मनुष्य के मन में उत्पन्न होती है, ऋषि ने इसे ईश्वर की आवाज बताया है। पश्चिम के विद्वान् ने भी इसी बात को इन शब्दों  में कहा है, there is a candle of the lord within us अर्थात् हमारे भीतर प्रभु की एक बत्ती  प्रकाश करती रहती है।

महर्षि दयानन्द अपनी काया से बलवान् थे, वे अपने मन व मस्तिष्क से बलवान् थे और अपने आत्मा से भी महान् व बलवान् थे। कोलकाता विश्वविद्यालय के एक पूर्व दार्शनिक विद्वान् डॉ. महेन्द्रनाथ जी ने अत्यन्त मार्मिक शब्दों  में लिखा है-  Strong is the epithet that can be applied in truth to Dayanand, strong in intellect strong in adventures strong in heart and strong and organizing forces. And his teachings through life and writings cab summed up in one word STRENGTH  अर्थात् बलवान् एक ऐसी उपाधि है जो दयानन्द पर ठीक-ठीक चरितार्थ होती है, विचारों में- मस्तिष्क से बलवान्, साहसिक कार्य के कारण बलवान्, हृदय से बलवान् तथा शक्तियों के गठन करने में बलवान् और उसके जीवन एवं साहित्य द्वारा उसकी शिक्षाओं को एक शब्द  में बताना है तो वह है ‘शक्ति’

इससे अधिक हम ऋषि की महानता पर क्या कहें? ऋषि ने अपने सन्देश, उपदेश व जीवन द्वारा मानव समाज को प्रकाश दिया और मृतकों में नवजीवन का संचार किया। उनके बोध पर्व पर हम उन्हें शत बार नमन करते हैं।

 

महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव पढ़ने के लिए नीचे दी हुयी लिंक पर क्लिक करें

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महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव : प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभावःसस्ता साहित्य मण्डल ने ‘हमारी परम्परा’ नाम से एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। इसके संकलनकर्ता अथवा सम्पादक प्रसिद्ध गाँधीवादी श्री वियोगीहरि जी ने आर्यसमाज विषय पर भी एक उ      ाम लेख देने की उदारता दिखाई है। उनसे ऐसी ही आशा थी। वे आर्यसमाज द्वेषी नहीं थे। इन पंक्तियों के लेखक से भी उनका बड़ा स्नेह था। प्रसंगवश यहाँ बता दें कि आप स्वामी सत्यप्रकाश जी का बहुत सम्मान करते थे।

इस ग्रन्थ में छपे आर्यसमाज विषयक लेख के लेखक आर्य पुरुष यशस्वी हिन्दी साहित्यकार स्वर्गीय श्री विष्णु प्रभाकर जी हैं। आपने इसमें एक भ्रमोत्पादक बात लिखी है जिसका निराकरण करना हम अपना पुनीत व आवश्यक कर्     ाव्य मानते हैं। आपने लिखा है कि आर्यसमाज के समाज सुधार सम्बन्धी कार्यों का जितना प्रभाव पड़ा है वैसा प्रभाव आर्यसमाज के दर्शन का नहीं पड़ा। हम इस भ्रमोत्पादक कथन के लिए मान्य विष्णु प्रभाकर जी को कतई दोष नहीं देते। उनका कथन इस दृष्टि से यथार्थ है कि ऋषि-दर्शन का जितना प्रचार होना चाहिए था उतना प्रचार इस समय नहीं हो रहा है। एक भावनाशील आर्य होने के नाते आपने जो अनुभव किया सो ठीक है। तथ्य यही है कि आर्यसमाज के नेताओं की तीन पीढ़ियों ने असह्य दुःख कष्ट झेलकर, जानें वारकर, रक्तरंजित इतिहास रचकर ऋषि दर्शन की संसार पर अमिट व गहरी छाप लगाई। चौथी पीढ़ी आन्तरिक शत्रु की घेराबन्दी में फंसकर हतोत्साहित ही नहीं हुई पूर्णतया पराजित व असहाय हो गई।

पराभव कैसे हुआ?ः- यह घेराबन्दी संस्थावादियों या स्कूल पन्थियों ने की। आर्यसमाज संस्थावाद के कीच-बीच फंसकर शिक्षा व्यापार मण्डल का रूप धारण कर गया। वैदिक दर्शन का प्रचार तो कुछ व्यक्ति तथा कुछ ही संस्थायें कर रही हैं। यहाँ पहली तीन पीढ़ी के महापुरुषों के कुछ नाम देकर उनके प्रति कृतज्ञता का प्रकाश करना हमारा कर्     ाव्य बनता है।

