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फलित होती अल्पसंयक व आरक्षण विष बेल : डॉ धर्मवीर

कुछ दिन पूर्व दूरदर्शन पर एक घटना दिखाई गई। महाराष्ट्र के राज ठाकरे ने अपने घर पर अनेक बड़े कुत्ते पाल रखे हैं। दूरदर्शन पर दिखाया गया कि कुत्तों से राज ठाकरे खेल रहे हैं, कुत्ते भी ठाकरे से प्रेम कर रहे हैं। दूरदर्शन पर इस घटना को दर्शाने का उद्देश्य कुत्तों का प्रेम नहीं था। हुआ यह था कि राज ठाकरे की पत्नी ने एक पालतू कुत्ते को खाते समय छेड़ दिया, तो कुत्ते ने ठाकरे की पत्नी के मुँह पर इतना काटा कि 60-65 टाँकें लगाने पड़े और चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करानी पड़ी। मनुष्य, कुत्ता या कोईाी प्राणी हो, जब उसके अधिकार अस्तित्व पर संकट आता है तो उसे रोकने का प्रयत्न सभी करते हैं। हम समझते हैं कि मनुष्य ऐसा नहीं करता, यह भी मिथ्या है। जब मनुष्य को लगता है कि उसके स्वार्थ की हानि हो रही है, तब वह भी ऐसे ही व्यवहार पर उतर आता है। आज आरक्षण के समर्थक या विरोधी इसी मानसिकता से पीड़ित होते जा रहे हैं।

मनुष्य कोई कार्य तो किसी अच्छाई के नाम पर प्रारभ करता है, परन्तु धीरे-धीरे उसमें स्वार्थ के कारण लिप्त हो जाता है, फिर उसे अधिकार मानकर छीने जाने के भय से आक्रामक हो जाता है। आरक्षण बहुत पिछड़े लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए देश की स्वतन्त्रता के समय दस वर्ष के लिए स्वीकार किया गया था, वही आरक्षण पिछड़ों की जागीर बन गया। लोकतन्त्र में वोट के सामर्थ्य ने उनको उसे बनाये रखने का सामर्थ्य दे दिया। कोई भी सरकार क्यों न हो, इन मतदाताओं के इस स्वार्थ को कोई नहीं छीन सकता। प्रारभ में तो यह सीमित था, बहुत वर्षों तक इसकी हानि उन लोगों को पता नहीं लगी जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं था। धीरे-धीरे पता लगने पर देश के विधान, नियम से विवश होकर सहन करते रहे परन्तु आज जो परिस्थिति देश में उत्पन्न हो गई है, उसमें वे भी संगठित होकर उग्र होने लगे हैं, आन्दोलन करने लगे हैं। यह परिस्थिति देश में धीरे-धीरे विकट होती जा रही है। आरक्षण प्राप्त लोग संगठित होकर अपने आरक्षण को बचाने में लगे हैं तो जिनका अधिकार छीना जा रहा है, वे भी संगठित होकर आन्दोलन करने पर उतारू हैं। ऐसी परिस्थिति में देश संघर्ष और विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। संघर्ष अब रोका नहीं जा सकता, क्योंकि आरक्षण एक राजनैतिक शक्ति का तो परिणाम है, परन्तु नैतिकता का इसमें अभाव है।

आरक्षण से उसे लाभ हो रहा है, जिसे मिला है। उसकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति में सुधार हो रहा है, परन्तु आरक्षण से देश और समाज की भयंकर हानि हो रही है। आरक्षण की सबसे बड़ी हानि देश की बौद्धिक क्रियाशील सपदा का क्षय है। आज प्रतिस्पर्धा के युग में संघर्ष में प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, वहाँ प्रतिभा को कुण्ठित और प्रताड़ित किया जा रहा है। उचित और न्याय से पराजित व्यक्ति को दुःख उतना नहीं होता, जो होता है वह भी अपनी दुर्बलता का होता है, परन्तु अन्याय से पराजित होने का दुःख उसमें आक्रोश, प्रतिकार के भाव उत्पन्न करता है। देश में आज नई पीढ़ी के सामने बहुत सारे संकट हैं, वहाँ एक संकट आरक्षण का है। कोई छात्र चिकित्सा, इञ्जीनियर, प्रशासन, शिक्षा के आरक्षित वर्ग में स्थान पा जाता है, यह परिस्थिति मनुष्य के अन्दर वही भाव उत्पन्न करती है जो किसी प्रतियोगिता में उनका स्वार्थ छिन जाने पर उत्पन्न होते है। अन्य प्राणियों में संघर्ष शक्ति से निर्णायक होता है, परन्तु मनुष्य में निर्णय बुद्धि से किये जाने की अपेक्षा रहती है। यदि यहाँ भी बुद्धि औचित्य न्याय का स्थान शक्ति ले ले तो प्रतिक्रिया में संघर्ष ही मिलेगा, उसे हम कितने समय तक रोक सकते हैं? आरक्षण से अपने एक अयोग्य व्यक्ति को तन्त्र में स्थापित तो कर दिया पर इससे जहां एक योग्य व्यक्ति की प्रतिभा से समाज वञ्चित हो जाता है, वहीं समाज को अयोग्यता का दण्ड वर्षों तक सहना पड़ता है, उसी अनुपात में अयोग्यता बढ़ती जाती है।

गत दिनों आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली के एक चिकित्सक से चर्चा हो रही थी, तब उसने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि आरक्षण के कारण एक व्यक्ति छात्र या सरकारी सेवक के रूप में ही चयन नहीं, अपितु हर बार आरक्षण के कारण ऊँचा स्थान पा जाता है, फिर जहाँ चिकित्सा जैसा कार्य आता है, तब ये व्यक्ति दर्शनीय हुण्डी की तरह होते हैं और जो कार्य उन्हें करना चाहिए, वह उनसे पिछड़ गये लोगों को करना पड़ता है। गुजरात के पटेल आरक्षण को लेकर समाचार पत्रों में बताया गया कि अन्तर् राष्ट्रीय स्तर पर दो सर्वेक्षण किये गये, जिनके निष्कर्ष में बताया गया है कि भारत की प्रगति में आरक्षण बड़ी बाधा है। आरक्षण के कारण देश की प्रगति मन्द हुई है।

आरक्षण से जहाँ अयोग्यता को प्रश्रय मिला है, वही जातिवाद की जड़ें गहरी हुई हैं। जातिवादी संगठन मजबूत होकर उभरे हैं। आरक्षण का आधार जातिवाद है और आरक्षण के लाभ-हानि से जातियाँ ही प्रभावित होती हैं। एक ओर आरक्षण बचाने के लिए जातीय संगठन बन रहे हैं, वहीं जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं है, उनके द्वारा आरक्षण प्राप्त करने के लिये जातियों को संगठित किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप पटेल, गुर्जर, जाट आन्दोलनों को हम समाज में देख रहे हैं। आज आन्दोलनों का आधार आवश्यकता या औचित्य नहीं है, आरक्षण प्राप्त जातियाँ शक्ति प्रदर्शन द्वारा अपने आरक्षण को बनाकर रखना चाहती हैं। इतना ही नहीं, ये आरक्षण प्राप्त संगठन निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिये सरकार को बाध्य करते रहे हैं। जब आरक्षण का आधार शक्ति प्रदर्शन ही रह गया है, तब समाज की दूसरी जातियों को आन्दोलन करने से कौन रोक सकता है? जो लोग आरक्षण के क्षेत्र में हैं और जो आरक्षण माँग रहे हैं, दोनों लोग अपने समाज की गरीबी के आँकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं। क्या समाज में कभी ऐसा हुआ है कि सभी लोग समान रूप से सपन्न हुए हों? ऐसा न कभी पहले हुआ और न कभी हो सकता है। समाज में सपन्न, मध्यम और गरीब सदा से रहे हैं और कोई भी सत्ता इन तीन वर्गों को मिटा नहीं सकती। न्याय का आधार होता है कि समाज में कोई भी व्यक्ति न्यूनतम आवश्यकताओं से वञ्चित न रहे। आवास, भोजन, शिक्षा, चिकित्सा जैसी सुविधायें न्यूनतम मूल्य पर सुलभ हों। यह व्यवस्था करना शासन का दायित्व है। धन तो कोई बुद्धि से कमा लेता है, मूर्खता से नष्ट भी कर देता है। शासन का दायित्व है कि किसी का धन कोई बलपूर्वक या छलकपट से न छीन ले। यदि इतनी व्यवस्था शासन कर दे तो समाज में सुरक्षा का भाव बढ़ेगा, उपार्जन करने का जिसके पास जैसा सामर्थ्य है, वैसा वह करेगा। जो समर्थ है, उनकी चिन्ता वे स्वयं करेंगे, समाज को उनकी चिन्ता करनी होती है, जो असमर्थ, बुद्धिहीन, विकलांग, वृद्ध एवं रोगी हों। सरकार से गरीब का कोई विरोध नहीं होता, विरोध समाज में तब उत्पन्न होता है, जब गरीब को गरीबी से निकलने नहीं दिया जाता। उसके गरीबी से निकलने के मार्ग बन्द कर दिये जाते हैं। ऐसे समाज को दण्ड भोगना पड़ता है। उसमें वर्ग संघर्ष होता है, ऐसा देश पराधीन होता है। ऐसे समाज को दास बनने से कोई नहीं रोक सकता।

बुद्धिमान लोग इस बात को समझ सकते हैं। यह देश एक हजार वर्ष पराधीन रहा, क्यों रहा? हमने यही आरक्षण अपनाया था। ब्राह्मणों ने इस समाज को सवर्ण-असवर्ण में बाँटा। ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित कर जन्म की जाति व्यवस्था को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए स्थापित किया। इस व्यवस्था से पहले भी शूद्र थे, परन्तु किसी को अपने शूद्र होने पर दुःख नहीं होता था। शूद्र उसकी एक परिस्थिति थी, वह उसे बदल सकता था, उसका शूद्रत्व उस पर किसी ने थोपा नहीं था, यह केवल उसकी असमर्थता थी। वह उसे यदि दूर कर सकता था तो उसे आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता था। यदि इस जन्म में वह शूद्र रहा भी तो उसकी सन्तान को कोई शूद्र रहने के लिये बाध्य नहीं कर सकता था। वर्ण व्यवस्था तो स्वाभाविक सामर्थ्य, स्वभाव एवं प्रवृत्तियों का व्यवस्थापक चक्र मात्र था। जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र शदों से भयभीत होते है, घृणा करते हैं या चिड़ते हैं, वे न तो शास्त्र जानते हैं, न मनोविज्ञान की समझ रखते हैं। हमारे शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के भी चार-चार विभाग किये गये हैं। एक ब्राह्मण केवल ब्राह्मण नहीं होता, ब्राह्मण में ब्राह्मणत्त्व प्रधान हो, परन्तु क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के भाव भी कम या अधिक रहते हैं, वैसे ही क्षत्रिय होते हुए ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र हो सकता है। वैश्य में भी ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, शूद्रत्व का अनुपात रहता है। वैसे ही शूद्र भी केवल शूद्र नहीं होता, उसमें भी ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व व वैश्यत्व का भाव पाया जाता है। जिस मनुष्य में जो भाव प्रबल है, वह वही बन जाता है, बन सकता है। कोई शूद्र, शूद्र रहने के लिए बाध्य नहीं है, उसी प्रकार ब्राह्मणत्व भी किसी की ठेकेदारी नहीं है। यह मात्र व्यवस्था है। समाज देश व्यवस्था से ही चलता है। जिन लोगों ने व्यवस्था को समाप्त किया, वे इस देश की दासता के लिए उत्तरदायी हैं। हम फिर वही कर रहे हैं। पहले सवर्णों ने, ब्राह्मणों ने अपनी मूर्खता, अज्ञानता और स्वार्थ का आरक्षण कर इस समाज और देश का अहित किया, आज दलित और पिछड़ों के नाम पर अयोग्यता को संरक्षण देकर देश का अहित कर रहे हैं।

न्याय में सबको अवसर समान दिया जाता है, फल उनके कार्य और योग्यता के अनुसार दिया जाना उचित है, परन्तु हम एक का अवसर ही छीन रहे हैं और दूसरे को बिना कार्य और बिना योग्यता के फल दे रहे हैं, यह अन्याय है, अनुचित है। इसका परिणाम संघर्ष, वैमनस्य, विनाश तो होना ही है। आज समाज में वह परिस्थिति आ गई है, जब न्याय संगत विचार करने की आवश्यकता है। आप इसे बहुत समय टाल नहीं सकते, समाज को धोखे में नहीं रख सकते। यह देश बड़ा विचित्र है, यहाँ आरक्षण के नाम पर जातिवाद और अयोग्यता का संरक्षण किया जाता है। अल्पसंयक होने के नाम पर देश के नियम, कानून और व्यवस्था से मुक्त रहने का अधिकार दिया जाता है। उन्हें धर्म के नाम पर उन्माद, अराजकता फैलाने की स्वतन्त्रता है और देश की सपत्ति पर पहला अधिकार भी। इस पर पञ्चतन्त्र की यह उक्ति सटीक बैठती है-

प्रथमस्तावद् अहं मूर्खः द्वितीयो पाशबन्धकः।

ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वै मूर्ख मण्डलम्।।

– धर्मवीर

 

सृष्टि में मनुष्यों का प्रथम उत्पत्ति स्थान और आर्यों का मूल निवास’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमारा यह संसार वैदिक मान्यता के अनुसार आज से 1 अरब 96 करोड़ 08 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व बनकर आरम्भ है।  इस समय मानव सृष्टि संवत् 1,96,08,53,116 हवां चल रहा है। यह वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ हुआ है। इस सृष्टि सम्वत् के प्रथम दिन ईश्वर ने मनुष्यों को किस स्थान पर उत्पन्न किय था, इस प्रश्न पर संसार के लोग एकमत नहीं हैं। महर्षि दयानन्द ने इस विषय का शंका समाधान कर अपना शास्त्रीय, तर्क व युक्ति से सिद्ध मत अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में दिया है। इस प्रश्न के महर्षि दयानन्द द्वारा दिए गए उत्तर को प्रस्तुत करने से पूर्व हम यह बताना चाहते हैं कि 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर जन्में महर्षि दयानन्द ने अपनी आयु के बाईसवें वर्ष के आरम्भ में अपने मातृ-पितृ गृह का त्याग किया था। उन्होंने सन् 1863 तक निरन्तर देश का भ्रमण किया और जहां जो विद्वान मिला, उससे उन्होंने अध्ययन किया। संस्कृत व गुजराती भाषा का अध्ययन वह अपने माता-पिता के साथ रहते हुए ही कर चुके थे। विद्वानों से ज्ञान ग्रहण करने के साथ उन्होंने अपनी यात्रा में मिलने वाले बड़ी संख्या में दुर्लभ मूल ग्रन्थों व अनेक पाण्डुलिपियों का अध्ययन भी किया था। योगाभ्यास में उनकी गहरी रूचि थी और अनेक गुरूओं से उन्होंने समय समय पर योग सम्बन्धी ज्ञान व उसके रहस्यों को जाना व समझा तथा उन्हें अभ्यास द्वारा प्रत्यक्ष भी किया था। उनका अध्ययन सन् 1863 में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन करने पर पूर्ण हुआ। उसके बाद भी उनका देश का भ्रमण जारी रहा। जिज्ञासु वृत्ति उनको जन्म से प्राप्त थी। अतः उन्होंने एक मनुष्य में जितने अधिक से अधिक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं और वह उनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह सब जिज्ञासायें उनमें हुईं व उनके उत्तर भी उन्होंने प्राप्त किये। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ उनकी इस जिज्ञासु वृत्ति और उन्होंने जो विद्यायें अर्जित कीं, उनका जीता जागता प्रमाण है। अतः महषि दयानन्द ने सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति स्थान के बारे में जो उत्तर व समाधान प्रस्तुत किया है, वह प्रमाणिक, तथ्यपूर्ण एवं यथार्थ है, इसका पाठकों को विश्वास करना चाहिये। उनका कथन इसलिए भी प्रमाणिक है कि वह एक धर्मात्मा और महात्मा थे, पूर्णतया निष्पक्ष थे और धर्म एवं संस्कृति सहित वेदादि शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। वह धर्मात्मा आप्त कोटि के अपूर्व पुरुष थे जो अपने जीवन में कभी असत्य कथन नहीं करता। इस कारण भी उनका इस विषय का समाधान स्वीकार्य, माननीय व किसी प्रकार के सन्देह से परे है।

