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यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यश्वीन्द्रसरस्वत्याद्या लिङ्गोक्ताः ।। छन्दः निवृद् अष्टिः।

होता यक्षसमिधाग्निमिडस्पदेऽश्विनेन्द्रसरस्वतीमजो धूम्रो न गोधूमैः कुवलैर्भेषजं मधु शर्यैर्न तेजऽइन्द्रियं पयः सोमः परित्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतंर्यज।।

-यजु० २१.२९

( होता ) हवनकर्ता (इडस्पदे ) यज्ञवेदि में ( समिधा ) समिधा द्वारा (अग्निं ) अग्नि को, (अश्विना ) अश्वियुगल को ( इन्द्रं ) इन्द्र को ( सरस्वतीं ) सरस्वती को ( यक्षत् ) हवन करे। (अजः ) अजशृङ्गी ओषधि, ( धूम्रः न ) और धुमैला गूगल (गोधूमैः ) गेहुओं के साथ और ( कुवलैः ) बेरों के साथ मिलकर ( भेषजं ) औषध होती है। ( शष्पैः न ) अंकुरित धानों के साथ ( मधु) मधुयष्टि, ( तेजः ) तेजपत्र, ( इन्द्रियं ) इन्द्रायण ओषधि, ( पयः ) दूध, (परित्रुता सोमः ) परिसुत रस के साथ सोम ओषधि, (घृतं ) घीवारी, (मधु) शहद, ये सब पदार्थ (व्यन्तु ) मिलें । ( होतः ) हे हवनकर्ता ! तू इनका और (आज्यस्य ) घृत का ( यज ) यज्ञ कर।।

‘होतृ’ शब्द ‘हु’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका प्रचलित अर्थ ‘आहुति देना है। धातुपाठ में यह धातु दान, भक्षण और आदान अर्थों में पठित है। यज्ञनिष्पादक को ‘होता’ इस कारण कहते हैं कि वह अग्नि में हवि का दान करता है, और हविर्दान से उत्पन्न प्राणदायक और रोगनिवारक सुगन्ध का भक्षण और ग्रहण करता है। इडा शब्द पृथिवीवाचक है, अतः इडस्पद का अर्थ होता है, भूमि पर बनी हुई यज्ञवेदि। होमकर्ता यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि का आधान करता है और घृत में डूबी हुई समिधाओं के आधान से अग्निप्रदीपन करता है। समिधाएँ पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम, बिल्व, चन्दन आदि वृक्षों की ली जाती हैं। होमद्रव्य संस्कारविधि में चार प्रकार के लिखे हैं-प्रथम सुगन्धित कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री आदि; द्वितीय पुष्टिकारक घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि; तीसरे मिष्ट शक्कर, सहत, छुहारे, दाख आदि; चौथे रोगनाशक गिलोय आदि । मोहनभोग, मीठा भात, मीठी खिचड़ी, मोदक आदि के होम का भी विधान किया है। मोहनभोग बनाने की विधि लिखी है कि सेरभर मिश्री के मोहनभोग में रत्ती भरे कस्तूरी, माशेभर केसर, दो माशे जायफल और जावित्री डाले। प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि अजशृङ्गी, धुमैला गूगल, गेहूँ और बेर मिलाकर जो आहुति दी जाती है, वह उत्तम औषध होती है। अजशृङ्गी ओषधि के लिए अथर्ववेद में कथन है कि वह रोगकृमि रूप राक्षसों को अपनी गन्ध से नष्ट करती है। गूगल के विषय में अथर्ववेद में ही यह विशेषता बतायी गयी है कि इसकी धूनी जो लेता है, उसके पास से रोग भाग जाते हैं। उक्त हवियों के अतिरिक्त मन्त्र में अंकुरित धान, मधुयष्टि (मलहठी), तेजपत्र, इन्द्रायण, गोदुग्ध, अन्य ओषधियों के रस के साथ सोमलता, घीवारी और शहद की हवि भी उत्तम बतायी गयी हैं। इन सब हवियों से होता को घृताहुति के साथ यज्ञ करने की प्रेरणा दी गयी है। महीधर ने यहाँ ‘अज’ से बकरे और ‘धूम्र’ से मेष (मेंढा) पशुओं की आहुति का ग्रहण किया है, जो भ्रष्ट लीला है।

मन्त्रपठित जिन देवों का यजन करना है वे हैं अश्वियुगल, इन्द्र और सरस्वती । प्रकृति में अश्वियुगल हैं पृथ्वी-आकाश, इन्द्र है वायु और सरस्वती है जलधारा। यज्ञ द्वारा इन सबको सगन्धित करके पर्यावरण को शुद्ध करना है। सामाजिक दृष्टि से अश्वियुगल हैं गुरु-शिष्य, अध्यापक-उपदेशक, वैद्य शल्यचिकित्सक आदि युगल। इन्द्र राजशक्ति है, सरस्वती मातृशक्ति है। इनके लिए हवि देने का तात्पर्य है, इन्हें परिपुष्ट करना, इनकी स्थिति अच्छी करना।।

पाद-टिप्पमियाँ

१. अजभृङ्गि अज रक्षः सर्वान् गन्धेन नाशय। अ० ४.३७.२

२. न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते ।यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।। अ० १९.३८.१

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार 

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता अश्वः । छन्दः भुरिग् विकृतिः ।

विभूर्मात्रा प्रभूः पित्राश्वोऽसिहयोऽस्यत्योऽसि मयोऽस्यवसि सशिरसि वयसि वृषसि नृमणऽअसि।ययुर्नामऽसि शिशुर्ना मास्यादित्यानां पत्वान्विहि देवाऽआशापालाऽएतं देवेभ्योऽश्वं मेधाय प्रोक्षितश्रक्षतेह रन्तिरिह रमतामिह धृतिरह स्वधृतिः स्वाहा ॥

