औरतें और मस्जिदें
औरतें मस्जिद में जा सकती हैं पर वे ”इत्र न लगाये हुए हों“ (893)। यदि वे इत्र लगा सकने में समर्थ हों तो मर्दों को यह विशेषाधिकार वर्जित नहीं है। औरतों से यह भी कहा गया है कि सजदे से सर उठाते समय मर्दों से पहले ऐसा न करें। अनुवादक स्पष्ट करते हैं कि यह हदीस उस समय से सम्बद्ध है, जब मुहम्मद के साथी लोग बहुत गरीब थे और पूरे कपड़े उनके पास नहीं होते थे। निर्देश का हेतु यह था कि इसके पहले कि औरतें सजदे से सर उठायें, इन गरीब लोगों को अपने कपड़े सम्हाल लेने का वक्त मिल जाये (हदीस 883 और टि0 665)।
मुहम्मद ने मोमिनों को हुक्म दिया कि ”अविवाहित औरतों और पर्दानशीन खातूनों को ईद की प्रार्थना में ले जाया जाय और उन्होंने रजस्वला औरतों को मुसलमानों के पूजा-स्थल से दूर रहने का आदेश दिया“ (1932)। किन्तु प्रार्थना में औरतों के शामिल होने के बारे में इस्लामी शरह के नजरिये को समझाते हुए अनुवादक महाशय एक पाद टिप्पणी में बतलाते हैं-”तथ्य यह है कि पाक पैगम्बर यह ज्यादा पसन्द करते थे कि औरतें अपनी प्रार्थनाएं घरों की चारदीवारियों के भीतर अथवा निकटतम मस्जिदों में कर लिया करें“ (टि0 668)।
author : ram swarup