पिछले अंक का शेष भाग……
बरकत अली को उसकी नीचता का उचित दण्डः- बुवाना लाखू के पटवारी बरकत अली और गिरदावर को उनकी इस नीचता का दण्ड देने के लिए आपने अपने छोटे भाई चौधरी रिछुराम को अपने पास बुलाया और अपना सारा हिसाब किताब उनको समझा दिया। आप उन दोनों नराधमों को संसार से मिटाने के लिए उद्यत हो गये। उसी समय एक पत्रवाहक एक पत्र लेकर आपके सामने उपस्थित हुआ वह पत्र उसने आपको दिया। आपने उसे पढ़ा। वह एक आर्य समाजी जिलेदार का था, जिसमें उसने लिखा था आप अत्यावश्यक कार्य छोड़ कर मुझ से मिलें। वे तुरन्त उनसे मिलने चले गये। दोनों की परस्पर आवश्यक बातें हुई। बातों-बातों में आपने दोनों यवनों को मारने का अपना निश्चय भी बतलाया। जिलेदार ने पटवारी फूल सिंह को समझाते हुए कहा- पटवारी जी, शत्रु से प्रतिकार लेने का यह उत्तम उपाय नहीं है। आप एकदम पटवार का अवकाश स्थगित करा लीजिए। कागजात सभाल कर बरकत अली से ले लीजिए वह कहीं न कहीं गलती में अवश्य फंसा मिलेगा उस चोट से उस पर प्रहार कीजिये जिस चोट को वह जीवन भर स्मरण रखे। ऐसा करने पर आपको एक पत्र मिल गया जिसमें अदुल हक गिरदावर ने लिखा था कि पटवारी जी मुझे गाँव वालों से गाय दिलाओ, रूपये दिलाओ इत्यादि। उचित समय पाकर आपने उन पर मुकदमा दायर कर दिया और अपने पक्ष के सही कागजात अदालत में उपस्थित कर दिये। इसका परिणाम वही हुआ जो आप चाहते थे। अपराधी सिद्ध होने पर दोनों ही अपने-अपने पदों से नीचे गिरा दिये गये। अपने किये का फल पाकर वे दोनो बड़े लज्जित हुए।
महर्षि दयानन्द की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए पटवार से त्याग पत्रः- समाज सेवा व दुःखियों के दुःख दूर करना आपके जीवन का लक्ष्य हो गया था। सेवा करने में अब आपको पटवार की नौकरी भी रुकावट दिखाई देने लगी आपने अपने परिजनों से सर्विस छोड़ने का विचार बताया। सभी ने आपको समझाया की नौकरी बड़ी मुश्किल से मिलती है। आय का अन्य स्रोत भी नहीं है। परन्तु धुन के धनी ने किसी की बात न मानते हुए पटवार से त्याग पत्र दे ही दिया। आपके द्वारा 1918 में प्रेषित त्याग पत्र जब आपके महकमे के उच्च अधिकारियों के पास पहुँचा तो इस त्याग-पत्र से बहुत दुःखी हुए। उन्होंने आपका त्यागपत्र आपको वापिस भेज दिया। आपने पुनः उनके प्रेम के लिए धन्यवाद करते हुए अपने जीवन के लौकिक सुख के मार्ग को छोड़कर पारलौकिक मार्ग को अपनाने की इच्छा व्यक्त की। आध्यात्मिक जगत में ही मेरी प्रीति हो चली है। अतः आप मेरे त्यागपत्र को स्वीकार कर मुझे पटवार की सेवा से मुक्त करने का कष्ट करें। मुयाधिकारियों ने अनिच्छा होते हुए भी आपकी महान कार्य करनेकी अभिलाषा जानकर आपका त्याग-पत्र स्वीकार किया।