तीन पीढ़ियों के आग्नेय नेताः पं. गुरुद     ा विद्यार्थी और वीर शिरोमणि पं. लेखराम प्रथम पीढ़ी की दो विभूतियाँ थीं।

श्री स्वामी नित्यानन्द महाराज, स्वामी श्रद्धानन्द महाराज, स्वामी दर्शनानन्द महाराज, स्वामी योगेन्द्रपाल, पं. गणपति शर्मा, आचार्य रामदेव दूसरी पीढ़ी के तपस्वी सर्वस्व त्यागी मिशनरी नेता थे।

महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पं. धर्मभिक्षु, पं. रामचन्द्र देहलवी, भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि, पं. गंगाप्रसाद द्वय, आचार्य चमूपति, वीर शिरोमणि श्याम भाई, क्रान्तिवीर नरेन्द्र, कर्मवीर लक्ष्मण आर्योपदेशक, कुँवर सुखलाल, स्वामी अभेदानन्द, पं. अयोध्याप्रसाद तीसरी पीढ़ी के समर्पित नेता थे।

चौथी पीढ़ी के नेता जोड़-तोड़ वादी कुर्सी भक्त, चुनाव तनाव के चक्करों में उलझकर मिशन को गौण बनाने का कलङ्क लेकर संसार से गये। ये लोग शिक्षा व्यापार मण्डल के सुनियोजित संगठन का सामना न कर पाये। गुरुकुल भी निष्प्राण हो गये। बड़ों से सम्पदा तो अपार मिल गई परन्तु न तो श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर का स्थान कोई संस्था ले पाई और न स्वामी स्वतन्त्रानन्द के रिक्त स्थान की पूर्ति ही समाज कर पाया।

भूमि के गुरुत्व आकर्षण का नियमःतथापि यह मानना पड़ेगा कि पहली तीन पीढ़ियों ने इतना ठोस और व्यापक प्रचार किया कि सकल विश्व के वैचारिक चिन्तन तथा व्यवहार में भूमि के गुरुत्व आकर्षण के नियम के सदृश महर्षि दयानन्द के गुरुत्व आकर्षण का नियत ओतप्रोत है। जैसे यह नियम सब मानवीय गतिविधियों में ओतप्रोत है परन्तु दिखाई नहीं देता ठीक इसी प्रकार सब मत पन्थों के मानने वालों की सोच और व्यवहार में महर्षि दयानन्द का दर्शन ओतप्रोत है। यह छाप और प्रभाव भले ही देखने वालों को दिखाई न दे परन्तु इतिहास इसकी साक्षी दे रहा है। यह सब कुछ आपके सामने है। हाँ! हमें यह तो मान्य है कि अन्धविश्वासों की अन्धी आँधी सब मत पन्थों को उड़ाकर ले जाती दीख रही है। लीजिये महर्षि दयानन्द जी महाराज के वैदिक दर्शन को दिग्विजय के कुछ तथ्य कुछ बिन्दु इस लेखमाला में देते हैंः-

शैतान कहाँ है?ः- ईसाई तथा इस्लामी दर्शन का आधार शैतान के अस्तित्व पर है। शैतान सृष्टि की उत्प      िा के समय से शैतानी करता व शैतानी सिखलाता चला आ रहा है। उसी का सामना करने व सन्मार्ग दर्शन के लिए अल्लाह नबी भेजता चला आ रहा है। मनुष्यों से पाप शैतान करवाता है। मनुष्य स्वयं ऐसा नहीं सोचता। पूरे विश्व में आज पर्यन्त किसी भी कोर्ट में किसी ईसाई मुसलमान जज के सामने किसी भी अभियुक्त ईसाई व मुसलमान बन्धु ने यह गुहार नहीं लगाई कि मैंने पाप नहीं किया। मुझ से अपराध करवाया गया है। पाप के लिए उकसाने वाला तो शैतान है।