-यजु० २२.१९

हे अश्वमेध के घोड़े! तू (विभूः ) व्यापक बलवाला है। ( मात्रा) माता पृथिवी से, (प्रभूः ) सामर्थ्यवान् है ( पित्रा ) पिता सूर्य से। (अश्वः असि ) तू अश्व है, ( हयः असि ) हय है, (अत्यः असि) अत्य है, (मयः असि ) मय है, (अर्वा असि ) अर्वा है, ( सप्तिः असि ) सप्ति है, (वाजी असि) वाजी है, (वृषा असि) वृषा है, (नृमणाः असि) नृमणाः है, (ययुः नाम असि ) ययु नामवाला है, ( शिशुः नाम असि ) शिशु नामवाला है। (आदित्यानां पत्वा ) सूर्यकिरणों के मार्ग से ( अन्विहि ) चल। ( आशापालाः देवाः ) हे दिशापालक विद्वानो ! ( देवेभ्यः मेधाय प्रोक्षितं ) विद्वानों के लिए यज्ञार्थ प्रोक्षण किये हुए (एनम् अश्वं रक्षत ) इस घोड़े की रक्षा करो। इसकी ( इह रन्तिः) यहाँ क्रीड़ा हो, यह (इह रमताम् ) यहाँ रमे। इसकी (इह धृतिः) यहाँ स्थिरता हो, (इहस्वधृतिः) यहाँ स्वेच्छानुरूप रुकना हो। (स्वाहा) यह कैसा सुवचन है। |

जो सम्राट् दिग्विजयी होना चाहता है, वह अश्वमेध करता है। अश्वमेध में घोड़ा छोड़ा जाता है। ऐसा घोड़ा लाया जाता है, जिसका अगला भाग काला और पिछला भाग सफेद हो, ललाट पर शकटाकार तिलक बना हो। वह बहुत मूल्यवान्, अतिवेगवान् ऐसा अद्वितीय होता है जिसकी जोट । का दूसरा मिलना दुष्कर होता है। उसमें बल-पराक्रम शतपथ ब्राह्मण के अनुसार माता पृथिवी और पिता सूर्य से आता है। इसीलिए मन्त्र के आरम्भ में कहा है कि हे अश्वमेध के घोड़े! तुझे अपनी माता से व्यापक शक्ति मिली है और पिता से विपुल सामर्थ्य मिला है। आगे अश्वमेध के अश्व के गुण-कर्म-स्वभाव बताने के लिए उसके पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया गया है कि तू ऐसे-ऐसे गुण कर्मोवाला और इन इन नामोंवाला है। तेरा नाम ‘अश्व’ है, क्योंकि तू विशाल मार्ग को तय करता है। तू ‘हय’ है, क्योंकि तू विशिष्ट चाल से चलता है। तू अत्य’ है, क्योंकि तू सतत गति से चलता रहता है, थकता नहीं। तू सुखगामी होने से और सवार को सुख देने के कारण ‘मय’ है। तू सर्वत्र गति और लक्ष्य पर पहुँचाने के कारण ‘अर्वा’ है। तू संग्रामों में समवेत या संलग्न होने के कारण ‘सप्ति’ है। बलवान् और वेगवान् होने से तू ‘वाजी’ कहलाता है। तू वीर्यवान् और वीर्यसेचक होने से ‘वृषा’ तथा नेताओं में मन के समान वेगगामी होने से नृमणाः’ कहलाता है। दुलकी चाल से चलने के कारण तू ‘ययु’ नाम से प्रसिद्ध है। मार्ग की धूलि को अपनी टाप के आघातों से सूक्ष्म करने के कारण तेरा नाम ‘शिशु’ है। जैसे सूर्यकिरणें आकाशमार्ग में चलती हैं, वैसे तू मार्ग पर चल। हे दिक्पालो ! आप लोग अश्वमेध के लिए प्रोक्षित इस अश्व की रक्षा करो। यह स्वतन्त्र रमण करे, इसे कोई पकड़ने का साहस न करे। यह स्वेच्छापूर्वक जहाँ चाहे विहार करे, जहाँ चाहे स्थिर हो। ‘स्वाहा’, हम इस अश्व की रक्षार्थ यज्ञाग्नि में आहुति देते हैं। यह दिग्विजय करके आयेगा, तब हमारे सम्राट् विश्वविजयी चक्रवर्ती राजा के रूप में विख्यात होंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विभूर्मात्रा प्रभूः पित्रेति । इयं वै माताऽसौ पिता, आभ्यामेवैनं परिददाति ।श० १३.१.६.१

२. (अश्व:) योऽश्नुते व्याप्नोति मार्गान् स:-द० । (हयः) हय गतौ, शीघ्रगामी। (अत्यः) यः अतति सततं गच्छति सः-द० | अत सातत्यगमने। (मयः) सुखगामी सुखकारी च । ‘मय:=सुख’ निघं० ३.६। (अर्वा) ऋ गतिप्रापणयोः भ्वादिः । ऋच्छति सवेगं गच्छति लक्ष्य प्रापयति वा सोऽर्वा । (सप्तिः) यः सपति संग्रामैः समवैति सः, सप संबन्धे। (वाजी) वाज: बलं वेगो वा अस्यास्तीति वाजी। (वषा) वष सेचने, यो वर्षति सिञ्चति सः । (नमणाः) नष नेतष पदार्थेषु मन इव सद्योगामी-द० | नृणां मनुष्याणां यत्र मनः सः उवट। (ययुः ) यो याति सः-द० । (शिशुः) यः श्यति तनूकरोति स:-द०, शो तनूकरणे। (पत्वा) पतन्ति गच्छन्ति यत्र स पत्वा मार्गः ।।

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार 

स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार

स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता यज्ञः । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्।

एकस्मै स्वाहा द्वाभ्यश्चस्वाहा शताय स्वाहैकशताय स्वाहा व्युयै स्वाहा स्वर्गाय स्वाहा।।