स्नेही भाई कूड़े राम का महाप्रयाणः- इन्हीं दिनों आपके बड़े भाई कूड़ेराम जी अस्वस्थ चल रहे थे। आप त्यागपत्र देकर अपने पैतृक गांव माहरा आ गये । बड़े भाई को रुग्न देखकर आप बहुत चिन्तित हुए आपने उनकी चिकित्सा कराने का पूरा प्रयत्न किया। अपना अन्तिम समय आया जानकर आपको अपने पास बुलाकर ये शब्द कहे- ‘‘भाई मेरा तो अब अन्तिम समय आ गया है। आप जैसे भाई के साथ अब मैं रह न सकूंगा। यदि मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे आप क्षमा कर देना। आपके जीवन का उद्देश्य महान है। मेरी प्रभु से बार-बार यही प्रार्थना है कि वह तुहारे जीवन के लक्ष्य को पूर्ण करे।’’ ये शब्द कहकर उन्होंने सदा के लिए आँख बन्दकर ली। आप भाई के असह्य वियोग को सहकर धैर्य धारण करके जीवन-मरण की गति को निश्चित मानकर सेवा के लिए उद्यत होकर आगे बढ़े।
गुरुकुल की स्थापनाः- पटवार के कार्य से मुक्त होकर सेवाव्रती बनकर विचारने लगे कि बालकों को युवाओं को धार्मिक ग्रन्थ पढ़ाये जायें जिससे उनको अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का बोध हो। इस सारे कार्य क ो पूर्ण कने के लिए ‘‘आर्य युवक विद्यालय’’ खोला जावे। इस महान उद्देश्य को पूर्ण करने केलिए अपने गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द जी के सामने अपने विचार रखे। स्वामी जी ने उनको समझाते हुए कहा, ‘‘कि आप गुरुकुल खोलिये और उसमें छोटे छोटे बालकों को प्रवेश दीजिए। छोटे बालक जब उत्तम शिक्षा से शिक्षित होकर संसार में काम करेंगे, वे अधिक सफल हो सकेंगे। छोटे बच्चों में ही उत्तम संस्कार डाले जा सकते हैं। उन्हें आप जैसा बनाना चाहेंगे वैसा बना भी सकेंगे। आप भी गुरुकुल कांगड़ी की तरह हरियाणा में आदर्श गुरुकुल खोलिये। इसी से आर्य जाति का कल्याण होगा। स्वामी जी के विचारों का भक्त जी पर बड़ा प्रभाव पड़ा। अब गुरुकुल खोलने के लिए उचित स्थान ढूढ़ने लगे। इस तरह घूमते-घूमते तीन वर्ष व्यतीत हो गये। इसी प्रकार घूमते हुए वे जिला रोहतक के ग्राम आवंली पहुँचे। आँवली ग्राम के प्रसिद्ध पंचायती आर्य पुरुष श्री गणेशी राम जी अपने भतीजे बलदेव का दसूटन धूम-धाम से कर रहे थे आप भी उस स्थान पर अन्य प्रतिष्ठित पुरुषों के साथ पहुँचे। आपने देखा जिस स्थान पर लोग बैठे हैं वह स्थान बहुत मैला (गन्दा) है। आपने पास पड़ी झाडू उठाई और सफाई करने लगे। उसी समय श्री गणेशी राम की द़ृष्टि लबी काली दाढ़ी वाले उस तेजस्वी व्यक्ति पर पड़ी जो झाडू से सफाई कर रहा था। उन्होंने आप से झाडू लेकर स्वयं स्थान को साफ किया। तदन्तर उस तेजस्वी व्यक्ति से सभी ने पूछा आप कहाँ से आये हो? आपके आने का उद्देश्य क्या है? उन सबकी बातों को सुनकर आपने कहा- ‘‘भाइयों मैं हरियाणा की सेवा के लिये तथा बालकों को आर्य बनाने के लिए सकंल्प क रके घर से निकला हूँ। मैं तीन वर्ष से गुरुकुल खोलने के लिए उत्तम स्थान प्राप्त करने की इच्छा से सर्वत्र घूम रहा हूँ।’’