किसी न्यायाधीश ने भी कहीं यह टिप्पणी नहीं की कि तुम शैतान के बहकावे में क्यों आये? दण्ड कर्ता को ही मिलता है। कर्ता की पूरे विश्व के कानूनविद् यही परिभाषा करते हैं जो सत्यार्थप्रकाश में लिखी है अर्थात् ‘स्वतन्त्रकर्ता’ कहिये शैतान कहाँ खो गया? फांसी पर तो इल्मुद्दीन तथा अ    दुल रशीद चढ़ाये गये। क्या यह महर्षि दयानन्द दर्शन की विजय नहीं है? अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इरान, पाकिस्तान व मिश्र में इसी नियम के अनुसार अपराधी फांसी पर लटकाये जाते हैं और कारागार में पहुँचाये जाते हैं।

सर सैयद अहमद का लेख याद कीजियेः मुसलमानों के सर्वमान्य नेता तथा कुरान के भाष्यकार सर सैयद अहमद खाँ ने अपने ग्रन्थ में एक कहानी दी है। एक मौलाना को सपने में शैतान दीख गया। मौलाना ने झट से उसकी दाढ़ी को कसकर पकड़ लिया। एक हाथ से उसकी दाढ़ी को खींचा और दूसरे हाथ से शैतान की गाल पर कस कर थप्पड़ मार दिया। शैतान की गाल लाल-लाल हो गई। इतने में मौलाना की नींद खुल गई। देखता क्या है कि उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी जिसे वह खींच रहा था और थप्पड़ की मार से उसी का गाल लाल-लाल हो गया था।

इस पर सर सैयद की टिप्पणी है कि शैतान का अस्तित्व कहीं बाहर नहीं (खारिजी वजूद) है। तुम्हारे मन के पाप भाव ही तुम से पाप करवाते हैं। अब प्रबुद्ध पाठक अपने आपसे पूछें कि यह क्रान्ति किसके पुण्य प्रताप से हो पाई? यह किसका प्रभाव है? मानना पड़ेगा कि यह उसी ऋषि का जादू है जिसने सर्वप्रथम शैतान वाली फ़िलास्फ़ी की समीक्षा करके अण्डबण्ड-पाखण्ड की पोल खोली।

‘जवाहिरे जावेद’ के छपने परः- देश की हत्या होने से पूर्व एक स्वाध्यायशील मुसलमान वकील आर्य सामाजिक साहित्य का बड़ा अध्ययन किया करता था। उस पर महर्षि के वैदिक सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया परन्तु एक वैदिक मान्यता उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, इन्हें परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया तो फिर परमात्मा इनका स्वामी कैसे हो गया? प्रभु जीव व प्रकृति से बड़ा कैसे हो गया? तीनों ही तो समान आयु के हैं। न कोई बड़ा और न ही छोटा है।

आचार्य चमूपति की मौलिक दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ के छपते ही उसने इसे क्रय करके पढ़ा। पुस्तक पढ़कर वह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास आया। महाराज के ऐसे कई मुसलमान प्रेमी भक्त थे। उसने स्वामी जी से कहा कि आर्यसमाज की सब मान्यताएँ मुझे जँचती थीं, अपील करती थीं परन्तु प्रकृति व जीव के अनादि व का सिद्धान्त मैं नहीं समझ पाया था। पं. चमूपति जी की इस पुस्तक को पढ़कर मेरी सब शंकाओं का उ ार मिल गया।

मित्रो! कहो कि यह किस की दिग्विजय है। इसी के साथ यह बता दें कि दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार में किसी गली में एक प्रसिद्ध मुस्लिम मौलाना महबूब अली रहते थे। मूलतः आप चरखी दादरी (हरियाणा) के निवासी थे। आपने भी यह अद्भुत पुस्तक पढ़ी। फिर आपने एक बड़ा जोरदार लेख लिखा। श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने हमें उस लेख का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। अब समय मिलेगा तो कर देंगे। इस लेख में पण्डित जी के एतद्विषयक तर्कों को पढ़कर मौलाना ने सब मौलवियों से कहा था कि यदि प्रकृति व जीव के अनादित्व को स्वीकार न किया जावे तो कुरान वर्णित अल्लाह के सब नाम निरर्थक सिद्ध होते हैं। मौलाना की यह युक्ति अकाट्य है। कैसे? अल्लाह के कुरान में ९९ नाम हैं यथा न्यायकारी, पालक, मालिक, अन्नधन (रिजक) देने वाला आदि। अल्लाह के यह गुण व नाम भी तो अनादि हैं। जब जीव नहीं थे तो वह किसका पालक, मालिक था? किसे न्याय देता था? प्रकृति उत्पन्न नहीं हुई थी तो जीवों को देता क्या था? तब वह स्रष्टा (खालिक) कैसे था? किससे सृजन करता था? मौलाना की बात का प्रतिवाद कोई नहीं कर सका। अब प्रबुद्ध पाठक निर्णय करें कि यह किस की छाप है? यह वैदिक दर्शन की विजय है या नहीं?

