कुछ दिन पूर्व दूरदर्शन पर एक घटना दिखाई गई। महाराष्ट्र के राज ठाकरे ने अपने घर पर अनेक बड़े कुत्ते पाल रखे हैं। दूरदर्शन पर दिखाया गया कि कुत्तों से राज ठाकरे खेल रहे हैं, कुत्ते भी ठाकरे से प्रेम कर रहे हैं। दूरदर्शन पर इस घटना को दर्शाने का उद्देश्य कुत्तों का प्रेम नहीं था। हुआ यह था कि राज ठाकरे की पत्नी ने एक पालतू कुत्ते को खाते समय छेड़ दिया, तो कुत्ते ने ठाकरे की पत्नी के मुँह पर इतना काटा कि 60-65 टाँकें लगाने पड़े और चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करानी पड़ी। मनुष्य, कुत्ता या कोईाी प्राणी हो, जब उसके अधिकार अस्तित्व पर संकट आता है तो उसे रोकने का प्रयत्न सभी करते हैं। हम समझते हैं कि मनुष्य ऐसा नहीं करता, यह भी मिथ्या है। जब मनुष्य को लगता है कि उसके स्वार्थ की हानि हो रही है, तब वह भी ऐसे ही व्यवहार पर उतर आता है। आज आरक्षण के समर्थक या विरोधी इसी मानसिकता से पीड़ित होते जा रहे हैं।
मनुष्य कोई कार्य तो किसी अच्छाई के नाम पर प्रारभ करता है, परन्तु धीरे-धीरे उसमें स्वार्थ के कारण लिप्त हो जाता है, फिर उसे अधिकार मानकर छीने जाने के भय से आक्रामक हो जाता है। आरक्षण बहुत पिछड़े लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए देश की स्वतन्त्रता के समय दस वर्ष के लिए स्वीकार किया गया था, वही आरक्षण पिछड़ों की जागीर बन गया। लोकतन्त्र में वोट के सामर्थ्य ने उनको उसे बनाये रखने का सामर्थ्य दे दिया। कोई भी सरकार क्यों न हो, इन मतदाताओं के इस स्वार्थ को कोई नहीं छीन सकता। प्रारभ में तो यह सीमित था, बहुत वर्षों तक इसकी हानि उन लोगों को पता नहीं लगी जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं था। धीरे-धीरे पता लगने पर देश के विधान, नियम से विवश होकर सहन करते रहे परन्तु आज जो परिस्थिति देश में उत्पन्न हो गई है, उसमें वे भी संगठित होकर उग्र होने लगे हैं, आन्दोलन करने लगे हैं। यह परिस्थिति देश में धीरे-धीरे विकट होती जा रही है। आरक्षण प्राप्त लोग संगठित होकर अपने आरक्षण को बचाने में लगे हैं तो जिनका अधिकार छीना जा रहा है, वे भी संगठित होकर आन्दोलन करने पर उतारू हैं। ऐसी परिस्थिति में देश संघर्ष और विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। संघर्ष अब रोका नहीं जा सकता, क्योंकि आरक्षण एक राजनैतिक शक्ति का तो परिणाम है, परन्तु नैतिकता का इसमें अभाव है।
आरक्षण से उसे लाभ हो रहा है, जिसे मिला है। उसकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति में सुधार हो रहा है, परन्तु आरक्षण से देश और समाज की भयंकर हानि हो रही है। आरक्षण की सबसे बड़ी हानि देश की बौद्धिक क्रियाशील सपदा का क्षय है। आज प्रतिस्पर्धा के युग में संघर्ष में प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, वहाँ प्रतिभा को कुण्ठित और प्रताड़ित किया जा रहा है। उचित और न्याय से पराजित व्यक्ति को दुःख उतना नहीं होता, जो होता है वह भी अपनी दुर्बलता का होता है, परन्तु अन्याय से पराजित होने का दुःख उसमें आक्रोश, प्रतिकार के भाव उत्पन्न करता है। देश में आज नई पीढ़ी के सामने बहुत सारे संकट हैं, वहाँ एक संकट आरक्षण का है। कोई छात्र चिकित्सा, इञ्जीनियर, प्रशासन, शिक्षा के आरक्षित वर्ग में स्थान पा जाता है, यह परिस्थिति मनुष्य के अन्दर वही भाव उत्पन्न करती है जो किसी प्रतियोगिता में उनका स्वार्थ छिन जाने पर उत्पन्न होते है। अन्य प्राणियों में संघर्ष शक्ति से निर्णायक होता है, परन्तु मनुष्य में निर्णय बुद्धि से किये जाने की अपेक्षा रहती है। यदि यहाँ भी बुद्धि औचित्य न्याय का स्थान शक्ति ले ले तो प्रतिक्रिया में संघर्ष ही मिलेगा, उसे हम कितने समय तक रोक सकते हैं? आरक्षण से अपने एक अयोग्य व्यक्ति को तन्त्र में स्थापित तो कर दिया पर इससे जहां एक योग्य व्यक्ति की प्रतिभा से समाज वञ्चित हो जाता है, वहीं समाज को अयोग्यता का दण्ड वर्षों तक सहना पड़ता है, उसी अनुपात में अयोग्यता बढ़ती जाती है।
