क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..

नमस्ते मित्रो |
अम्बेडकर साहब आर्ष ग्रंथो और वैदिक ग्रंथो पर आक्षेप करते हुए अपनी लिखित पुस्तक “THE UNTOUCHABLE WHO WERE THEY WHY BECOME UNTOUCHABLES” में कहते है कि प्राचीन काल (वैदिक काल ) में गौ बलि और गौ मॉस खाया जाता था | इस हेतु अम्बेडकर साहब ने वेद (ऋग्वेद ) और शतपथ आदि ग्रंथो का प्रमाण दिया है |
हम उनके वेद पर किये आक्षेपों की ही समीक्षा करेंगे | क्युकि शतपत आदि ग्रंथो को हम मनुष्यकृत मानते है जिनमे मिलावट संभव है लेकिन वेद में नही अत: वेदों पर किये गए आक्षेपों का जवाब देना हमारा कर्तव्य है क्यूंकि मनु महाराज ने कहा है :-
” अर्थधर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राSविरोधिना |
यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेदनेतर:||”-मनु
जो ऋषियों का बताया हुआ धर्म का उपदेश हो और वेदरूपी शास्त्र के विरुद्ध न हो और जिसे तर्क से भी सिद्ध कर लिया हो वही धर्म है इसके विरुद्ध नही |
मनु महाराज ने स्पष्ट कहा है कि यदि अन्य ग्रंथो में वेद विरुद्ध बातें है तो त्याज्य है | शतपत ,ग्र्ह्सुत्रो में जो गौ वध आदि की बात दी है वो वेद विरुद्ध और वाम मर्गियो द्वारा डाली गयी है ,पहले यज्ञो में पशु बलि नही होती थी | अब हम यहा बतायेंगे कि ये वाममार्ग और मॉस भक्षण का विधान कहा से आया तो पता चलता है यज्ञ सम्बंधित कर्मकांड वेद के यजुर्वेद का विषय है और यजुर्वेद की दो शाखाये है :-
शुक्ल यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद
यहा शुक्ल का अर्थ है शुद्ध ,सात्विक जबकि कृष्ण का तमोगुणी ,अशुद्ध |
अर्थात जिस यजुर्वेद में सतोगुणी यज्ञ का विधान हो वह शुक्ल है और जिसमे तमोगुणी (मॉस आहुति आदि ) का विधान है वो कृष्ण है |
इनमे से शुक्ल यजुर्वेद ही प्राचीन और अपोरुष मानी गयी वेद संहिता है जबकि कृष्ण बाद की और मनुष्यकृत है |
इस कृष्ण यजुर्वेद के संधर्भ में महीधर भाष्य भूमिका से पता चलता है कि याज्ञवल्क्य व्यास जी के शिष्य वैश्यायन के शिष्य थे | उन्होंने वैशम्पायन से यजुर्वेद पढ़ा | एक दिन किसी कारण वंश याज्ञवल्क्य जी पर वैशम्पायन क्रुद्ध हो गये | और कहा मुझ से जो पढ़ा है उसे छोड़ दो ,याज्ञवल्क्य ने वेद का वमन कर दिया |
तब वैशम्पायन जी ने दुसरे शिष्यों से कहा कि तुम इसे खा लो ,शिष्यों ने तुरंत तीतर बन कर उसे खा लिया |
उससे कृष्ण यजुर्वेद हुआ | यद्यपि ये बात साधारण मनुष्यों की बुधि में असंगत ओर निर्थक ठहरती है लेकिन बुद्धिमान लोग तुरंत परिणाम निकाल लेंगे |इससे पता चलता है कि तमो गुणी यज्ञ का विधान याज्ञवल्क्य के समय (महाभारत के बाद ) से चला |
और तभी से आर्ष ग्रंथो में मिलावट होना शुरू हो गयी थी |शतपत में भी याज्ञवल्क्य का नाम है अत: स्पष्ट है इसमें भी मिलावट हो गयी थी |और तामसिक यज्ञो का प्रचलन शुरू होने लगा …
जबकि प्राचीन काल में ऐसा नही था इसके बारे में स्वयं बुद्ध सुतानिपात में कहते है :-
“अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो
हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |”
अर्थ -पूर्व समय में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को गौमेध मे मारते है |
इसी तरह सुतनिपात के ३०० में बुद्ध ने ब्राह्मणों के लालची ओर दुष्ट हो जाने का उलेख किया है |
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस का प्रयोग नही था |इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे | इस बात को अम्बेडकर ने हसी मजाक बना कर टालमटोल करने की कोशिस की है ,जबकि कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :- सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-

अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र ।  अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे।