दसूटन की समाप्ति पर उपस्थित आर्यजन भैंसवाल ग्राम में आये। सब ग्राम वासियों को इकट्ठा कर आपने बड़े मार्मिक शब्दों में अपनी भावना प्रकट की। आपने कहा कि मैंने आपके गांव का जंगल देखा है, वह गाँव से दूर है, रमणीक है, उस स्थान पर यदि गुरुकुल खुल जाये तो बड़ा भारी कल्याण हो सकता है। इस काम के लिए सब भाई मिलकर गुरुकुल केलिए भूमि दान करें। गा्रम के प्रायः सभी लोगों ने आपकी प्रार्थना स्वीकार की। परन्तु जो जन उस जंगल की भूमि का उपयोग कर रहे थे, वे उस भूमि को देने में आना-कानी करने लगे। उन विरोधियों को सहमत करने के लिए आप जेठ मास की कठोर गर्मी की धूप में अनशन पर बैठ गये। धूप तथा भूख से आप मरणासन्न हो गये।
जब ग्राम वासियों ने देखा कि यह साधु प्राण त्याग देगा पर कठोर साधना नहीं छोड़ेगा। तब वे विरोध करने वाले भाई हाथ जोड़कर आपके सामने उपस्थित हुए और बोले – ‘‘भक्त जी छाया में बैठो, भोजन करो। अब हम भूमि के साथ आपक ो गुरुकुल के लिए रूपये भी देगें।’’ भक्त जी ने प्रेम भरे शब्द सुने। अपना कठोर अनशन व्रत तोड़ा। सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। गांव वालों ने 150 बीघा भूमि गुरुकुल खोलने क ो दी। सन् 1919 को गुरुकुल की आधार – शिला अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द जी से रखवाने का निश्चय किया। निश्चित तिथि को स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज देहली से सोनीपत के रेलवे स्टेशन पहुँच गये। जब स्वामी जी रेलगाड़ी से नीचे उतरे तो आर्य बन्धुओं ने वैदिक धर्म की जय महर्षि दयानन्द की जय, स्वामी श्रद्धानन्द की जय के जयघोषों से आकाश गुंजायमान कर दिया।
सोनीपत से भैंसवाल तक का मार्ग 12 कोस का है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिए रथ की व्यवस्था आर्य जनों ने की परन्तु स्वामी जी रथ में एक बार बैठकर पैदल हीअपने प्रेमियों के साथ चल पड़े। गैरिक वस्त्रधारी विशालकाय स्वामी श्रद्धानन्द जनसमूह के साथचलते हुए देदीप्यमान दिखाई दे रहे थे। गुरुकुल भैंसवाल की भूमि पर पहुँचकर आधार शिला रखने के उपरान्त आर्यजनों को सबोधित करते हुए कहा हरियाणा की भूमि आर्य भूमि कहलाने की अधिकारिणी है। यहाँ के मनुष्य माँस-मदिरा आदि दुर्गुणों से सर्वथा दूर हैं। यहाँ का भोजन दूध, दही और घी पर आश्रित है। मैंने जो उत्साह यहाँ की आर्य जनता में देखा है, वैसा उत्साह दूसरे स्थानों में कम मिलता है। मैं आशा करता हूँ कि यह कुल-भूमि हरयाणा के आर्यों का नेतृत्व करेगी।
गुरुकुल का प्रथम महोत्सवः- सन् 1920 में ज्येष्ठ मास के गुरुकुल भैंसवाल का प्रथम वार्षिक उत्सव धूम-धाम से सपन्न हुआ । इस उत्सव में उत्तम विद्वान्, सन्यासी, भजनोपदेशक समिलित हुए थे। उत्सव में कई हजार नर-नारियों की उपस्थिति रही। जनता में अपार हर्ष था। इस अवसर पर भक्त फूल सिंह के महान् कार्य की प्रशंसाा करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने जनता से धन की अपील की। इस अपील से प्राावित होकर आर्य जनता ने बीस हजार रूपये की विशाल धन राशि प्रदान की। इससे गुरुकुल केावनों का निर्माण हुआ। इसी अवसर पर गुरुकुल में पचास छोटे-छोटे बालकों को प्रवेश दिया गया, जिनका वेदारभ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कराया। उनकी ओर से सब विधि स्वामी ब्रह्मानन्द जी कर रहे थे।