गत दिनों आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली के एक चिकित्सक से चर्चा हो रही थी, तब उसने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि आरक्षण के कारण एक व्यक्ति छात्र या सरकारी सेवक के रूप में ही चयन नहीं, अपितु हर बार आरक्षण के कारण ऊँचा स्थान पा जाता है, फिर जहाँ चिकित्सा जैसा कार्य आता है, तब ये व्यक्ति दर्शनीय हुण्डी की तरह होते हैं और जो कार्य उन्हें करना चाहिए, वह उनसे पिछड़ गये लोगों को करना पड़ता है। गुजरात के पटेल आरक्षण को लेकर समाचार पत्रों में बताया गया कि अन्तर् राष्ट्रीय स्तर पर दो सर्वेक्षण किये गये, जिनके निष्कर्ष में बताया गया है कि भारत की प्रगति में आरक्षण बड़ी बाधा है। आरक्षण के कारण देश की प्रगति मन्द हुई है।
आरक्षण से जहाँ अयोग्यता को प्रश्रय मिला है, वही जातिवाद की जड़ें गहरी हुई हैं। जातिवादी संगठन मजबूत होकर उभरे हैं। आरक्षण का आधार जातिवाद है और आरक्षण के लाभ-हानि से जातियाँ ही प्रभावित होती हैं। एक ओर आरक्षण बचाने के लिए जातीय संगठन बन रहे हैं, वहीं जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं है, उनके द्वारा आरक्षण प्राप्त करने के लिये जातियों को संगठित किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप पटेल, गुर्जर, जाट आन्दोलनों को हम समाज में देख रहे हैं। आज आन्दोलनों का आधार आवश्यकता या औचित्य नहीं है, आरक्षण प्राप्त जातियाँ शक्ति प्रदर्शन द्वारा अपने आरक्षण को बनाकर रखना चाहती हैं। इतना ही नहीं, ये आरक्षण प्राप्त संगठन निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिये सरकार को बाध्य करते रहे हैं। जब आरक्षण का आधार शक्ति प्रदर्शन ही रह गया है, तब समाज की दूसरी जातियों को आन्दोलन करने से कौन रोक सकता है? जो लोग आरक्षण के क्षेत्र में हैं और जो आरक्षण माँग रहे हैं, दोनों लोग अपने समाज की गरीबी के आँकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं। क्या समाज में कभी ऐसा हुआ है कि सभी लोग समान रूप से सपन्न हुए हों? ऐसा न कभी पहले हुआ और न कभी हो सकता है। समाज में सपन्न, मध्यम और गरीब सदा से रहे हैं और कोई भी सत्ता इन तीन वर्गों को मिटा नहीं सकती। न्याय का आधार होता है कि समाज में कोई भी व्यक्ति न्यूनतम आवश्यकताओं से वञ्चित न रहे। आवास, भोजन, शिक्षा, चिकित्सा जैसी सुविधायें न्यूनतम मूल्य पर सुलभ हों। यह व्यवस्था करना शासन का दायित्व है। धन तो कोई बुद्धि से कमा लेता है, मूर्खता से नष्ट भी कर देता है। शासन का दायित्व है कि किसी का धन कोई बलपूर्वक या छलकपट से न छीन ले। यदि इतनी व्यवस्था शासन कर दे तो समाज में सुरक्षा का भाव बढ़ेगा, उपार्जन करने का जिसके पास जैसा सामर्थ्य है, वैसा वह करेगा। जो समर्थ है, उनकी चिन्ता वे स्वयं करेंगे, समाज को उनकी चिन्ता करनी होती है, जो असमर्थ, बुद्धिहीन, विकलांग, वृद्ध एवं रोगी हों। सरकार से गरीब का कोई विरोध नहीं होता, विरोध समाज में तब उत्पन्न होता है, जब गरीब को गरीबी से निकलने नहीं दिया जाता। उसके गरीबी से निकलने के मार्ग बन्द कर दिये जाते हैं। ऐसे समाज को दण्ड भोगना पड़ता है। उसमें वर्ग संघर्ष होता है, ऐसा देश पराधीन होता है। ऐसे समाज को दास बनने से कोई नहीं रोक सकता।