अत : स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी इस बात पर मह्रिषी चरक का भी प्रमाण है जो देखिये :-
अत निम्न कथन से भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी |
मीमासा दर्शन ने इस बात पर प्रकाश डाला है :-” मांसपाक प्रतिषेधश्च तद्वत |”-मीमासा १२/२/२
यज्ञ में पशु हिंसा मना है ,वैसे मॉस पाक भी मना है | इसी तरह दुसरे स्थान पर आता है १०/३/.६५ व् १०/७/१५ में लिखा है कि ” धेनुवच्चाश्वदक्षिणा ” और अपि व दानमात्र स्याह भक्षशब्दानभिसम्बन्धात |” गौ आदि की भाति अश्व भी यज्ञ में केवल दान के लिए ही है | क्यूंकि इनके साथ भक्ष शब्द नही आया है | अत: स्पष्ट है कि पशु वध के लिए नही दान आदि के लिए थे |
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
अत: स्पष्ट है कि मॉस बलि वेदों में नही है न ही प्राचीन काल यज्ञ में थी |
चुकी आंबेडकर जी ने शतपत का भी प्रमाण दिया है तो हम कुछ बात शतपत की भी रखते है :-
शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नही दिया है देखिये :-
 “न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है ….
यहा स्पष्ट कहा है की मॉस भक्षी को यज्ञ का अधिकार नही है ,अत : यहाँ स्पष्ट हो जाता है की यज्ञ मे मॉस की आहुति नही दी जाती थी ।
शतपत में ही ये लिखा है कि मॉस भक्षक को यज्ञ का अधिकार नही है इससे स्पष्ट है कि बाद में मॉस ,गौ बलि ,मासाहार शतपत में क्षेपक जोड़ा गया है उन्ही को अम्बेडकर ने आधार बनाया ब्राह्मणवाद के विरोध में …
शतपत में मॉस शब्द का उलेख है जिसकी आहुति का विधान है लेकिन यह लोक प्रशिद्ध मॉस नही बल्कि कुछ और है
मासानि वा आ आहुतय:(श ९,२ )
अर्थात यज्ञ आहुति मॉस की होनी चाहिए ।
चुकि यहाँ मॉस के चक्कर मे भ्रम मे न पडे तो आगे मॉस के अर्थ को स्पष्ट किया है –
” मासीयन्ति ह वै जुह्वतो यजमानस्याग्नय:।
एतह ह वै परममान्नघ यन्मासं,स परमस्येवान्नघ स्याता भवति (शत .११ ,७)”।।
हवन करते हुआ यज्मान की अग्निया मॉस की आहुति की इच्छा रखती है ।
परम अन्न ही मॉस है परम अन्न से आहुति दे ,..
यहा मॉस को परम अन्न कहा है ओर यदि ये जीवो का मॉस होता तो यहाँ अन्न का प्रयोग नही होता क्यूँ की मॉस अन्न नहीं होता है ।परम अन्न के बारे मे अमरकोष के अनुसार “परमान्नं तु पायसम् ” अर्थात दूध ओर चावल से तैयार (खीर) को परम अन्न कहा है ।अतः शतपत ब्राह्मण के अनुसार मॉस का अर्थ पायसम है ।लोक प्रसिद्ध मॉस नही ।
अत: स्पष्ट है कि शतपत में मॉस आदि गूढ़ अर्थो में प्रयोग किया है तथा इस बात से भी इनकार नही की इनमे वाम्मार्गियो के क्षेपक है |
अब हम वेदों पर विचार करते है |वेदों में मॉस और यज्ञ में मासाहार जो लोग बताते है उन्हें पहले निम्न मंत्रो पर विचार करना चाहिए ..
इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम् (यजु १३/४७ )
दो खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
इमं मा हिंसीरेकशफ़ पशुम (यजु १३/४८ )
एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो |
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्यपद:(अर्थव ११/२/१)
हमारे दो ,चार खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
मा सेंधत (ऋग. ७/३२/९ )
हिंसा मत करो |
वेद स्पष्ट अंहिसा का उलेख करते है जबकि मॉस बिना हिंसा के नही मिलता और यज्ञ में भी बलि आदि हिंसा ही है |
अब यज्ञो में पशु वध या वैदिक यज्ञो में पशु मॉस आहुति के बारे में विचार करेंगे :-
आंबेडकर जी का कहना है कि वेदों में बाँझ जो दूध नही दे सकती उनकी बलि देने और मॉस खाने का नियम है जबकि वेद स्वयम उनकी इस बात का खंडन करते है
वेदों में मॉस निषेध :- ऋग्वेद १०/८७/१६ में ही आया है की राजा जो पशु मॉस से पेट भरते है उन्हें कठोर दंड दे …
पय: पशुनाम (अर्थव १९/३१/१५ )
है मनुष्य ! तुझे पशुओ से पैय पदार्थ (पीने योग्य पदार्थ ) ही लेने है |
यदि पशु मॉस खाने का विधान होता तो यहा मॉस का भी उलेख होता जबकि पैय पदार्थ दूध और रोग विशेष में गौ मूत्र आदि ही लेने का विधान है |
वेदों में यज्ञ में हिंसा और मॉस भक्षण के संधर्भ में आंबेडकर जी निम्न प्रमाण वेदों के देते है :-

 यज्ञ के संधर्भ में वेद में लिखा है:-  उपावसृज त्मन्या समज्ञ्चन् देवाना पाथ ऋतुथा हविषि।वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु द्रव्य मधुना घृतेन ।।(यजु २९,३५ )
पाथ ,हविषि,मधुना,घृत ये चारो पद चारो प्रकार के द्रव्यों का ही हवं करना उपादेष्ट करते है,अत: यज्ञ मे इन्ही का ग्रहण करना योग्य है ,,
यहा स्पष्ट उलेख है की किन किन वस्तुओ का उपयोग किया जा सकता है यदि मॉस का होता तो यहा मॉस रक्त आदि का भी उलेख होता ..
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
यज्ञ में पशुओ का उलेख है तो उसका समाधान ऊपर दिया है मीमासा का प्रमाण देकर की यज्ञ में पशु हत्या के लिए नही बल्कि दान के लिए होते थे …
यजुर्वेद के एक अध्याय में यज्ञ में कई पशु लाने का उलेख है जिसका उदेश्य उनकी हत्या नही बल्कि यज्ञ में दी गयी ओषधी आदि की आहुति से लाभान्वित करना है क्यूँ की यज्ञ का उदेश्य पर्यावरण और स्रष्टि में उपस्थित प्राणियों को आरोग्य प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ रखना है | क्यूंकि यज्ञ में दी गयी आहुति अग्नि के द्वारा कई भागो में टूट जाती है और श्वसन द्वारा प्राणियों के शरीर में जा कर आरोग्य प्रदान करती है