गुरुकुल भूमि के इन्तकाल के लिए घोर तपस्याः- गुरुकुल तो चालू हो गया था। परन्तु उसकी भूमि का इन्तकाल अभी तक नहीं चढ़ पाया था। इससे आप बहुत बेचैन रहते थे। जिन लोगों की वह भूमि थी उन में से कुछ व्यक्ति इन्तकाल चढ़ाने में बाधा उपस्थित कर रहे थे। आपने घोषणा की या तो मेरे भाई गुरुकुल के नाम भूमि का इन्तकाल करा देंगे नहीं तो ज्येष्ठ मास की इस कड़कडाती धूप में अन्न जल का सर्वथा त्याग कर अपने प्राणों को त्याग दूंगा। यह कहकर उस भंयकर धूप में गाँव के बाहर बैठ गये। उस भीषण गर्मी में अन्न तथा जल के स्वीकार न करने से आप मूर्च्छित होकर गिर पड़े। लबे-लबे श्वास चलने लगे, शरीर पसीने से तर-बतर हो गया, नाड़ी की गति मन्द पड़ गई। ऐसा प्रतीत होने लगा कि आप कुछ काल के ही मेहमान हैं।
जब गाँव के अग्रणी लोगों ने भक्त जी की यह अवस्था देखी तो विरोध करने वाले व्यक्तियों को समझाया और वे भी भक्त जी को मूर्च्छित अवस्था में देखकर अश्रु बहाते हुए आपसे बोले भक्त जी हमसे बड़ा पाप हुआ, आप हमें माफ करें, छाया में बैठिये। भोजन तथा जल पीकर स्वस्थ होकर हमें पाप से बचाइये। आप जो कहोगे हम वहीं करेंगे। आप ने उन्हें छाती से लगाया इस प्रकार भूमिका इन्तकाल भी चढ़ गया और साथ में भाईयों का प्रेम भी प्राप्त कर लिया।
पटवार काल में ली हुई रिश्वत का लौटानाः- प्रजा की सेवा करते-करते आपका मन निर्मल हो गया। पटवार काल में आपने जो रिश्वत ली थी वो सारी की सारी अक्षरों में अंकित थी। जब कभी आप इन रिश्वत के लिए हुए रूपयों को देखते तो आपको बहुत मानसिक कष्ट होता। अन्त में आपने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो यह ली हुई रिश्वत वापिस करनी है। यह संया में पाँच हजार थी। आपने बहुत सोच विचार कर निर्णय किया कि अपने हिस्से की जो जमीन पैतृक गाँव माहरा में है, उसको बेचकर रिश्वत वापिस की जावे। आपने अपने मन की यह इच्छा अपने छोटे भाई चौधरी रिच्छुराम व अन्य हितैषियों को बताई। आपके भाई ने कहा, ‘‘मैं आपके धार्मिक विचारों को बदलना नहीं चाहता हूँ। आप रिश्वत में लिया हुआ रूपया अवश्य वापिस करें परन्तु मेरा आपसे निवेदन है कि भूमि को बेचे नहीं, गिरवी रख दें और रूपये प्राप्त कर लें। जब कभी मेरे पास रूपयों का प्रबन्ध होगा तब मैं उस भूमि को छुड़ा लूंगा। आपकी इच्छा भी पूरी हो जायेगी और पैतृक जायदाद भी रह जायेगी। अपने भाई की बात मानकर आपने ग्राम माहरा की पंचायत बुलाई और उनसे कहा, ‘‘भाईयों कोई गांव वाला मेरे नाम की भूमि पांच हजार रूपये में गिरवी रख ले जिस रूपये को लेकर मैं ली हुई रिश्वत को वापिस करना चाहता हूँ। गाँव का कोई भी व्यक्ति उक्त राशि देने को तैयार नहीं हुआ। तब सबको चुप देखकर खानपुर गाँव के प्रसिद्ध पंचायती श्री जयराम जी ने हाथ उठा कर ‘‘कहा माहरा गाँव के भाईयों, सुनो अगर कोई बाहर का व्यक्ति जमीन लेगा तो गांव की निन्दा होगी और कहेंगे सारा गाँव कंगाल है।’’ जयराम जी की बात सुनकर गाँव के धनी-मानी प्रतिष्ठित चौ. सुण्डूराम जी ने पाँच हजार रूपये देकर वह भूमि ले ली। उसे रूपये से आपने जिस-जिस से रिश्वत ली थी वह सब वापिस कर दी। संसार के इतिहास में यह एक अद्भूत घटना है। वाह रे, भक्त जी आपने वो काम किया जो संसार में कोई नहीं कर सका।