 

महर्षि दयानन्द का प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है। इसके आठवें समुल्लास में वह प्रश्न करते हैं कि मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि त्रिविष्टिप् अर्थात् जिस को तिब्बत कहते हैं (वहां हुई थी)। (प्रश्न) आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक? (उत्तर) एक मनुष्य जाति थी, पश्चात् ‘‘विजानीह्यार्यांये दस्यवः यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान, देव और दुष्टों के दस्यु, डाकू व मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। ‘‘उत शूद्र उतार्ये यह अथर्ववेद का वचन है। आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चार भेद हुए। द्विज विद्वानों का नाम आर्य और मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात् अनाड़ी नाम हुआ। (प्रश्न)  फिर वे यहां कैसे आये? (उत्तर)  जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव तथा अविद्वान् जो असुर, उन में परस्पर लड़ाई, बखेड़ा व बहुत उपद्रव आदि होने लगा, तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जान कर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का (प्रथम) नाम ‘‘आर्यावर्त्त हुआ। (प्रश्न) आर्यावर्त्त की अवधि कहां तक है? (उत्तर) आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधाः।। 1।। सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्वदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावत्र्त प्रचक्षते।।2।। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तक।।1।। तथा सरस्वती पश्चिम में, अटक नदी पूर्व में, द्वषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर हो कर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र कहते हैं, और अटक जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है। हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वरम् पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं, उन सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावत्र्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त्त कहाया है। (प्रश्न) प्रथम इस देश का नाम क्या था, और इसमें कौन बसते थे? (उत्तर) इस (आर्यावर्त्त नाम) के पूर्व इस देश का अन्य कोई भी नाम नहीं था, और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में (सृष्टि उत्पत्ति के) कुछ काल के पश्चात्  तिब्बत से सीघे इसी देश में आकर बसे थे। (प्रश्न) कोई कहते हैं कि ये (आर्य) लोग ईरान से आये, इसी से इन लोगों का नाम आर्य हुआ है। इनके पूर्व यहां जंगली लोग वसते थे कि जिन को असुर और राक्षस कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उन का जब संग्राम हुआ, उस का नाम देवावसुर संग्राम कथाओं में ठहराया। (उत्तर) यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि ‘‘विजानीह्यार्यान्ये दस्यवो बर्हिष्मते रंधया शासद व्रतान्। यह ऋग्वेद का मंत्र 1/51/8 है तथा उत शूद्र उतार्ये। यह अथर्ववेद का प्रमाण है। यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धार्मिक, विद्वान, आप्त पुरुषों का और इन से विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकु, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। जब वेद ऐसे कहता है, तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर संग्राम में आर्यावर्तीय अर्जुन तथा महाराजा दशरथ आदि, हिमालय पहाड़ में आर्य और दस्यु-मलेच्छ-असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें देव अर्थात् आर्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। (अर्जुन व दशरथ के काल अलग अलग होने से यह भी सम्भावना लगती है कि यह देवासुर संग्राम अनेक बार हुआ)। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यावर्त्त के बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, देश में मनुष्य रहते हैं, उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है। क्योंकि जब जब हिमालय प्रदेशस्थ आर्यों पर (विदेशी दस्यु व असुर) लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब तब यहां के राजा-महाराजा लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्यों के सहायक होते। और जो श्री रामचन्द्र जी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम देवासुर संग्राम नहीं है, किन्तु उस को राम-रावण अथवा आर्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा है कि आर्य लोग ईरान से आये और वहां के जंगलियों को लड़कर, विजय पा के, निकाल के, इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का (पक्षपात से पूर्ण) लेख माननीय कैसे हो सकता है? (अर्थात् नहीं हो सकता)।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने वचनों में सृष्टि की आदि में मनुष्य की उत्पत्ति के स्थान को तिब्बत बताया है। अन्य प्राचीन प्रमाणों से भी यही स्थान सिद्ध होता है। इसके लिए विख्यात विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की पुस्तक आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता पठनीय है। महर्षि दयानन्द जी ने अंग्रेजों की इस मिथ्या मान्यता का भी सप्रमाण प्रतिवाद कर दिया है कि आर्य इस आर्यावर्त्त के मूल निवासी नहीं हैं। उनके अनुसार आर्य किसी अन्य देश में आकर यहां आर्यावर्त्त भारत में नहीं बसे अपितु सृष्टि की आदि में, जब पूरा भूलोक व पृथिवी खाली पड़ी थी, तिब्बत से सीधे यहां आकर बसे व इसको उन्होंने ही बसाया था। अंग्रेजों ने जो आर्यों के ईरान व अन्य किसी देश से आने की मान्यता प्रचलित थी, उसके पीछे उनका निजी स्वार्थ था। वह यह प्रचारित करना चाहते थे कि जिस प्रकार हम विदेशी हैं उसी प्रकार से वर्ण व आश्रम धर्म-व्यवस्था को मानने वाले आर्य भी हैं। महर्षि दयानन्द का अंग्रेजों की इस स्वार्थपूर्ण मान्यता का सप्रमाण खण्डन उनकी ऐतिहासिक तथ्यों पर सूक्ष्म तथ्यात्मक दृष्टि व दूरदर्शिता सहित देशहितैषी होने का प्रमाण है। हम आशा करते हैं कि लेख के पाठक महर्षि दयानन्द के दोनों ही निष्कर्षों से सहमत होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि महर्षि दयानन्द की मान्यता का डिन्डिम घोष से प्रचार व प्रसार हो और भारत सरकार इस तथ्यात्मक मान्यता को स्केूली पाठ्यक्रम में शामिल कर न्याय करे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

वर्ण व्यवस्था, जन्मना जाति व्यवस्था और महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

महर्षि दयानन्द अपने समय के प्रमुख समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने समय में जन्मना जातिवाद का विरोध किया था और सृष्टि की आदि से प्रचलित गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था को व्यवहारिक घोषित कर उसका ही प्रचार व प्रसार किया था। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने विस्तृत साहित्य, मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में, अनेक स्थानों पर चर्चा की है। वेद आदि प्राचीन साहित्य के आधार पर वह वेदाध्ययन करने कराने, यज्ञ करने वा करवाने तथा दान देने व लेने को ब्राह्मण के मुख्य कर्तव्यों में शामिल करते थे। यदि किसी विप्र ब्राह्मण की सन्तान वेद ज्ञान से शून्य है तो वह वेदाध्ययन न करने व कराने सहित अन्य कर्तव्यों की पूर्ति में भी अक्षम होने से ब्राह्मण नहीं हो सकती। इसी प्रकार से यदि किसी अज्ञानी शूद्र का पुत्र व वा पुत्री ज्ञान की दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के तुल्य हो, तो वह शूद्र न होकर गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही होगा। यदि किसी घोर अज्ञानी में कोई विशेष योग्यता न हो तो फिर वह सन्तान शूद्र ही होगी। स्वामी दयानन्द के समाज सुधार का देशवासियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। लोगों ने वर्णव्यवस्था के गुण-कर्म-स्वभाव के सिद्धान्त को युक्ति व तर्क संगत होने के कारण सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार कर किया था। यह बात और है कि आज तक भी यह सिद्धान्त पूर्ण व्यवहारिक रूप नहीं ले सका। गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था वेदों पर आधारित उन्नत सामाजिक व्यवस्था है और जन्मना जाति व्यवस्था इस व्यवस्था के विपरीत कृत्रिम व अव्यवहारिक व्यवस्था है। जब तक यह जन्मना व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाती, इसके विरूद्ध समाज सुधार प्रेमियों को निरन्तर प्रयत्न करने चाहिये। इससे देश व समाज को भारी क्षति हो रही है। जो लोग एक ही जाति में विवाह करते हैं, उस कारण उनसे कई योग्य सन्तानें जन्म लेने से वंचित होती हैं। यह दुःख का विषय है कि आर्य समाज ने महर्षि दयानन्द के अन्य कई आन्दोलनों की तरह ही वर्णव्यवस्था के प्रचार कार्य से स्वयं को न केवल दूर व पृथक किया है अपितु इस विषय पर सोचना भी छोड़ दिया है।

 

महर्षि दयानन्द का गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था के महत्व, योगदान, उपयोगिता व प्रभाव के विषय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डा. रघुवंश ने श्री यदुवंश सहाय लिखित महर्षि दयानन्द की जीवनी में पुनरुत्थान युग का द्रष्टा शीर्षक से अपने प्राक्कथन में चर्चा की है। उनके इससे सम्बन्धित महत्वपूर्ण विचारों को हम पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं ने, मुख्यतः गांधी जी ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेष्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानन्द ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना शुरू किया था। एक भी ऐसी समस्या नहीं है, जिसकी ओर उन्होंने संकेत किया हो और कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसे उन्होंने छोड़ा हो। समाज के वर्णभेद, उनकी असमानता, उनमें छूआछूत, जन्म से वर्णों के विभाजन आदि के बारे में दयानन्द ने अपने प्रखर विचार रखे थे। उन्होंने इस प्रकार की असमानता को, छुआछूत को, जन्म से वर्ण के निर्धारण को धर्मविरुद्ध और असत्य प्रतिपादित किया। परन्तु उन्होंने कर्म पर आश्रित वैदिक वर्णव्यवस्था की स्वीकृति दी है। हम आधुनिकता के समर्थक यह कह सकते हैं कि कर्म (गुण-कर्म-स्वभाव) पर आश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार कर लेना एक प्रकार का समझौता है, क्योंकि इस प्रकार हम दूसरे मार्ग से परम्परित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं। परन्तु स्थिति का यथार्थ-विवेचन करने से पता चलता है कि जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार करने का घोषणा की है, उन्होंने अपने जीवन में अभी तक जातिवाद को बहुत महत्व दे रखा है। भारतीय राजनीति के विभिन्न स्तरों पर जातिवाद का कितना प्रभाव है, इससे यह प्रमाणित हो जाता है। गांधी जी ने सन्त भाव से निम्न जातियों को हरिजन कहा, परहरिजन शब्द अछूत के समान एक पर्याय मात्र बन कर रह गया। इसकी तुलना में दयानन्द की दृष्टि अधिक स्पष्ट थी। पहले तो उन्होंने (स्वामी दयानन्द ने) कहा कि समाज के विविध अंग रूप उसके वर्णों में ऊंच-नीच का भाव ही अधर्म हैं, क्योंकि अंगों का ऊंचा-नीचा स्थान उनकी श्रेष्ठता का निर्धारक नहीं हो सकता। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि पैरों से हाथ इसलिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि प्राणी के खड़े होने पर वे ऊपर स्थित होते हैं। समाज की व्यवस्था और सन्तुलन के लिए कार्यों का विभाजन किसी किसी रूप में अनिवार्य है पर कार्य के सम्पादन की क्षमता जन्मतः सिद्ध नहीं हो सकती। अतः वर्ण का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार के तर्क और व्यवस्था में कितना बल है, यह स्पष्ट है। साथ ही दयानन्द ने वर्णव्यवस्था के नाम पर जो सामाजिक अन्याय हो रहा था, उसका बड़ा विरोध किया था और इस विद्रोह भाव को समाज की नई रचना में समाहित करने का प्रयत्न भी किया था। बाद के समन्वयवादियों के दृष्टिकोण से उनका विचार कहीं अधिक क्रान्तिकारी रहा है। यह अलग बात है कि आधुनिक ज्ञानविज्ञान के प्रयोग से जिस प्रकार की आद्योगिक और यांत्रिक प्रगति हो रही है, उसमें समाजरचना का स्वरूप ऐसा बदल रहा है, जिसमें पिछली कर्माश्रित वर्णव्यवस्था असंगत हो गई है।’ 

 

डा. रघुवंश जी ने सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण कर अपना जो मन्तव्य प्रस्तुत किया है वह यथार्थ है। उन्होंने स्वामी दयानन्द के विचारों व कार्यों का स्तुति गान किया है जो कि सत्य व ग्राह्य है। आज जन्मना जाति व्यवस्था अप्रासंगिक हो गयी है। वर्तमान में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित प्राचीन वर्ण व्यवस्था अपने मूल स्वरूप से परिवर्तित होकर आधुनिक रूप में विद्यमान है। आज की व्यवस्था में वर्ण समाप्त हो गये हैं और इनका स्थान डाक्टर, इंजीनियर, पुलिस, सेना, सरकारी कर्मचारी, निजी व्यवसायी, कृषक, श्रमिक आदि शब्दों ने ले लिया है। आशा है कि भविष्य में जन्मना जातियां इसी व्यवस्था में विलीन हो जायेगी। यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि आज समाज में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित प्रेम विवाह और परिवारजनों द्वारा आयोजित विवाह भिन्न भिन्न जन्मना जातियों के वर-वधुओं में हो रहे हैं जिन्हें अन्तर्जातीय विवाह कहते हैं। समाज के एक बड़े भाग ने इन्हें स्वीकार भी कर लिया है। इससे जन्मना जातिवाद काफी शिथिल हुआ है। दुःख का विषय है कि आज भी लोग अपने अपने नामों के साथ जन्मना जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे समाज में एकरसता उत्पन्न होने में बाधा होती है। यह जन्मना जाति लिखने की प्रथा यदि समाप्त हो जाये और केवल गोत्रों का ही प्रयोग विवाहार्थ किया जाये तो यह समाज, देश व मनुष्यता के लिए उत्तम हो सकता है। यही स्वामी दयानन्द जी को भी अभीष्ट था। हम आशा करते हैं कि भविष्य में यह व ऐसी सभी कृत्रिम प्रथायें दूर होंगी। लेख समाप्ति पर हम यह कहना चाहते हैं कि सामाजिक व्यवस्था में जो आज परिवर्तन देख रहे हैं, उसमें महर्षि दयानन्द का प्रमुख योगदान है जिससे आज का समाज परिचित नहीं है। स्वामीजी के अनेक देश व समाज हित के कार्यों के लिए उनका कोटि कोटि वन्दन है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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ऋषि के पग चिह्नों पर हमारी गुजरात यात्रा- (2) – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