जरा यजुर्वेद का यह मंत्र देखे-
“इमा मे अग्नS इष्टका धेनव: सन्त्वेक च दश च दश च शतं च शतं च सहस्त्रं च सहस्त्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च समुद्रश्र्च मध्यं चान्तश्र्च परार्धश्र्चैता मे अग्नS इष्टका धनेव: सन्त्वमुत्रामुष्मिल्लोके”॥17:2॥
अर्थ-है अग्नीदेव!ये इष्टिकाए(हवन मे अर्पित सूक्ष्म इकाईया)हमारे लिए गौ के सदृश(अभीष्ट फलदायक) हौ जाए। ये इष्टकाए एक,एक से दसगुणित होकर दस,दस से दस गुणित हौकर सौ,सौ की दस गुणित होकर हजार,हजार की दस गुणित होकरअयुत(दस हजार),अयुत की दस गुणित होकर नियुत(लाख),नियुत की दस गुणित हो कर प्रयुत(दस लक्ष), प्रयुत की दस गुणित हो कर कोटि(करौड),कोटि की दस गुणित हो कर अर्बुद(दस करौड),अर्बुद की दस गुणित होकर न्युर्बुद इसी प्रकार दस के गुणज मे बढती है।न्युर्बुद का दस गुणित खर्व(दस अरब),खर्व का दस गुणित पद्म(खरब)पद्म का दस गुणित महापद्म(दस खरब)महापद्म का दस गुणित मध्य(शंख पद्म)मध्य का दस गुणित अन्त(दस शंख)ओर अन्त की दस गुणित होकर परार्ध्द(लक्ष लक्ष कोटि)संख्या तक बढ जाए॥
उपरोक्त मन्त्र में स्पष्ट है की यज्ञ से आहुति कई भागो नेनो में बट जाती है तथा कई दूर तक फ़ैल कर कई प्राणियों को लाभान्वित करती है |
अब अम्बेडकर जी के दिए प्रमाणों पर एक नजर डालते है :-
आंबेडकर जी ऋग्वेद १०/८६/१४ में लिखता है :- इंद्र कहता है कि वे पकाते है मेरे लिए १५ बैल ,मै खाता हु उनका वसा ….!
यहा लगता है अम्बेडकर ने किसी अंग्रेजी भाष्यकार का अनुसरण किया है या फिर जान बुझ ऐसा लिखा है इसका वास्तविक अर्थ जो निरुक्त ,छंद ,वैदिक व्याकरण द्वारा होना चाहिए इस प्रकार है :-
“परा श्रृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा  श्रृणीहि|
परार्चिर्षा मृरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचान:(ऋग्वेद १०/८३/१४ )”
उपरोक्त मन्त्र में कही भी इंद्र ,बैल ,वसा ,खाना आदि शब्द नही है फिर अम्बेडकर जी को कहा से नजर आये ..इसका भाष्य – (अग्ने) यह अग्नि (अभि शोशुचान) तीक्ष्ण होता हुआ (तपसा) ताप से (यातुधानान) पीड़ाकारक जन्तुओ (रोगाणु आदि ) (परशृणीहि ) मारता है (मृरदेदान) रोग फ़ैलाने वाले अथवा मारक व्यापार करने वाले घातक रोगाणु को (अचिषा) अपने तेज से   (परा श्रृणीहि ) मारता और (असृतृप:) प्राणों से तृप्त होने वाले क्रिमी को मारता अथवा नष्ट करता है |
इसमें अग्नि के ताप से सूक्ष्म रोगानुओ के नष्ट होने का उलेख है | वेदों में सूर्य और उसकी किरण को भी अग्नि कहा है तो यह सूर्य किरणों द्वारा रोगाणु का नाश होना है ..इस मन्त्र में सूर्य किरण या ताप द्वारा चिकित्सा और रोगाणु नाश का रहस्य है |
एक अन्य मन्त्र १०/७२/६ का भी अम्बेडकर वेदों में हिंसा के लिए उलेख करते है |
” यद्देवा ………………….रेणुरपायत(ऋग. १०/७२/६)”
(यत) जो (देवा) प्रकाशरूप सूर्य आदि आकाशीय पिंड (अद:) दूर दूर तक फैले है (सलिले) प्रदान कारण तत्व वा महान आकाश में (सु-स-रब्धा) उत्तम रीती से बने हुए और गतिशील होकर (अतिष्ठित) विद्यमान है |
है जीवो ! (अत्र) इन लोको में ही (नृत्यतां इव वा ) नाचते हुए आनंद विनोद करते हुए आप लोगो का (तीव्र: रेणु 🙂 अति वेग युक्त अंश ,आत्मा स्वत: रेणुवत् अणु परिणामी वा गतिशील है वह (अप आयत ) शरीर से पृथक हो कर लोकान्तर में जाता है |
इस मन्त्र में  लोको में प्राणी (पृथ्वी आदि अन्य ग्रह में प्राणी ) एलियन आदि का रहस्य है और आत्मा और मृत्यु पश्चात आत्मा की स्थिति का रहस्य है | यहा कही भी मॉस या मॉस भक्षण नही है जेसा की अम्बेडकर जी ने माना …
एक अन्य उदाहरन अम्बेडकर जी ऋग्वेद १०/९१/१४ का देते है :-अग्नि में घोड़े ,गाय ,भेड़ ,बकरी की आहुति दी जाती थी |
” यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता:|
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये (ऋग्वेद १०/९१/१४)”
(यस्मिन) जिस सृष्टी में परमात्मा ने (अश्वास:) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा:) भेड़ ,बकरिया (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए | वाही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है |
यहा भी मॉस आदि नही बल्कि सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर द्वारा वेद ज्ञान प्रदान करने का उलेख है |
लेकिन इस मन्त्र में कोई हट करे की अग्नि बैल ,अश्व ,भेड़ गौ आदि शब्दों से इनकी अग्नि में आहुति है |
तो ऐसे लोगो से मेरा कहना है की क्या ये नाम किसी ओषधी आदि के नही हो सकते है | क्यूँ कि वेदों में आहुति में ओषधि का उलेख मिलता है | जो की महामृत्युंजय मन्त्र में “त्र्यम्बकम यजामहे …..” में देख सकते है इसमें त्रि =तीन अम्ब =ओषधी का उलेख है और यजामहे =यज्ञ में देने का …अत: ये नाम ओषधियो के है |
इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण देता हु –
(१) बुद्ध ग्रन्थ में आया है :-