मरयम कुमारी थी क्या?ः- मुसलमान व ईसाई दोनों ही हज़रत ईसा का जन्म कुमारी मरयम से मानते आये हैं। अब विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रैण्ड रस्सल तथा सर सैयद की कोटि के विचारक ऐसा नहीं मानते। सर सैयद अहमद खाँ ने तो लाहौर के एक पठित मुस्लिम युवक के प्रश्न का उत्तर  देते हुए श्री ईसा के जन्म विषयक तर्क भी वही दिया जो पं. लेखराम जी ने कुल्लियात आर्य मुसाफिर में दिया है। अमेरिका से प्रकाशित एक पुस्तक में कई युवा पादरियों ने अनेक ऐसे-ऐसे वैदिक विचारों को स्वीकार किया है।

पुराण व्यासकृत नहींः हरिद्वार के सन् १८७९ के कुम्भ तक ऋषि विरोधियों का सबसे बड़ा सनातनी सेनापति पं. श्रद्धाराम फिलौरी था। वह ऋषि की शत्रुता में काशी वालों से भी तब तक कहीं आगे था। उसने लिखा है कि १८ पुराण व्यासकृत नहीं। यह सन्देश इस युग में सर्वप्रथम ऋषि ने सुनाया। यह छाप ऋषि की वैदिक विचारधारा की नहीं तो किसकी है?

वेद संहितायें चार ही हैंःपौराणिक तो उपनिषद् ब्राह्मण ग्रन्थ सबको वेद ही मानते थे। महर्षि का घोष था कि चार संहितायें ही ईश्वरीय वाणी हैं। त्रिवेदी और चतुर्वेदी ब्राह्मण तो पाये जाते हैं परन्तु कई विद्वानों को सात उपनिषदें कण्ठाग्र हैं फिर वे सप्तवेदी और आठ-दस उपनिषदों के विद्वान् अष्टवेदी, दशवेदी और एकदशवेदी क्यों नहीं? अमेरिका से प्रकाशित स्द्गष्ह्म्द्गह्ल ञ्जद्गड्डष्द्धद्बठ्ठद्दह्य शद्घ ञ्जद्धद्ग ङ्कद्गस्रड्डह्य के ईसाई लेखक ने तथा डॉ. अविनाशचन्द्र वसु सरीखे सब लेखकों ने चार संहिताओं को ही वेद माना है। यह किसके पुण्य प्रताप का फल है।

वेद के यौगिक अर्थः वेद भाष्यकारों को महर्षि ने आर्ष ग्रन्थों के आधार पर वेदभाष्य करने के लिये यौगिक अर्थों की कुञ्जी दी। ॥…….. पुस्तक के अमेरिकन लेखक ने भी डंके की चोट से महर्षि की वेदभाष्य की इस विधा को स्वीकार किया है। कौन है जो इस मूलभूत आर्ष मान्यता की इस दिग्विजय को महर्षि दयानन्द का विश्वव्यापी प्रभाव न मानेगा?

न्याय की रात या न्याय का दिनः ईसाई मुसलमान सभी प्रलय की रात (या दिन) को ईश्वरीय न्याय के सिद्धान्त को मानते आये हैं। इसी को अंग्रेजी में —— कहा जाता है। अब डॉ. गुलाम जेलानी की लोकप्रिय पुस्तकों में इस्लाम का नया दार्शनिक दृष्टिकोण सामने आया है। वह यह घोषणा कर रहे हैं कि अल्लाह ताला प्रतिपल न्याय करता है। जिसकी आँखें हैं वे देख रहे हैं कि सारे संसार पर ऋषि की दार्शनिक छाप का गहरा प्रभाव है। आर्यसमाज की वेदी से ही दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रचार बन्द होने से स्कूल खोले, नारी उद्धार किया, स्वराज्य के मन्त्र द्रष्टा की रट लगाने वालों के दुष्प्रचार को प्रमुखता मिलने से भ्रामक विचार फैल गया कि आर्यसमाज के दार्शनिक विचारों का संसार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

टिप्पणी

. द्रष्टव्य सत्यामृतप्रवाह लेखक पं. श्रद्धाराम जी।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६