राजकोट से हमने महर्षि के जन्म स्थान टंकारा के लिये प्रस्थान किया। इस यात्रा में हमने महर्षि की उस यात्रा (सन् 1875) के कुछ विशेष प्रसंगों के सिलसिले में महर्षि की देन के ऐतिहासिक महत्त्व क ो एक-एक पड़ाव पर कुछ-कुछ प्रकाश डालकर उद्घाटित किया। राजकोट के धर्मशाला चौक में महर्षि ने देश-भाषा (गुजराती) में व्यायान दिया था। इस व्यायान का विशेष प्रभाव पड़ा था। पं. लेखराम जी के इस कथन को गुजरात की धरती पर पहली बार उठाया गया। ऋषि के जीवन पर लिखने वाले किसी भी लेखक ने कभी यह नहीं बताया था कि पं. लेखराम जी ने गुजराती भाषा के लिए ‘देशभाषा’ शद का प्रयोग किया है। गुजरात की जनता को पहली बार यह जानकारी दी गई कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय विचारक सुधारक जो कभी सागर पार तो नहीं गया था परन्तु उनका चित्र सबसे पहले अमरीका के एक पत्र Sunday Magazine (सण्डे मैगज़ीन) में छपा था।

गुजरात निवासी धरती पुत्र महर्षि दयानन्द की इस विलक्षणता को जानकर गौरवान्वित हुए। टंकारा पहुँचने पर टंकारा आर्य समाज, आर्यवीर दल तथा टंकारा गुरुकुल के ब्रह्मचारियों के साथ गुजरात सभा के मन्त्री जी ने हमारा स्वागत किया। महर्षि दयानन्द स्मारक ट्रस्ट में हमें ठहराया गया। आर्य समाज टंकारा में एक कार्यक्रम रखा गया। श्रीमान् धर्मवीर जी तथा श्रीयुत् ओममुनि जी ने अपने विचार रखे। श्री पं.ाूपेन्द्र जी के भजन हुए।

मुझे कुछ कहने को कहा गया। मैंने अभी ये शद ही कहे, ‘‘कुछ वर्ष पूर्व श्रीमती जिज्ञासु महर्षि का जन्म गृह व माण्डवी देखने आईं। मैंने चलते समय उन्हें कहा, टंकारा ट्रस्ट को कुछ दान अवश्य देकर आना तथा श्री दयालमुनि जी के घर जाकर उनको मिलकर आना………।’’ मुझे महात्मा आनन्द स्वामी जी की टंकारा यात्रा की याद आ गई। महात्मा जी महर्षि जी के जन्म गृह को देखने गये तो पं. रघुवीर सिंह शास्त्री जी उनके साथ थे। जन्म-गृह के ऐतिहासिक कमरे में अपनी भावपूर्ण शैली में अपनी ऊँची आवाज में महात्मा जी ने कहा, ‘‘हे टंकारा की धरती एक और दयानन्द को जन्म देकर हमारा उद्धार कर दे। बेड़ा पार कर दे।’’ इतना कहकर उनके नयन सजल हो गये । गला रुंध गया। साथ खड़े पण्डित रघुवीर सिंह जी के नयनों से टप-टप अश्रुकण गिरने लगे।

उपरोक्त शद बोलते ही मेरी अश्रुधारा भी रोके न रुकी। महात्मा आनन्द स्वामी ने मुझे रुला दिया। जब पहली बार मैं जन्म-गृह देखने गया तबाी श्री महात्मा जी के उपरोक्त कथन को स्मरण करके मैं उस कमरे में जी भरकर रोया था। मैं अपने मनोभावों में बह गया।

जन्म गृह तो देखा ही। हम दयाल मुनि जी के दर्शनार्थ उनके घर पर भी गये। टंकारा ट्रस्ट के कार्यक्रम में केरल से यात्रा में भाग लेने आये श्रीयुत् अरुण प्रभाकर जी के स्वागत के साथ श्रीमान् राजेश जी द्वारा अनूदित महर्षि की एक पुस्तक के मलयालम संस्करण का श्री दयाल मुनि जी से विमोचन करवाया। टंकारा गुरुकुल के आचार्य श्री रामदेव जी, श्री रमेश मेहता जी के प्रभावशाली व्यायान हुए। श्री धर्मवीर जी, ओम्मुनि जी तथा इस सेवक नेाी अपने विचार व्यक्त किये। श्री नौबतरामजी, पं. लेखराज जी और भूपेन्द्र जी के मधुर भजन सुनकर सब आनन्दित हुए।

टंकारा से यात्रा गांधीधाम के लिए चल पड़ी। देर रात वहाँ पहुँचे। वहाँ के भव्य भवन व कई संस्थायें श्री वाचोनिधि जी ने दिखाई। जब गंगा-पार गुरुकुल कांगड़ी था तब महात्मा मुंशीराम की घास-फूस की झोंपड़ी राजनेताओं व साम्राज्यवादियों के बड़े-बड़े सत्ताधारियों के लिए आकर्षण का केन्द्र था। जब भव्य भवन बन गये तो सत्ता वालों को विनती करके  बुलाना पड़ता है। गुजरात में भव्य भवन तो बहुत देखने को मिले परन्तु गुजरात में लोग ऋषि के नाम को अब भी नहीं जानते। ऋषि गुजरात में जन्मे थे, यह जानकारी ग्राम-ग्राम देनी होगी। इसके लिए दर्दीला दिल व मिशनरी भाव रखने वाले समाजी चाहिएँ।

जिस ऋषि को इतिहासकारों ने, विदेशी लेखकों व पत्रकारों ने युग का सबसे बड़ा एकेश्वरवादी और पाषाण-पूजा का सबसे बड़ा विरोधी जाना व माना आज उसकी धरती गुजरात मूर्तिपूजा व बहुदेववाद की सन्देशवाहक बन रही है। यह चिन्ता का विषय है। इस चुनौती को स्वीकार करके आर्यों को आगे बढ़ना होगा।

मुन्दरा, भुज, लुडवा और नखत्राणा की यात्रा बहुत आनन्ददायक रही। यहाँ के कार्यक्रम तथा मेल मिलाप सबकी अपनी ही विशेषतायें थीं। लुडवााुज आदि गुजरात के  आर्यसमाज सुधारक, गो भक्त, यज्ञ  प्रसारक-प्रचारक शिवगुण बापू तथा धर्मवीर ेातसी भाई की कर्मभूमि रही है। इन्होंने इसे तप से सींचा। एक इतिहास बनाया हमने देखा नखत्राणा में एक ही परिवार के सगे सात भाई समाज के कर्णधार हैं। सब दैनिक यज्ञ करते हैं तथा सब के घरों में गऊ का पालन होता है। अतिथि  सेवा जो इस क्षेत्र में देखी वह अनुकरणीय है। मुन्दड़ा में हमें ऋषि-उद्यान के गुरुकुल का ब्रह्मचारी कश्यप अपने घर पर ले कर गया। परिवार सपन्न है। वेद-भक्त और ऋषि-भक्त है। इस परिवार के तीन युवा पुत्र ऋषि-उद्यान में आर्ष-ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। कश्यप के माता-पिता को नमन क रके हम सबने स्वयं को धन्य-धन्य माना। यहाँ पर एक परिवार ने अतिथि-सत्कार का चमत्कार कर दिखाया।

इन समाजों के सुपठित, सपन्न कर्णधार यदि सप्ताह में एक दिन धर्म प्रचार के लिये दें तो आर्य समाज जन-आन्दोलन बन सकता है। धर्म-प्रचार करना अब प्रचारक ों पर छोड़ दिया गया है। आर्यसमाजी धर्म-प्रचार करना भूल गये। महात्मा मुंशीराम, महात्मा नारायण स्वामी, पं. गंगा प्रसाद द्वय, ला. मुरलीधर और पं. श्यामााई सब मिशनरी थे।

भाभर छोटा सा स्थान है। यहाँ श्री धनजी भाई समाज के प्रधान हैं। आचार्य ओ3म् प्रकाश जी गुरुकुल आबू पर्वत इसी ग्राम के हैं। युवा आचार्य जी की लगन, उत्साह, कर्मण्यता व सद्व्यवहार देखकर हमें बड़ा गौरव हुआ। ऐसे निर्भीक, स्पष्टवादी, सत्यवादी आर्यों पर हम जितना भी अभिमान करें थोड़ा है। आपके पिता श्री यहाँ के समाज के एक माननीय कर्णधार हैं।

श्री आचार्य जी भाभर से बहुत पहले हमें मार्ग में भटक ने से बचाने के लिए पहुँच गये। उनके पहले पहुँचने से हम परेशानी से बच गये। अन्यत्र भी यदि कोई दिलजला ऐसे ही करता तो संयम व शक्ति का अपव्यय न होता। इस बीस दिन की प्रचार-यात्रा में श्रीमान् कमलेश जी शास्त्री तथा आचार्य ओमप्रकाश जी का सर्वाधिक व ठोस सहयोग रहा।

भाभर की गोशालायें :- गोशालायें तो इस यात्रा में कई देखीं परन्तु, गो-सेवा व गो-रक्षा में भाभर की गोशाला तो देशभर में अद्वितीय कही जा सकती हैं। यहाँ की गोशाला की तीन श्रेणियाँ । दूर-दूर से रुग्ण, घायल व अंधी गउओं को यहाँ लाया जाता है। इनकी संया आठ सहस्र से ऊपर है। कई डॉक्टर, गो-सेवक, गो-पालक दिन-रात इनकी रक्षा व उपचार में लगे रहते हैं। असाध्य रोगों से पीड़ित, घायल गउयें जब कुछ ठीक होती हैं तो उनको दूसरी गोशाला में रखा जाता है। जब पूरी रोग मुक्त हो जाती हैं तो तीसरी गोशाला में ले जाया जाता है।

ग्राम के 25-30 युवक नित्यप्रति प्रातःकाल स्वयं स्फूर्ति से इन गउओं की सेवा करने आ जाते हैं। सब निष्काम सेवा करते हैं। जब कोई यात्री बाहर से आते हैं तब भी ये युवक सहयोग व सेवा करने अपने आप आ जाते हैं। यह दृश्य देखकर हमें अपार प्रसन्नता हुई। आज के अर्थ-प्रधान युग में ऐसे युवक कहाँ मिलेंगे? न धन का लोा और न फोटो खिंचवाने की लालसा।

गुजरात में हमने कई गोशालायें देखीं। भारतीय वंश की गऊओं की रक्षा व संवर्द्धन की गो-सेवकों में सर्वत्र चिन्ता देख कर बहुत हर्ष हुआ। एक गोशाला में गो-पालन व गो-हत्या निषेध विषयक कई विद्वानों व नेताओं की सूक्तियाँ पढ़ीं । इनमें पं. नेहरु का भी एक वचन था। यह कितने  दुर्भाग्य व दुःख का विषय है कि गो-शाला व गो-रक्षा आन्दोलन के जन्मदाता महर्षि दयानन्द की गो-करु णानिधि आदि पुस्तकों में से ऋषि का एक वचन वहाँ पढ़ने को न मिला। क्या यह गुजरात के लिए लज्जाजनक नहीं है। ऐसे लगा कि गुजरात में सुनियोजित नीति से राजनेताओं ने ऋषि से दूरी बना रखी है।

गुजरात की विशाल सड़कों व स्वच्छता को देखकर (अपवाद तो सर्वत्र होता ही है) हमें बड़ा आनन्द हुआ परन्तु भाभर में भाजपा कार्यालय में एक साा में मैंने सरदार पटेल जी विषयक कई प्रश्न पूछे तो सुपठित श्रोताओं में से कोई भी मेरे द्वारा पूछे गये किसीाी प्रश्न का उत्तर न दे सका यथा –

  1. सरदार पटेल के अन्तिम भाषण का विषय क्या था?
  2. सरदार पटेल ने अन्तिम भाषण कहाँ दिया?
  3. अन्तिम भाषण किस दिन, कब दिया गया?
  4. हैदराबाद का पुलिस ऐक्शन किस दिन आरभ हुआ?
  5. मन्त्री परिषद ने किस दिन पुलिस ऐक्शन का निर्णय लिया था?

सरदार पटेल की जन्म भूमि के लोग सरदार पटेल के भक्त व नामलेवा हैं, यह गौरव की बात है परन्तु ऐसे प्रश्नो का उत्तर न दे पाना तो अशोभनीय है।

पोरबन्दर में माता कस्तूरबा विषयक एक प्रश्न मुझसे पूछा गया। मैं प्रश्न सुनकर चौंक गया। उस युवक को उत्तर तो दिया परन्तु दुःख तो हुआ कि हमारे युवक…………इस यात्रा से बहुत अनुभव प्राप्त हुआ। यात्रायें तो उपयोगी हैं परन्तु यात्रा में आठ-दस व्यक्ति से अधिक नहीं होने चाहिये। यात्रा में कुछ लगनशील तथा सूझबूझ वाले युवक अवश्य होने चाहियें ताकि उनको शोध व प्रचार का प्रशिक्षण प्राप्त हो। यात्रियों को यह आशा लेकर नहीं निकलना चाहिये कि हमारे आवास-निवास व भोजन की सर्वत्र व्यवस्था होगी ही। यात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने के लिए एक स्थानीय मार्गदर्शक होना ही चाहिये। इससे व्यर्थ की परेशानियों से बचा जा सकता है।

यात्रा दस-बारह दिन से अधिक की न हो । यात्रा का उद्देश्य अखबारी न हो, वेद-प्रचार-ऋषि सन्देश हो। भ्रूण हत्या व बेटी बचाओ यात्राओं से समाचार तो बन जाता है। इसकी ठ्ठद्गख्ह्य क्ड्डद्यह्वद्ग (समाचार महत्त्व) तो है किन्तु वैचारिक महत्त्व (क्द्बद्गख्ह्य क्ड्डद्यह्वद्ग) तो कुछ भी नहीं। वेद-प्रवचन करते हुए अन्य-अन्य कुरीतियों व बुराइयों के साथ भ्रूण हत्या के दोष व दुष्परिणाम भी जनता को हृदयङ्गम करवाये जा सकते हैं।

यात्रा में बड़े-बड़े ग्रन्थ भी हों परन्तु कुछ ऐसी पुस्तकें व ट्रैक्ट अधिक हों जो हमारे मूलभूत सिद्धान्तों की ठोस जानकारी दें । हमारी इस यात्रा में आर्य हुतात्माओं पर एक भी पुस्तक हमारे पास नहीं थी। मांसाहार, वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ईश्वर की सत्ता व स्वरूप, पुनर्जन्म, नरक क्या? स्वर्ग क्या, पञ्च-महायज्ञ, अग्निहोत्र, पाप, पुण्य, तीर्थ क्या? कर्मफल सिद्धान्त, अंधविश्वास, क्या पाप क्षमा हो सकते हैं? इत्यादि विषयों पर अच्छी-अच्छी लघु पुस्तिकायें हम लेकर जाते तो अधिक लाभ होता तथापि वैदिक पुस्तकालय के पर्याप्त साहित्य की बिक्री हुई। जो बड़े-बड़े ग्रन्थ सपन्न समाजों ने लिए- वे कोई विरला विद्वान् ही पढ़ेगा। मध्यम आकार की पुस्तकें व लघु पुस्तिकायें सब पढ़ते हैं।