-यजु० २२.३४

 ( एकस्मै ) एक परमेश्वर की प्राप्ति के लिए ( स्वाहा ) स्तुति, प्रार्थना, उपासना और पुरुषार्थ करो। ( द्वाभ्यां ) मन और जीवात्मा दोनों की शुद्धि के लिए ( स्वाहा ) स्तुति, प्रार्थना, उपासना और पुरुषार्थ करो। ( शताय ) शतवर्ष की आयु प्राप्त करने के लिए (स्वाहा ) पुरुषार्थ करो। ( एकशताय) एक सौ एक प्रणवजप और गायत्रीजप के लिए ( स्वाहा ) तत्पर हो। ( व्युष्ट्यै ) अन्धकार दूर करके प्रकाश की प्राप्ति के लिए (स्वाहा ) प्रयास करो। ( स्वर्गाय ) स्वर्गप्राप्ति के लिए ( स्वाहा ) प्रयास करो।

बच्चा रोये जा रहा था, किसी तरह शान्त नहीं हो रहा था। उसके आगे फूल, फल, मिष्टान्न, खिलौने आदि अनेक लभावने पदार्थ रखे गये, किन्त उसने उन्हें फेंक दिया। तीन दिन से उसकी माता उसे छोड़कर बाहर गयी हुई थी। माता आयी, तो वह उससे चिपट गया। माता उसे कोई वस्तु देने के लिए अपने से अलग करना चाहती थी, तो वह और भी अधिक चिपट जाता था, यह सोचकर कि कहीं माता फिर न चली जाए। शौनक ने अङ्गिरस् ऋषि से पूछा कि वह वस्तु कौन-सी है, जिसके विदित होने पर सब कुछ विदित हो जाता है। ऋषि ने जो व्याख्यान दिया, उसका सार यह है कि परमात्मा ही वह वस्तु है, उसका ‘ओ३म्’ नाम से ध्यान करो । अतः आओ, हम बच्चों के लिए जो माँ के समान है। और जिस एक के जान लेने से सब कुछ जाना जाता है, उस एक परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए ‘स्वाहा’ करें, स्तुति  प्रार्थना-उपासना और पुरुषार्थ करें।

किन्तु परमेश्वर की प्राप्ति शुद्ध मन और शुद्ध आत्मा से ही हो सकती है। अतः आओ, पहले मन और आत्मा इन दो को शुद्ध कर लें। वैदिक भावना है कि हमारा मन शिव सङ्कल्पोंवाला हो। आत्मा चित्तवृत्तियों का निरोध करने से ही स्वच्छ, शुद्ध और योगयुक्त हो सकता है। अतः मन और आत्मा दोनों को शुद्ध करने के लिए हम ‘स्वाहा’ करें, ईशस्तुति, ईशप्रार्थना, ईश्वरोपासना और योगाभ्यास करें। मन आत्मा की शुद्धि तथा ईश्वरप्राप्ति एक क्षण में नहीं हो सकती, इसके लिए लम्बी अवधि चाहिए। अत: आओ, हम शत वर्ष की आयु प्राप्त करने का प्रयास करें। यह सब साधना प्रणव जप और गायत्री-जप से सफल होती है। अतः, आओ, प्रतिदिन हम एक-सौ-एक प्रणव-जप और गायत्री-जप किया करें। हमें अपने मानस के अन्धकार और आत्मा की तामस वृत्ति दूर करने के लिए भी प्रयत्न करना होगा। अध्यात्मप्रकाश की उषा उदित करने पर ही यह तमस् दूर हो सकेगा। इन सब साधनों को करने के पश्चात् हमें ‘स्वर्ग’ की प्राप्ति हो सकेगी। स्वर्ग उस अवस्था का नाम है, जिसमें ‘स्वः’ अर्थात् ईश्वरीय प्रकाश साक्षात् अनुभव होता है।

अतः आओ, मन्त्रोक्त सफलताओं को पाने के लिए सर्वात्मना प्रयासरत हो जाओ, अपने अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोषों को इस साधना में लीन कर दो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानम् । मु० उप० २.२.६

२. तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु । य० ३४.१-६

स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार 

तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार

तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता परमेश्वरः । छन्दः निवृद् आकृतिः ।

उपयामगृहीतोऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिः सूर्यस्ते महिमा। यस्तेऽर्हन्त्संवत्सरे महिमा सम्बभू यस्तै वायावन्तरिक्ष महिमा सम्बभूव यस्ते दिवि सूर्ये महिमा सम्बभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यः॥

-यजु० २३.२

हे परमेश्वर ! आप ( उपयामगृहीतः असि ) यम, नियम आदि योगाङ्गों से ग्रहण किये जानेवाले हो। (जुष्टं त्वा ) प्रिय आपको (प्रजापतये ) प्राण, इन्द्रिय आदि प्रजा के स्वामी अपने जीवात्मा के लिए ( गृह्वामि ) ग्रहण करता हूँ। ( एषः ) यह जीवात्मा (तेयोनिः ) आपका घर है, निवासस्थान है। ( सूर्यः ते महिमा ) सूर्य आपकी महिमा है। ( यः ते ) जो आपकी ( अहन् संवत्सरे) दिन और वर्ष में ( महिमा सम्बभूव ) महिमा विद्यमान है, ( यः ते ) जो आपकी ( वायौ अन्तरिक्षे ) वायु और अन्तरिक्ष में (महिमा सम्बभूव ) महिमा है, ( यः ते ) जो आपकी (दिवि सूर्ये ) द्युलोक और सूर्य में | ( महिमा सम्बभूव ) महिमा है ( तस्मै ते महिम्ने ) उसे तेरी महिमा के लिए, (प्रजापतये) प्रजापति जीवात्मा के लिए और ( देवेभ्यः) शरीरस्थ सब प्राणों, इन्द्रियों आदि के लिए ( स्वाहा ) सुप्रशंसा के वचन हम कहते हैं।