यहा आये सुकर मद्दव से यही लगता हैं कि बुद्ध ने सूअर का मॉस खाया इसका यही अर्थ श्रीलंकाई भिक्षु सूअर का ताजा मॉस करते है | जबकि वास्तव में  यहा सूकर मद्दव पाली शब्द है जिसे

हिन्दी करे तो होगा सूकर कन्द ओर संस्कृत मे बराह
कन्द यदि आम भाषा मे देखे तो सकरकन्द चुकि ये दो प्रकार
का होता है १ घरेलु मीठा२ जंगली कडवा इस
पर छोटे सूकर जैसे बाल आते है इस लिए इसे बराह कन्द
या शकरकन्द कहते है|ये एक कन्द होता है जिसका साग
बनाया जाता है |इसके गुण यह है कि यह चेपदार मधुर और गरिष्ठ
होता है तथा अतिसार उत्पादक  है जिसके कारण इसे खाने से बुद्ध को अतिसार हो गया था |
एक अन्य उदाहरण भी देखे :-
हठयोग प्रदीप में आया है :-
” गौमांसभक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् |
कुलीन तमहं मन्ये इतर कुलघातक:||”
अर्थात जो मनुष्य नित्य गौ मॉस खाता है और मदिरा पीता है,वही  कुलीन है ,अन्य मनुष्य कुल घाती है |
यहा गौ मॉस का उलेख लग रहा है लेकिन अगले श्लोक में लिखा है :-
” गौशब्देनोदिता जिव्हा तत्प्रवेशो हि तालुनि गौमासभक्षण तत्तु महापातकनाशम्”
अर्थात योगी पुरुष जिव्हा को लोटाकर तालू में प्रवेश करता है उसे गौ मॉस भक्षण कहा है |
यहा योग मुद्रा की खेचरी मुद्रा का वर्णन है ..गौ का अर्थ जीव्हा होती है और ये मॉस की बनी है इस्लिते इसे गौ मॉस कहा है और इसे तालू से लगाना इसका भक्षण करना तथा ऐसा माना जाता है की ये मुद्रा सिद्ध होने पर एक रस का स्वाद आता है इसी रस को मदिरा पान कहा है |
यदि यहा श्लोक्कार स्वयम अगले श्लोक में अर्थ स्पष्ट नही करता तो यहा मॉस भक्षण ही समझा जाता …
इसी तरह वेदों में आय गौ ,अश्व ,आदि नाम अन्य वस्तुओ ओषधि आदि के भी हो सकते है ..यज्ञ के आहुति सम्बन्ध में ओषधि और अनाज के ,,जिसके बारे में वेदों में ही लिखा है :-
धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोsभवत (अर्थव १८/४/३२)
धान ही धेनु है औरतिल ही बछड़े है |
अश्वा: कणा गावस्तण्डूला मशकास्तुषा |
श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम||(अर्थव ११/३ (१)/५७ )
चावल के कण अश्व है ,चावल ही गौ है ,भूसी ही मशक है ,चावल का जो श्याम भाग है वाही मॉस है और लाल अंश रुधिर है |
यहा वेदों ने इन शब्दों के अन्य अर्थ प्रकट कर दिए जिससे सिद्ध होता है की मॉस पशु हत्या का कोई उलेख वेदों में नही है |
अनेक पशुओ के नाम से मिलते जुलते ओषध के नाम है ये नाम गुणवाची संज्ञा के कारण समान है ,श्रीवेंकटेश्वर प्रेस,मुम्बई से छपे ओषधिकोष में निम्न वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक है जिनके कुछ उधाहरण नीचे प्रस्तुत है :-
वृषभ =ऋषभकंद       मेष=जीवशाक
श्वान=कुत्ताघास ,ग्र्न्थिपर्ण   कुकुक्ट = शाल्मलीवृक्ष
मार्जार= चित्ता       मयूर= मयुरशिखा
बीछु=बिछुबूटी        मृग= जटामासी
अश्व= अश्वग्न्दा       गौ =गौलोमी
वाराह =वराह कंद     रुधिर=केसर
इस तरह ये वनस्पति भी सिद्ध होती है अत: यहा यज्ञो में प्राणी जन्य मॉस अर्थ लेना गलत है |
अम्बेडकर कहते है कि प्राचीन काल में अतिथि का स्वागत मॉस खिला कर किया जाता था| ये शायद ही इन्होने नेहरु या विवेकानद जेसो की पुस्तक से पढ़ा होगा विवेकानद की जीवनी द कोम्पिलीत वर्क में कुछ ऐसा ही वर्णन है जिसके बारे में यहा विचार नही किया जाएगा ..जिसे आप आर्यमंत्वय साईट के एक लेख में सप्रमाण देख सकते है |
इस संधर्भ में मै कुछ बातें रखता हु :-
ऋग्वेद १०/८७/१६ में स्पष्ट मॉस भक्षी को कठोर दंड देना लिखा है तो अतिथि को मॉस खिलाना ऐसी बात संभव ही नही वेदानुसार …
मनुस्मृति में आया है ” यक्षरक्ष: पिशाचान्न मघ मॉस सुराssसवम (मनु ११/९५ )”
मॉस और मध राक्षसो और पिशाचो का आहार है |
यहा मॉस को पिशाचो का आहार कहा है जबकि भारतीय संस्कृति का प्राचीन काल से अतिथि के लिए निम्न वाक्य प्रयुक्त होता आया है ” अतिथि देवोभव:” अर्थात अतिथि को देव माना है अब भला कोई देवो को पिशाचो का आहार खिलायेगा …
” अघतेsत्ति च भुतानि तस्मादन्न तदुच्यते (तैत॰ २/२/९)”
प्राणी मात्र का जो कुछ आहार है वो अन्न ही है |
जब प्राणी मात्र का आहार अन्न होने की घोषणा है तो मॉस भक्षण का सवाल ही नही उठता |
कुछ अम्बेडकर के अनुयायी या वेद विरोधी लोग अर्थव॰ के ९/६पर्याय ३/४ का प्रमाण देते हुए कहते है की इसमें लिखा है की अथिति को मॉस परोसा जाय|
जबकि मन्त्र का वास्तविक अर्थ निम्न प्रकार है :-” प्रजा च वा ………………पूर्वोष्शातिश्शनाति |”
जो ग्रहस्थ निश्चय करके अपनी प्रजा और पशुओ का नाश करता है जो अतिथि से पहले खाता है |
इस मन्त्र में अतिथि से छुप कर खाने या पहले खाने वाले की निंदा की है …उसका बेटे बेटी माँ ,पिता ,पत्नी आदि प्रजा दुःख भोगते है ..और पशु (पशु को समृधि और धनवान होने का प्रतीक माना गया है ) की हानि अथवा कमी होती है …अर्थात ऐसे व्यक्ति के सुख वैभव नष्ट हो जाए | यहा अतिथि को मॉस खिलाने का कोई उलेख नही है |
अत: निम्न प्रमाणों से स्पष्ट है की प्राचीन काल में न यज्ञ में बलि होती थी न मॉस भक्षण होता था ..न ही वेद यज्ञ में पशु हत्या का उलेख करते है न ही किसी के मॉस भक्षण का …..
यदि कोई कहे की ब्राह्मण मॉस खाते थे तो सम्भवत कई जगह खाते होंगे, और यज्ञ में भी हत्या होती थी लेकिन कहे की वेदों में हत्या और मॉस भक्षण है तो ये बिलकुल गलत और प्रमाणों द्वारा गलत सिद्ध होता है | और कहे प्राचीन काल यज्ञो में मॉस भक्षण और मॉस आहुति होती थी तो ये भी उपरोक्त प्रमाणों से गलत सिद्ध होता है यज्ञ का बिगड़ा स्वरूप और ब्राह्मण ,ग्रहसूत्रों में मॉस के प्रयोग वाममर्गियो द्वारा महाभारत के बाद जोड़ा गया जो की उपरोक्त प्रमाणों में सिद्ध क्या गया है |
अत: अम्बेडकर का कथन प्राचीन आर्य (ब्राह्मण आदि ) यज्ञ में पशु हत्या और मॉस भक्षण करते थे ,वैदिक काल में अतिथि को मॉस खिलाया जाता था आदि बिलकुल गलत और गलत भाष्य पढने का परिणाम है |
समभवतय उन्होंने ये ब्राह्मण विरोधी मानसिकता अथवा बुद्ध मत को सर्व श्रेष्ट सिद्ध करने के कारण लिखा हो |
ओम
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके :- (१) वेद सौरभ – जगदीश्वरानन्द जी 
(२) वैदिक सम्पति -रघुनंदन शर्मा जी 
(३) यज्ञ में पशुवध वेद विरोध – नरेंद्र देव शास्त्री जी 
(४) वैदिक पशु यज्ञ मिमास -प्रो. विश्वनाथ जी 
(५) सत्यार्थ प्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर -अग्निव्रत नैष्ठिक जी 
(६) the untouchable who were they and why become untouchables-अम्बेडकर जी 
(७) महात्माबुद्ध और सूअर का मॉस -अज्ञात 
(८) भारत का वृहत इतिहास -आचार्य रामदेव जी 
(९) mahatma budha an arya reformer-धर्मदेवा जी 
(१०) ऋग्वेदभाष्य -आर्यसमाज जाम नगर ,हरिशरणजी ,जयदेव शर्मा जी 
(११) स्वामी दर्शनानंद ग्रन्थ संग्रह (क्या शतपत आदि में मिलावट नही )-स्वामी दर्शनानद जी   

