विश्वकर्मा विमनाऽआद्विहाया धाता विधाता परमोत सन्दृक्। तेषमिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऽऋषिन् परऽएक माहुः।
उपवास मिल गया उसका, अब और कौन आभास चाहिए।
विश्वास मिल गया उसका,अब और कौन उल्लास चाहिए।।
ईश्वर सर्वज्ञ विश्वकर्मा
विज्ञान विविध का शिवशर्मा
सर्वव्याप्त है निर्विकार वह
जग कर्त्ता धर्त्ता सध्दर्मा
आकाश मिल गया उसका, अब और कौन अवकाश चाहिए।
विश्वास मिल गया उसका,अब और कौन उल्लास चाहिए।।
परमेश जगत निर्माता है
वह धाता और विधाता है
सब पाप पुण्य वह देख रहा
वह यथायोग्य फल दाता है
सहवास मिल गया उसका, अब और कौन वातास चाहिये।
विश्वास मिल गया उसका, अब और कौन उल्लास चाहिये।।
अद्वितीय एक प्रभु ने जगका
निर्माण किया इस जगमग का
ऋषि सप्तशक्ति में उसकी हैं
करता संचालन रग-रग का
मधु हास मिल गया उसका, अब और कौन मधुमास चाहिए।
विश्वास मिल गया उसका, अब और कौन उल्लास चाहिए।।
– अवन्तिका प्रथम, रामघाट मार्ग, अलीगढ़, उ.प्र.-202001
अति उत्तम | ऋग्वेद के 10.81 और 19.82 सूक्तों के यह मंत्र यजुर्वेद में 17.17.17 से 17.23, और 17,25 से 17.31 यज्ञीय कर्म काण्ड में विनियोग के लिए भी मिलते हैं |
आर्य जन इन का मनन और यज्ञों में भी विनियोग करें |