जब हम इस विशाल सृष्टि की ओर निहारते हैं, तब सहसा यह विचार मन में आता है कि इसकी रचना करनेवाली कोई होना चाहिए। तब हम परमेश्वर को मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं और हमारा प्रयत्न होता है कि हम उस महामहिम  के दर्शन करें। चर्म चक्षुओं से उसके दर्शन नहीं हो सकते, क्योंकि वह अकाय है, उसका कोई भौतिक शरीर नहीं है। वह ‘उपयाम’ से गृहीत होता है। उपयाम का अर्थ है ,समीप गमन। उसके समीप जाने के लिए रेलगाड़ी, मोटरकार, जलपोत या विमान की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके सामीप्य के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इन अष्टाङ्गों की साधना करनी पड़ती है। जब उसकी झाँकी मिलती है, तब वह बड़ा प्रियदर्शन प्रतीत होता है। उसके साक्षात्कार से जीवात्मा को बड़ा बल मिलता है। साधक को ऐसा लगता है कि मैं इसे अपने आत्मा में बसा लँ, मेरा आत्मा उसका घर हो जाए, उसका निवासस्थान बन जाए। फिर उसे प्रकृति में सर्वत्र उसकी महिमा दीखने लगती है। वह कहता है कि दिन में और बारह महीनों वाले वर्ष में जो महिमा दृष्टिगोचर होती है, वह आपकी ही है। दिन और रात्रि क्रमशः एक-दूसरे के बाद आते हैं। रात्रि का अन्धकार छाया हुआ है, सब प्राणी विश्राम कर रहे हैं। उषा खिलती है, सूर्योदय होता है, अंधेरा मानो गिरि-कन्दराओं में शरण लेने भाग जाता है। प्रभातवेला में सब विश्राम से उठकर अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो जाते हैं। सूर्य गगन के मध्य में जा पहुँचता है। मध्याह्न होता है, सायंकाल होता है, फिर रात्रि आती है, फिर सूर्योदय होता है। दिनों से पखवाड़ा बनता है, महीने बनते हैं, ऋतुएँ बनती हैं, वर्ष बनता है। ऋतुओं का क्रम से आना-जाना, ग्रीष्म-वर्षा-शरद-हेमन्त-शिशिर वसन्त का क्रीडा करना कैसा सुहावना प्रतीत होता है। यह सब महिमा आपकी ही है। फिर वायु और अन्तरिक्ष की महिमा भी दर्शनीय है। कभी वायु शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन के रूप में और कभी साँय-साँय, झाँय-झाँय करता हुआ झंझावात के रूप में प्रकट होता है। उसके साथ-साथ वृक्ष वनस्पति-लताएँ झूमती हैं। अन्तरिक्ष में बादल बनना, बिजली चमकना-गरजना, कभी बूंदा-बांदी, कभी रिमझिम, कभी मूसलाधार वृष्टि होना यह सब कैसा महिमामय है! यह महिमा भी आपकी ही है। फिर सूर्य और द्युलोक की महिमा भी निराली है। यह छोटे गोल थाल जैसा प्रतीत होनेवाला सूर्य आकार में और भार में कितना बड़ा है, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। उसमें कोसों लम्बी ज्वालाएँ निकल रही हैं। यह अपने सब ग्रहों को उनके उपग्रहों सहित अपनी आकर्षण शक्ति से अपने चारों ओर घुमा रहा है। इन सबके प्राणों का और ऊर्जा का यह केन्द्र है। द्युलोक में जो छोटे-छोटे असंख्यों नक्षत्र दीख रहे हैं, ये सूर्य से भी बड़े प्रकाशमय लोक हैं, जिनके अपने-अपने ग्रह और उपग्रह हैं। यह सूर्य और द्युलोक की दिव्य महिमा भी आपकी ही है। इन और इन जैसी अन्य अनेकों महिमाओं के लिए हम ‘स्वाहा’ करते हैं, आपका जयजयकार बोलते हैं। शरीरस्थ प्रजापति जीवात्मा और उसके आश्रित ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन-बुद्धि-प्राणों के लिए भी हम ‘स्वाहा’ करते हैं, क्योंकि यह भी आपकी एक अद्भुत सृष्टि है।

तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार  

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता ब्रह्मा । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

सशितो रश्मिना रथः सर्शितो रश्मिना हर्यः ।। सशितो अप्स्वप्सुजा ब्रह्मा सोमपुरोगवः ॥

-यजु० २३.१४

(संशित:१) तीव्र हो जाता है ( रश्मिना ) सूर्यकिरण से ( रथः) सौर रथ । ( संशितः ) तीव्र हो जाता है ( रश्मिना) लगाम से ( हयः) घोड़ा। ( संशितः ) तीव्र हो जाता है। (रश्मिना ) ज्ञानरश्मि से ( अप्सुजाः ) वाक्प्रवाहों में प्रसिद्ध, ( सोम-पुरोगवः२) यज्ञ का पुरोधा ( ब्रह्मा ) ब्रह्मा ( अप्सु) कर्मकाण्डों में।