21 thoughts on “क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..”

  1. bahut gyan vardhak lekh hai .shayad Ambedkar saheb ne phoot dalo ki rajneeti ke teht hi prarit ho kar aryon me nafrat paida ki koshish hai

  2. Aadaraniy Vyavapasthapak Maohaday,

    Bahut hi Badhiya lekha hai ham jaise sadharan buddhi wale logo ke liye hamari jankari main badhottari ke hisab se bhi badhiya lekha padhane ko mila yah lekh maine apane dosto ko bhi padhane ke liye diya hai. aasha karata hoo unhe bhi samajh main jauru aahi jayega ! Dhanyawad !

    Mahoday ,

    Meri aapase ek namra vinanti hai ki maine manusmruti ke do bhag : pahala aur aakhari yani tisara bhag aapaki site se prapt kiye hai, par dusara bhag nahi mil saka hai, mujhe bahut prayatno ke bad bhi vah nahi mil saka hai. krupaya vah bhag mujhe upalabdha karvakar de.

    Usame jo pancham adhyay ka 35 or 36 no. ka mantra hai usaka anuvad mujhe chahiye.

    Krupaya Madat kare.

    Dhanyawad !

      1. Aadaraniy Vyavsthapak Mohaday,

        Manusmruti ka dusara bhag mila pakar kafi prasnnata hui, mera pahala bhag padhana antim charan main hai, dusara bhag pakar bahut hi prasnna huwa hoo.
        Prastut manusmruti ke pachave (5th) adhyay main kafi mantra kat diye gaye hai, krupa kar usaka koi karan hi hoga hi, ho sake to batane ka kast kare.