वृद्ध चमार को अपने सिर पर जूता मारने को कहनाः- मानव जीवन में समय-समय पर सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी वृत्तियों का उदय होता है। सतोगुणी वृत्ति से कल्याण होता है रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तियाँ पाप का कारण बन जाती हैं। जिन दिनों आप पटवारी थे और युवा थे तथा नशे में आकर एक चमार के सिर पर आपने जूते मारे थे, जिसकी याद आपको सदा बनी रहती थी।
वानप्रस्थाश्रम में दीक्षित होकर गुरुकुल के काम से उसी गाँव में आपको आना हुआ। आप तेजी से चमार के घर की ओर बढ़े। अचानक आपकी नजर उस वृद्ध चमार पर पड़ी तो आप आगे बढ़कर उसके पांवों में लिपट कर पिता जी, पिताजी, आप मेरे पाप के अपराध को क्षमा करो। मैं बड़ा पापी हूँ। अपना जूता निकालकर उनके हाथ में देते हुए कहा आप मेरे सिर पर मारकर मेरे सिर पर टिके हुए पाप के भार को उतार दो। वह चमार इस प्रकार रोते हुए देख कर घबराते हुए अपने पैर छुड़ाते हुए बोला, आप इतने बड़े साधु मुझ नाचीज के पाँव पकड़े हुए हो, मुझे इससे पाप चढ़ता है। तब आपने अपने पटवार काल की सारी घटना कह सुनाई। उस चमार ने यह सुनने के बाद कहा ‘‘उस समय आपने नहीं पटवार काल ने जूते मरवाये थे। अब आप महात्मा हैं। वह चमार आपसे लिपट कर बहुत समय तक रोता हुआ आपको भी रुलाता रहा। मन ही मन आपकी प्रशंसा करने के उपरान्त बोला आप तो ऋषि हैं देवता हैं जो अपने किये हुए पाप से दुःखी हैं। मैं प्रभु से बार-बार यही प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको सफल करे। जिससे आप मुझ जैसे अनेक दुःखियों का दुःख दूर कर सकें।’’
एक लाख रूपये का संग्रह करने का व्रतः- आचार्य युधिष्ठिर जी के गुरुकुल में आ जाने से गुरुकुल की पठन-पाठन की व्यवस्था सुचारु रूप से चलने लगी। आप गुरुकुल की आर्थिक स्थिति को सुधारने की सोचने लगे। उन्हीं दिनों आपके परम हितैषी गुमाना निवासी श्री थानसिंह जी आपसे मिलने गुरुकुल में पधारे। बातों-बातों में आपने उनसे कहा भाई- लोगों के संस्कार बिगड़ गये हैं जब तक संस्कार ठीक नहीं होगे देश का कल्याण नहीं होगा। श्री थान सिंह जी ने अपने पोते का ‘‘मुण्डन संस्कार’’ गुरुकुल के अध्यापकों से करवाने की इच्छा व्यक्त की। आपने प्रसन्नता से इसकी स्वीकृति दी। गुरुकुल केआचार्य युधिष्ठिर जी के साथ आप गुमाना गाँव पहुँचे। वहाँ पर विधि पूर्वक मुण्डन संस्कार सपन्न हुआ। उत्तम प्रवचन तथा भजनोपदेश से प्रभावित होकर श्री थान सिंह जी ने एक हजार रूपये का विपुल दान गुरुकुल को दिया। अपने इस अवसर पर श्री थानसिंह जी को धन्यवाद एवं पोते को अपना शुभाशीर्वाद प्रदान किया।