बड़े सौभाग्य से हमें उत्तम कार्य करने के लिए मानव शरीर मिला है। समय न्यून है, कार्य बहुत है। अतः गति में तीव्रता लाने से ही कार्य पूर्ण हो सकता है। देखो, सौर विद्युत् से चलनेवाला भूयान, जलयान या विमान रूप रथ सूर्यरश्मि के प्रयोग से तीव्र हो जाता है। अश्वयान में जुता हुआ घोड़ा लगाम रूप रश्मि के खींचने और ढीला करने के संकेत से तीव्र गति से चलने लगता है। वेदपाठरूप वाक्प्रवाहों में प्रसिद्ध, यज्ञ का पुरोधा ब्रह्मा ज्ञानरश्मि से कर्मकाण्डों में तीव्र हो जाता है। तुम भी यदि अपने कार्य तीव्र गति से करना चाहते हो, तो रश्मि का प्रयोग करो। रश्मि और ज्योति पर्यायवाची हैं। राजर्षि जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछा था कि मनुष्य के पास ज्योति कौन सी है—किंज्योतिरयं पुरुषः ? उनका संवाद इस प्रकार चला था-‘आदित्य ही मनुष्य के लिए ज्योति का काम करता है। आदित्य न हो तब? उस समय चन्द्रमा ज्योति होता है। चन्द्रमा भी न हो तब? तब अग्नि ज्योति होगी, दीपक या मशाल के प्रकाश में मनुष्य अपना कार्य कर सकेगा। अग्नि भी सुलभ न हो तब? तब वाणी ज्योति का काम करेगी। गुरुजनों की वाणी, महात्माओं की वाणी ही राह दिखाती है। वाणी भी सुलभ न हो तब? तब मनुष्य का अपना आत्मा ही ज्योति का काम करता है। आत्मा भी ज्योति देने में विफल रहे, तब परमात्मा ज्योति बनता है। अतः यदि तुम अपने कार्यों में सही दिशा में तीव्रता लाना चाहते हो, तो परमात्म-सूर्य की रश्मि को पकड़ो। उससे जो उजाला या अन्त:प्रकाश प्राप्त होगा, वह ज्योतियों की ज्योति का काम करेगा।” उस रश्मि को पकड़कर तुम राह नहीं भटकोगे, तुम्हारी गति में तीव्रता आयेगी और शीघ्र लक्ष्य पर पहुँच सकोगे।

याद रखो रश्मि से रथ में तीव्रता आती है, रश्मि से अश्व में तीव्रता आती है, रश्मि से ब्रह्मा के कर्मकाण्ड में तीव्रता आती है। तुम भी अपने सत्कायों में तीव्रता लाने के लिए ‘रश्मि’ प्राप्त करो।।

पादटिप्पणियाँ

१. संशितः–सं शो तनूकरणे।

२. सोमस्य यज्ञस्य पुरोगवः पुरोधाः। ‘यज्ञः सोमो राजा’-जै० ब्रा०१.२५९।।

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार 

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता आत्मा। छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्वयं वार्जिंतुन्व कल्पयस्व स्वयं य॑जस्व स्वयं जुषस्व। हिमा तेऽन्येन सुन्नशे

-यजु० २३.१५

( स्वयं ) स्वयं ( वाजिन्) हे बली आत्मन् ! तू ( तन्वं कल्पयस्व ) शरीर को समर्थ बना, ( स्वयं यजस्व ) स्वयं यज्ञ कर, ( स्वयं जुषस्व ) स्वयं फल प्राप्त कर। ( ते महिमा ) तेरी महिमा ( अन्येन न सन्नशे४) दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। |

हे मेरे आत्मन् ! क्या तू इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है। कि कोई तुझे सोते से जगाने आयेगा, उठाने आयेगा, कर्मतत्पर करने आयेगा, सफलता दिलाने आयेगा। यदि ऐसा है, तो तू भूल में पड़ा है। तू अपनी शक्ति को पहचान। तू तो ‘वाजी’ है, बलवान् और वेगवान् है। ‘वाज’ का अर्थ संग्राम भी होता है। तू संग्रामवान् भी है। रण उपस्थित होने पर तू उसमें वीरता दिखानेवाला है, आन्तरिक और बाह्य दोनों शत्रुओं से जूझनेवाला है। तुझे स्वयं जागना होगा। क्या शेर को कोई जगाने जाता है। जाग, उठ, शत्रु से लोहा ले, विजयी हो। स्वयं तू अपने शरीर को समर्थ बना, परिपुष्ट बना। यदि तू शरीर से निर्बल है, तो दूसरा कोई तेरे शरीर को बलवान् बनाने नहीं आयेगा, तुझमें प्राण फेंकने नहीं आयेगा। स्वयं उत्साह दिखा, स्वयं पुरुषार्थ कर, स्वयं उद्यमी हो, स्वयं शरीर में बल का सञ्चय कर। ‘‘बल से ही पृथिवी टिकी है, बल से ही अन्तरिक्ष टिका है, बले से ही द्युलोक टिका है। बले से ही पर्वत टिके हैं। बल से ही देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण, वनस्पति स्थित हैं। बल के सहारे ही हिंस्र जन्तु स्थित हैं। बड़े से लेकर कीट पतङ्ग-चींटी तक सब बल की दुहाई दे रहे हैं। बल से ही सारा लोक स्थित है।

शरीर को सामर्थ्यवान् बनाकर निकम्मा मत बैठा रह, न ही दूसरों को सताने में या सुधरी बात को बिगाड़ने में सामर्थ्य का उपयोग कर। शरीर को समर्थ बनाकर यज्ञ में जुट जा, लोकहित के कार्यों में रुचि ले, परोपकार को अपना आदर्श बना। देवपूजा का यज्ञ रचा, सङ्गतिकरण का यज्ञ रचा, शुभ कार्य के लिए लोगों को सङ्गठित कर। यह विभिन्न प्रकार का यज्ञ भी तुझे स्वयं ही करना होगा। स्वयं ही प्रारम्भ किये यज्ञ को सफल कर।

याद रख, तू महान् है, महिमावान् है, शक्तिमान् है, सब कुछ कर सकने में समर्थ है। तेरी महिमा को कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता।

पाद टिप्पणियाँ

१. तनू, द्वितीया एकवचन= तनूम् । तनू-अम्, छान्दस यणादेश ।

२. यज देवपूजा-सङ्गतिकरण-दानेषु ।

३. जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः, लोट् ।

४. सं-नशतिः आप्नोतिकर्मा । तुमुन् के अर्थ में शे=ए प्रत्यय ।

५. छा० उ०, प्रपाठक ७, खण्ड ८ ।।

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार  

आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा की अमरता और  मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः विराड् आर्षी जगती ।

न वाऽऽएतन्प्रिंयसेन रिष्यसि देवाँर ॥ऽइदेषि पृथिभिः सुगेभिः। यत्रासते सुकृतो यत्र ते युस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥

-यजु० २३.१६

हे आत्मन् ! ( न वै उ एतत् ) न ही निश्चय से यह तू ( म्रियसे ) मरता है, (न रिष्यसि ) न तेरी हिंसा होती है। | ( सुगेभिः पथिभिः) सुगम योगमार्गों से (देवान्इत्एषि) दिव्यताओं को ही प्राप्त करता है। ( यत्र आसते ) जहाँ स्थित । हैं ( सुकृतः ) सुकर्मा जन, ( यत्र ते ययुः ) जहाँ वे गये हैं। ( तत्र ) उस मुक्तिलोक में (त्वा) तुझे (देवःसविता) प्रकाशक जगदुत्पादक परमेश्वर ( दधातु ) रखे।

हे मेरे आत्मा ! तू अमर है। न तुझे शस्त्र काट सकते हैं, न तुझे आग जला सकती है, न तुझे जल गला सकते हैं, न तुझे आँधी सुखा सकती है। तेरा शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है, तू नहीं। तू कर्मानुसार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की योनि में जन्म ग्रहण करता है। जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है, तब मनुष्य का जीव पश्वादि नीच शरीर में जाता है और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है, तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है। और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्यजन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि होते हैं। नाना प्रकार जन्म मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है, जब तक उत्तम कर्मोपासना-ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता।।। ।

परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म-अविद्या-कुसङ्ग कुसंस्कार, बुरे व्यक्तियों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय धर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सबसे उत्तम साधनों को करने इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञा भङ्ग करने आदि काम से बन्ध होता है।”

मुक्ति के विशेष साधन हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और मुमुक्षत्व। ** जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है, वैसे परमेश्वर के आधार से मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोकलोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते उन सब में घूमता है। जितना ज्ञान अधिक होता है, उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुखविशेष ‘स्वर्ग’ और विषय-तृष्णा में फँसकर दु:खविशेष भोग करना ‘नरक’ कहाता है।’५

हे मेरे आत्मन् ! तू सुगम योगमार्गों पर चल, योगाभ्यास से तुझे दिव्य शक्तियाँ प्राप्त होंगी और तू मुक्त होकर उस ब्रह्म में स्थित हो सकेगा, जिसमें पूर्व सुकर्मा मुक्तात्माएँ स्थित हैं। जहाँ पूर्व सुकर्मा जन जा चुके हैं, उस मुक्तिलोक में तुझे प्रकाशमान सविता प्रभु ले जाये। तेरा प्रयास और प्रभुकृपा दोनों मिलकर तुझे अवश्य सफलता प्राप्त करायेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. रिष हिंसार्थः, दिवादिः ।

२. (देवः) स्वप्रकाश: (सविता) सकलजगदुत्पादकः परमेश्वर:-२० ।

३-५. स० प्र०, समु० ९

आत्मा की अमरता और  मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार

चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता आचार्यब्रह्मचारिणौ ।। छन्दः स्वराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

ताऽउभौ चतुरः पदः सम्प्रसारयाव स्वर्गे लोके प्रोवाथां वृषा वजी रेतो धा रेतों दधातु ॥

-यजु० २३.२०

( तौ उभौ ) वे हम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी ( चतुरः पदः ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पैरों को ( सम्प्रसारयाव) फैलायें। हे आचार्य और ब्रह्मचारी ! तुम दोनों (स्वर्गे लोके ) ब्रह्मचर्याश्रम रूप स्वर्ग लोक में (प्रोर्णवाथां) एक-दूसरे को आच्छादित करो। हे ब्रह्मचारिन् । ( वृषा) विद्या का वर्षक ( वाजी ) विद्या-बल से युक्त ( रेतोधाः ) विद्या एवं ब्रह्मचर्य रूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य (रेतः दधातु ) तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधान करे।

हे ब्रह्मचारिन् ! तू मुझ आचार्य के आचार्यत्व में गुरुकुल में प्रविष्ट हुआ है। आ, तेरे इस ब्रह्मचर्याश्रम में हम दोनों मिल कर चार पैर फैलायें । वे चार पैर हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सर्वप्रथम तुझे धर्मशास्त्र पढ़ना है। चारों वर्गों, चारों आश्रमों तथा राजा-प्रजा के कर्तव्यों का सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना है। साथ ही अपने ब्रह्मचर्याश्रम के व्रतों का क्रियात्मक रूप से पालन करना है। अभी तुझे यह विदित नहीं है, न ही मुझे इसका ज्ञान है कि तू ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में से किस वर्ण को ग्रहण करेगा। जब तू कुछ वर्ष मेरे पास रह कर व्रतपालन और अध्ययन कर लेगा, तब तू भी अपनी रुचि देखेगा और मैं भी तुझे परख लूंगा कि तुझमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में से किस वर्ण का बनने की योग्यता है। परख लेने के बाद उसी दिशा में तेरा अध्ययन चलेगा। धर्मशास्त्र के साथ तुझे अर्थशास्त्र भी पढ़ना है, क्योंकि विद्या जब तक अर्थकरी नहीं होती, तब तक जीवन में सफलता नहीं मिलती। तू समावर्तन संस्कार के बाद जिस अर्थकरी विद्या से धन अर्जन करने में प्रवृत्त होगा वह विद्या तुझे यहाँ ब्रह्मचर्याश्रम में ही पढ़ लेनी है। ब्रह्मचर्याश्रम में काम और मोक्ष का भी अपना स्थान है। यद्यपि गृहस्थाश्रमवाला ‘काम’ यहाँ नहीं है, तथापि श्रेष्ठ सङ्कल्पोंवाला ‘काम’ यहाँ भी है। ‘काम’ का महत्त्व वर्णन करते हुए अथर्ववेद (९.२.२०,२४) का कथन है कि ‘विस्तार में जितने बड़े द्यावापृथिवी हैं, जितनी बड़ी जलराशि और अग्नि है, उससे भी ‘काम’ अधिक बड़ा है। न वायु ‘काम’ की महत्ता को प्राप्त करता है, न अग्नि, न सूर्य, न चन्द्रमा। उनसे भी अधिक बड़ा काम है।” ब्रह्मचर्याश्रम में भी दृढ़ सङ्कल्प एवं इच्छाशक्ति का उपयोग करना अभीष्ट है। मोक्ष की भी नींव ब्रह्मचर्याश्रम में ही पड़ जाती है। मोक्ष के सम्बन्ध में सैद्धान्तिक ज्ञान ब्रह्मचारी सब प्राप्त कर लेता है, योगाङ्गों को कुछ क्रियात्मक ज्ञान भी पा लेता है। आगामी आश्रमों में मोक्ष की नींव और अधिक पक्की हो जाती है।