        Mahoday,

        Mai aapake sandarbh ke liye puranvadiyo ke dwara prakashit manusmruti ke kuch page aapake sandarbh ke liye bhej raha hoo, krupa ho sake to usaka Hindi Anuvad dene ki krupa kare.

        Dhanyawad !

    1. क्या बकवास भाई साहब ? थोडा जानकारी देने की कोशिश करो जी | फिर उस विषय पर चर्चा करने की कोशिश की जायेगी | धन्यवाद |

  3. मनमोहन कुमार आर्य जी द्वारा प्रवक्ता.कॉम पर मुद्रित लेख “श्री राम की तरह भरत जी का जीवन भी पूजनीय एवं अनुकरणीय” में दिए संस्कृत श्लोक “तक्षं तक्षशिलायां पुष्कलं पुष्कलावते| गंधर्वदेशे रुचिरे गंधारनिलये च सः||” के अर्थ को समझने हेतु भूजाल पर खोज करते आपके अति उत्तम विश्लेषणात्मक एवं सूचनात्मक लेख में उलझ इसे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| हाल ही में इस विषय पर मीडिया द्वारा अनावश्यक वाद विवाद खड़ा कर राजनीति में राष्ट्र-विरोधी तत्व भारतीयों के मन में शंका, भय, और क्रोध उत्पन्न कर अराजकता फैला रहे हैं| इस संदर्भ में आपका लेख अवश्य ही उनकी भ्रान्ति अथवा मिथ्या धारणा का तर्कसंगत खंडन करता है| मेरा साधुवाद|

  4. kya sala sab bakwas likhata hai. pahale isako pata hai ki B.R. ambedakar kaun the. madhar chod inako bare me jo galat likhana to dur sochata bhi hai to use pahale ye sochana chahiye ki Baba bhim rao ambedakar hamare hamare bap ko bhi bap hai.

    br ambedakar tumhara BAAP ka bhi BAAP(BABA)

    1. purushotam kumar
      क्या बात है जी ? क्या बकवास लिखता है ? किसको b.r.ambedkar के बारे में जानकारी नहीं भाई ? और यह किस भाषा में में बात कर रहे हो ? क्या इस तरह की भाषा का उपयोग आप अपने भाई बहन माँ बाप और परिवार वालो से करते हो ? क्या इस तरह की भाषा का उपयोग करने की संस्कार आपको आपके परिवार वालो ने दी है ? क्या इस तरह की भाषा का उपयोग करने आदेश आपके बाबा साहब ने दी है ? किस पुस्तक में उन्होंने ऐसा लिखा है बाबा साहब ने , थोडा जानकारी देना ? किस ग्रन्थ में गाली देने को लिखा है यह बतलाना ? दलित सब्द किस ग्रन्थ में आया है यह जानकारी देना ? हमें यह बतलाना rti से पूछकर संविधान निर्माता का नाम क्या है किसने संविधान का निर्माण किया ? क्या बौध संप्रदाय में गाली देना सिखाया जाता है ? और एक बात जी क्या अम्बेडकर जी का पुस्तक पढ़े हो शुद्र कौन थे ? थोडा बाबा साहब का यह पुस्तक पढ़ लेना फिर मालुम चलेगा आपने किसे गाली दी है ? कौन किसका बाप बेटा है ? या फिर सभी एक ही पिता से सभी हुए ? थोड़ा जानकारी देना ? बाबा साहब ने किस भाष्यकार का वेद पढ़ा यह भी जानकारी देना ? एक कहावत होता है मेरे बंधू अधजल गगरी छलकत जाय | यही हालत है आपका ? यदि आप अछे ज्ञानी व्यक्ति हो तो अपने भाषा पर संयम रखो और इस भाषा का प्रयोग करने के लिए माफ़ी मांगों सभी से |आओ वेद की ओर लौट चलो | और आओ लौट चलो सत्य सनातन वैदिक धर्म की ओर | धन्यवाद |

      1. Very nice Amit Ji. Vaise hame is point par bhi charcha aur adhyayan karna chahiye ki Vedik Sanaatan Dharm k sabae zyaada tukde kab karne k prayaas kiye gaye aur iske liye logon ne kya-kya hathkande apnaaye

      2. Mughal kaal k to khair kya hi kehne. Lekimln uske baad sabse zyaada nuqsaan hua Dominion States k time pe. Angrezon ne kathit ‘freedom’ to de di, lekin unhen maloom tha ki kaise ham ‘Indians’ ko barbaadi ki raah par daal kar chhodna hai. Iske liye sabse zaroori tha Hinduism k tukde karna. Aur ye kaam unhone apne chamchon ki madad se ki. Bataane ki zaroorat nahi, ki vo chamche kaun the. Kabhi to Jain, Sikh aur Bauddh etc ko Hindu Dharm se alag Dharm bataakar prachaarit kiya gaya to kabhi ‘Hindu muslim Sikh isaai, aapas me sab bhaai-bhaai’ jaise naare diye gaye. Jo ki dekhne me to Dharmik ekta k naare lagen, lekin jinka uddeshya Sikh ko Hindu Dharm se alag Dharm bataakar prachaarit karna ho. Aur phir ‘discovery of India’ to kisi ‘vidwaan’ ne british kaal me likh hi di thi. Jisme history ki kamar tod kar rakh di gayi. Aaj sabse zyaada zaroorat hai bikhre huye Hinduon ko phir se sangathhit karne ki.