श्री थानसिंह जी द्वारा एक सहस्त्र रूपये प्राप्त करने के उपरान्त आपने गुरुकुल के भली प्रकार संचालन हेतु एक लाख रूपये एकत्रित करने का दृढ़ संकल्प किया। साथ में यह भी प्रतिज्ञा की कि जब तक उक्त रूपया इकट्टा नहीं करुंगा । तब तक दिन भर खड़ा रहूंगा, सायंकाल पाव भर जौ के आटे की ही रोटियाँ खाऊँगा तथा गुरुकुल भूमि में भी प्रवेश नहीं करुंगा। उस समय हरियाणा में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। पशु चारे-पानी के अभाव में मर रहे थे, लोगों के पास खाने को कुछ भी नहीं था।फिर भी गांव वालों ने आपके इस प्रण को सामर्थ्यानुसार पूरा करने का प्रयास करके 55000 रूपये एकत्रित किये। शेष राशि 45000 रु. की रिवाड़े गाँव के व्यक्तियों ने मन्त्रणा करके 100 बीघा जमीन गुरुकुल को दान कर दी। इस प्रकार आपका यह कठोर व्रत लगभग 4 वर्ष में पूर्ण हुआ।
उपकार से विरोधी को अपनानाः- आवली गाँव के एक प्रतिष्ठित पुरुष नबरदार रतीराम जी किन्हीं लोगों के बहकावे में आकर आपको अपना शत्रु मान बैठे परन्तु भक्त जी की तो शत्रु हो या मित्र सब पर समदृष्टि रहती थी। रात्रि में चोरों ने रतीराम जी का सहस्त्रों रूपये का धन निकाल लिया। आप इस घटना से अत्यन्त खिन्न हुए। आपने अपने सूत्रों के द्वारा चोरों का पता लगा लिया कि इस समय चोर जंगल में बैठकर धन का बंटवारा कर रहे हैं। आपने तुरन्त पुलिस को इसकी सूचना दी। पुलिस ने घटना स्थल पर पहुँचकर रंगे हाथों उन चोरों को पकड़ा और नबरदार को उसका सारा धन वापिस मिल गया। नबरदार को जब इस बात का पता चला तो वह आपके पास आया और आपके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। भक्त जी ने भी उनको उठाकर अपनी छाती से लगा लिया
गान्धरा में विशाल पंचायतः- गाँव वालों को अनेक निकृष्ट रिवाजों ने घेर लिया, उनसे छुडवाने के लिए आपने सन् 1925 में सब खापों की एक विशाल पंचायत बुलाई। जिसमें पंचायत का सारा व्यय का भार भी आपने आपने आप ही वहन किया। उसमें विवाह, मृत्युभोज आदि पर अनर्गल खर्च पर प्रतिबन्ध लगाया और पंचायत द्वारा निर्मित उत्तम रिवाजों का प्रचलन हुआ।
बीधल गाँव की परस्पर कलह के कारण रुकी हुई चौपाल का बनवानाः- बीधल गाँव की पार्टी बाजी के कारण चौपाल नहीं बनने दे रहे थे। चौपाल बनानेके इच्छुक व्यक्ति लड़ाई से बचना चाहते थे। कुछ व्यक्तियों ने गुरुकुल में जाकर अपनी कष्ट कथा सुनाई। उसको सुनकर आप उनसे बोले – ‘‘मैं कल समय पर आऊँगा, आप सब वहाँ उपस्थित रहना।’’ आपने ठीक समय पर जाकर उन भाईयों को बार-बार समझाने का प्रयास किया। परन्तु वे माने नहीं। अन्त में आपने कहा ‘‘अच्छा लो मैं नींव में घुसता हूँ और खोदना प्रारभ करता हूँ। तुम मुझे मार डालो या चौपाल बनने दो। यह कहकर वहाँ गर्दन झुका कर खड़े हो गये। विरोधी उस समय पिघल गये। सबने आपसे क्षमा मांगी और चौपाल बनाने की सहमति दी।’’
डबरपुर गाँव के नेकीराम और भरतसिंह का जमीन सबन्धी विवाद समाप्त कराना।
शेष भाग अगले अंक में……
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