बुद्धिमान लोग इस बात को समझ सकते हैं। यह देश एक हजार वर्ष पराधीन रहा, क्यों रहा? हमने यही आरक्षण अपनाया था। ब्राह्मणों ने इस समाज को सवर्ण-असवर्ण में बाँटा। ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित कर जन्म की जाति व्यवस्था को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए स्थापित किया। इस व्यवस्था से पहले भी शूद्र थे, परन्तु किसी को अपने शूद्र होने पर दुःख नहीं होता था। शूद्र उसकी एक परिस्थिति थी, वह उसे बदल सकता था, उसका शूद्रत्व उस पर किसी ने थोपा नहीं था, यह केवल उसकी असमर्थता थी। वह उसे यदि दूर कर सकता था तो उसे आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता था। यदि इस जन्म में वह शूद्र रहा भी तो उसकी सन्तान को कोई शूद्र रहने के लिये बाध्य नहीं कर सकता था। वर्ण व्यवस्था तो स्वाभाविक सामर्थ्य, स्वभाव एवं प्रवृत्तियों का व्यवस्थापक चक्र मात्र था। जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र शदों से भयभीत होते है, घृणा करते हैं या चिड़ते हैं, वे न तो शास्त्र जानते हैं, न मनोविज्ञान की समझ रखते हैं। हमारे शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के भी चार-चार विभाग किये गये हैं। एक ब्राह्मण केवल ब्राह्मण नहीं होता, ब्राह्मण में ब्राह्मणत्त्व प्रधान हो, परन्तु क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के भाव भी कम या अधिक रहते हैं, वैसे ही क्षत्रिय होते हुए ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र हो सकता है। वैश्य में भी ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, शूद्रत्व का अनुपात रहता है। वैसे ही शूद्र भी केवल शूद्र नहीं होता, उसमें भी ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व व वैश्यत्व का भाव पाया जाता है। जिस मनुष्य में जो भाव प्रबल है, वह वही बन जाता है, बन सकता है। कोई शूद्र, शूद्र रहने के लिए बाध्य नहीं है, उसी प्रकार ब्राह्मणत्व भी किसी की ठेकेदारी नहीं है। यह मात्र व्यवस्था है। समाज देश व्यवस्था से ही चलता है। जिन लोगों ने व्यवस्था को समाप्त किया, वे इस देश की दासता के लिए उत्तरदायी हैं। हम फिर वही कर रहे हैं। पहले सवर्णों ने, ब्राह्मणों ने अपनी मूर्खता, अज्ञानता और स्वार्थ का आरक्षण कर इस समाज और देश का अहित किया, आज दलित और पिछड़ों के नाम पर अयोग्यता को संरक्षण देकर देश का अहित कर रहे हैं।
न्याय में सबको अवसर समान दिया जाता है, फल उनके कार्य और योग्यता के अनुसार दिया जाना उचित है, परन्तु हम एक का अवसर ही छीन रहे हैं और दूसरे को बिना कार्य और बिना योग्यता के फल दे रहे हैं, यह अन्याय है, अनुचित है। इसका परिणाम संघर्ष, वैमनस्य, विनाश तो होना ही है। आज समाज में वह परिस्थिति आ गई है, जब न्याय संगत विचार करने की आवश्यकता है। आप इसे बहुत समय टाल नहीं सकते, समाज को धोखे में नहीं रख सकते। यह देश बड़ा विचित्र है, यहाँ आरक्षण के नाम पर जातिवाद और अयोग्यता का संरक्षण किया जाता है। अल्पसंयक होने के नाम पर देश के नियम, कानून और व्यवस्था से मुक्त रहने का अधिकार दिया जाता है। उन्हें धर्म के नाम पर उन्माद, अराजकता फैलाने की स्वतन्त्रता है और देश की सपत्ति पर पहला अधिकार भी। इस पर पञ्चतन्त्र की यह उक्ति सटीक बैठती है-
प्रथमस्तावद् अहं मूर्खः द्वितीयो पाशबन्धकः।
ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वै मूर्ख मण्डलम्।।
– धर्मवीर