      3. amit jee ek mistake hai yahan pe rigveda 10/86/14 ka galat mantra dia hai ek baar usko jaan ch le dhanyavad

    1. एक ही सब्द के कई अर्थ होते हैं | कल होने वाला पोस्ट देखें जिसमे गोउ के बारे में कुछ जानकारी दी जायेगी |

      1. amit jee us lakh ka link post kariye aur shanka samadhan ke lie kahan contact karun wo batiyein please dhanyvad

        1. शंका समाधान के लिए कोई आर्य समाज का मंदिर में संपर्क कर सकते हैं जो आपके नजदीकी हो

  5. वेदों के प्रमाण………
    १. ऋग्वेद १०-८६-१४ “उक्षणों ही में पंचदंश साकं पंचंती: विश्तिम् | उताहंमदिंम् पीव इदुभा कुक्षी प्रणन्ती में विश्व्स्मान्दिन्द्र ||”
    (इन्द्र देव का कथन, ‘यज्ञ करनेवाले यजमान मेरे लिए १५-२० बैल मारकर पकाते हैं, वह खाकर में ताकतवर हो जाता हूँ, वे मेरा पेट मद्य से भी भर देते हैं’)
    २. ऋग्वेद १०-८९-१४ “मित्र कूवो यक्षसने न् गाव: पृथिव्या | आपृगामृया शयंते ||”
    (हे इन्द्र देव, जिस प्रकार गोवध स्थानपर गायोंको मारा जाता हैं उसीप्रकार आप के इस अस्त्र से मित्रद्वेषी राक्षस मर कर चिरनिद्रित हो जाने दो)
    ३. ऋग्वेद १०-२८-३ “आद्रीणाते मंदिन इन्द्र तृयान्स्सुन्बंती | सोमान पिवसित्व मेषा || “पचन्ति ते वषमां अत्सी तेषां | पृक्षेण यन्मधवन हूय मान : ||”
    (हे इन्द्र देव, अत्रा कि कामनासे जिस वक्त आप के लिए हवन किया जाता हैं, उस वक्त यजमान पत्थरों पे जल्द से जल्द सोमरस तैयार करते हैं वह आप प्राशन करते हो, यजमान बैल का मांस पकाते हैं वो आप खाते हैं)
    ४. ऋग्वेद १०-८९-१४ “कर्हि स्वित् सा ते इन्द्र चेत्या असत् अघस्य यत् भिनदः रक्षः आईषत् मित्र-क्रुवः यत् शसने न गावः पृथिव्याः आपृक् अमुया शयन्ते ॥“
    (हे इन्द्र देव, आपने जो अस्त्र और बाण फेंककर राक्षसों कि कत्तल कि हैं, उनको कहा फेके? जिस प्रकार गोवध स्थल पर ही गाय कि कत्तल कि जाती हैं, इसप्रकार आपके इस अस्त्र से घायल हुए मित्रद्वेषी राक्षसों को पृथ्वीपर चिरनिद्रिस्त हो जाने दो)
    ५. ऋग्वेद १०-७९-६ “किं देवेषु त्यजः एनः चकर्थ अग्ने पृच्चामि नु त्वां अविद्वान् अक्रीळन् क्रीळन् हरिः अत्तवे अदन् वि पर्व-शः चकर्त गाम्-इव असिः ॥”
    (जिसप्रकार तलवार गाय के टुकड़े करती हैं)
    ६. ऋग्वेद १०-९१-१४ “यस्मिन् अश्वासः ऋषभासः उक्षणः वशाः मेषाः अव-सृष्टासः आहुताः कीलाल-पे सोम-पृष्ठाय वेधसे हृदा मतिं जनये चारुं अग्नये ॥”
    (जिस में घोड़ा, बैल, वशा गाय, बकरा इ. का हवन किया गया उस अग्निपर थोड़ा मद्य छिड़ककर मै मन से उनका स्तवन करता हूँ)
    ७. ऋग्वेद १०/१६९/३ “याः देवेषु तन्वं ऐरयन्त यासां सोमः विश्वा रूपाणि वेद ताः अस्मभ्यं पयसा पिन्वमानाः प्रजावतीः इन्द्र गो–स्थे रिरीहि ॥”
    (जो गायें देवो के यज्ञ के लिए खुद को अर्पण कर देते हैं, जो गायें आहुति सोम जानती हैं, उन्ह गायों को हे इंद्र देव, दूध से परिपूर्ण और संतती युक्त बनाकर हमारे लिए गौशाला में भेज दो)
    ८. ऋग्वेद ६-१७-११ “वर्धान् यं विश्वे मरुतः सऽजोषाः पचत् छतं महिषान् इन्द्र तुभ्यं । पूषा विष्णुः त्रीणि सरांसि धावन् वृत्रऽहनं मदिरं अंशुं अस्मै ॥”
    (हे इंद्र देव, सम्पूर्ण मरुत गण सम्मिलित होकर स्प्रेताद्वारा आपको वचनबद्ध कराते हैं और आपके वजह से पूषा और विष्णू देव शेकडों भैसों का पाक बनाते हैं, उसीप्रकार तीन यात्राएं पूरी करने के लिए मादक और वृत्र नाशक ऐसा सोम उसमे डाल देते हैं)
    ९. ऋग्वेद १०-८६-१३ “वृषाकपायि रेवति सु-पुत्रे आत् ओं इति सु-स्नुषे घसत् ते इन्द्रः उक्षणः प्रियं काचित्-करं हविः वि श्वस्मात् इन्द्रः उत्-तरः ॥”
    (हे वृषकपी पत्नी, आप धन से पूर्ण, गुणों से पूर्ण और सुन्दर सुपुत्रवती हैं. आपके बैलों का इंद्र देव भक्षण करें, आपकी प्यारी और सुखकारक चीजों का बलि का आप भक्षण करें, इन्द्रे देव सर्वश्रेष्ठ हैं)

  6. १०. ऋग्वेद ९-७९-४ “दिवि ते नाभा परमः यः आददे पृथिव्याः ते रुरुहुः सानवि क्षिपः अद्रयः त्वा बप्सति गोः अधि त्वचि अप् सु त्वा हस्तैः दुदुहुः मनीषिणः ॥”
    (हे शोण, आपका परमअंश धुलोकात हैं, वहा से आपकी अंश पृथ्वीपर पर्वतोंपे गिर गये और उनके वृक्ष बन गये. बुद्धिमान लोग आपको हातों से चमड़ों के ऊपर पत्थर से रगड़ते हैं और पानी से धो डालते हैं)
    ११. ऋग्वेद ८-५-३८ “यः । मे । हिरण्यऽसन्दृशः । दश । राज्ञः । अमंहत । अधःऽपदाः । इत् । चैद्यस्य । कृष्टयः । चर्मऽम्नाः । अभितः । जनाः ॥”
    (उन्ह वीर पुत्र नायकों कि संतती पृथ्वीपर जीवित हैं, मदद करनेवाले सारे उनके चारों दिशाए में हैं, वो चमड़े का इस्तेमाल करनेवाले हैं)
    १२. ऋग्वेद ९-१० “अव्यः वारेभिः पवते सोमः गव्ये अधि त्वचि कनिक्रदत् वृषा हरिः इन्द्रस्य अभि एति निः कृतम् ”
    (सोमलता बेल का रस गाय के चमडिपर छानते हैं, पराक्रमी आदमी सोम शब्द का उच्चारण करके इंद्रपदपर विराजमान होता है)
    १३. ऋग्वेद १०-१६-७ “अग्नेः वर्म परि गोभिः व्ययस्व सं प्र ऊणुष्व पीवसा मेदसा च न इत् त्वा धृष्णुः हरसा जर्हृषाणः दधृक् वि-धक्ष्यन् परि-अङ्खयाते ॥”
    (हे मृतात्मा, तू धर्म के साथ अग्नि कि ज्वाला का कवच धारण कर. तू वपा और मांस से आच्छादित हो)
    १४. ऋग्वेद १-१६२-३ “एष छागः पुरः अश्वेन वाजिना पूष्णः भागः नीयते विश्वऽदेव्यः ॥ अभिऽप्रियं यत् पुरोळाशं अर्वता त्वष्टा इत् एनं सौश्रवसाय जिन्वति ॥”
    (सभी देवताओं को काम आनेवाला बकरा, जगत्पोषक का ही अंश हैं, उसको शीघ्रगामी घोड़े के सामने लाया जाता हैं, इसलिए देवताओं के उत्कृष्ट भोजन के लिए घोड़े के साथ बकरे का मांस भी पकाना चाहिए)
    १५. ऋग्वेद १-१६२-९ “यत् अश्वस्य क्रविषः मक्षिका आश यत् वा स्वरौ स्वऽधितौ रिप्तं अस्ति ॥ यत् हस्तयोः शमितुः यत् नखेषु सर्वा ता ते अपि देवेषु अस्तु ॥”
    (घोड़ों का जो कच्चा मांस मक्खियां खाती हैं, काटने या साफ़ करते समय जो हत्यार को लगता हैं, या काटनेवालों के हात और नाख़ून से लगता हैं वो सब देवों के पास जाने दो)
    १६. ऋग्वेद १-१६२-१२ “ये वाजिनं परिऽपश्यंति पक्वं ये ईं आहुः सुरभिः निः हर इति ॥ ये च अर्वतः मांसऽभिक्षां उपऽआसत उतो इति तेषां अभिऽगूर्तिः न इन्वतु ॥”
    (हे घोड़ों, अग्नि में पकते वक्त तुम्हारे शरीर से जो रस निकलता हैं और उसका जो भाग हत्यार को चिपकके रहता हैं और मिट्टीमे गिर जाता हैं वो घास में मिश्रित ना हो जाए. देवता उसको खाने कि इच्छा कर रहे हैं, बलि का सारा भाग उनको ही मिले)

    १७. ऋग्वेद १-१६-२ “इमाः धानाः घृतऽस्नुवः हरी इति इह उप वक्षतः । इंद्रं सुखऽतमे रथे ॥”
    (घोड़ों को पकाते वक्त सारे सभी दिशाओं से देख रहे हैं, ‘अच्छा सुगंध आ रहा हैं, देवों को अर्पण कीजिये’ ऐसा जो कह रहे हैं, जो मांस भिक्षा कि कामना रखते हैं और वो मिलने के लिए उधर बैठे हुए हैं, उनका भाग भी हमें ही मिले).
    १८. यजुर्वेद ३५-२० “वह वपां जातवेदः पितृभ्यो यत्रैनान्वेत्थ निहितान्पराके । मेदसः कुल्याऽ उप तान्त्स्रवन्तु सत्याऽ एषामाशिषः सं नमन्ताँ स्वाहा ॥”
    (पितरों के लिए आप ख़ास गाय का चमड़ा लेकर जाओ, उस ख़ास चमड़ी से निकलनेवाली वपा का प्रवाह पितरों कि तरफ बहता जाये और उन पितरों के लिए दान करने वालों कि सारी कामनाएं पूरी हो जाये).
    १९. अथर्ववेद १४-२-२२, “यं बल्बजंन्यस्यथ चर्म चोपस्तृणीथन। तदा रोहतु सुप्रजा या कन्यासs विन्दतेपतिम् ॥”
    (आपके द्वारा रखे गए वल्वजा पर और पति को प्राप्त किये हुए कन्या को चमड़ी के बिस्तर पर बिठाना चाहिए।)
    भाषांतर / अनुवाद (डा. एस. एल. सागर).
    संदर्भ : हिंदूंनी केलेले गोमांसभक्षण, (हिन्दुओं द्वारा गोमांसभक्षण) ले. डा. एस. एल. सागर, प्रकाशक सुगावा प्रकाशन, पुणे.

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