जैनियों के जिस विशाल आधुनिकतम पुस्तकालय को हमने देखा उसमें आर्य विद्वानों का सहित्य तो है परन्तु बहुत थोड़ा। आचार्य उदयवीर जी की बहुत सी पुस्तकें उसमें देखकर हम हर्षित हुए। कोई दानी सभा को सहयोग करें तो आर्य विद्वानों की दो तीन सौ उत्तम कृतियाँ वहाँ पहुँचाई जा सकती हैं। पूज्य उपाध्याय जी का सहित्य वहाँ नाम-नाम को ही है। पं. लेखराम जी, देवेन्द्र बाबू जी, हरविलास जी व पं. लक्ष्मण जी लिखित ऋषि-जीवन, ऋषि का पत्र-व्यवहार, पं. इन्द्र जी का कोई उत्तम ग्रन्थ वहाँ नहीं था। स्वामी दर्शनानन्द जी का कुछ साहित्य था परन्तु, उपनिषद् प्रकाश नहीं था। गुजराती में ऋषि का वेद-भाष्य वहाँ पहुँचना चाहिये। अहमदाबाद का समाज यह कार्य जितना शीघ्र हो सके कर दे तो यश पायेगा।

स्वामी नारायण मत के गुरुकुल में सामवेद पर जो समेलन हुआ उसमें डॉ. धर्मवीर जी के विद्वत्तापूर्ण भाषण की वहाँ के प्रमुख स्वामी जी ने भी बहुत प्रशंसा की। परोपकारिणी सभा को ऐसे प्रत्येक समेलन में डॉ. वेदपाल जी आदि किसी विद्वान् को भेजना चाहिये अन्यथा हम सायणवादियों व मूर्तिपूजकों से पिछड़ जायेंगे। हमने यात्रा में यह अनुभव किया कि हिन्दू समाज के तथाकथित नेता हिन्दुओं की कुरीतियों व सामाजिक रोगों के बारे में एक भी शद कहने को तैयार नहीं। ये लोग तुलसी के पौधे भेंट करके उनको आरोपित करके हिन्दू धर्म को बचाना फैलाना चाहते हैं। विधर्मियों के प्रचार को ये लोग क्या रोक सकेंगे? जातिवाद का अजगर देश को निगलने पर तुला बैठा है।

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-151116

भारत की प्रथम धार्मिक व सामाजिक संस्था जिसने हिन्दी को धर्मभाषा के रूप में अपनाकर प्रचार किया।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आर्य समाज की स्थापना गुजरात में जन्में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल, सन्  1875 को मुम्बई नगरी में की थी। आर्यसमाज क्या है? यह एक धार्मिक संस्था है जिसका उद्देश्य धर्म, समाज व राजनीति के क्षेत्र से असत्य को दूर करना व उसके स्थान पर सत्य को स्थापित करना है। क्या धर्म, समाज व राजनीति आदि में असत्य का व्यवहार होता है? इसका उत्तर हां में हैं और हम समझते हैं कि सभी सुबुद्ध बन्धु हमारी इस धारणा व मान्यता से सहमत होंगे। यदि धर्म के क्षेत्र में असत्य की बात करें तो हमें सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान से वार्ता को आरम्भ करना होगा। सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात जब प्रथमवार मनुष्यों के रूप में युवा स्त्री व पुरूषों की उत्पत्ति ईश्वर ने की, तो उन्हें अपने दैनन्दिन व्यवहारों के लिए बोलचाल की भाषा एवं कर्तव्य व अकर्तव्य के ज्ञान की आवश्यकता थी। वह ज्ञान मनुष्यों को प्रथम पीढ़ी में प्रथम दिन ही ईश्वर ने दिया जिससे कि वह अपना समस्त व्यवहार जान सके व उसे कर सके थे। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्योत्पत्ति के प्रथम दिन ही वैदिक धर्म की स्थापना स्वयं परमात्मा ने चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वेद ज्ञान देकर की थी।

 

यह भी निर्विवाद है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक पूरे भूमण्डल पर वेद व वैदिक धर्म ही स्थापित व संचालति व आचरित रहा जो ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर पूर्ण सत्य, युक्तिपूर्ण और तर्कसंगत था। महाभारत युद्ध में हुई जान व माल की भारी क्षति के कारण देश के अध्ययन व अध्यापन का पूरा ढांचा ध्वस्त हो गया। यद्यपि धर्म तो वैदिक धर्म ही रहा परन्तु वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन व अध्यापन की समुचित व्यवस्था न होने के कारण इसमें अज्ञान, अन्धविश्वास वा मिथ्याविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायें-विषमतायें, अनेक पाखण्डों सहित संस्कृति व सभ्यता में भी विकार उत्पन्न होने लगे। अज्ञान के कारण स्वार्थ ने भी शिर उठाया और गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जो हमारे तत्कालीन वेदज्ञान से रहित व अल्पज्ञानी ब्राह्मणों द्वारा संचालित की जाती थी जिसमें उन्होंने अपने लिये सर्वाधिक अधिकार सुरक्षित कर लिये। यहां तक कहा गया कि ब्राह्मण जो कह दे, वह परम प्रमाण Word of God होता है। इसका अर्थ था की रात को यदि वह दिन व दिन को रात कहें, तो वही स्वीकार करना होगा। यह ऐसा ही था कि जैसा कि कुछ मतों में वर्तमान में भी व्यवस्था है कि जिसके अनुसार धर्म में अकल का दखल नहीं है। इस पर भी संसार में सर्वत्र वैदिक धर्म जो अनेक अन्धविश्वासों से ग्रसित था प्रचलित रहा। संसार में वैदिक धर्म के बाद दूसरा मत जो अस्तित्व में आया, उसे पारसी मत के नाम से जाना जाता है। इसके बाद भारत में बौद्धमत व जैनमतों का आविर्भाव हुआ और कालान्तर में भारत से सुदूर देेशों में ईसाईमत व इस्लाममत का प्रादुर्भाव हुआ। इन सभी मतों की भाषा संस्कृत से भिन्न, पारसी, पाली, हिब्रू, अरबी आदि थी। इसके बाद भारत में सिखमत की स्थापना भी हुई जिनका धर्म ग्रन्थ गुरू-ग्रन्थ-साहब गुरूमुखी भाषा में है। इस प्रकार से सन् 1875 तक अस्तित्व में आये किसी भी मत व सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थ की भाषा हिन्दी नहीं थी। महर्षि दयानन्द संसार के इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वैदिक धर्म में हुए विकारों व अन्धविश्वासों आदि के सुधार के लिए युक्तियों व तर्क से समलंकृत वैदिक धर्म के यथार्थ स्वरूप को अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में प्रस्तुत किया जो वर्तमान में आर्यों का धर्मग्रन्थ है। यह पहला धर्मग्रन्थ है जो हिन्दी में है तथा जिसे महर्षि दयानन्द ने आर्यभाषा अर्थात् आर्यों (गुण, कर्म व स्वभाव की दृष्टि से श्रेष्ठ मनुष्यों) की भाषा नाम दिया।

 

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की प्रथम रचना सन् 1874 के उत्तरार्ध में काशी में महर्षि दयानन्द ने की थी। इसका सन् 1883 में नया संशोधित संस्करण तैयार किया गया जिसका प्रकाशन सन् 1884 में हुआ था। यही संस्करण आज आर्यों के धर्मग्रन्थ के रूप में पूरे विश्व में प्रचलित व प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी संख्या में पौराणिक मान्यता प्रधान सनातन धर्म के लोगों ने इसे पढ़ व समझ कर तथा इसकी मान्यताओं से सहमत होकर इसे स्वीकार किया। शायद ही कोई ऐसा मत होगा जिसके अनुयायियों ने वैदिक मत को स्वीकार न किया हो। बहुत से लोग अनेक निजी कारणों से अपने मत की कमियों व खामियों को जानते हुए भी उसे छोड़ कर अन्य स्वमत से श्रेष्ठ मत को स्वीकार नहीं कर पाते परन्तु कुछ ही यह साहस कर पाते हैं। इस दृष्टि से आर्यसमाज द्वारा प्रचारित व प्रशस्त वैदिक मत संसार में अपूर्व है जिसमें समय समय पर सभी मतों के लोग सम्मिलित होते रहे हैं। सत्यार्थप्रकाश धर्मग्रन्थ हिन्दी में होने के कारण महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के सभी अनुयायियों ने तो हिन्दी सीखी ही, इसके साथ ही अन्य मतों के लोगों ने इसके गुण दोष जानने की दृष्टि भी हिन्दी सीखी जिससे एक लाभ यह हुआ कि हिन्दी का प्रचार व प्रसार हुआ। हिन्दी के प्रचार व प्रसार की दृष्टि से ही महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों, मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश, का अंग्रेजी व उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद करने की अनुमति नहीं दी थी जिसका यह प्रभाव हुआ कि देश विदेश में लोगों ने हिन्दी सीखी।  इतना ही नहीं जब महर्षि दयानन्द के जीवन काल में ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजकार्यों में भाषा के प्रयोग के लिये हण्टर कमीशन बनाया तो महर्षि दयानन्द ने हिन्दी को राजकार्यों में प्रथम भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए एक आन्दोलन किया जिसके परिणाम से देश भर में आर्यसमाज के अधिकारी व अनुयायी लोगों से बड़ी संख्या में हस्ताक्षर कराकर मेमोरेण्डम कमीशन को भेजते थे। महर्षि दयानन्द के समय में ही उनकी प्रेरणा से आर्य दर्पण, भारत सुदशा प्रवर्तक आदि अनेक हिन्दी पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया गया था जिससे हिन्दी का प्रचार देश भर में हुआ। यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द से प्रभावित उदयपुर, शाहपुरा व जोधपुर आदि रिसायतों के राजाओं ने उनकी प्रेरणा से अपने यहां हिन्दी को राजकार्यों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी। महर्षि दयानन्द ने अपना समस्त पत्रव्यवहार हिन्दी में करके उस युग में एक महान क्रान्ति को जन्म दिया था। हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्वामीजी के काशी के सत्संगों में सम्मिलित हुए थे और उन्होंने उनकी प्रशंसा की है। यह संभव है कि महर्षि दयानंद के विचारों व साहित्य का प्रभाव भारतेंदु हरिश्चंद्र जी पर पड़ा हो और वह उनके हिंदी के युग पुरुष के निर्माण में सहायक हुए हो। महर्षि दयानन्द के परलोक गमन के बाद आर्य समाज ने गुरूकुल व दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज खोले जिनमें हिन्दी को मुख्य व प्रमुख भाषा के रूप में स्थान मिला जो हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सहायक रहा। इसके साथ आर्य समाज के हिन्दी प्रेम के कारण आर्य समाज में हिन्दी के अनेक विद्वान, वेदभाष्यकार, कवि, पत्रकार, प्रोफेसर, अध्यापक आदि भी उत्पन्न हुए जिन्होंने साहित्य सृजन कर व अन्यों को शिक्षित कर हिन्दी के स्वरूप को निखारने व उसको घर घर तक पहुंचाने में बहुत योगदान किया है। आर्यसमाजों के लिए अपना समस्त कार्य हिन्दी में करना अनिवार्य होता था, रविवार के सत्संगों में विद्वानों के सभी उपदेश भी हिन्दी में ही होते थे। यह भी महत्वपूर्ण है कि महर्षि दयानन्द ने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा हिन्दी में लिखी जिसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा होने का गौरव प्राप्त है। इस प्रकार से आर्य समाज की छत्र छाया में देश में हिन्दी ने अपना नया प्रभावशाली स्वरूप प्राप्त करने के साथ आर्य समाज के विद्वानों ने प्रचुर हिन्दी साहित्य भी दिया है। इस दृष्टि से कोई भी धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक संस्था आर्यसमाज से समानता नहीं रखती अर्थात् आर्यसमाज का हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सर्वोपरि योगदान रहा।

 

हम आज हिन्दी दिवस के अवसर पर गुजरात में जन्मे महर्षि दयानन्द जिनकी मातृभाषा गुजराती थी और उनके द्वारा स्थापित धार्मिक और सामाजिक संस्था आर्यसमाज के हिन्दी भाषा के लिए किए गए योगदान को स्मरण कर दोनों का वन्दन करते हैं और हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में सभी हिन्दी प्रेमियों को बधाई देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001

कैसा स्वतंत्रता दिवस? – धर्मवीर आर्य,

पराधीनता एक ऐसा अभिशाप है, जिसमें मनुष्य अपनी उन्नति बिल्कुल भी नहीं कर सकता क्योंकि पराधीनता में मनुष्य के कार्य भी पराधीन होते हैं। मनुष्य के स्वतन्त्र होने पर वह अपनी उन्नति के तरीके स्वयं चुनता है, और शीघ्रातिशीघ्र अपनी यथेच्छ उन्नति कर लेता है। उसी प्रकार स्वतन्त्र राष्ट्र भी अपनी उन्नति हेतु अपनी कार्यप्रणाली का चयन स्वयं करता है, तथा शीघ्रता से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। भारत देश को स्वतन्त्र हुए 68 वाँ वर्ष चल रहा है। फिर भी यह देश अन्यान्यदेशों से उन्नति के पथ पर इतना पीछे क्यों है? यह जानने के लिए हमें यह जानना आवश्यक होगा कि स्वतन्त्र राष्ट्र किसे कहते हैं?

जिस देश की अपनी संस्कृति, अपनी सयता, अपनी परपराएँ, अपनी भाषा तथा अपना इतिहास, और अपना एक संविधान हो उस राष्ट्र को स्वतन्त्र राष्ट्र कहते हैं।

क्या भारत ने 15 अगस्त 1947 के बाद अपनी संस्कृति तथा सभ्यता  का पालन किया है?

क्या भारत ने 15 अगस्त 1947 के बाद अपनी भाषा हिन्दी को सर्वाधिकार प्रदान किये?

क्या भारत ने 15 अगस्त 1947 के बाद अपना स्वतन्त्र पूर्ण संविधान बनाया?