मन्त्र की इसके बाद की भाषा ब्रह्मचारी के माता-पिता तथा गुरुकुल से बाहर के विद्वानों की ओर से कही गयी है। ब्रह्मचर्याश्रम-रूप स्वर्ग में रहते हुए तुम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी स्वयं को आच्छादित-रक्षित करते रहो, जिससे पापरूप राक्षस तम्हें व्यथित न करे। सावधान न रहने पर आचार्य और ब्रह्मचारी दोनों ही ऐसे कर्मों में लिप्त हो सकते हैं, जो उनके लिए अभीष्ट नहीं हैं। उनसे बचने के लिए आच्छादन करना, अर्थात् स्वयं को ढकना आवश्यक है। इसके पश्चात् मन्त्र कहता है कि हे ब्रह्मचारी ! विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्य के वीर्य का आधान करे, जिससे तू सच्चे अर्थों में विद्वान्, ब्रह्मचारी और व्रतपालक होकर गुरुकुल से बाहर आये और अपनी विद्वत्ता, ब्रह्मचर्य तथा व्रतनिष्ठा का लाभ जनता को पहुँचा सके।

पादटिप्पणी

१. इस मन्त्र का अर्थ उवट एवं महाधर ने अश्वमेध के अश्व एवंमहिषी (राजरानी) परक अत्यन्त भ्रष्ट किया है ।

चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार  

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता परमात्मा आचार्यश्च । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

दधिक्राव्णोऽअकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।। सुरभि नो मुखा करत्प्र णूऽआयूछषि तारिषत् ॥

-यजु० २३.३२

हमने ( दधिक्राव्णः ) धारण करनेवाले तथा आगे बढानेवाले, (जिष्णोः ) विजयशील, ( अश्वस्य ) व्यापक ज्ञानवाले, ( वाजिनः ) बलवान् परमेश्वर तथा आचार्य की (अकारिषम् ) स्तुति की है। वह ( नः मुखा) हमारे मुखों को ( सुरभि ) सुगन्धित (करत् ) करे, और (नः आयूंषि ) हमारी आयुओं को ( प्रतारिषत् ) बढ़ाये ।।

आओ, दधिक्रावा वाजी ‘अश्व’ की स्तुति करें। वह हमारे मुखों को सुरभित करेगा और हमारी आयुओं को बढ़ायेगा। क्या कहा? दधिक्रावन्, वाजिन् और अश्व ये तीनों तो घोड़े के पर्यायवाची नाम है। घोड़ा कैसे हमारे मुख सुरभित करेगा और कैसे हमारी आयु बढ़ायेगा ? रहस्यार्थ कुछ और ही प्रतीत होता है। ये तीनों नाम आचार्य और परमेश्वर के भी हैं। आचार्य दधिक्रावा’ है, क्योंकि वह ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करने के कारण ‘दधि’ और उसे उद्यमी और क्रियाशील बनाने के कारण ‘क्रावा’ है। परमेश्वर जगत् को धारण करने के कारण ‘दधि’ और मनुष्य को सक्रिय करने के कारण ‘क्रावा’ है । आचार्य और परमेश्वर दोनों को ‘वाजी’ इस हेतु से कहते हैं कि दोनों ज्ञान के बल से बली हैं। आचार्य को ‘अश्व’ कहने में यह कारण है कि वह गुरुकुल-रूप रथ का सञ्चालक तथा व्यापक ज्ञानवाला होता है और परमेश्वर सर्वव्यापक होने से ‘अश्व’ कहलाता है। आचार्य और परमेश्वर दोनों के लिए मन्त्र में ‘जिष्णु’ विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि दोनों विजयशील हैं। आचार्य ब्रह्मचारी के अज्ञान पर विजय पाता है और परमेश्वर सब दुर्गुणी राक्षसों और दुर्गुणों पर विजयी होता है।

स्तोता कह रहा है कि मैं आचार्य और परमेश्वर रूप अश्व की स्तुति करता हूँ, उनके गुणों का कीर्तन करता हूँ तथा उनमें से जो गुण मेरे धारण करने योग्य हैं, उन्हें मैं भी धारण करता हूँ। ब्रह्मचारी का कर्तव्य है कि वह अपने आचार्य का यथायोग्य सम्मान करे, उसके पढ़ाये हुए पाठ को स्मरण करे, उसके उपदेशों का पालन करे । ब्रह्मचारी आचार्य से सीख कर जब वेदमन्त्र, शिक्षाप्रद श्लोक, सूक्तियों आदि का उच्चारण करते हैं और ज्ञान की बातें बोलते हैं, तब उनसे उनके मुख सुरभित होते हैं। आचार्य उनसे यथायोग्य व्यायाम तथा प्राणायाम आदि योगक्रियाएँ करा कर उनके शरीरों को बलवान् बनाता है, जिससे उनकी आयु बढ़ती है। परमेश्वर अपने स्तोताओं को ‘श्रेष्ठ ज्ञान तथा सदाचार’ में प्रवृत्त करता है तथा उन्हें सर्वचन बोलने की प्रेरणा करता है, दूसरों की निन्दा आदि से बचाता है। इस प्रकार वह उनके मुखों को सुगन्धित करता है। वह उन्हें सत्कर्मों में प्रवृत्त कर तथा दुर्व्यसनों से हटा कर उनकी आयु को भी बढ़ाता है। |

