औरतों के अधिकार
दूसरी तरफ, औरत के भी अपने अधिकार हैं। कानून के अनुसार वह भरण-पोषण (नफाक़ह) की हकदार है। अगर पति उसे यह मुहैया न करे, तो वह तलाक ले सकती है। यह दहेज़ (महर) की भी हक़दार है, जिसको कुरान की कुछ आयतों (4/24, 33/50) में ”किराया“ (उजूरत) कहा गया है। वह तलाक़ के बाद उसका दावा कर सकती है।
पति की पसंद के बारे में औरत से भी सलाह ली जानी चाहिए। ”एक औरत जिसकी पहले शादी हो चुकी हो (सय्यिव) उसका अपने आप पर बनिस्वत अपने अभिभावकों के अधिक अधिकार है और कुंवारी से भी सलाह ली जानी चाहिए। और उसकी मौन उसकी मंजूरी का द्योतक है“ (3307)। सैद्धांतिक रूप से एक मुस्लिम औरत को अपनी शादी तय करने का खुद अधिकार है। पर व्यवहार में उसके नजदीकी रिश्तेदार, उसके अभिभावक (वली) ही शादी तय करते हैं। पिता और दादा को तो ”बाध्यकारी वली“ कहा जाता है अर्थात् उनका फैसला टाला नहीं जा सकता। कुछ मीमांसकों के अनुसार, पिता या दादा के सिवाय किसी अन्य अभिभावक द्वारा यदि किसी नाबालिग लड़की का विवाह कर दिया गया हो, तो बालिग होने पर वह विवाह-विच्छेद की मांग कर सकती है।
- अहादीस के अनुसार, यह आयत इसलिये नाज़िल हुई आदमी औरतों के साथ अप्राकृतिक मैथुन करते थे। सही बुखारी में लिखा है-”इब्त उमर से यह रवायत पहुंची है के आज आदमी औरतों से अगलाम करते थे। उन के बारे में यह आयत नाजिल हुई।“ तिरमिजी एक अन्य हदीस का हवाला देकर कहते हैं कि यह आयत उमर (जो बाद में खलीफा बने) के उद्धार के लिए उतरी। ”हजरत इब्न अबास फरमाते हैं के हजरत उमर रसूल-अल्लाह के पास आए और अर्ज किया-या रसूल ! मैं हलाक हो गया ! रसूल ने पूछा क्यों। उमर ने अर्ज किया-रात को मैंने अपनी सवारी का रूख बदल दिया। फिर हुजूर पर यह आयत नाजिल हुई।“ (जिल्द 2, पृ0 160)।
author : ram swarup