आप स्वयं विचार कर सकते हैं कि 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रजों के पैर भारत में डगमगा रहे थे। क्योंकि उस समय सारा भारतीय जन-समूह अंग्रेजी सत्ता को मूल से उखाड़ फेंकना चाहता था। अतः भारतीय जनता के विद्रोह की ज्वाला को शान्त करने केलिए 28 दिसबर 1885 में ए.ओ.ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। वस्तुतः ए.ओ.ह्यूम का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या थे? यह उनके द्वारा अपने मित्र को लिखे पत्र से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने लिखा, ‘यह योजना (कांग्रेस की स्थापना) मैंने ही अपने कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न की है, जो एक और प्रयत्न बढ़ती हुई शक्ति के निष्कासन के लिए एक रक्षानली के रूप में बनाई गई है, जो राजनीतिक भय को निकालने के लिए सेफ्टी  वाल्व अभयदीप का कार्य करे।’ अर्थात् कांग्रेस की स्थापना के पीछे ह्यूम का वास्तविक उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था। ह्यूम के जीवनी लेखक वैडरबर्न ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि, ‘‘भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक ‘अभय दीप’ की आवश्यकता है और कांग्रेस से बढ़कर अभयदीप दूसरी कोई चीज नहीं हो सकती।’’

लाला लाजपत राय ने ‘यंग इण्डिया’ में लिखा है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मुय उद्देश्य यह था कि हम ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करें और उसको छिन्न-भिन्न होने से बचायें।

मूलतः सोचा जाये तो निष्कर्ष यह निकलता है कि कांग्रेस की स्थापना भारतीयों के लिए नहीं, अपितु ब्रिटिश सरकार के लिए ही की गई थी। और उसी कांग्रेस ने तथाकथित आजादी के बाद भी लगभग 60 साल तक भारत पर शासन किया है। मेरे कहने का सीधा-सा अभिप्राय यह है कि ‘भारत 15 अगस्त 1947 तक प्रत्यक्ष रूप से गुलाम था, और 15 अगस्त 1947 के बाद अप्रत्यक्ष रूप से गुलाम ही था।’

एक अमरीकी पत्रकार श्री हैनरी सेंडर भारत में भ्रमण के लिए आये। भारत में भ्रमण करते हुए भारतीयों की स्थिति को देाकर जो प्रतिक्रिया उन पर हुई, वह अमरीका में जाकर वहाँ के प्रसिद्ध पत्र ‘प्रौग्रैसिव’ में उन्होंने लिखी। उनके लेख का अपेक्षित भाग इस प्रकार है- ‘‘अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में 30 वर्षों में झण्डे के सिवाय और कोई परिवर्तन नहीं आया है’’। आप स्वयं भी इस बात को निम्न बिन्दुओं से जान सकते हैं-

  1. 1. आजादी के बाद भी, यदि महान् क्रान्तिकारी देशभक्त सुभाष जी मिलते तो उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाता।
  2. आजादी के बाद बिना निर्वाचित हुए ही नेहरु जी को प्रधानमंत्री क्यों बनाया गया? यह उन कुटिल अंग्रेजों की एक चाल थी।
  3. 1947 के बाद लगभग 60 साल तक भारत पर कांग्रेस की सत्ता रही है। जिसका स्थापन-कर्त्ता एक इंग्लैण्ड निवासी ही था, सोचिए क्या कोई शत्रु भी, हमारे हित के लिए पार्टी की स्थापना करेगा? बिल्कुल नहीं।
  4. 4. 1947 के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा को जितना बढ़ावा मिला है तथा अंग्रेजी भाषा का प्रचार हुआ, उतना तो अंग्रेज भारत में 200 साल रहकर भी नहीं कर पाये।
  5. 5. 1947 के बाद आजादी की ज्वाला में बलिदान कर देने वाले पवित्र देशाक्तों को समान देने के बजाय उपेक्षित और अपमानित ही किया जाता रहा है। क्या उनके माता-पिता को कोई पूछता भी है?
  6. 6. भारत का संविधान मूल रूप से आज भी अंग्रेजी भाषा में ही है।
  7. 7. भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में कोई भी अपनी राय नहीं दे सकता है।
  8. 8. यदि कोई पाकिस्तान का व्यक्ति कश्मीर की युवती से शादी कर लेता है तो उसे भारत की नागरिकता स्वयं प्राप्त हो जाती है।
  9. 9. कोई अन्य राज्य का प्रवासी कश्मीर में जाकर नहीं बस सकता है। क्या इसी तरह हम स्वतन्त्र हैं?
  10. 10. जितनी गोहत्या के कत्लखाने आजादी से पहले थे, उनसे चौगुने गो-हत्या के कत्लखाने आज हैं।
  11. 11. आज आपको अपनी मां, बेटी, बहन को घर पर अकेला छोड़ने में भी दस बार सोचना पड़ता है, और अन्त में कहना पड़ता है कि दरवाजे बन्द रखना।
  12. 12. कश्मीर भारत का होता हुआ भी वहाँ पर हम भारत का झंडा तिरंगा नहीं फहरा सकते हैं।

आखिर क्यों है ऐसा? क्या हम 1947 के दिन पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हुए थे। आप स्वयं सोचिए कि आजादी के बाद 1947 में बिना निर्वाचित हुए ही नेहरु को प्रधानमन्त्री पद सौंपा गया था। क्योंकि नेहरु और अंग्रेजों की मिली-भगत अवश्य रही होगी, इसीलिए तो नेहरु ने स्वयं उस महान् देशभक्त क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चन्द्रबोस को प्रधानमन्त्री पद के बदले में ब्रिटिश सरकार को सौंपने की शर्त मानी थी। परन्तु यह बात जन-समूह में थोड़े परिवर्तन के साथ आयी कि अंग्रेजों ने आजादी देने के बदले में नेताजी को मिलने के बाद इंग्लैण्ड को सौंपने का आदेश दिया है।

कोई कहे या न कहे मैं तो यही कहूँगा कि भारत का वास्तविक स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त 1947 होने के बजाय 18 मई 2014 के दिन होना चाहिए। इसी बात को लंदन के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र में इन शदों में लिखा गया है-

Today, 18 May, will go down in history as the day when Britain finally left India. Narendra Modi’s victory in the elections marks the end of a long era in which the structures of power did not differ greatly from those through which Britain ruled the sub continent. India under the congress party was in many ways a continuation of the British Raj by other means.

-The Gaurdian, Editorial, Sunday 18 May 2014 London

पाठकों की सुविधा हेतु, उपरोक्त अंग्रेजी गद्यांश का हिन्दी अनुवाद नीचे दिया गया है-

आज 18 मई 2014 को इतिहास में वो दिन समझा जा सकता है, जब अंग्रेजों ने अन्ततः भारत छोड़ दिया। निर्वाचनों में नरेन्द्र मोदी की विजय एक लबे युग के अन्त का लक्षण है, एक ऐसा युग, जिसमें सत्ता का ढाँचा ब्रिटिश लोगों के सत्ता के उस ढांचे से बहुत अलग नहीं था, जिससे वे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन करते थे। कांग्रेस दल द्वारा प्रशासित भारत अनेक अर्थों में प्रकार-भेद से ब्रिटिश राज से पृथक् नहीं था।

-The Gaurdian, Editorial, Sunday 18 May 2014 London

– अकलौनी, भिण्ड, मध्यप्रदेश

भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य – कर्मवीर

पिछले अंक का शेष भाग…….

20 मई को हम लोग आचार्य नन्दकिशोर जी की प्रेरणा से एक विशेष स्थान पुराना नगर साखूँ गये, जो काठमाण्डू से लगभग 20 किमी. की दूरी पर था। यह एक पुराना व विशाल नगर था, तीन-तीन, चार-चार मंजिल पुरानी इमारतें यहाँ पर रही होंगी, यह नेपाल का एक पुराना व सपन्न बाजार रहा होगा। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ का दृश्य हृदय दहला देने वाला था, लगभग 90 मकान ध्वस्त थे, पूरा नगर एक मलबे के ढेर में बदल चुका था, जो कुछ भवन बचे थे- उनको भी सेना के द्वारा गिराया जा रहा था क्योंकि बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जानें से वे बड़े भयंकर विशाल राक्षस की तरह मुहँ खोले प्रतीत होती थी, न जाने कि स वक्त किसको निगल जाए। अतः भवनों को भी गिराया जा रहा था। नेपाली सेना के अतिरिक्त, रुस की सेना भी वहाँ दिखाई दी, अमेरिका का सामाजिक संगठन भी वहाँ कार्य कर रहा था, चीन इत्यादि देशों के चिकित्सक चिकित्सा कर रहे थे तो चीनी नाई पीडितों के बाल काटते भी नजर आये। एक दृश्य बडा करुणामय दिखाई देता था, उन पूर्ण रूप से ढह चुक घरों में से उनके मालिक कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन या अन्य वस्तुएँ इकट्ठी करते दिखाई दिए। इस आशा के साथ इन वस्तुओं को निकाल रहे थे कि शाायद इस संकट की घड़ी में इन वस्तुओं से ही कुछ सहायता मिल जाएगी।

पाखण्ड का रूप कितना वीभत्स एवं विकराल हो सकता है, यह जानने हेतु 21 मई को हम लोग प्रसिद्ध दक्षिण काली का मन्दिर देखने गये, जो काठमाण्डू से लगभग 30 किमी. की दूरी पर मनमोहक हरी-भरी पर्वत चोटियों के बीच स्थित था। पास ही से पर्वतों से निकल कर कल-कल करती सरिता बहती थी, यहाँ हजारों लोग प्रतिदिन आते थे, तीन-तीन रास्तों से दर्शनार्थियों क ी पंक्ति लगती थी परन्तु वास्तव में ये कोई उपासना स्थल नहीं था, ये तो एक प्रकार का धार्मिक बूचड़खाना था, जहाँ पर सुबह से शाम तक सैंकड़ों निरीह-निर्बल पशु-पक्षियों, बकरे-मुर्गे इत्यादि प्राणियों का संहार (हत्या) धर्म के नाम पर किया जाता है। भूकप के कारण सब सुनसान था। दुकानें सब बन्द थी परन्तु बंद दुकानों के भी अवलोकन से ये ज्ञात हुआ कि फूल-प्रसाद की दुकानें बाद में थी सबसे पहले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर बड़े-बड़े पिजरे रखे हुए थे, जिनमें मुर्गों-बकरों को बेचने के लिए बन्द रखा जाता था, मन्दिर में बलि स्थान ठीक काली माता मूर्ति के पीछे था, यहाँ इनके गर्दन काटने के बाद सामने एक दूसरा स्थान था, जहाँ पर बोर्ड लगा था मुर्गा के माँस के टुक ड़े करने के लिए 50/- तथा बकरे के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करने के 300/-रूपये। माँस कटता रहता है तथा पानी की नलियों द्वारा उस रक्त को उस स्वच्छ जल धारा में बहा दिया जाता है ये है हिन्दू धर्म का स्वरूप….। एक विशेष घटना और इसी प्रकार की है नेपाल के तराई के क्षेत्र में बिहार की सीमा से लगता हुआ एक स्थान है, जहाँ पर एक गढ़ी माता का मन्दिर है, इस स्थान पर चार वर्ष में एक विशेष मेला लगता है, जहाँ पर कई एकड़ भूमि में कई लाख पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है। इस वर्ष भी लगभग 5 लाख कटड़े-भैंसों की बलि दी गई। 5 लाा की संया तब रही जब भारत सरकार ने सीमा पर प्रतिबन्ध लगाया कि इस बलि के लिए भारत से पशुओं को न जाने दिया जाए। क्योंकि बलि के लिए अधिकांश पशु बिहार व उत्तरप्रदेश से जाता था और यदि प्रतिबन्ध न रहता तो कल्पना कर सकते थे कि बिना प्रतिबन्ध के कितना पशु धर्म के नाम पर कटता होगा। मैं तबसे एक बात अपने व्यायान इत्यादि में कहा करता हूँ कि दुनियाँ में जो गलत कार्य (पाप) सामान्य स्थिति में नहीं कर सकते, वे सब धर्म की आड़ में होते हैं। भांग पीने वाला भोले बाबा की जय बोलकर, शराब पीने वाला काली या ौरव बाबा की, लीला रचाने वाले कृष्ण-गोपियो की जय बोलकर इन अनैतिक कृत्यों को करते हैं। जब सुनामी लहरें आयी थी, उस समय भू-गर्भ वैज्ञानिकों के पत्र-पत्रिकाओं में लेख आये थे कि ये इस तरह की जो प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, उनमें ये प्रतिदिन होने वाली निरीह पशुओं की हत्या के कारण जो उनकेाय के कारण निकलने वाली चीत्कार, करुणामयी रुदन के द्वारा जो कपन पैदा होता है, वह भी प्रकृति में असन्तुलन पैदा करता है।

त्रासदी से पीड़ित और दुर्गम स्थानों पर कठिनाइयाँ झेल रहे लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाना अपने आप में एक अति कठिन काम था। सभा के आदेश से हमने  वही कार्य करने की ठान ली। 23 मई को हम लोग प्रातः 3 बजे जग गये क्योंकि चार (4) बजे हमको राहत वितरण हेतु अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। हम लोग शौचादि से निवृत्त होकर बिना नहाएँ ही क्यों उस दिन पानी बहुत थोडा था, ठीक चार बजे जहाँ पर गाड़ी जानी थी, वहाँ पहुँच गये। लगभग 4:30 बजे प्राप्तः मैं (कर्मवीर), आचार्य नन्दकिशोर जी, ब्र. प्रभाकर जी, ब्र. सोमेश जी, पं. कमला कान्त आत्रेय जी, पं. माधव जी (प्राध्यापक), पं. तारा जी ये दोनों लोग गुरुकुल कांगडी के स्नातक हैं तथा राजकुमार जी आदि अन्य एक दो व्यक्ति बस में सवार होकर चल दिए। रास्ते के लिए कुछ सूखी खाद्य सामग्री साथ ले राी थी। लगभग 7:30 बजे एक जगह मार्ग में ही रुक कर प्रातःराश किया फिर शीघ्र ही चल दिये, लगभग 11:30 बजे सिंगेटी बाजार पहुँचे, रास्ता बड़ा ही दुर्गम था, लगभग 100 किमी. का तो रास्ता ऐसा था जिसमें केवल अभी पत्थर डले थे सड़क पक्की नहीं बनी थी, इस पर चलते रहे सिंगेटी पहुँचने से काफी पहले ही सड़क के दोनों ओर के मकान प्रायः ध्वस्त पड़े दिखाई देते थे। सिंगेटी पहुँचे, यहाँ भी यही हाल था। लगभग पूरा नगर ध्वस्त था, कोई भी मकान-दुकान ठीक नहीं बचा था, वहाँ पर कृष्ण जी आर्य पहले से उपस्थित थे। उन्होंने एक दुकान से सामान खरीद कर एक ट्रक गाडी में रखवाकर उस गाँव में भेज दिया था। जिस दुकान से सामान खरीदा था वो काफी टूटी हुई थी। किसी प्रकार से कुछ सामान सुरक्षित था। उस दुकानदार का भुगतान कर हम चल दिए। इसी स्थान पर एक होटल था, भूकप से पूर्व यहाँ बहुत पर्यटक आते थे। होटल में लगभग 35 लोग रुके हुए थे, होटल पहाड़ की एकदम तलहटी में था, पहाड़ से भूकप के कारण विशाल पत्थर गिरे, सारा होटल पत्थरों के नीचे दब गया, अभी तक मलबा भी नहीं हटाया गया था, सभवतः सारी लाशें उसी के अन्दर दबी पड़ी होंगी। भूकप से जितनी हानि नेपाल में हुई है, उसकी भरपाई तो विश्व के सपन्न राष्ट्र मिलकर करें तब कुछ भरपाई हो सकती है। परोपकारिणी सभा की जागरूकता इस बात से स्पष्ट होती है कि अपनी सामर्थ्यानुसार सहायता बिना विलब किये पहुँचाई, बड़ी संया में लोगों तक पहुँचाई और तत्परता के साथ पहुँचाई।

सिंगोटी बाजार से जहाँ हमें जाना था, वह गाँव इस स्थान से 7 किमी. की ऊँची पहाड़ी पर था। रास्ता कच्चा व बड़ा खतरनाक था। जब हमारी गाड़ी उस पहाड़ पर चढ़ रही थी तो कई बार ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद यह यात्रा जीवन की अन्तिम यात्रा हो। इस चढ़ाई की कठिनाई का पता इस बात से भी लगाया जात सकता है कि 7 किमी. के इस दुर्गम रास्ते से सामान पहुँचाने के ट्रक वाले ने 8000/- नेपाली रूपये (भारतीय 5 हजार) लिए। वास्तव में यह पाँच हजार रूपये 7 किमी. के नहीं एक बड़े जोखिम (खतरे) के थे। हम लोग पहाड़ पर लामीडाँडा नामक गाँव पहुँचे, वहाँ पर बहुत लोग उपस्थित थे, सब लोग हमको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सब लोग हमारी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परिवारों को पहले से कूपन वितरित कर दिये गये थे। परिवार का एक सदस्य कूपन लेकर आता तथा धन्यवाद देकर सामान लेकर चला जाता। यहाँ पर कोई सज्जन महानुभाव हमसे कई दिन पहले पहुँचे थे, उन्होंने भी सभी परिवारों को 7-7 किग्रा. चावल वितरित किये थे। कृष्ण जी भी इसी गाँव के रहने वाले थे। अपने घर पर ही भोजन की व्यवस्था कर रखी थी, हम सभी ने भोजन किया, बड़ा स्वादिष्ट भोजन घर की माताओं ने बड़े प्रेम से कराया। इसी गाँव के लगभग सभी घर गिर चुके थे। ग्रामवासी या तो टैंटों में या फिर गिरे हुए मकानों की टीन इत्यादि को इकट्ठी कर पेडों से लकडी काट अस्थाई घर बनाकर रह रहे थे।

यहाँ से लगभग तीन बजे हम लोग काठमाण्डू के लिए चले, कुछ दूर ही चले कि गाड़ी खराब हो गई। सब लोग तो गाड़ी ठीक होने की प्रतीक्षा करते रहे, मैं प्रभाकर जी, सोमेश जी पैदल ही पहाड़ी रास्ते से जल्दी-जल्दी उतरकर नीचे बहती कोसी नदी में स्नान किया, तब तक गाड़ी भी ठीक होकर आ गई, हम लोग देर रात 11 बजे काठमाण्डू आर्य समाज पहुँच गये।

24 मई की सांय 7 बजे हम लोग अपने देश की तरफ चले प्रातः 5 बजे हम सोनौली भारत नेपाल की सीमा पहुँचे, वहाँ से एक जीप पकड़कर गोरखपुर पहुँचे, वहाँ से ब्र. सोमेश जी रेलगाडी से मैनपुरी के लिए चले गये। हम लोग बस पकड़कर लखनऊ पहुँचे। आचार्य नन्दकिशोर जी ने यहाँ से दिल्ली के लिए तथा ब्र. प्रभाकर जी ने बिजनौर के लिए बस पकड़ी तथा मैंने लखनऊ से जयपुर के लिए बस पकड़ी। कानपुर पहुँचकर जाम में बस फँस गई, वहाँ से चले इटावा में रात्री में बस खराब हो गई, वहाँ से चले आगे चलकर आगरा से आगे बस का टायर पंचर हो गया, यहाँ से आगे चले पता चला कि गुर्जर आन्दोलन के कारण आगरा जयपुर हाईवे बन्द कर दिया गया। गर्मी भी त्वचा जला देने वाली थी, इस प्रकार काठमाण्डू से अजमेर बस तक का सफर 2 दिन, दो रात (48 घन्टे) में तय किया। गर्मी के कारण कष्ट भी बहुत हुआ। पर मन में संतोष था कि हाँ कुछ अच्छा करते हुए द्वन्द्वों को सहन करना ही तप है, जो मानव जीवन की उन्नति का कारण है।

इसी पूरी यात्रा से एक विशेष अनुभव हुआ कि हमें कभी भी किसी प्रकार का धन-बल, शारीरिक बल, जल बल, रूप आदि पर कोई घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि न जाने किस वक्त इस परिवर्तनशील संसार में क्या घटना घट जाए। क्षणों की आपदा करोड़पतियों को सड़क पर खड़ा कर देती है। भूख-प्यास के मारे कटोरा हाथ में आ जाता है। शारीरिक बलवान बैसााियों पर आ जाते हैं, रूपवान ऐसे कुरूप हो जाते हैं कि उनकी तरफ कोई देखना तक नहीं चाहता। परमात्मा से प्रतिक्षण यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर हमें शक्ति-भक्ति-सामर्थ्य प्रदान करे कि यह शरीर सदा दूसरों की सेवा कर सके। इति।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

स्वामी दयानन्द और हिन्दी’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारतवर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने पराधीन भारत में सबसे पहले राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर मन, वचन व कर्म से इसका प्रचार-प्रसार किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि हिन्दी शीघ्र लोकप्रिय हो गई। यह ज्ञातव्य है कि हिन्दी को स्वामी दयानन्द जी ने आर्यभाषा का नाम दिया था। स्वतन्त्र भारत में 14 सितम्बर 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया जाना भी स्वामी दयानन्द के इससे 77 वर्ष पूर्व आरम्भ किए गये कार्यों का ही सुपरिणाम था। प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर हमारे राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलुओं पर स्वामी दयानन्द का अक्षुण प्रभाव स्वीकार करते हैं और हिन्दी पर साम्राज्यवादी होने के आरोपों को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि यदि साम्राज्यवाद शब्द का हिन्दी वालों पर कुछ प्रभाव है भी, तो उसका सारा दोष अहिन्दी भाषियों का है। इन अहिन्दीभाषियों का अग्रणीय वह स्वामी दयानन्द को मानते हैं और लिखते हैं कि इसके लिए उन्हें प्रेरित भी किसी हिन्दी भाषी ने नहीं अपितु एक बंगाली सज्जन श्री केशवचन्द्र सेन ने किया था।

 

स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1825 में गुजरात राज्य के राजकोट जनपद में होने के कारण गुजराती उनकी स्वाभाविक रूप से मातृभाषा थी। उनका अध्ययन-अध्यापन संस्कृत में हुआ था, इसी कारण वह संस्कृत में ही वार्तालाप, व्याख्यान, लेखन, शास्त्रार्थ तथा शंका-समाधान आदि किया करते थे। 16 दिसम्बर, 1872 को स्वामी जी वैदिक मान्यताओं के प्रचारार्थ भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे थे और वहां उन्होंने अनेक सभाओं में व्याख्यान दिये। ऐसी ही एक सभा में स्वामी दयानन्द के संस्कृत भाषण का बंगला में अनुवाद गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेश चन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। अनुवाद ने अनेक स्थानों पर स्वामी जी के व्याख्यान को अनुदित न कर उसमें अपनी विपरीत मान्यताओं को श्री न्यायरत्न ने प्रकट किया जिससे संस्कृत कालेज के श्रोताओं ने उनका विरोघ किया।  विरोध के कारण श्री न्यायरत्न बीच में ही सभा छोड़कर चले गये थे। बाद में स्वामी दयानन्द जी को श्री केशवचन्द्र सेन ने सुझाव दिया कि वह संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को अपनायें। स्वामी दयानन्द जी ने तत्काल यह सुझाव स्वीकार कर लिया। यह दिन हिन्दी के इतिहास की एक प्रमुख घटना थी कि जब एक 47 वर्षीय गुजराती मातृभाषा के संस्कृत के विश्वविख्यात वैदिक विद्वान स्वामी दयानन्द ने तत्काल हिन्दी को अपना लिया। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में अनुपलब्ध है। इसके पश्चात स्वामी दयानन्द जी ने जो प्रवचन किए उनमें वह हिन्दी का प्रयोग करने लगे।

 

सत्यार्थ प्रकाश स्वामी जी की विश्व प्रसिद्ध रचना और पूर्ण वैज्ञानिक अर्थात् तर्क, युक्ति व प्रमाणयुक्त धर्म ग्रन्थ है जो देश-विदेश में विगत 141 वर्षों से उत्सुकता एवं श्रद्धा से पढ़ा जाता है। फरवरी, 1872 में हिन्दी को अपने व्याख्यानों व ग्रन्थों के लेखन की भाषा के रूप में स्वीकार करने के लगभग 2 वर्ष पश्चात ही स्वामी जी ने 2 जून 1874 को उदयपुर में इस सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के प्रथम आदिम सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन आरम्भ किया और लगभग 3 महीनों में पूरा कर डाला। श्री विष्णु प्रभाकर इतने अल्प समय में स्वामी जी द्वारा हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश जैसा उच्च कोटि का ग्रन्थ लिखने पर इसे आश्चर्यजनक घटना मानते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के पश्चात स्वामी जी ने अनेक ग्रन्थ लिखे जो सभी हिन्दी में हैं। उनके ग्रन्थ उनके जीवन काल में ही देश की सीमा पार कर विदेशों में भी लोकप्रिय हुए। विश्व विख्यात विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द की पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से एवं अन्त स्वामी दयानन्द जी की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर होता है। प्रो. मैक्समूलर की स्वामी दयान्द को यह प्रशस्ति उनके वेद विषयक ज्ञान, उनके कार्यों, वेदों के प्रचार-प्रसार के प्रति योगदान एवं उनके गौरव के अनुरूप है। स्वामी दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों को इस बात का गौरव प्राप्त है कि धर्म, दर्शन एवं संस्कृति जैसे क्लिष्ट व विशिष्ट विषय को सर्वप्रथम उनके द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत कर उसे सर्व जन सुलभ किया गया जबकि इससे पूर्व इस पर संस्कृत निष्णात ब्राह्मण वर्ग का ही एकाधिकार था जिसमें इन्हें संकीर्ण एवं संकुचित कर दिया था और वेदों का लाभ जनसाधारण को नहीं मिल सका जिसके वह अधिकारी थे।

 

थियोसोफिकल सोसायटी की नेत्री मैडम बैलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द से उनके हिन्दी में लिखित ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी तो स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें 31 जुलाई, 1879 को विस्तृत पत्र लिख कर अनुवाद से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया। स्वामी जी ने लिखा कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा। हिन्दी के इतिहास में शायद कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने अपनी हिन्दी पुस्तकों का अनुवाद इसलिए नहीं होने दिया जिससे अनुदित पुस्तक के पाठक हिन्दी सीखने से विरत होकर हिन्दी प्रसार में बाधक बनेंगे।

 

हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय पंजाब के एक श्रद्धालु भक्त द्वारा स्वामी जी से उनकी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर उन्होंने आवेशपूर्ण शब्दों में कहा था कि अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। देवनागरी के अक्षर सरल होने से थोड़े ही दिनों में सीखे जा सकते हैं। हिन्दी भाषा भी सरल होने से सीखी जा सकती है। हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? श्रोताओं को सम्बोधित कर उन्होंने कहा, ‘‘आप तो मुझे अनुवाद की सम्मति देते हैं परन्तु दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक देवनागरी अक्षरों का प्रचार होगा। इस स्वर्णिम स्वप्न के द्रष्टा स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में एक स्थान पर लिखा कि आर्यावर्त्त (भारत वर्ष का प्राचीन नाम) भर में भाषा का एक्य सम्पादन करने के लिए ही उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों को आर्य भाषा (हिन्दी) में लिखा एवं प्रकाशित किया है। अनुवाद के सम्बन्ध में अपने हृदय में हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण प्रेम को प्रकट करते हुए वह कहते हैं, ‘‘जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी, वह इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे। यही नहीं आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए उन्होंने हिन्दी सीखना अनिवार्य किया था। भारत वर्ष की तत्कालीन अन्य संस्थाओं में हम ऐसी कोई संस्था नहीं पाते जहां एकमात्र हिन्दी के प्रयोग की बाध्यता हो।

 

सन् 1882 में ब्रिटिश सरकार ने डा. हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन की स्थापना कर उससे राजकार्य के लिए उपयुक्त भाषा की सिफारिश करने को कहा। यह आयोग हण्टर कमीशन के नाम से जाना गया। यद्यपि उन दिनों सरकारी कामकाज में उर्दू-फारसी एवं अंग्रेजी का प्रयोग होता था परन्तु स्वामी दयानन्द के सन् 1872 से 1882 तक व्याख्यानों, ग्रन्थों, शास्त्रार्थों तथा आर्य समाजों द्वारा वेद प्रचार एवं उसके अनुयायियों की हिन्दी निष्ठा से हिन्दी भी सर्वत्र लोकप्रिय हो गई थी। इस हण्टर कमीशन के माध्यम से हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिलाने के लिए स्वामी जी ने देश की सभी आर्य समाजों को पत्र लिखकर बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन इण्टर कमीशन को भेजने की प्रेरणा की और जहां से ज्ञापन नहीं भेजे गये उन्हें स्मरण पत्र भेज कर सावधान और पुनः प्रेरित किया। आर्य समाज फर्रूखाबाद के स्तम्भ बाबू दुर्गादास को भेजे पत्र में स्वामी जी ने लिखा, ‘‘यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूके यह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ (अर्थात् हिन्दी राजभाषा बना दी गई) तो आशा है, मुख्य सुधार की नींव पड़ जावेगी। स्वामी जी की प्रेरणा के परिणामस्वरुप देश के कोने-कोने से आयोग को बड़ी संख्या में लोगों ने हस्ताक्षर कराकर ज्ञापन भेजे। कानपुर से हण्टर कमीशन को दो सौ मैमोरियल भेज गए जिन पर दो लाख लोगों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर किए थे। हिन्दी को गौरव प्रदान करने के लिए स्वामी दयानन्द द्वारा किया गया यह कार्य भी इतिहास की अन्यतम घटना है। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से जिन प्रमुख लोगों ने हिन्दी सीखी उनमें जहां अनेक रियासतों के राज परिवारों के सदस्य हैं वहीं कर्नल एच. ओ. अल्काट आदि विदेशी महानुभाव भी हैं जो इंग्लैण्ड में स्वामी जी की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने भारत आये थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शाहपुरा, उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक स्वतन्त्र रियासतों के महाराजा स्वामी दयानन्द के अनुयायी थे और स्वामी जी की प्रेरणा पर उन्होंने अपनी रियासतों में हिन्दी को राज भाषा का दर्जा दिया था।

 

स्वामी दयानन्द संस्कृत व हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के जानने व पढ़ने के पक्षधर भी थे, विरोधी किसी भाषा के नहीं थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि जब पुत्र-पुत्रियों की आयु पांच वर्ष हो जाये तो उन्हें देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें, अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। एक अन्य प्रकरण में आदिम सत्यार्थ प्रकाश में मूर्तिपूजा के इतिहास से परिचय कराने के साथ इस मूर्तिपूजा से आयी गुलामी के प्रसंग में अन्यदेशीय भाषाओं के अध्ययन के समर्थन में उन्होंने विस्तार से लिखा है। यह पूरा प्रसंग इसकी महत्ता के कारण प्रस्तुत है। वह लिखते है कि वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक (हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं ने) बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी मूर्तिपूजक सनातनी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह किसी जैन मन्दिर में जाने से बच सकता हो, तो भी जैन के मन्दिर में न जायें किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे (अर्थात् जैन मन्दिर में जाने से) अच्छा है, ऐसे निन्दा के श्लोक बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा पढ़ने में अथवा कोई देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का उपकार होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही पुरुष को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के सब देश भाषायें होती वा बनती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं कर सकेगा। तथा महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। तथा राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आए थे। उनका परस्पर अनेक देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के प्रजाजन जाते थे और वहां के इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है। विश्व की सभी भाषाओं के अध्ययन के पक्षधर स्वामी दयानन्द देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी व संस्कृत की भांति देवनागरी लिपि में लिखे जाने के समर्थक थे जो राष्ट्रीय एकता की पूरक होती। उन्होंने एक प्रसंग में यह भी कहा था कि दयानन्द की आंखे वह दिन देखना चाहती हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश में चहुंओर देवनागरी अक्षरों का प्रचार प्रयोग हो, इसका उल्लेख पूर्व भी कर चुके हैं। अपने जीवन काल में स्वामी ने हिन्दी पत्रकारिता को भी नई दिशा दी। आर्य दर्पण (शाहजहांपुर: 1878), आर्य समाचार (मेरठ: 1878), भारत सुदशा प्रवर्तक (फर्रूखाबाद: 1879), देश हितैषी (अजमेर: 1882) आदि अनेक हिन्दी पत्र आपकी प्रेरणा से प्रकाशित हुए एवं पत्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।

 

स्वामी दयानन्द ने हिन्दी में जो पत्रव्यवहार किया वह भी संख्या की दृष्टि से किसी एक धार्मिक विद्वान व नेता द्वारा किए गए पत्रव्यवहार में आज भी सर्वाधिक है। स्वामी जी के पत्र व्यवहार की खोज, उनकी उपलब्धि एवं सम्पादन कार्य में रक्तसाक्षी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, रिसर्च स्कालर पं. भगवद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक एवं श्री मामचन्द जी का विशेष योगदान रहा। शायद ही स्वामी दयानन्द से पूर्व किसी धार्मिक नेता के पत्रों की ऐसी खोज कर उन्हें क्रमवार सम्पादित कर पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया हो और जीवन चरित्र आदि के सम्पादन में इन पत्रों से सहायता ली गई हो। स्वामी जी का समस्त पत्रव्यवहार चार खण्डों में पं. युधिष्ठिर मीमांसक के सम्पादकत्व में प्रकाशित है जो वैदिक साहित्य के प्रमुख प्रकाशक मैसर्स श्रीरामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली (हरयाण) से उपलब्ध है। इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसका एक अद्यतन संशोधित संस्करण परोपकारिणी सभा, अजमेर द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है जिसका सम्पादन आर्यजगत के विख्यात विद्वान डा. वेदपाल जी ने किया है और इसके शुद्ध व निर्दोष रूप में प्रकाशित किये जाने में आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, अबोहर की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह भी ज्ञातव्य है कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सर्वप्रथम अपनी आत्म-कथा लिखी। इस आत्म-कथा के हिन्दी में होने के कारण हिन्दी को ही इस बात का गौरव है कि आत्म-कथा साहित्य का शुभारम्भ हिन्दी व स्वामी दयानन्द से हुआ। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से वेदों के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति हुई थी। स्वामी दयानन्द के समय तक वेदों का भाष्य-व्याख्यायें-प्रवचन-लेखन-शास्त्रार्थ आदि संस्कृत में ही होता आया था। स्वामी जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने वेदों का भाष्य जन-सामान्य की भाषा संस्कृत सहित हिन्दी में करके सृष्टि के आरम्भ से प्रवाहित धारा को उलट दिया। यह घटना जहां वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा से जुड़ी है, वहीं भारत की एकता व अखण्डता से भी जुड़ी है। न केवल वेदों का ही उन्होंने हिन्दी में भाष्य किया अपितु मनुस्मृति एवं अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अपनी पुस्तकों में उल्लेख करते समय उद्धरणों के हिन्दी में अर्थ भी किए हैं। वेदों का हिन्दी में भाष्य करके उन्होंने पौराणिक हिंन्दू समाज से ब्राह्मणों के शास्त्राध्ययन पर एकाधिकार को भी समाप्त कर जन-जन को इसका अधिकारी बनाया। यह कोई छोटी बात नहीं अपितु बहुत बड़ी बात है जिसका मूल्याकंन नहीं किया जा सकता। महर्षि दयानन्द के प्रयासों से ही आज वेद एवं समस्त शास्त्रों का अध्ययन हिन्दू व इतर समाज की किसी भी जन्मना जाति, मत व सम्प्रदाय का व्यक्ति कर सकता है। आर्यसमाज ने उन सबके लिए वेदाध्ययन व अपने गुरुकुलों के दरवाजे खोले हुए हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा हिन्दी को लोकप्रिय बनाकर उसे राष्ट्र भाषा के गौरवपूर्ण स्थान तक पहुंचाने में उनके साथ ही उनके द्वारा स्थापित आर्य समाजों एवं उनकी प्रेरणा से उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित बड़ी संख्या में गुरूकुलों, डी.ए.वी. कालेजों व अनेक आर्य संस्थाओं आदि का भी योगदान है। एक शताब्दी से अधिक समय पूर्व गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में देश में सर्वप्रथम विज्ञान, गणित सहित सभी विषयों की पुस्तकें हिन्दी माध्यम से तैयार कर उनका सफल अध्ययन-अध्यापन किया कराया गया। इस्लाम की धर्म-पुस्तक कुरआन को हिन्दी में सबसे पहले अनुदित कराने का श्रेय भी स्वामी दयानन्द जी को है। यह अनुदित ग्रन्थ उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकरिणी सभा, अजमेर के पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित है।

 

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जो व्यक्ति जिस देश भाषा को पढ़ता है उसको उसी भाषा व उसके साहित्य का संस्कार होता है। अंग्रेजी व अन्यदेशीय भाषायें पढ़ा व्यक्ति मानवीय मूल्यों पर आधारित भारतीय संस्कृति से सर्वथा दूर पाश्चात्य एवं वाममार्गी आदि भिन्न भिन्न जीवन शैलियों के अनुसार जीवन यापन करता है। यह जीवन पद्धतियां उच्च मर्यादाओं की दृष्टि से भारतीय संस्कृति से निम्नतर हैं। यदि वह संस्कृत व हिन्दी दोनों को पढ़ते और विवेक से निश्चय करते तो अवश्य ही वैदिक मर्यादाओं का पालन करते। कुछ ऐसी जीवन शैलियां है जिनमें पशुओं पर दया के स्थान पर उनको भोजन में सम्मलित किया गया है, जो सर्वसम्मत अंहिसा का नहीं अपितु हिंसा का उदाहरण है। जीवन में हिंसा का किसी भी रूप में प्रयोग अपसंस्कृति है और अंहिसा ही संस्कृति है। अतः स्वामी जी का यह निष्कर्ष भी उचित है कि हिन्दी व संस्कृत को प्रवृत्त कर ही प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास व मानवीय मूल्यों की रक्षा की जा सकती है।

 

एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विष देकर दीपावली 1883 के दिन स्वामी दयानन्द की जीवन लीला समाप्त कर दी गई। यदि स्वामी जी कुछ वर्ष और जीवित रहे होते तो हिन्दी को और अधिक समृद्ध करते और इसका व्यापक प्रचार करते तथा तीव्र वेद प्रचार आदि कार्यों से देश की अधिक उन्नति व सुख-समृद्धि होती। इसी के साथ इस लेख को निम्न पंक्तियों के साथ विराम देते हैं।

 

कलम आज तू स्वामी दयानन्द की जय बोल,

                                    हिन्दी प्रेमी रत्न वह कैसे थे अनमोल।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

देश के कर्णधार हमारे शिक्षक व शिष्य कैसे हों?’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

शिक्षा देने व विद्यार्थियों को शिक्षित करने से अध्यापक को शिक्षक व शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को शिष्य कहा जाता है। आजकल हमारे शिक्षक बच्चों को अक्षर व संख्याओं का ज्ञान कराकर उन्हें मुख्यतः भाषा व लिपि से परिचित कराने के साथ  गणना करना सिखाते हैं। आयु वृद्धि के साथ साथ बच्चा भाषा, कविता, गणित सहित विज्ञान व कला आदि विषयों को भी अपने शिक्षकों से पढ़ता है और आगे चल कर वह पुस्तकें पढ़कर व शिक्षकों के मार्गदर्शन से चिकित्सक, इंजीनियर, कम्प्यूटर सेवी, अध्यापक, व्यापारी व उद्योगपति आदि बन जाता है। हमारी वर्तमान जो शिक्षा प्रणाली है, उसमें बहुत कम लोग ही सत्य व चारित्रिक नियमों का पालन करने वाले बनते हैं। आजकल देखा जाता है कि बात बात पर झूठ बोलना एक आम बात हो गई है। यदि यह कार्य अशिक्षित करते तो समझ में आता, परन्तु बड़ी बड़ी उपाधि के धारणकर्ता व उच्च पदों पर प्रतिष्ठित लोग प्रायः असत्य बोलते हैं व अपने अपने कार्यों में मिथ्याचार व भ्रष्टाचार आदि में लिप्त पाये जाते हैं। इस असत्य व्यवहार व मिथ्याचार का कारण हमें एक ओर शिक्षा प्रणाली व दूसरी ओर शिक्षकों का निजी आचारण, जीवन व चरित्र अनुभव होता है। जैसा शिक्षक होगा वैसा ही कुछ व अधिक प्रायः शिष्य बनता है।

 

हमारा देश ज्ञान की दृष्टि से अन्य देशों से अधिक भाग्यशाली रहा है। प्राचीन काल में हमारे देश के लोगों के जीवन व चरित्र आदर्श व महान होते थे जिसका प्रमुख कारण वेदों का ज्ञान, विद्यार्थियों द्वारा उसका अध्ययन व आचार्यों के उच्च जीवन एवं चरित्र होते थे। आज 1 अरब से अधिक जनसंख्या हो जाने पर भी किसी के बारे में यह कहना कठिन है कि अमुक व्यक्ति सत्य का ही व्यवहार करता है एवं असत्य का किंचित व्यवहार नहीं करता और इसका चरित्र आदर्श व बेदाग है। इसका कारण हमें शिक्षा में वैदिक मूल्यों की उपेक्षा व पाश्चात्य मूल्यों की बहुलता सहित हमारे शिक्षकों का ज्ञान व अज्ञानवश पाश्चात्य मूल्यों के प्रति प्रेम अनुभव होता है। आईये, वैदिक काल में अध्यापक और अध्यापिकायें कैसे होते थे व होने चाहिये, यह वेदों के मर्मज्ञ, आदर्श जीवन व चरित्र के धनी महर्षि दयानन्द के शब्दों में जानते हैं।

महाभारतान्तर्गत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर के अध्याय 33 के 6 श्लोकों को प्रस्तुत कर वह सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में लिखते हैं कि जिस को आत्मज्ञान सम्यक् हो अर्थात् जो निकम्मा आलसी कभी न रहे, सुख दुःख, हानि लाभ, मान-अपमान, निन्दा स्तुति में हर्ष शोक कभी न करे, धर्म ही में नित्य निश्चित रहे, जिस के मन को उत्तम-उत्तम पदार्थ अर्थात् विषय सम्बन्धी वस्तुयें आकर्षित न कर सकें, वही पण्डित वा शिक्षक कहाता है। सदा धर्मयुक्त कर्मों का सेवन, अधर्मयुक्त कामों का त्याग, ईश्वर, वेद, सत्याचार की निन्दा न करनेहारा, ईश्वर आदि में अत्यन्त श्रद्धालु हो, वही पण्डित वा अध्यापक-अध्यापिका का कर्तव्य-अकर्तव्य अथवा कर्म है। जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके, बहुत कालपर्यन्त शास्त्रों को पढ़े सुने और विचारे, जो कुछ जाने उस को परोपकार में प्रयुक्त करे, अपने स्वार्थ के लिये कोई काम न करे, बिना पूछे वा विना योग्य समय जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे, ऐसा व्यक्ति ही प्रथम प्रज्ञान पण्डित, शिक्षक, अध्यापक व अध्यापिका को होना चाहिये। अध्यापक व अध्यापिका ऐसे हों कि जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे, नष्ट हुए पदार्थ पर शोक न करे, आपत्काल में मोह को न प्राप्त हों अर्थात् व्याकुल न हों। यह गुण बुद्धिमान पण्डित के हैं और ऐसे ही अध्यापक व अध्यापिकायें होंवे। जिसकी वाणी सब विद्याओं और प्रश्नोत्तरों के करने में अतिनिपुण व विचित्र, शास्त्रों के प्रकरणों का वक्ता, यथायोग्य तर्क और स्मृतिमान्, ग्रन्थों के यथार्थ अर्थ का शीघ्र वक्ता हो वही पण्डित वा अध्यापक कहलाता है। जिस व्यक्ति की प्रज्ञा सुने हुए सत्य अर्थ के अनुकूल और जिस का श्रवण बुद्धि के अनुसार हो, जो कभी आर्य अर्थात् श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों की मर्यादा का छेदन न करें, वही पण्डित वा अध्यापक आदि संज्ञा को प्राप्त होवे। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जहां ऐसे-ऐसे स्त्री पुरुष पढ़ाने वाले होते हैं वहां विद्या धर्म और उत्तमाचार (सत्य भाषण एवं मिथ्याचार-भ्रष्टाचार रहित व्यवहार आदि) की वृद्धि होकर प्रतिदिन आनन्द ही बढ़ता रहता है। हमारे शिक्षक और बुद्धिमान लोग स्वयं जान सकते हैं कि शिक्षक व अध्यापक-अध्यापिकाओं के इन गुणों में से कितने गुण आजकल के शिक्षकों में पाये जाते हैं? क्या शिक्षकों के महर्षि दयानन्द वर्णित यह गुण आज अप्रासंगिक हो गये हैं? ऐसा नहीं है। इसका प्रथम कारण तो हमारे शिक्षाविदों की इनसे अनभिज्ञता व दूसरा पाश्चात्य मूल्यों के प्रति गहन प्रेम है और इसके अतिरिक्त शिक्षण व्यवसाय से जो सुख सुविधायें उन्हें मिल रही है, उनका राग भी एक प्रमुख कारण है। हम महर्षि दयानन्द के प्रति इन वैदिक, सनातन व भारतीय मूल्यों को महाभारत से निकाल कर हिन्दी में अर्थ सहित जनसाधारण में प्रस्तुत करने के लिए सभी देशवासियों पर उनका उपकार मानते हैं। महर्षि द्वारा प्रस्तुत विचारों पर ध्यान देने पर हमें उनके गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती और स्वयं स्वामी दयानन्द ही सच्चे अध्यापक, शिक्षक, गुरु व आचार्य और इन सभी गुणों से सम्पन्न दिखाई देते हैं।

 

अध्यापकों के गुणों का वर्णन करने के बाद वह पढ़ाने में अयोग्य मूर्ख शिक्षकों का वर्णन भी करते हैं जिसका आधार भी उन्होंने महाभारत के उद्योगपर्व के अध्याय 33 के दो श्लोकों संख्या 30 व 36 को बनाया है। वह लिखते हैं कि जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा न सुना, अतीव घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करनेहारा, विना कर्म से परार्थों की प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो, उसी को बुद्धिमान लोग मूढ़ कहते है। ऐसे लोग पढ़ाने योग्य नहीं होते। आजकल समाज में ऐसे बहुत से अध्यापक हमें देखने को मिल जाते हैं। दूसरे श्लोक का अर्थ करते हुए वह लिखते हैं कि जो विना बुलाये सभा वा किसी के घर में प्रविष्ट हो, उच्च आसन पर बैठना चाहे, विना पूछे सभा में बहुत सा बोले, विश्वास के अयोग्य वस्तु वा मनुष्य में विश्वास करे, वही मूढ़ और सब मुनष्यों में नीच मनुष्य कहाता है। इन 2 श्लोकों के अर्थों पर टिप्पणी कर दयानन्द जी कहते हैं कि जहां ऐसे पुरुष अध्यापक, उपदेशक, गुरु और माननीय होते हैं वहां अविद्या, अधर्म, असभ्यता, कलह, विरोध और फूट बढ़ कर दुःख ही बढ़ता जाता है। शिक्षक दिवस अभी 3 दिन पूर्व ही व्यतीत हुआ है। हम समझते हैं कि प्रत्येक शिक्षक दिवस पर शिक्षक के इन गुणों व अवगुणों पर विचार कर अवगुणों के त्याग व गुणों के ग्रहण की सभी शिक्षकों को प्रतिज्ञा लेनी चाहिये।

 

विद्यार्थियों के लक्षण भी महर्षि दयानन्द ने महाभारत के आधार पर लिखे हैं। वह हैं कि शरीर और बुद्धि में जड़़ता, नशा, मोह, किसी वस्तु में फंसावट, चपलता और इधर-उधर की व्यर्थ कथा करना सुनना, पढ़ते पढ़ाते रुक जाना, अभिमानी, अत्यागी होना ये सात दोष विद्यार्थियों में होते हैं। जो ऐसे दोषों से युक्त विद्यार्थी होते हैं, उनको विद्या कभी नहीं आती। सुख भोगने की इच्छा करने वाले को विद्या कहां? और विद्या पढ़ने वाले को सुख कहां? क्योंकि विषय-सुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दें। ऐसा किये विना विद्या कभी नहीं आ सकती। कैसे विद्यार्थियों को विद्या आती है, इसका उत्तर है कि जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिन का ब्रह्मचर्य सच्चा व अखण्डित हो, वे ही विद्वान होते हैं। इसलिये शुभ लक्षणयुक्त अध्यापक और विद्यार्थियों को होना चाहिये। महर्षि दयानन्द अपने विचार व मान्यतायें बताते हुए लिखते हैं कि अध्यापक लोग ऐसा यत्न किया करें कि जिससे विद्यार्थी लोग सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी सभ्यता, जितेन्द्रिय, सुशीलतादि शुभगुणयुक्त शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ा के समग्र वेदादि शास्त्रों में विद्वान् हों। सदा उन की कुचेष्टा छुड़ाने में और विद्या पढ़ाने में चेष्टा किया करें और विद्यार्थी लोग सदा जितेन्द्रिय, शान्त, पढ़ानेहारों में प्रेम, विचारशील, परिश्रमी होकर ऐसा पुरुषार्थ करें जिससे पूर्ण विद्या, पूर्ण आयु, परिपूर्ण धर्म और पुरुषार्थ करना आ जाय। यह कार्य व इनको करके अध्यापक ब्राह्मण वर्ण के कहलाते है।

 

हम समझते हैं कि महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त विचारों व मान्यताओं में आदर्श गुंरु व शिष्य का चित्र उपस्थित हुआ है। हमारे शिक्षाविदों को इस पर विचार कर इसका शिक्षा प्रणाली में समावेश करना चाहिये। कम आयु के बच्चों में सदाचार व सदग्रन्थों वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति एवं सत्यार्थप्रकाश आदि की शिक्षा आवश्यक है। इनको पूर्ण वा आंशिक ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिये तभी हमें अच्छे शिक्षक व शिष्य प्राप्त होंगे। समूचे देश में संस्कृत अनिवार्य विषय के रूप से पढ़ाई जाये, इससे शिक्षा की बहुत सेवा होगी। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर, वेद, राजर्षि मनु व महर्षि दयानन्द सम्मत शासन प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने सप्रमाण घोषणा की थी कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है एवं यही धर्म व सभी सत्य विद्याओं के आदि ग्रन्थ होने से सर्वप्राचीन एवं सर्वमान्य हैं। यदि ऐसा है तो फिर वेद में देश की राज्य व शासन व्यवस्था कैसी हो, इस पर भी विचार मिलने ही चाहियें। महर्षि दयानन्द की मान्यता सर्वथा सत्य है और वेद एवं इसके अनुपूरक वैदिक साहित्य में राजकीय शासन व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। महर्षि दयानन्द रचित  वैदिक विचारधारा के सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के छठें समुल्लास से हम वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के शासन व्यवस्था सम्बन्धी विचार व मान्यतायें प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मान्यतायें ऐसी हैं कि इसमें वर्तमान व्यवस्था के सभी गुण विद्यमान हैं। इसके साथ ही बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनको अपनाने व उनका पालन करने से वर्तमान व्यवस्था की अनेक खामियां वा कमियां दूर की जा सकती हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि वेद एवं मनुस्मृति के आधार पर ही सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक आर्यावर्त्त वा भारत ही नहीं अपितु संसार के सभी देशों का राज्य संचालन हुआ है।

 

राजर्षि मनु जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चारों आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के व्यवहार का युक्तिसंगत कथन किया है। इसके पश्चात् उन्होंने राजधर्मों वा राजनियमों का विधान किया है। राजा को कैसा होना चाहिये, कैसा राजा होना सम्भव है तथा किस प्रकार से राजा को परमसिद्धि प्राप्त हो सकती है, उसका वर्णन भी किया है। महर्षि मनु लिखते हैं कि जैसा परम विद्वान् ब्राह्मण होता है वैसा ही सुशिक्षित विद्वान क्षत्रिय को होना योग्य है कि जिससे कि वह सब राज्य वा देश की रक्षा यथावत् करें। ऋग्वेद के मण्डल 3 सूक्त 38 मन्त्र 6 में कहा गया है कि त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि।। ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में अग्नि नाम के ऋषि को इस मन्त्र द्वारा यह उपदेश करते हैं कि राजा और प्रजा के पुरुष (देश की समस्त जनता) मिल कर सुख प्राप्ति और विज्ञान वृद्धिकारक राजाप्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार के लिए तीन सभा प्रथम विद्यार्यसभा, द्वितीय धर्मार्यसभा तथा तृतीय राजार्यसभा नियत वा गठित करें। राजा, प्रजा व तीनों सभायें समग्र प्रजा वा मनुष्यादि प्राणियों को बहुत प्रकार की विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।  अर्थववेद काण्ड 15 के मन्त्र तं सभा समितिश्च सेना च। और अथर्ववेद के ही काण्ड 16 के मन्त्र सभ्य सभां मे पाहि ये सभ्याः सभासदः। में कहा है कि इस प्रकार से राजा व तीन सभाओं द्वारा निर्धारित राजधर्म का पालन तीनों सभायें सेना के साथ मिलकर करें व संग्राम आदि की व्यवस्था करें। राजा तीनों सभाओं के सभासदों को आज्ञा करे कि हे सभा के योग्य मुख्य सभासदों ! तुम मेरी सभा व सभाओं की धर्मयुक्त व्यवस्था का पालन करो। यहां वेद कहते हैं कि तीनों सभाओं के सभासदों को सभेश राजा की धर्मयुक्त आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना चाहिये।

 

वेद मन्त्रों की इन शिक्षाओं पर टिप्पणी कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति वा राजा को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिए किन्तु राजा जो सभापति, तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राजसभा के आधीन रहें। यदि ऐसा न करोगे तो राष्ट्रमेव विश्या हन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः।। विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति पुष्टं पशुं मन्यत इति।। (शतपथ ब्राह्मण काण्ड 13/2/33) यदि प्रजा से स्वतन्त्र व स्वाधीन राजवर्ग रहे तो वह राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करे और अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके प्रजा का नाशक होता है अर्थात् वह राजा प्रजा को खाये जाता है। इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिये। जैसे मांसाहारी सिंह हृष्ट पुष्ट पशु को मार कर खा लेते हैं, वैसे स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता, श्रीमानों व धनिकों को लूट खूंट अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/10/98/1 के अनुसार राजा को मनुष्य समुदाय में परम ऐश्वर्य का सृजनकर्त्ता व शत्रुओं को जीतने वाला होना चाहिये। वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होना चाहिये। इसके साथ ही राजा ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिये जो पड़ोसी व विश्व के राजाओं से अधिक योग्य वा सर्वोपरि विराजमान व प्रकाशमान होने के साथ सभापति होने के अत्यन्त योग्य हो तथा वह प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभावयुक्त, सत्करणीय, समीप जाने और शरण लेने योग्य सब का माननीय होवे। इससे यह आभास मिलता है कि राजा में एक सैनिक व सेनापति के भी उच्च गुण होने चाहिये। यजुर्वेद के मन्त्र 9/40 में विद्वान राज-प्रजाजनों को सम्मति कर ऐसे व्यक्ति को राजा बनाने को कहा गया है कि जो बड़े चक्रवर्ति राज्य को स्थापित करने में योग्य हो, बड़े-बड़े विद्वानों को राज्य पालन व संचालन में नियुक्त करने योग्य हो तथा राज्य को परम ऐश्वर्ययुक्त, सम्पन्न व समृद्ध कर सकता हो। वह सर्वत्र पक्षपातरहित, पूर्ण विद्या विनययुक्त तथा सब प्रजाजनों का मित्रवत् होकर सब भूगोल को शत्रु रहित करे। ऋग्वेद के मन्त्र 1/39/2 में ईश्वर ने उपदेश किया है कि हे राजपुरुषों ! तुम्हारे आग्नेयादि अस्त्र, तोप, बन्दूक, धनुष बाण, तलवार आदि वर्तमान के नामान्तर आणविक हथियार, मिसाइल व अन्य घातक सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं की पराजय करने और उन्हें युद्ध से रोकने के लिए प्रशंसित और दृढ़ हों और तुम्हारी सेना प्रशंसनीय होवे कि जिस से तुम सदा विजयी हों। ईश्वर ने यह भी शिक्षा भी की है कि जो निन्दित अन्यायरुप काम करते हैं उस के लिए पूर्व चीजें अर्थात् अस्त्र-शस्त्र न हों। इस पर महर्षि दयानन्द ने यह टिप्पणी की है कि जब तक मनुष्य धार्मिक (सत्य व न्यायपूर्ण आचरण करने वाले) रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। यहां धार्मिक होने का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि मत को माननेवाला न होकर सच्चे मानवीय गुण सत्यवादी, देशहितैषी, देशप्रेमी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त व ज्ञानी आदि अनेकानेक गुणों से युक्त मनुष्य हैं।

 

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में तीनों सभाओं के अध्यक्ष राजा के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वह सभेश राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता, वायु के समान सब को प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारा, पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, सूर्य के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक, अन्धकार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक हो। वह अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, वरुण अर्थात् बांधनेवाले के सदृश दुष्टों को अनेक प्रकार के दण्ड देकर बांधनेवाला, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, धनाध्यक्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे। राजा में यह गुण भी होना चाहिये कि वह सूर्यवत् प्रतापी व सब के बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपाने वाला हो। वह राजा ऐसा हो कि जिसे पृथिवी में वक्र दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ न हो। राजा ऐसा हो कि जो अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बंधनकर्त्ता तथा बड़े ऐश्वर्यवाला होवे, वही सभाध्यक्ष, सभेष वा राजा होने के योग्य है।

 

सच्चे राजा के गुण बताते हुए वेदभक्त महर्षि मनु कहते हैं कि जो दण्ड है वही राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता और सब का शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन है। वही राजा व दण्ड प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसी लिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं। यदि राजा दण्ड को अच्छे प्रकार विचार से धारण करे तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है। विना दण्ड के सब वर्ण अर्थात् प्रजा दूषित और सब मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाती है। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का राजा व राज्य व्यवस्था के विरुद्ध प्रकोप हो सकता है। दण्ड के बारे में मनुस्मृति में बहुत बातें कही र्गइं हैं। यह भी कहा है कि दण्ड बड़ा तेजोमय है जिसे अविद्वान् व अधर्मात्मा धारण नहीं कर सकता। तब ऐसी स्थिति में वह दण्ड धर्म से रहित राजा व उसके कुटुम्ब का ही नाश कर देता है। यह भी कहा गया है कि जो राजा आप्त पुरुषों के सहाय, विद्या, सुशिक्षा से रहित, विषयों में आसक्त व मूढ़ है, वह न्याय से दण्ड को चलाने में समर्थ कभी नहीं हो सकता।

 

मनुस्मृति में विधान है कि सब सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार, दण्ड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का आधिपत्य और सब के ऊपर वर्तमान सर्वाधीश राज्यधिकार इन चारों अधिकारों में सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण पूर्ण विद्यावाले धर्मात्मा जितेन्द्रिय सुशीलजनों को स्थापित करना चाहिये अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान और राजा ये चार सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान होने चाहिये। न्यून से न्यून दश विद्वानों अथवा बहुत न्यून हो तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उस धर्म अर्थात् व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे। मनुस्मृति में आगे कहा गया है कि सभा में चारों वेद, हैतुक अर्थात कारण अकारण का ज्ञाता न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों। जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के जानने वाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें उस सभा की की हुई व्यवस्था का भी कोई उल्लंघन न करे। यदि एक अकेला, सब वेदों का जाननेहारा व द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों लाखों करोड़ों मिल के जो कुछ व्यवस्था करें उस को कभी न मानना चाहिये। जो ब्रह्मचर्य, सत्यभाषदणादि व्रत, वेदविद्या वा विचार से रहित जन्ममात्र से अज्ञानी वा शूद्रवत् वर्तमान हैं उन सहस्रों मनुष्यों के मिलने से भी सभा नहीं कहलाती। जो अविद्यायुक्त मूर्ख वेदों के न जाननेवाले मनुष्य जिस धर्म को कहे, उस को कभी न मानना चाहिये क्योंकि जो मूर्खों के कहे हुए धर्म के अनुसार चलते हैं, उनके पीछे सैकड़ों प्रकार के पाप लग जाते हैं। इसलिये तीनों विद्यासभा, धर्मसभा और राज्यसभाओं में मूर्खों को कभी भरती न करें। किन्तु सदा विद्वान और धार्मिक पुरुषों का ही स्थापन करें।

 

हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रस्तुत वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के आधार पर कुछ थोड़े से विचारों व मान्यताओं को प्रस्तुत किया है। हम पाठकों से निवेदन करते हैं कि वह इस पूरे अध्याय को पढ़ कर लाभान्वित हों। आज की व्यवस्था में कुछ बातें देश, काल व परिस्थिति के अनुसार अच्छी हैं व कई अच्छी नहीं भी हैं। देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेता व शासक संस्कृत से अनभिज्ञ हैं एवं वेद आदि शास्त्रों को शायद ही किसी बड़े नेता ने देखा व पढ़ा हो। उनका वेदादि सत्य शास्त्रों के प्रति श्रद्धा का अभाव भी दृष्टिगोचर होता है अन्यथा वह उनका नियमित अध्ययन करते। इसे भी देश का दुर्भाग्य कह सकते हैं कि करोड़ों वर्षों के ज्ञान व अनुभवों से लाभ नहीं लिया जा रहा है। वेद एवं शास्त्रों की अनेक उपादेय बातों का लाभ लिया जाना चाहिये। देश के सभी राजनीति से जुड़े लोगों को सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास का गम्भीरता से अध्ययन कर देशहित की बातों को वर्तमान व्यवस्था में सम्मिलित करना चाहिये जिससे देश व समाज को लाभ हो। यह याद रखना समीचीन होगा कि वेदों में राजधर्म का वर्णन ईश्वर से प्रेरित है जिसको राजर्षि मनु ने राजधर्म विषयक अपने ग्रन्थ मनुस्मृति का आधार बनाया। उन्हीं विचारों को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत कर न केवल भारत अपितु विश्व का उपकार किया है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में पूरा विश्व इससे लाभान्वित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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