आइये, हम भी आचार्य और परमेश्वर रूप · अश्व’ की स्तुति-उपासना करके अपने मुखों को सुरभित करें और दीर्घायुष्य प्राप्त करें।

पादटिप्पणियाँ

१. मुखा=मुखानि । सुरभि=सुरभीणि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७० । | करत्-कृ धातु लेट् लकार, करोतु । प्रतारिषत्-प्र पूर्वक तृ धातुवर्धनार्थक होती है, लेट् लकार।

२. निघं० १.१४

३. गर्भे दधातीति दधिः, क्रमर्यात क्रियाशीलं करोतीति क्रावा। दधिश्चासौक्रावा चेति दधिक्रावा ।

४. दधाति जगद् यः स दधिः, क्रमयति सक्रियं करोतीति क्रावा।दधिश्चासौ क़ावा चेति दधिक्रावा ।

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार 

बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार

बकरा  घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता यज्ञः । छन्दः निवृद् जगती।

एष छार्गः पुरोऽअश्वेन वाजिन पूष्णो भूगो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोडाशमर्वता त्वष्टेदेनसौश्रवसाय जिन्वति

-यजु० २५.२६

 (एषः ) यह (विश्वदेव्यः१) सब इन्द्रियों का हितकर्ता ( छागः२) विवेचक मन (वाजिनाअश्वेन) बलवान् कर्म फलभोक्ता जीवात्मा के साथ ( पूष्णः भागः ) पोषक परमेश्वर का भक्त बनकर उसके प्रति ( नीयते ) ले जाया जा रहा है। ( अर्वता ) पुरुषार्थी जीवात्मा के साथ ( अभिप्रियं) परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाले ( पुरोडाशं ) हविरूप ( यत् ) जिस मन को और ( एनं ) इस जीवात्मा को ( त्वष्टा ) सृष्टिकर्ता परमेश्वर ( इत् ) निश्चय ही ( सौश्रवसाय ) उत्तम यश के लिए (जिन्वति) तृप्त करता है।

आओ, बकरे को घोड़े के सिर में बाँध कर ‘पूषा’ के पास ले चलें। ये बकरा और घोड़ा पशुपति पूषा के पास जाकर उसकी भक्ति करेंगे। किन्तु कहीं आप इन्हें सचमुच का बकरा और घोड़ा पशु मत समझ लेना। बकरे का वाचक शब्द मन्त्र में छाग’ है। छाग शब्द छेदनार्थक ‘छो’ धातु से बनता है। मनुष्य के मन को भी छाग’ कहते हैं, क्योंकि मन किसी गूढ़ सन्दर्भ की काट-छाँट या विवेचना करके विवक्षित भाव को निकालता है। ‘अश्व’ शब्द भोजनार्थक क्रयादिगणी अश धातु से बना है, जिसका अर्थ यहाँ कर्मफलभोक्ता जीवात्मा है। अति बलिष्ठ होने के कारण वह ‘वाजी’ कहलाता है। पूषा’ पोषक परमेश्वर का नाम है। मनुष्य अपने मन और आत्मा को पूषा परमेश्वर के सान्निध्य में ले जाकर उसकी उपासना  करते हैं, तो वे भी पूषा परमेश्वर के पोषण गुण से युक्त हो जाते हैं। वे स्वयं परिपुष्ट और शक्तिशाली होकर अन्यों को भी पोषण प्रदान करते हैं। इस प्रकार पुष्टि का साम्राज्य सर्वत्र छा जाता है। पूषा’ परमेश्वर के साथ-साथ मनुष्य के मन और आत्मा त्वष्टा’ परमेश्वर की भी उपासना करते हैं, जो सृष्टि का रचयिता अद्भुत शिल्पकार है। त्वष्टा की उपासना से मनुष्य के मन और आत्मा भी शिल्पकार और अद्भुत कारीगर हो जाते हैं। मन और आत्मा मिलकर स्वान्त:सुख तथा परसुख के लिए सत्साहित्य की सृष्टि करते हैं, जनहित के लिए तरह तरह के उपयोगी यन्त्र, यान, ओषधि, चिकित्सा के उपकरण, ज्ञानवर्धन तथा मनोरञ्जन के साधन आदि का आविष्कार करते हैं। मन और आत्मा त्वष्टा प्रभु के पुरोडोश (समर्पणीय हवि) बन जाते हैं, त्वष्टा प्रभु को आत्मसमर्पण कर देते हैं। इनके आत्मसमर्पण से सन्तष्ट होकर त्वष्टा’ इन्हें सौश्रवस अर्थात सुकीर्ति से संतृप्त कर देता है। |

आओ, हम भी अपने बकरे और अश्व अर्थात् मन और आत्मा को पूषा और त्वष्टा देव के प्रति ले जायें तथा उन दोनों के गुण-कर्मों से संतृप्त होकर स्वयं को कृतार्थ करें।

पादटिप्पणियाँ

१. विश्वेभ्यो देवेभ्यः इन्द्रियेभ्यो हित: विश्वदेव्यः ।

२. छ्यति छिनत्ति विविनक्ति विषयान् यः स छाग: मनः । छो छेदने,दिवादिः ।।

३. अश्नाति कर्मफलानि भुङ्के यः सोऽश्व: जीवात्मा। (अश्वः कस्मात् ?अश्नुते ऽध्वानं महाशनो भवतीति वा, निरु० २.२८) ।

४. ऋच्छति गच्छति पुरुषार्थी भवतीति अर्वा ।।ऋ गतौ, वनिप् प्रत्यय उ० ४.११४।।

५. पुर: अग्रे दायते दीपते इति पुरोडाशः हविः ।| पुरस्-दाशे दाने।।

६. श्रूयते इति श्रवः यशः, शोभनं श्रवः सुश्रवः, सुश्रवसो भावः सौश्रवसम्।

७. जिवि प्रीणने, भ्वादिः ।

बकरा  घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार